भूगोल (Geography) क्या है, यह कितने प्रकार का होता है...?
भूगोल (Geography) क्या है, यह कितने प्रकार का होता है...?
हमारे जीवन पर भूगोल से क्या सम्बन्ध है
Economic Geography
Geology
Human Geography
Physical Geography
- asked 7 years ago
- Sunny Solu
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भूगोल (Geography)
भूगोल ज्ञान की वह शाखा है जिसमें भूतल पर तथ्यों के स्थानिक वितरण, पारस्परिक संबंधों तथा उनके साथ मानवीय अंतर्क्रियाओं का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है। यह मूलतः तथ्यों के क्षेत्रीय वितरण तथा स्थानिक भिन्नताओं के अध्ययन से संबंधित विज्ञान है।
तथ्यों की प्रकृति के अनुसार को दो प्रधान शाखाओं में विभक्त किया जाता है- भौतिक भूगोल (Physical geography), और मानव भूगोल (HUMAN GEOGRAPHY) । भौतिक भूगोल में प्राकृतिक तथ्यों जैसे शैल, भूकंप, ज्वालामुखी, उच्चावच, संरचना, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति एवं जीव-जंतु, वायुमंडलीय तथा सागरीय दशाओं आदि का अध्ययन किया जाता है। अध्ययन क्षेत्र के आधार पर भौतिक भूगोल की चार प्रमुख शाखाएं हैं- भू-आकृति विज्ञान (स्थलमंडल), जलवायु विज्ञान (वायुमंडल), समुद्र विज्ञान (जलमंडल), और जीव भूगोल (जीव मंडल) ।
मानव भूगोल में मानवीय तथ्यों जैसे मानव प्रजाति, जनसंख्या, मानव व्यवसाय, अधिवास, अंतर्राष्ट्रीय संबंध आदि का अध्ययन सम्मिलित होता है।
भूगोल (Geography) प्राकृतिक विज्ञानों के निष्कर्षों के बीच कार्य-कारण संबंध स्थापित करते हुए पृथ्वीतल की विभिन्नताओं का मानवीय दृष्टिकोण से अध्ययन ही भूगोल का सार तत्व है। पृथ्वी की सतह पर जो स्थान विशेष हैं उनकी समताओं तथा विषमताओं का कारण और उनका स्पष्टीकरण भूगोल का निजी क्षेत्र है।
भूगोल एक ओर अन्य श्रृंखलाबद्ध विज्ञानों से प्राप्त ज्ञान का उपयोग उस सीमा तक करता है जहाँ तक वह घटनाओं और विश्लेषणों की समीक्षा तथा उनके संबंधों के यथासंभव समुचित समन्वय करने में सहायक होता है। दूसरी ओर अन्य विज्ञानों से प्राप्त जिस ज्ञान का उपयोग भूगोल करता है, उसमें अनेक व्युत्पत्तिक धारणाएँ एवं निर्धारित वर्गीकरण होते हैं। यदि ये धारणाएँ और वर्गीकरण भौगोलिक उद्देश्यों के लिये उपयोगी न हों, तो भूगोल को निजी व्युत्पत्तिक धारणाएँ तथा वर्गीकरण की प्रणाली विकसित करनी होती है।
अत: भूगोल मानवीय ज्ञान की वृद्धि में तीन प्रकार से सहायक होता है:
(क) विज्ञानों से प्राप्त तथ्यों का विवेचन करके मानवीय वासस्थान के रूप में पृथ्वी का अध्ययन करता है।
(ख) अन्य विज्ञानों के द्वारा विकसित धारणाओं में अंतर्निहित तथ्य की परीक्षा का अवसर देता है, क्योंकि भूगोल उन धारणाओं का स्थान विशेष पर प्रयोग कर सकता है।
(ग) यह सार्वजनिक अथवा निजी नीतियों के निर्धारण में अपनी विशिष्ट पृष्टभूमि प्रदान करता है, जिसके आधार पर समस्याओं का सप्ष्टीकरण सुविधाजनक हो जाता है।
भूगोल के दो प्रधान अंग है : श्रृंखलाबद्ध भूगोल तथा प्रादेशिक भूगोल। पृथ्वी के किसी स्थानविशेष पर श्रृंखलाबद्ध भूगोल की शाखाओं के समन्वय को केंद्रित करने का प्रतिफल प्रादेशिक भूगोल है।
भूगोल एक प्रगतिशील विज्ञान है। प्रत्येक देश में विशेषज्ञ अपने अपने क्षेत्रों का विकास कर रहे हैं। फलत: इसकी निम्नलिखित अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हो गई है :
A भौतिक भूगोल -- इसके भिन्न भिन्न शास्त्रीय अंग स्थलाकृति, हिम-क्रिया-विज्ञान, तटीय स्थल रचना, भूस्पंदनशास्त्र, समुद्र विज्ञान, वायु विज्ञान, मृत्तिका विज्ञान, जीव विज्ञान, चिकित्सा या भैषजिक भूगोल तथा पुरालिपि शास्त्र हैं।
