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गणेश चतुर्थी, चौठ चन्द्र ( चौरचन ) पूजा का क्या महत्व है ? मिथिला में चौरचन कैसे मनाया जाता है

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मिथिला में  चौठ चन्द्र  ( चौरचन ) पूजा   का क्या महत्व है | मिथिला में इसका विशेष महत्व क्यों है ? मिथिला में चौरचन कैसे मनाया जाता है 

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भाद्र शुक्ल चतुर्थी तिथि को चंद्रमा को देखना दोष है। इसलिए पूरे भारत में इस दिन चंद्रमा का दर्शन करने से लोग परहेज करजे हैं। कहीं- कहीँ तो इस रोज चंद्रमा के ऊपर ढ़ेला फेंकने की भी परंपरा है।  भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी गणेश चतुर्थी के रुप में मनाई जाती है इसे को भगवान श्रीगणेश चतुर्थी व्रत किए जाने का विधान रहा है. मान्यता है कि इसी तिथि का संबंध भगवान गणेश जी के जन्म से है तथा यह तिथि भगवान गणेश जी को अत्यंत प्रिय है. ज्योतिष में भी श्रीगणेश को चतुर्थी का स्वामी कहा गया है. भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन मिथ्या कलंक देने वाला होता है. इसलिए इस दिन चंद्र दर्शन करना मना होता है. इस चतुर्थी को कलंक चौथ के नाम से भी जाना जाता है.  कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण भी इस तिथि पर चंद्र दर्शन करने के पश्चात मिथ्या कलंक के भागी बने. लेकिन, सिर्फ मिथिला में इसे पूरे उत्साह के साथ पर्व मनाकर पूजा के बाद हाथ में फल लेकर सभी लोग चंद्रमा का दर्शन ¨सह प्रसेन...मंत्र पढ़ते हुए करते हैं।

मिथिलांचल अपनी सभ्यता, संस्कृति व पर्व-त्योहारों की पुनीत परंपरा को लेकर प्रसिद्ध रहा है। वैदिक काल से ही मिथिलांचल में पर्व-त्योहारों की अनुपम परम्परा रही है। इन पर्वों में धार्मिक व ऐतिहासिक मान्यताएं तथा भावनाएं जुड़ी रहती है। यही मान्यताएं हमारी सांस्कृतिक चेतना को अक्षुण्ण रखती है। ऐसे ही पर्वों की सूची में मिथिलांचल का प्रसिद्ध पर्व चौठ चंद्र है। इसे आम बोलचाल की भाषा में चौरचन भी कहा जाता है। भाद्र शुक्ल पक्ष चौठ तिथि को प्रतिवर्ष विधि-विधान के साथ यह पर्व मनाया जाता है।  ऐसी मान्यताएं है कि चौठ चंद्र व्रत की उपासना करने से इच्छित मनोकामना की प्राप्ति होती है। कुछ लोग दरभंगा महाराज द्वारा इस पर्व को शुरू करने की बात कहते हैं। स्कन्द पुराण में भी चौठ-चंद्र पर्व की पद्धति व कथा का वृहत वर्णन किया गया है। यह पर्व सामान्यतः महिलाएं ही करतीं है। अष्टदल अरिपन पर पूजा सामग्रियों को रखकर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ विधिपूर्वक पूजा करतीं है। पूजनोपरांत फल व पकवान व दही के साथ नमः सिंह प्रसेन मवधित सिंहो जाम्बवताहतः सुकुमारक मारोदीह तव व्येषस्यमंक मंत्र के साथ चंद्रमा की आराधना की जाती है। तदुपरांत विसर्जन होता है। इस पर्व में शाम के समय उगते चंद्रमा को फल, दही आदि सामग्रियों के साथ दर्शन किया जाता है। पूजा के दौरान शाम का समय बड़ा मनोहारी लगता है।

 

चौथ कथा 
द्वारिकापुरी में सत्राजित नाम का एक सूर्यभक्त निवास करता था उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने उसे एक अमूल्य मणि प्रदान की. मणि के प्रभाव स्वरुप किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता है और राज्य आपदाओं से मुक्त हो जाता है. एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने राजा उग्रसेन को उक्त मणि प्रदान करने की बात सोची. परंतु सत्राजित इस बात को जान जाता है. इस कारण वह मणि अपने भाई प्रसेन को दे देता है.

