अतिथि (Atithi) - रबीन्द्रनाथ टैगोर
अतिथि (Atithi)
-: रबीन्द्रनाथ टैगोर :-
काँठलिया के जमींदार मतिलाल बाबू नौका से सपरिवार अपने घर जा रहे थे। रास्ते में दोपहर के समय नदी के किनारे की एक मंडी के पास नौका बाँधकर भोजन बनाने का आयोजन कर ही रहे थे कि इसी बीच एक ब्राह्मण-बालक ने आकर पूछा, ‘‘बाबू, तुम लोग कहाँ जा रहे हो?’’ सवाल करने वाले की उम्र पंद्रह-सोलह से अधिक न होगी।
मति बाबू ने उत्तर दिया, ‘‘काँठालिया।’’
ब्राह्मण-बालक ने कहा, ‘‘मुझे रास्ते में नंदीग्राम उतार देंगे आप’’
बाबू ने स्वीकृति प्रकट करते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या नाम है?’’
ब्राह्मण-बालक ने कहा, ‘‘मेरा नाम तारापद है।’’
गौरवर्ण बालक देखने में बड़ा सुंदर था। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों और मुस्कराते हुए ओष्ठाधरों पर सुललित सौकमार्य झलक रहा था। वस्त्र के नाम पर उसके पास एक मैली धोती थी। उघरी हुई देह में किसी प्रकार का बाहुल्य न था, मानो किसी शिल्पी ने बड़े यत्न से निर्दोष, सुडौल रूप में गढ़ा हो। मानो वह पूर्वजन्म में तापस-बालक रहा हो और निर्मल तपस्या के प्रभाव से उसकी देह का बहुत-सा अतिरिक्त भाग क्षय होकर एक साम्मर्जित ब्राह्मण्य-श्री परिस्फुट हो उठी हो।
मतिलाल बाबू ने बड़े स्नेह से उससे कहा, ‘‘बेटा, स्नान कर आओ, भोजनादि यहीं होगा।’’
तारापद बोला, ‘‘ठहरिए!’’ और वह तत्क्षण निस्संकोच भोजन के आयोजन में सहयोग देने लगा। मतिलाल बाबू का नौकर गैर-बंगाली था, मछली आदि काटने में वह इतना निपुण नहीं था; तारापद ने उसका काम स्वयं लेकर थोड़े ही समय में अच्छी तरह से संपन्न कर दिया और जो-एक तरकारी भी बड़ी थोड़े ही समय में अच्छी तरह से संपन्न कर दिया और दो-एक तरकारी भी बड़ी कुशलता से तैयार कर दी। भोजन बनाने का कार्य समाप्त होने पर तारापद ने नदी में स्नान करके पोटली खोली और एक सफेद वस्त्र धारण किया; काठ की एक छोटी-सी कंघी लेकर सिर के बड़े-बड़े बाल माथे पर से हटाकर गर्दन पर डाल लिए और स्वच्छ जनेऊ का धागा छाती पर लटकाकर नौका पर बैठे मति बाबू के पास जा पहुँचा।
मति बाबू उसे नौका के भीतर ले गए। वहाँ मति बाबू की स्त्री और उनकी नौ वर्षीया कन्या बैठी थी। मति बाबू की स्त्री अन्नपूर्णा इस सुंदर बालक को देखकर स्नेह से उच्छवसित हो उठीं, मन-ही-मन कह उठीं, ‘अहा! किसका बच्चा है, कहाँ से आया है? इसकी माँ इसे छोड़कर किस प्रकार जीती होगी?’’
यथासमय मति बाबू और इस लड़के के लिए पास-पास दो आसन डाले गए। लड़का ऐसा भोजन-प्रेमी न था, अन्नपूर्णा ने उसका अल्प आहार देखकर मन में सोचा कि लजा रहा है; उससे यह-वह खाने को बहुत अनुरोध करने लगीं; किंतु जब वह भोजन से निवृत्त हो गया तो उसने कोई भी अनुरोध न माना। देखा गया, लड़का हर काम अपनी इच्छा के अनुसार करता, लेकिन ऐसे सहज भाव से करता कि उसमें किसी भी प्रकार की जिद या हठ का आभास न मिलता। उसके व्यवहार में लज्जा के लक्षण लेशमात्र भी दिखाई नहीं पड़े।
सबके भोजनादि के बाद अन्नपूर्णा उसको पास बिठाकर प्रश्नों द्वारा उसका इतिहास जानने में प्रवृत्त हुईं। कुछ भी विस्तृत विवरण संग्रह नहीं हो सका। बस इतनी-सी बात जानी जा सकी कि लड़का सात-आठ बरस की उम्र में ही स्वेच्छा से घर छोड़कर भाग आया है।
अन्नपूर्णा ने प्रश्न किया, ‘‘तुम्हारी माँ नहीं है?’’