B आर्थिक भूगोल-- इसकी शाखाएँ कृषि, उद्योग, खनिज, शक्ति तथा भंडार भूगोल और भू उपभोग, व्यावसायिक, परिवहन एवं यातायात भूगोल हैं। अर्थिक संरचना संबंधी योजना भी भूगोल की शाखा है।
C मानव भूगोल -- इसके प्रधान अंग वातावरण, जनसंख्या, आवासीय भूगोल, ग्रामीण एवं शहरी अध्ययन के भूगोल हैं।
D प्रादेशिक भूगोल -- इसके दो मुख्य क्षेत्र हैं प्रधान तथा सूक्ष्म प्रादेशिक भूगोल।
E राजनीतिक भूगोल -- इसके अंग भूराजनीतिक शास्त्र, अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, औपनिवेशिक भूगोल, शीत युद्ध का भूगोल, सामरिक एवं सैनिक भूगोल हैं।
F ऐतिहासिक भूगोल --प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक वैदिक, पौराणिक, इंजील संबंधी तथा अरबी भूगोल भी इसके अंग है।
G रचनात्मक भूगोल-- इसके भिन्न भिन्न अंग रचना मिति, सर्वेक्षण आकृति-अंकन, चित्रांकन, आलोकचित्र, कलामिति (फोटोग्रामेटरी) तथा स्थाननामाध्ययन हैं।
इसके अतिरिक्त भूगोल के अन्य खंड भी विकसित हो रहे हैं जैसे ग्रंथ विज्ञानीय, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, गणित शास्त्रीय, ज्योतिष शास्त्रीय एवं भ्रमण भूगोल तथा स्थाननामाध्ययन हैं।
प्राचीन धारणाएँ सृष्टि तथा मानव की उत्पत्ति से भूगोल का संबंध है। भौगोलिक धारणाओं की उत्पत्ति मनुष्य के शब्दों में वर्तमान थी जो तदुपरांत वाक्यों में लिखी गई है। वैदिक काल में भूगोल वैदिक रचनाओं के रूप में मिलता है। ब्रह्मांड, पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, अकाश, सूर्य, नक्षत्र तथा राशियों का विवरण वेदों पूराणों और अन्य ग्रंथों में दिया ही गया है किंतु इतस्तत: उन ग्रंथों में सांस्कृतिक तथा मानव भूगोल की छाया मिलती है। भारत में अन्य शास्त्रों के साथ साथ ज्योतिष, ज्यामिति तथा खगोल भूगोल का भी विकास हुआ था जिनकी झलक प्राचीन खंडहरों या अवशेष ग्रंथों में मिलती है। महाकाव्य काल में सामरिक, सांस्कृतिक एवं वायु परिवहन भूगोल के विकास के संकेत हैं।
यूनान के दार्शनिकों ने भूगोल के सिद्धांतों की चर्चा की थी। ईसा के ९०० वर्ष होमर ने बतलाया था कि पृथ्वी चौड़े थाल के समान और ऑसनस नदी से घिरी हुई है। मिलेटस के थेल्स ने सर्वप्रथम बतलाया कि पृथ्वी मंडलाकार है। पाइथैगोरियन संप्रदाय के दार्शनिकों ने मंडलाकार पृथ्वी के सिद्धांत को मान लिया था क्योंकि मंडलाकार पृथ्वी ही मनुष्य के समुचित वासस्थान के योग हैं पारमेनाइड्स (४५० ई० पू०) ने पृथ्वी की जलवायु की समांतर कटिबंधों की ओर संकेत किया था यह भी बतलाया था कि उष्णकटिबंध गरमी के कारण तथा शीत कटिबंध शीत के कारण वासस्थान के योग्य नहीं है, किंतु दो माध्यमिक समशीतोष्ण कटिबंध आवासीय हैं।
एच० एफ० टॉजर ने हेकाटियस (५०० ई० पू०) को भूगोल का पिता माना था जिसने स्थल भाग को सागरों से घिरा हुआ माना तथा दो महादेशों का ज्ञान दिया।
अरस्तु (Aristotle) (३८४-३२२ ई० पू०) वैज्ञानिक भूगोल का जन्मदाता था। उसके अनुसार मंडलाकार पृथ्वी के तीन कारण थे (क) पदार्थो का उभय केंद्र की ओर गिरना, (ख) ग्रहण में मंडल ही चंद्रमा पर गोलाकार छाया प्रतिबिंबित कर सकता है तथा (ग) उत्तर से दक्षिण चलने पर क्षितिज का स्थानांतरण और नयी नयी नक्षत्र राशियों का उदय होना। अरस्तु ने ही पहले पहल समशीतोष्ण कटिबंध की सीमा क्रांतिमंडल से ्घ्राुव वृत्त तक निश्चित की थी।