परंतु एक बार जब प्रसेन वन में शिकार के लिए जाता है तो वहां सिंह के द्वारा मृत्यु को प्राप्त होता है और सिंह के मुंह में मणि देख कर जांबवंत शेर को मारकर वह मणि पा लेता है, प्रजा को जब जांबवंत के पास उस मणि होने की बात का पता चलता है तो वह इसके लिए कृष्ण को प्रसेन को मारकर मणि लेने की बात करने लगते हैं. इस आरोप का पता जब श्रीकृष्ण को लगता है तो वह बहुत दुखी होते हैं और प्रसेन को ढूंढने के लिए निकल पड़ते हैं.

घने वन में उन्हें प्रसेन के मृत शरीर के पास में सिंह एवं जाम्बवंत के पैरों के निशान दिखाई पड़ते हैं. वह जाम्बवंत के पास पहुँच कर उससे मणि उसके पास होने का कारण पूछते हैं तब जांबवंत उन्हें सारे घटना क्रम की जानकारी देता है. जाम्बवंत अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण से कर देता है और उन्हें स्यमंतक मणि प्रदान करता है.

प्रजा को जब सत्य का पता चलता है तो वह श्री कृष्ण से क्षमा याचना करती है. यद्यपि यह कलंक मिथ्या सिद्ध होता है परन्तु इस दिन चांद के दर्शन करने से भगवान श्री कृष्ण को भी मणि चोरी का कलंक लगा था और श्रीकृष्ण जी को अपमान का भागी बनना पड़्ता है.

 

चतुर्थी पूजन महत्व 
चंद्रमा को देखे बिना अर्ध्य देने का तात्पर्य है कि इस दिन चंद्रमा के दर्शन करने से व्यक्ति कलंक का भागी बनता है. क्योंकि एक बार चंद्रमा ने गणेश जी का मुख देखकर उनका मजाक उड़ाया था इस पर क्रोधित होकर गणेश जी ने चंद्रमा को श्राप दे दिया कि, आज से जो भी तुम्हें देखेगा उसे झूठे अपमान का भागीदार बनना पडे़गा परंतु चंद्रमा के क्षमा याचना करने पर भगवान उन्हें श्राप मुक्त करते हुए कहते हैं कि वर्ष भर में एक दिन भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी को चंद्र दर्शन से कलंक लगने का विधान बना रहेगा.

व्रत से सभी संकट-विघ्न दूर होते हैं.  चतुर्थी का संयोग गणेश जी की उपासना में अत्यन्त शुभ एवं सिद्धिदायक होता है. चतुर्थी का माहात्म्य यह है कि इस दिन विधिवत् व्रत करने से श्रीगणेश तत्काल प्रसन्न हो जाते हैं. चतुर्थी का व्रत विधिवत करने से व्रत का सम्पूर्ण पुण्य प्राप्त हो जाता है.

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मिथिला में चौरचन मनाने की परंपरा और सुरुआत 

16 वीं शताब्दी से ही मिथिला में ये लोक पर्व मनाया जा रहा है। मिथिला नरेश महाराजा हेमांगद ठाकुर के कलंक मुक्त होने के अवसर पर महारानी हेमलता ने कलंकित चांद को पूजने की परंपरा शुरु की, जो बाद में मिथिला का लोकपर्व बन गया।  छठ पर्व की तरह ही हर जाति हर वर्ग के लोग इस पर्व को हर्षोल्लाष पूर्वक मानते हैं। छठ में जहाँ हम सूर्य की पूजा करते हैं, वहीं इस दिन हम चन्द्रमा की पूजा करते हैं। कहते हैं कि इसदिन चन्द्रमा का दर्शन खाली हाथ नहीं करना चाहिए। यथासंभव हाथ में फल अथवा मिठाई लेकर चन्द्र दर्शन करने से मनुष्य का जीवन दोषमुक्त व कलंकमुक्त हो जाता है।