तारापद ने कहा, ‘‘हैं।’’
अन्नपूर्णा ने पूछा, ‘‘वे तुम्हें प्यार नहीं करतीं?’’
इसे अत्यंत विचित्र प्रश्न समझकर हँसते हुए तारापद ने कहा, ‘‘प्यार क्यों नहीं करेंगी!’’
अन्नपूर्णा ने प्रश्न किया, ‘‘तो फिर तुम उन्हें छोड़कर क्यों आए?’’
तारापद बोला, ‘‘उनके और भी चार लड़के और तीन लड़कियाँ हैं।’’
बालक के इस विचित्र उत्तर से व्यथित होकर अन्नपूर्णा ने कहा, ‘‘ओ माँ, यह कैसी बात है! पाँच अँगुलियाँ हैं, तो क्या एक अँगुली त्यागी जा सकती है?’’
तारापद की उम्र कम थी, उसका इतिहास भी उसी अनुपात में संक्षिप्त था; किंतु लड़का बिलकुल असाधारण था। वह अपने माता-पिता का चौथा पुत्र था, शैशव में ही पितृहीन हो गया था। बहु-संतान वाले घर में भी तारापद सबको अत्यंत प्यारा था। माँ, भाई-बहन और मुहल्ले के सभी लोगों से वह अजस्त्र स्नेह-लाभ करता। यहाँ तक कि गुरुजी भी उसे नहीं मारते थे–मारते तो भी बालक के अपने-पराए सभी उससे वेदना का अनुभव करते। ऐसी अवस्था में उसका घर छोड़ने का कोई कारण नहीं था। जो उपेक्षित रोगी लड़का हमेशा चोरी करके पेड़ों से फल और गृहस्थों से उसका चौगुना प्रतिफल पाता घूमता-फिरता वह भी अपनी परिचित ग्राम-सीमा के भीतर अपनी कष्ट देने वाली माँ के पास पड़ा रहा और समस्त ग्राम का दुलारा यह लड़का एक बाहरी जात्रा-दल में शामिल होकर निर्ममता से ग्राम छोड़कर भाग खड़ा हुआ।
सब लोग उसका पता लगाकर उसे गाँव लौटा लाए। उसकी माँ ने उसे छाती से लगाकर आँसुओं से आर्द्र कर दिया। उसकी बहनें रोने लगीं। उसके बड़े भाई ने पुरुष-अभिभावक का कठिन कर्तव्य-पालन करने के उद्देश्य से उस पर मृदुभाव से शासन करने का यत्न करके अंत में अनुतप्त चित्त से खूब प्रश्रय और पुरस्कार दिया। मुहल्ले की लड़कियों ने उसको घर-घर बुलाकर खूब प्यार किया और नाना प्रलोभनों से उसे वश में करने की चेष्टा की। किंतु बंधन, यही नहीं, स्नेह का बंधन भी उसे सहन नहीं हुआ, उसके जन्म-नक्षत्र ने उसे गृहहीन कर रखा था। वह जब भी देखता कि नदी में कोई विदेशी नौका अपनी रस्सी घिसटाती जा रही है, गाँव के विशाल पीपल के वृक्ष के तले किसी दूर देश के किसी संन्यासी ने आश्रय लिया है अथवा बनजारे नदी के किनारे ढालू मैदान में छोटी-छोटी चटाइयाँ बाँधकर खपच्चियाँ छीलकर टोकरियाँ बनाने में लगे हैं, तब अज्ञात बाह्य पृथ्वी को स्नेहहीन स्वाधीनता के लिए उसका मन बेचैन हो उठता। लगातार दो-तीन बार भागने के बाद उसके कुटुंबियों और गाँव के लोगों ने उसकी आशा छोड़ दी।
पहले उसने एक जात्रा-दल का साथ पकड़ा। जब अधिकारी उसको पुत्र के समान स्नेह करने लगे और जब वह दल के छोटे-बड़े सभी का प्रिय पात्र हो गया, यही नहीं, जिस घर में जात्रा होती उस घर के मालिक, विशेषकर घर का महिला वर्ग जब विशेष रूप से उसे बुलाकर उसका आदर-मान करने लगा, तब एक दिन किसी से बिना कुछ कहे वह भटककर कहाँ चला गया, इसका फिर कोई पता न चल सका।