इरैटोस्थनीज (२५० ई० पू०) ने भूगोल शब्द का पहले पहल उपयोग किया था तथा ग्लोब का मापन किया था। यह सत्य है कि अरस्तू को डेल्टा निर्माण, तट अपक्षरण तथा पौधों और जानवरों का प्राकृतिक वातावरण पर निर्भरता का ज्ञान था। इन्होंने अक्षांश और ऋतु के साथ जलवायु के अंतर के सिद्धांत तथा समुद्र और नदियों में जल प्रवाह की धारणा का भी संकेत किया था। इनका यह भी विमर्श था कि जनजाति के लक्षण में अंतर जलवायु में विभिन्नता के कारण है और राजनीतिक समुदाय रचना स्थान विशेष के कारण होता है, जैसे समुद्रतट या प्राकृतिक प्रभावशाली क्षेत्र में।
रोमन भूगोल वेत्ताओं का भी प्रारंभिक ज्ञान देने में हाथ रहा है। स्ट्राबो (५० ई० पू० -१४ई०) ने भूमध्य सागर के निकटस्थ परिभ्रमन के अधार पर भूगोल की रचना की। पोंपोनियस मेला (४० ई०) ने बतलाया कि दक्षिणी समशीतोष्ण कटिबंध में अवासीय स्थान है जिसे इन्होंने एंटीकथोंस (Antichthones) विशेषण दिया। १५० ई० में क्लाउडियस टोलेमियस ने ग्रीस की भौगोलिक धारणाओं के आधार पर अपनी रचना की। अरब भूगोल तथा आधुनिक समय में इस विज्ञान का प्रारंभ क्लाउडियस की विचारधारा पर ही निर्धारित है। टोलमी ने किसी स्थान के अक्षांश और देशांतर का निर्णय किया तथा स्थल या समुद्र की दूरी में सुधार किया तथा इसकी स्थिति ऐटलैंटिक महासागर से पृथक निर्णीत की।
फोनेशियंस (१००० ई० पू०) को, जिन्हें 'आदिकाल के पादचारी' कहते हैैं, स्थान तथा उपज की प्रादेशिक विभिन्नताओं का ज्ञान था। होमर के ओडेसी (८०० ई० पू०) से यह विदित है कि प्राचीन संसार में सुदूर स्थानों में कहीं आबादी अधिक और कहीं कम क्यों थी।
मध्यकालीन धारणाएँ - ईसाई जगत् में भौगोलिक धारणाएँ जाग्रतावस्था में नहीं थीं किंतु मुस्लिम जगत् में ये जाग्रतावस्था में थीं। भौगोलिक विचारों का अरब के लोगो ने यूरोपवासियों से अधिक विस्तार किया। नवीं से चौदहवीं शताब्दी तक पूर्वी संसार में व्यापारियों और पर्यटकों ने अनेक देशों का सविस्तार वर्णन किया। टोलमी (८१५ई०) के भूगोल की अरब के लोगों को जानकारी थी। अरबी ज्योतिषशास्त्रीयों ने मैसापोटामिया के मैदान के एक अंश के बीच की दूरी मापी और उसके आधार पर पृथ्वी के विस्तार का निर्णय किया। आबू जफ़र मुहम्मद बिन मूशा ने टोलमी के आदर्श पर भौगोलिक ग्रंथ लिखा जिसका अब कोई चिन्ह नहीं मिलता। गणित एवं ज्योतिष में प्रवीण अरब विद्वानों ने मक्का की स्थिति के अनुसार शुद्ध अक्षांशो का निर्णय किया।
आधुनिक धारणाएँ - पंद्रहवीं शताब्दी के अंत तथा सोलहवीं शती के प्रारंभ में मैगेलैन तथा ड्रेक ने ऐटलैंटिक तथा प्रशांत महासागरों के स्थलों क पता लगाया तथ संसार का परिभ्रमण किया। स्पेन, पुर्तगाल, हॉलैंड के समन्वेषकों ने संसार के नए स्थलों को खोजा। नवीन संसार की सीमा निश्चित की गई। १६वीं और १७वीं शताब्दियों में विस्तार, स्थिति, पर्वतो तथा नदी प्रणालियों के ज्ञान की सूची बढ़ती गई जिनका श्रृंखलाबद्ध रूप मानचित्रकारों न दिया। इस क्षेत्र में मर्केटर का नाम विशेष उल्लेखनीय है मर्केटर प्रक्षेपण तथा अन्य प्रक्षणों के विकास के साथ भूगोल का प्रसार हुआ।
बरनार्ड भरेन (भरेनियस) ने १६३० ई० में ऐम्सटरडैम में ज्योग्रफिया जेनरलिस (Geographia Generalis) ग्रंथ लिखा २८ वर्ष की अवस्था में इस जर्मन डाक्टर लेखक की मृत्यु सन् १६५० में हुई। इस ग्रंथ में संसार के मनुष्यों के श्रृखंलाबद्ध दिगंतर का सर्वप्रथम विश्लेषण किया गया। भरेन ने भूगोल का वर्गीकरण इस प्रकार किया है।
१८वीं शताब्दी में भूगोल के सिद्धांतों का विकास हुआ। इस शताब्दी के भूगोलवेत्ताओं में इमानुअल कांट की धारणा सराहनीय है। कांट ने भूगोल के पाँच खंड किए : (१) गणितीय भूगोल-सौर परिवार में पृथ्वी की स्थिति तथा इसका रूप, अकार, गति का वर्णन; (२) नैतिक भूगोल -- मानवजाति के आवासीय क्षेत्र पर निर्धारित रीति रिवाज तथा लक्षण का वर्णन; (३) राजनीतिक भूगोल -- संगठित शासनानुसार विभाजन; (४) वाणिज्य भूगोल (Mercantile Geography)-- देश के बचे हुए उपज के व्यापार का भूगोल; तथा (५) धार्मिक भूगोल (Theological Geography) धर्मो के वितरण का भूगोल।