चौरचन की शुरुआत के पीछे की कहानी यह है कि मुगल बादशाह अकबर ने तिरहुत की नेतृत्वहीनता और अराजकता को खत्म करने के लिए 1556 में महेश ठाकुर को मिथिला का राज सौंपा। बडे भाई गोपाल ठाकुर के निधन के बाद 1568 में हेमांगद ठाकुर मिथिला के राजा बने, लेकिन उन्हें राजकाज में कोई रुचि नहीं थी। उनके राजा बनने के बाद लगान वसूली में अनियमितता को लेकर दिल्ली तक शिकायत पहुंची। राजा हेमांगद ठाकुर को दिल्ली तलब किया गया। दिल्ली का सुल्तान यह मानने को तैयार नहीं था कि कोई राजा पूरे दिन पूजा और अध्य‍यन में रमा रहेगा और लगान वसूली के लिए उसे समय ही नहीं मिलेगा। लगान छुपाने के आरोप में हेमानंद को जेल में डाल दिया गया।

 
कारावास में हेमांगद पूरे दिन जमीन पर गणना करते रहते थे। पहरी पूछता था तो वो चंद्रमा की चाल समझने की बात कहते थे। धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी कि हेमांगद ठाकुर की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है और इन्हें इलाज की जरुरत है। यह सूचना पाकर बादशाह खुद हेमांगद को देखने कारावास पहुंचे। जमीन पर अंकों और ग्रहों के चित्र देख पूछा कि आप पूरे दिन यह क्या लिखते रहते हैं। हेमांगद ने कहा कि यहां दूसरा कोई काम था नहीं सो ग्रहों की चाल गिन रहा हूं। करीब 500 साल तक लगनेवाले ग्रहणों की गणाना पूरी हो चुकी है। बादशाह अकबर ने तत्काल हेमांगद को ताम्रपत्र और कलम उपलब्ध कराने का आदेश दिया और कहा कि अगर आपकी भविष्यवाणी सही निकली, तो आपकी सजा माफ़ कर दी जाएगी।

हेमांगद ने बादशाह को माह, तारीख और समय बताया। उन्होंने चंद्रग्रहण की भविष्यवाणी की थी। उनके गणना के अनुसार चंद्रग्रहण लगा और बादशाह ने उनकी सजा माफ़ कर दी। जेल से रिहा होने के बाद हेमांगद ठाकुर जब मिथिला आये तो महारानी हेमलता ने कहा कि आज चांद कलंकमुक्त हो गये हैं, हम उनका दर्शन और पूजा करेंगे। इसी मत के साथ मिथिला के लोगों ने भी अपना राज्य और अपने राजा की वापसी की ख़ुशी में चतुर्थी चन्द्र की पूजा प्रारम्भ की।


 
आज ये मिथिला के बाहर भी मनाया जाता है और एक लोक पर्व बन चुका है। व्रती पूरे दिन का उपवास रखते हैं। शाम को अपने सुविधानुसार घर के आँगन या छत पर चिकनी मिट्टी या गाय के गोबर से नीप कर पीठार से अरिपन दिया जाता है। पूरी-पकवान, फल, मिठाई, दही इत्यादि को अरिपन पर सजाया जाता है और हाथ में उठकर चंद्रमा का दर्शन कर उन्हें भोग लगाया जाता है।-

 

वैसे मिथिला के अलावा पूरे भारत में इस दिन चांद देखना निषेद माना गया है। वेद-शाश्त्रों के अनुसार इस दिन चंद्र दर्शन अशुभ माना जाता है। श्री कृष्णा को स्मयंतक मणि चोरी करने का कलंक लगा था, यह मणि प्रसेन ने चुराई थी। एक सिंह ने प्रसेन को मार दिया था फिर जामवंत ने उस सिंह का वध कर वह मणि हासिल किया था। इसके बाद श्री कृष्णा ने जामवंत को युद्ध में पराजित कर इस मणि को हासिल कर कलंकमुक्त हुए थे।

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