जीमूतवाहन, जितिया या जीउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व, पूजा विधि और व्रत की कथा ! मिथिला में जितिया
जीमूतवाहन, जितिया या जीउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व, पूजा विधि और व्रत की कथा
जीमूतवाहन या जितिया व्रत का महत्व और पूजा विधि
जितिया व्रत पूरे तीन दिन तक चलता है. व्रत के दूसरे दिन व्रत रखने वाली महिला पूरे दिन और पूरी रात जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं करती है. यह व्रत उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित है. पड़ोसी देश नेपाल में भी महिलाएं बढ़-चढ़ कर इस व्रत को करती हैं.
अश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन यह व्रत रखा जाता है और अगले दिन इसका पारण किया जाता है। इस व्रत को रखने वाली महिलाएं रात में सरगी खाकर व्रत का शुरू करती हैं।
इस व्रत को जितिया या जीउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत के नाम से भी जानते हैं। अश्विन कृष्ण अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका व्रत का बड़ा महात्म्य है। गोबर-मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजा कुश के जीमूतवाहन व मिट्टी -गोबर से सियारिन व चूल्होरिन की प्रतिमा बनाकर व्रती महिलाएं जिउतिया पूजा करेंगी। फल-फूल, नैवेद्य चढ़ाए जाता है । जिउतिया व्रत में सरगही या ओठगन की परंपरा भी है।
इस व्रत में सतपुतिया की सब्जी का विशेष महत्व है। रात को बने अच्छे पकवान में से पितरों, चील, सियार, गाय और कुत्ता का अंश निकाला जाता है। सरगी में मिष्ठान आदि भी होता है। मिथिला में मड़ुआ रोटी और मछली खाने की परंपरा जिउतिया व्रत से एक दिन पहले सप्तमी को मिथिलांचल वासियों में भोजन में मड़ुआ रोटी के साथ मछली भी खाने की परंपरा है। जिनके घर यह व्रत नहीं भी होता है उनके यहां भी मड़ुआ रोटी व मछली खायी जाती । व्रत से एक दिन पहले आश्विन कृष्ण सप्तमी को व्रती महिलाएं भोजन में मड़ुआ की रोटी व नोनी की साग सेवन करती हैं।
जितिया व्रत की पूजा विधि
जितिया में तीन दिन तक उपवास किया जाता है:
- पहला दिन: जितिया व्रत में पहले दिन को नहाय-खाय कहा जाता है. इस दिन महिलाएं नहाने के बाद एक बार भोजन करती हैं और फिर दिन भर कुछ नहीं खाती हैं.
- दूसरा दिन: व्रत में दूसरे दिन को खुर जितिया कहा जाता है. यही व्रत का विशेष व मुख्य दिन है जो कि अष्टमी को पड़ता है. इस दिन महिलाएं निर्जला रहती हैं. यहां तक कि रात को भी पानी नहीं पिया जाता है.
टिप्पणियां
- तीसरा दिन: व्रत के तीसरे दिन पारण किया जाता है. इस दिन व्रत का पारण करने के बाद भोजन ग्रहण किया जाता है
जितिया व्रत की कथा
1.
इस व्रत की कथा महाभारत काल से संबंधित है. कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध में अपने पिता की मौत के बाद अश्वत्थामा बहुत नाराज था. उसके हृदय में बदले की भावना भड़क रही थी. इसी के चलते वह पांडवों के शिविर में घुस गया. शिविर के अंदर पांच लोग सो रहे थे. अश्वत्थामा ने उन्हें पांडव समझकर उन्हें मार डाला. वे सभी द्रोपदी की पांच संतानें थीं. फिर अुर्जन ने उसे बंदी बनाकर उसकी दिव्य मणि छीन ली. अश्वत्थामा ने बदला लेने के लिए अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को मारने की साजिश रची. उसने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल कर उत्तरा के गर्भ को नष्ट कर दिया. ऐसे में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में फिर से जीवित कर दिया. गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उस बच्चे का नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा. तब से ही संतान की लंबी उम्र और मंगल के लिए जितिया का व्रत किया जाने लगा. आगे चलकर यही बच्चा राजा परीक्षित बना.
2.
गंधर्व राजकुमार जीमूतवाहन उदार और परोपकारी व्यक्ति थे। पिता के वन प्रस्थान के बाद उनको ही राजा बनाया गया, लेकिन उनका मन उसमें नहीं रमा। वे राज-पाट भाइयों को देकर अपने पिता के पास चले गए। वन में ही उनका विवाह मलयवती नाम कन्या से हुई।
एक दिन वन में उनकी मुलाकात एक वृद्धा से हुई, जो नागवंश से थी। वृद्धा रो रही थी, वह काफी डरी हुई थी। जीमूतवाहन ने उससे उसकी ऐसी स्थिति के बारे में पूछा। इस पर उसने बताया कि नागों ने पक्षीराज गरुड़ को वचन दिया है कि प्रत्येक दिन वे एक नाग को उनके आहार के रूप में देंगे।
वृद्धा ने बताया कि उसका एक बेटा है, जिसका नाम शंखचूड़ है। आज उसे पक्षीराज गरुड़ के पास जाना है। इस पर जीमूतवाहन ने कहा कि तुम्हारे बेटे को कुछ नहीं होगा। वह स्वयं पक्षीराज गरुड़ का आहार बनेंगे। नियत समय पर जीमूतवाहन स्वयं पक्षीराज गरुड़ के समक्ष प्रस्तुत हो गए। लाल कपड़े में लिपटे जीमूतवाहन को गरुड़ अपने पंजों में दबोच कर साथ लेकर चल दिए। उस दौरान उन्होंने जीमूतवाहन की आंखों में आंसू निकलते देखा और कराहते हुए सुना। वे एक पहाड़ पर रुके, तो जीमूतवाहन ने सारी घटना बताई।
पक्षीराज गरुड़ जीमूतवाहन के साहस, परोपकार और मदद करने की भावना से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने जीमूतवाहन को प्राणदान दे दिया और कहा कि वे अब किसी नाग को अपना आहार नहीं बनाएंगे। इस तरह से जीमूतवाहन ने नागों की रक्षा की। इस घटना के बाद से ही पुत्रों के दीर्घ और आरोग्य जीवन के लिए जीमूतवाहन की पूजा होने लगी।
3.
शास्त्रों के अनुसार जीमूतवाहन की कथा सबसे पहले भगवान शिव ने माता पार्वती को सुनाई थी। यह कथा एक चूल्होरिन व सियारिन की है। दोनों ने आश्विन कृष्ण अष्टमी को जिउतिया व्रत रखा। सियारिन को भूख बर्दाश्त नहीं हुई और उसने मांस खा लिया। चूल्होरिन ने पूरी निष्ठा से पूजा की। अगले जन्म में दोनों ने एक ब्राह्मण की बेटी के रूप में जन्म लिया। चूल्होरिन (अब शीलावती) की शादी मंत्री से और सियारिन (अब कर्पूरावती) की राजा मलयकेतु से हुई। दोनों को सात-सात पुत्र हुए पर सियारिन के सातों पुत्रों की मौत हो गई और चूल्होरिन के जीवित रहे। सियारिन ने नाराज होकर पति से चूल्होरिन के बेटे के सिर काटकर लाने को कहा। राजा मलय ने ऐसा ही किया पर जीमूतवाहन की कृपा से सातों पुत्र जीवित हो गए।
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