कांट के अनुसार भौतिक भूगोल के दो खंड है (क) सामान्य पृथ्वी, जलवायु और स्थल, (ख) विशिष्ट मानवजाति, जंतु, वनस्पति तथा खनिज।
उन्नीसवीं शताब्दी भूगोल का अभ्युदय काल है तो बीसवीं विस्तार एवं विशिष्टता का । अलेक्जैंडर फॉन या वॉन हंबोल्ट (१७६९-१८५६) तथा कार्ल रिटर (१७७९-१८५९) प्रकृति और मनुष्य की एकता को समझाने में संलग्न थे। यह दोनों का उभयक्षेत्र था। एक ओर हंबोल्ट की खोज स्थलक्षेत्र तथा संकलन में भौतिक भूगोल की ओर केंद्रित थी तो दूसरी ओर रिटर मानव भूगोल के क्षेत्र में शिष्टता रखते थे। दोनो भूगोलज्ञों ने आधुनिक भूगोल का वैज्ञानिक तथा दार्शनिक आधारों पर विकास किया। दोनों की खोज पर्यटन अनुभव पर आधारित थी। दोनों विशिष्ट एवं प्रभावशाली लेखक थें किंतु दोनों में विषयांतर होने के कारण ध्येय और शैली विभिन्न थी। हंबोल्ट ने १७९३ ई में कॉसमॉस (Cosmos) और रिटर ने अर्डकुंडे (Erdkunde) ग्रंथों की रचना की। अर्डकुंडे २१ भागों में था। वातावरण के सिद्धांत की उत्पत्ति पृथ्वी के अद्वितीय तथ्य मानव आवास की पहेली सुलझाने में हुई है। मनुष्य वातावरण का दास है या वातावरण मनुष्य को मॉन्टेसकीऊ (१७४८) तथा हरडर (१७८४-१७९१) का संकल्पवादी सिद्धांत, सर चार्ल्स लाइल (१८३०-३२) का विकासवाद विचार, चार्ल्स डारविन का ओरिजन ऑव स्पीशीज (Origin of Species, 1859) के सारतत्व हांबोल्ट की रचना में निहित है। मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन में प्राकृतिक वातावरण की प्रधानता है किंतु किसी भी लेखक ने विश्वास नहीं किया कि प्रकृति के अधिनायकत्व में मनुष्य सर्वोपरि रहा।
रेटजेल (१८४४-१९०४) की रचना मानव भूगोल (Anthropogeographe) अपने क्षेत्र में असाधारण है। कुमारी सेंपुल (१८६३-१९३२) की रचनाओं जैसे 'भौगोलिक वातावरण के प्रभाव' 'अमरीकी इतिहास तथा उसकी भौगोलिक स्थिति' तथा 'भूमध्यसागरीय प्रदेश का भूगोल' से ऐतिहासिक तथा खौगोलिक तथ्यों का पूर्णश् ज्ञान होता है। इल्सवर्थ हटिंगटन (१८७६-१९४७) के 'भूगोल का सिद्धांत एवं दर्शन', 'पीपुल्स ऑव एशिया', 'प्रिंस्पुल ऑव ह्यूमैन ज्यॉग्रफी', 'मेन्सस्प्रिंग्स ऑव सिविलाइजेशन' में मिलते हैं।
मिडा डी ला ब्लासी (१८४५-१९१८) तथा जीन ब्रूनहेज (१८६९-१९३०) ने मानव भूगोल की रचना की। भूगोल की विभिन्न शाखाओं के अध्ययन में आज सैकड़ों भूगोलवेत्ता संसार के विभिन्न भागों में लगे हुए हैं।
भारत में भूगोल का अध्ययन बीसवीं सदी में ही विशेष रूप से प्रारंभ में हुआ और आज सैकड़ों भूगोलवेत्ता इसमें लगे हूए हैं। इनमें कुछ लोगों ने अपनी विद्वत्ता के कारण विश्व में ख्याति प्राप्त की है। अनेक विश्वविद्यालयों में इसकेश् अध्ययन का आज समुचित प्रबंध है।
अनेक संस्थाएँ भूगोल के अध्ययन और शोध के लिये स्थापितश् हुई है और अनेक उत्कृष्ट कोटि की पत्रपत्रिकाएँ देश के विभिन्न भागों से प्रकाशित हो रही है। भूगोल के संबंध में प्रति वर्ष विभिन्न विश्वविद्यालयों में सम्मेलन भी होते रहे हैं जिनमें उच्च कोटि के मौलिक निबंध पढ़े जाते है। भौगोलिक अनुसंधान में भारत अब अन्य देशों से पिछड़ा नहीं है। मीरा गुहा, जी० एस० गोशल, यू० सिंह, पी० के० सरकार, इत्यादि ने अपने क्षेत्रों में अग्रिम एवं असाधारण शोध किया है।
भारत में भूगोल की शिक्षा -- भारत में भूगोल की शिक्षा भिन्न भिन्न स्तरों में दी जाती है। यहाँ के प्राय: सभी विश्वविद्यालयों में उत्तरस्नातक वर्ग की शिक्षा दी जाती है।
तथ्यों की प्रकृति के अनुसार को दो प्रधान शाखाओं में विभक्त किया जाता है- भौतिक भूगोल (Physical geography), और मानव भूगोल (HUMAN GEOGRAPHY) । भौतिक भूगोल में प्राकृतिक तथ्यों जैसे शैल, भूकंप, ज्वालामुखी, उच्चावच, संरचना, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति एवं जीव-जंतु, वायुमंडलीय तथा सागरीय दशाओं आदि का अध्ययन किया जाता है। अध्ययन क्षेत्र के आधार पर भौतिक भूगोल की चार प्रमुख शाखाएं हैं- भू-आकृति विज्ञान (स्थलमंडल), जलवायु विज्ञान (वायुमंडल), समुद्र विज्ञान (जलमंडल), और जीव भूगोल (जीव मंडल) ।
मानव भूगोल में मानवीय तथ्यों जैसे मानव प्रजाति, जनसंख्या, मानव व्यवसाय, अधिवास, अंतर्राष्ट्रीय संबंध आदि का अध्ययन सम्मिलित होता है।
भूगोल (Geography) प्राकृतिक विज्ञानों के निष्कर्षों के बीच कार्य-कारण संबंध स्थापित करते हुए पृथ्वीतल की विभिन्नताओं का मानवीय दृष्टिकोण से अध्ययन ही भूगोल का सार तत्व है। पृथ्वी की सतह पर जो स्थान विशेष हैं उनकी समताओं तथा विषमताओं का कारण और उनका स्पष्टीकरण भूगोल का निजी क्षेत्र है।
भूगोल एक ओर अन्य श्रृंखलाबद्ध विज्ञानों से प्राप्त ज्ञान का उपयोग उस सीमा तक करता है जहाँ तक वह घटनाओं और विश्लेषणों की समीक्षा तथा उनके संबंधों के यथासंभव समुचित समन्वय करने में सहायक होता है। दूसरी ओर अन्य विज्ञानों से प्राप्त जिस ज्ञान का उपयोग भूगोल करता है, उसमें अनेक व्युत्पत्तिक धारणाएँ एवं निर्धारित वर्गीकरण होते हैं। यदि ये धारणाएँ और वर्गीकरण भौगोलिक उद्देश्यों के लिये उपयोगी न हों, तो भूगोल को निजी व्युत्पत्तिक धारणाएँ तथा वर्गीकरण की प्रणाली विकसित करनी होती है।
अत: भूगोल मानवीय ज्ञान की वृद्धि में तीन प्रकार से सहायक होता है:
(क) विज्ञानों से प्राप्त तथ्यों का विवेचन करके मानवीय वासस्थान के रूप में पृथ्वी का अध्ययन करता है।
(ख) अन्य विज्ञानों के द्वारा विकसित धारणाओं में अंतर्निहित तथ्य की परीक्षा का अवसर देता है, क्योंकि भूगोल उन धारणाओं का स्थान विशेष पर प्रयोग कर सकता है।
(ग) यह सार्वजनिक अथवा निजी नीतियों के निर्धारण में अपनी विशिष्ट पृष्टभूमि प्रदान करता है, जिसके आधार पर समस्याओं का सप्ष्टीकरण सुविधाजनक हो जाता है।
भूगोल के दो प्रधान अंग है : श्रृंखलाबद्ध भूगोल तथा प्रादेशिक भूगोल। पृथ्वी के किसी स्थानविशेष पर श्रृंखलाबद्ध भूगोल की शाखाओं के समन्वय को केंद्रित करने का प्रतिफल प्रादेशिक भूगोल है।
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भूगोल |
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श्रृंखलाबद्ध भूगोल |
प्रादेशिक भूगोल |
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समाज शास्त्र राजनीति शास्त्र अर्थशास्त्र जनशास्त्र |
सामाजिक भूगोल राजनैतिक भूगोल आर्थिक भूगोल जनशास्त्रीय भूगोल |
सामाजिक विज्ञान |
मानवशरीर शास्त्र जंतु शास्त्र वनस्पति शास्त्र |
जनजाति भूगोल जंतु भूगोल वनस्पति भूगोल |
प्राणि विज्ञान |
भूगर्भ शास्त्र मृत्तिका शास्त्र अंतरिक्ष शास्त्र |
स्थलाकृति मिट्टी शास्त्र जलवायु |
भौतिक विज्ञान |
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श्रृंखलाबद्ध विज्ञान |
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भूगोल एक प्रगतिशील विज्ञान है। प्रत्येक देश में विशेषज्ञ अपने अपने क्षेत्रों का विकास कर रहे हैं। फलत: इसकी निम्नलिखित अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हो गई है :
A भौतिक भूगोल -- इसके भिन्न भिन्न शास्त्रीय अंग स्थलाकृति, हिम-क्रिया-विज्ञान, तटीय स्थल रचना, भूस्पंदनशास्त्र, समुद्र विज्ञान, वायु विज्ञान, मृत्तिका विज्ञान, जीव विज्ञान, चिकित्सा या भैषजिक भूगोल तथा पुरालिपि शास्त्र हैं।
B आर्थिक भूगोल-- इसकी शाखाएँ कृषि, उद्योग, खनिज, शक्ति तथा भंडार भूगोल और भू उपभोग, व्यावसायिक, परिवहन एवं यातायात भूगोल हैं। अर्थिक संरचना संबंधी योजना भी भूगोल की शाखा है।
C मानव भूगोल -- इसके प्रधान अंग वातावरण, जनसंख्या, आवासीय भूगोल, ग्रामीण एवं शहरी अध्ययन के भूगोल हैं।
D प्रादेशिक भूगोल -- इसके दो मुख्य क्षेत्र हैं प्रधान तथा सूक्ष्म प्रादेशिक भूगोल।
E राजनीतिक भूगोल -- इसके अंग भूराजनीतिक शास्त्र, अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, औपनिवेशिक भूगोल, शीत युद्ध का भूगोल, सामरिक एवं सैनिक भूगोल हैं।
F ऐतिहासिक भूगोल --प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक वैदिक, पौराणिक, इंजील संबंधी तथा अरबी भूगोल भी इसके अंग है।
G रचनात्मक भूगोल-- इसके भिन्न भिन्न अंग रचना मिति, सर्वेक्षण आकृति-अंकन, चित्रांकन, आलोकचित्र, कलामिति (फोटोग्रामेटरी) तथा स्थाननामाध्ययन हैं।
इसके अतिरिक्त भूगोल के अन्य खंड भी विकसित हो रहे हैं जैसे ग्रंथ विज्ञानीय, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, गणित शास्त्रीय, ज्योतिष शास्त्रीय एवं भ्रमण भूगोल तथा स्थाननामाध्ययन हैं।
प्राचीन धारणाएँ सृष्टि तथा मानव की उत्पत्ति से भूगोल का संबंध है। भौगोलिक धारणाओं की उत्पत्ति मनुष्य के शब्दों में वर्तमान थी जो तदुपरांत वाक्यों में लिखी गई है। वैदिक काल में भूगोल वैदिक रचनाओं के रूप में मिलता है। ब्रह्मांड, पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, अकाश, सूर्य, नक्षत्र तथा राशियों का विवरण वेदों पूराणों और अन्य ग्रंथों में दिया ही गया है किंतु इतस्तत: उन ग्रंथों में सांस्कृतिक तथा मानव भूगोल की छाया मिलती है। भारत में अन्य शास्त्रों के साथ साथ ज्योतिष, ज्यामिति तथा खगोल भूगोल का भी विकास हुआ था जिनकी झलक प्राचीन खंडहरों या अवशेष ग्रंथों में मिलती है। महाकाव्य काल में सामरिक, सांस्कृतिक एवं वायु परिवहन भूगोल के विकास के संकेत हैं।
यूनान के दार्शनिकों ने भूगोल के सिद्धांतों की चर्चा की थी। ईसा के ९०० वर्ष होमर ने बतलाया था कि पृथ्वी चौड़े थाल के समान और ऑसनस नदी से घिरी हुई है। मिलेटस के थेल्स ने सर्वप्रथम बतलाया कि पृथ्वी मंडलाकार है। पाइथैगोरियन संप्रदाय के दार्शनिकों ने मंडलाकार पृथ्वी के सिद्धांत को मान लिया था क्योंकि मंडलाकार पृथ्वी ही मनुष्य के समुचित वासस्थान के योग हैं पारमेनाइड्स (४५० ई० पू०) ने पृथ्वी की जलवायु की समांतर कटिबंधों की ओर संकेत किया था यह भी बतलाया था कि उष्णकटिबंध गरमी के कारण तथा शीत कटिबंध शीत के कारण वासस्थान के योग्य नहीं है, किंतु दो माध्यमिक समशीतोष्ण कटिबंध आवासीय हैं।
एच० एफ० टॉजर ने हेकाटियस (५०० ई० पू०) को भूगोल का पिता माना था जिसने स्थल भाग को सागरों से घिरा हुआ माना तथा दो महादेशों का ज्ञान दिया।
अरस्तु (Aristotle) (३८४-३२२ ई० पू०) वैज्ञानिक भूगोल का जन्मदाता था। उसके अनुसार मंडलाकार पृथ्वी के तीन कारण थे (क) पदार्थो का उभय केंद्र की ओर गिरना, (ख) ग्रहण में मंडल ही चंद्रमा पर गोलाकार छाया प्रतिबिंबित कर सकता है तथा (ग) उत्तर से दक्षिण चलने पर क्षितिज का स्थानांतरण और नयी नयी नक्षत्र राशियों का उदय होना। अरस्तु ने ही पहले पहल समशीतोष्ण कटिबंध की सीमा क्रांतिमंडल से ्घ्राुव वृत्त तक निश्चित की थी।
इरैटोस्थनीज (२५० ई० पू०) ने भूगोल शब्द का पहले पहल उपयोग किया था तथा ग्लोब का मापन किया था। यह सत्य है कि अरस्तू को डेल्टा निर्माण, तट अपक्षरण तथा पौधों और जानवरों का प्राकृतिक वातावरण पर निर्भरता का ज्ञान था। इन्होंने अक्षांश और ऋतु के साथ जलवायु के अंतर के सिद्धांत तथा समुद्र और नदियों में जल प्रवाह की धारणा का भी संकेत किया था। इनका यह भी विमर्श था कि जनजाति के लक्षण में अंतर जलवायु में विभिन्नता के कारण है और राजनीतिक समुदाय रचना स्थान विशेष के कारण होता है, जैसे समुद्रतट या प्राकृतिक प्रभावशाली क्षेत्र में।
रोमन भूगोल वेत्ताओं का भी प्रारंभिक ज्ञान देने में हाथ रहा है। स्ट्राबो (५० ई० पू० -१४ई०) ने भूमध्य सागर के निकटस्थ परिभ्रमन के अधार पर भूगोल की रचना की। पोंपोनियस मेला (४० ई०) ने बतलाया कि दक्षिणी समशीतोष्ण कटिबंध में अवासीय स्थान है जिसे इन्होंने एंटीकथोंस (Antichthones) विशेषण दिया। १५० ई० में क्लाउडियस टोलेमियस ने ग्रीस की भौगोलिक धारणाओं के आधार पर अपनी रचना की। अरब भूगोल तथा आधुनिक समय में इस विज्ञान का प्रारंभ क्लाउडियस की विचारधारा पर ही निर्धारित है। टोलमी ने किसी स्थान के अक्षांश और देशांतर का निर्णय किया तथा स्थल या समुद्र की दूरी में सुधार किया तथा इसकी स्थिति ऐटलैंटिक महासागर से पृथक निर्णीत की।
फोनेशियंस (१००० ई० पू०) को, जिन्हें 'आदिकाल के पादचारी' कहते हैैं, स्थान तथा उपज की प्रादेशिक विभिन्नताओं का ज्ञान था। होमर के ओडेसी (८०० ई० पू०) से यह विदित है कि प्राचीन संसार में सुदूर स्थानों में कहीं आबादी अधिक और कहीं कम क्यों थी।
मध्यकालीन धारणाएँ - ईसाई जगत् में भौगोलिक धारणाएँ जाग्रतावस्था में नहीं थीं किंतु मुस्लिम जगत् में ये जाग्रतावस्था में थीं। भौगोलिक विचारों का अरब के लोगो ने यूरोपवासियों से अधिक विस्तार किया। नवीं से चौदहवीं शताब्दी तक पूर्वी संसार में व्यापारियों और पर्यटकों ने अनेक देशों का सविस्तार वर्णन किया। टोलमी (८१५ई०) के भूगोल की अरब के लोगों को जानकारी थी। अरबी ज्योतिषशास्त्रीयों ने मैसापोटामिया के मैदान के एक अंश के बीच की दूरी मापी और उसके आधार पर पृथ्वी के विस्तार का निर्णय किया। आबू जफ़र मुहम्मद बिन मूशा ने टोलमी के आदर्श पर भौगोलिक ग्रंथ लिखा जिसका अब कोई चिन्ह नहीं मिलता। गणित एवं ज्योतिष में प्रवीण अरब विद्वानों ने मक्का की स्थिति के अनुसार शुद्ध अक्षांशो का निर्णय किया।
आधुनिक धारणाएँ - पंद्रहवीं शताब्दी के अंत तथा सोलहवीं शती के प्रारंभ में मैगेलैन तथा ड्रेक ने ऐटलैंटिक तथा प्रशांत महासागरों के स्थलों क पता लगाया तथ संसार का परिभ्रमण किया। स्पेन, पुर्तगाल, हॉलैंड के समन्वेषकों ने संसार के नए स्थलों को खोजा। नवीन संसार की सीमा निश्चित की गई। १६वीं और १७वीं शताब्दियों में विस्तार, स्थिति, पर्वतो तथा नदी प्रणालियों के ज्ञान की सूची बढ़ती गई जिनका श्रृंखलाबद्ध रूप मानचित्रकारों न दिया। इस क्षेत्र में मर्केटर का नाम विशेष उल्लेखनीय है मर्केटर प्रक्षेपण तथा अन्य प्रक्षणों के विकास के साथ भूगोल का प्रसार हुआ।
बरनार्ड भरेन (भरेनियस) ने १६३० ई० में ऐम्सटरडैम में ज्योग्रफिया जेनरलिस (Geographia Generalis) ग्रंथ लिखा २८ वर्ष की अवस्था में इस जर्मन डाक्टर लेखक की मृत्यु सन् १६५० में हुई। इस ग्रंथ में संसार के मनुष्यों के श्रृखंलाबद्ध दिगंतर का सर्वप्रथम विश्लेषण किया गया। भरेन ने भूगोल का वर्गीकरण इस प्रकार किया है।
१८वीं शताब्दी में भूगोल के सिद्धांतों का विकास हुआ। इस शताब्दी के भूगोलवेत्ताओं में इमानुअल कांट की धारणा सराहनीय है। कांट ने भूगोल के पाँच खंड किए : (१) गणितीय भूगोल-सौर परिवार में पृथ्वी की स्थिति तथा इसका रूप, अकार, गति का वर्णन; (२) नैतिक भूगोल -- मानवजाति के आवासीय क्षेत्र पर निर्धारित रीति रिवाज तथा लक्षण का वर्णन; (३) राजनीतिक भूगोल -- संगठित शासनानुसार विभाजन; (४) वाणिज्य भूगोल (Mercantile Geography)-- देश के बचे हुए उपज के व्यापार का भूगोल; तथा (५) धार्मिक भूगोल (Theological Geography) धर्मो के वितरण का भूगोल।
कांट के अनुसार भौतिक भूगोल के दो खंड है (क) सामान्य पृथ्वी, जलवायु और स्थल, (ख) विशिष्ट मानवजाति, जंतु, वनस्पति तथा खनिज।
उन्नीसवीं शताब्दी भूगोल का अभ्युदय काल है तो बीसवीं विस्तार एवं विशिष्टता का । अलेक्जैंडर फॉन या वॉन हंबोल्ट (१७६९-१८५६) तथा कार्ल रिटर (१७७९-१८५९) प्रकृति और मनुष्य की एकता को समझाने में संलग्न थे। यह दोनों का उभयक्षेत्र था। एक ओर हंबोल्ट की खोज स्थलक्षेत्र तथा संकलन में भौतिक भूगोल की ओर केंद्रित थी तो दूसरी ओर रिटर मानव भूगोल के क्षेत्र में शिष्टता रखते थे। दोनो भूगोलज्ञों ने आधुनिक भूगोल का वैज्ञानिक तथा दार्शनिक आधारों पर विकास किया। दोनों की खोज पर्यटन अनुभव पर आधारित थी। दोनों विशिष्ट एवं प्रभावशाली लेखक थें किंतु दोनों में विषयांतर होने के कारण ध्येय और शैली विभिन्न थी। हंबोल्ट ने १७९३ ई में कॉसमॉस (Cosmos) और रिटर ने अर्डकुंडे (Erdkunde) ग्रंथों की रचना की। अर्डकुंडे २१ भागों में था। वातावरण के सिद्धांत की उत्पत्ति पृथ्वी के अद्वितीय तथ्य मानव आवास की पहेली सुलझाने में हुई है। मनुष्य वातावरण का दास है या वातावरण मनुष्य को मॉन्टेसकीऊ (१७४८) तथा हरडर (१७८४-१७९१) का संकल्पवादी सिद्धांत, सर चार्ल्स लाइल (१८३०-३२) का विकासवाद विचार, चार्ल्स डारविन का ओरिजन ऑव स्पीशीज (Origin of Species, 1859) के सारतत्व हांबोल्ट की रचना में निहित है। मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन में प्राकृतिक वातावरण की प्रधानता है किंतु किसी भी लेखक ने विश्वास नहीं किया कि प्रकृति के अधिनायकत्व में मनुष्य सर्वोपरि रहा।
रेटजेल (१८४४-१९०४) की रचना मानव भूगोल (Anthropogeographe) अपने क्षेत्र में असाधारण है। कुमारी सेंपुल (१८६३-१९३२) की रचनाओं जैसे 'भौगोलिक वातावरण के प्रभाव' 'अमरीकी इतिहास तथा उसकी भौगोलिक स्थिति' तथा 'भूमध्यसागरीय प्रदेश का भूगोल' से ऐतिहासिक तथा खौगोलिक तथ्यों का पूर्णश् ज्ञान होता है। इल्सवर्थ हटिंगटन (१८७६-१९४७) के 'भूगोल का सिद्धांत एवं दर्शन', 'पीपुल्स ऑव एशिया', 'प्रिंस्पुल ऑव ह्यूमैन ज्यॉग्रफी', 'मेन्सस्प्रिंग्स ऑव सिविलाइजेशन' में मिलते हैं।
मिडा डी ला ब्लासी (१८४५-१९१८) तथा जीन ब्रूनहेज (१८६९-१९३०) ने मानव भूगोल की रचना की। भूगोल की विभिन्न शाखाओं के अध्ययन में आज सैकड़ों भूगोलवेत्ता संसार के विभिन्न भागों में लगे हुए हैं।
भारत में भूगोल का अध्ययन बीसवीं सदी में ही विशेष रूप से प्रारंभ में हुआ और आज सैकड़ों भूगोलवेत्ता इसमें लगे हूए हैं। इनमें कुछ लोगों ने अपनी विद्वत्ता के कारण विश्व में ख्याति प्राप्त की है। अनेक विश्वविद्यालयों में इसकेश् अध्ययन का आज समुचित प्रबंध है।
अनेक संस्थाएँ भूगोल के अध्ययन और शोध के लिये स्थापितश् हुई है और अनेक उत्कृष्ट कोटि की पत्रपत्रिकाएँ देश के विभिन्न भागों से प्रकाशित हो रही है। भूगोल के संबंध में प्रति वर्ष विभिन्न विश्वविद्यालयों में सम्मेलन भी होते रहे हैं जिनमें उच्च कोटि के मौलिक निबंध पढ़े जाते है। भौगोलिक अनुसंधान में भारत अब अन्य देशों से पिछड़ा नहीं है। मीरा गुहा, जी० एस० गोशल, यू० सिंह, पी० के० सरकार, इत्यादि ने अपने क्षेत्रों में अग्रिम एवं असाधारण शोध किया है।
भारत में भूगोल की शिक्षा -- भारत में भूगोल की शिक्षा भिन्न भिन्न स्तरों में दी जाती है। यहाँ के प्राय: सभी विश्वविद्यालयों में उत्तरस्नातक वर्ग की शिक्षा दी जाती है।
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