तारापद हरिण के छौने के समान बंधनभीरु था और हरिण के ही समान संगीत-प्रेमी भी। जात्रा के संगीत ने ही उसे पहले घर से विरक्त किया था। संगीत का स्वर उसकी समस्त धमनियों में कंपन पैदा कर देता और संगीत की ताल पर उसके सर्वांग में आंदोलन उपस्थित हो जाता। जब वह बिलकुल बच्चा था तब भी वह संगीत-सभाओं में जिस प्रकार संयत-गंभीर प्रौढ़ भाव से आत्मविस्मृत होकर बैठा-बैठा झूमने लगता। उसे देखकर प्रवीण लोगों के लिए हँसी संवरण करना कठिन हो जाता। केवल संगीत ही क्यों, वृक्षों के घने पत्तों के ऊपर जब श्रावण की वृष्टि-धारा पड़ती, आकाश में मेघ गरजते, पवन अरण्य में मातृहीन दैत्य-शिशु की भाँति क्रंदन करता रहता तब उसका चित्त मानो उच्छृंखल हो उठता निस्तब्ध दोपहरी में, आकाश से बड़ी दूर से आती चील की पुकार, वर्षा ऋतु की संध्या में मेढ़कों का कलरव, गहन रात में श्रृगालों की चीत्कार-ध्वनि–सभी उसको अधीर कर देते। संगीत के इस मोह से आकृष्ट होकर वह शीघ्र ही एक पांचाली जल (लोकगीत गायकों का दल) में भर्ती हो गया। मंडली का अध्यक्ष उसे बड़े यत्न से गाना सिखाने और पांचाली कंठस्थ कराने में प्रवृत्त हुआ और उसे अपने वृक्ष-पिंजर के पक्षी की भाँति प्रिय समझकर स्नेह करने लगा। पक्षी ने थोड़ा-बहुत गाना सीखा और एक दिन तड़के उड़कर चला गया।
अंतिम बार वह कलाबाजी दिखाने वालों के दल में शामिल हुआ। ज्येष्ठ के अंतिम दिनों से लेकर आषाढ़ के समाप्त होने तक इस अंचल में जगह-जगह क्रमानुसार समवेत रूप से अनुष्ठित मेले लगते। उनके उपलक्ष्य में जात्रा वालों के दो-तीन दल पांचाली गायक, कवि नर्तकियाँ एवं अनेक प्रकार की दुकाने छोटी-छोटी नदियों, नदियों, उपनदियों के रास्ते नौकाओं द्वारा एक मेले के समाप्त होने पर दूसरे मेले में घूमती रहतीं। पिछले वर्ष से कलकत्ता की एक छोटी कलाबाज-मंडली इस पर्यटनशील मेले के मनोरंजन में योग दे रही थी। तारापद ने पहले तो नौकारूढ़ दुकानदारों के साथ मिलकर पान की गिलौरियाँ बेचने का भार लिया, बाद में अपने स्वाभाविक कौतूहल के कारण इस कारण कलाबाज-दल के अद्भुत व्यायाम-नैपुण्य से आकृष्ट होकर उसमें प्रवेश किया। तारापद ने अपने आप अभ्यास करके अच्छी तरह वंशी बजाना सीख लिया था–करतब दिखाने के समय वह द्रुत ताल पर लखनवी ठुमरी के सुर में वंशी बजाता–यही उसका एकमात्र काम था।
उसका आखिरी पलायन इसी दल से हुआ था। उसने सुना था कि नंदीग्राम के जमींदार बाबू बड़ी धूमधाम से एक शौकिया जात्रा-दल बना रहे हैं–अतः वह अपनी छोटी सी पोटली लेकर नंदीग्राम की यात्रा की तैयारी कर रहा था, इसी समय उसकी भेंट मति बाबू से हो गई।
एक के बाद एक नाना दलों में शामिल होकर भी तारापद ने अपनी स्वाभाविक कल्पना-प्रवण प्रकृति के कारण किसी भी दल की विशेषता प्राप्त नहीं की थी। वह अंतःकरण से बिलकुल निर्लिप्त और मुक्त था। संसार में उसने हमेशा से कई बेहूदी बातें सुनीं और अनेक अशोभन दृश्य देखे, किंतु उन्हें उसके मन में संचित होने का रत्ती-भर अवकाश न मिला। उस लड़के का ध्यान किसी ओर था ही नहीं। अन्यान्य बंधनों की भाँति किसी प्रकार का अभ्यास-बंधन भी उसके मन को बाध्य न कर सका। वह उस संसार में पंकिल जल के ऊपर शुभपक्ष राजहंस की भाँति तैरता फिरता। कौतूहलवश भी वह जितनी बार डुबकी लगाता, उसके पंख न तो भीग पाते थे, न मलिन हो पाते थे। इसी कारण इस गृह-त्यागी लड़के के मुख पर एक शुभ स्वाभाविक तारुण्य अम्लान भाव से झलकता रहता। उसकी यही मुखश्री देखकर प्रवीण, दुनियादार मतिलाल बाबू ने बिना कुछ पूछे, बिना संदेह किए बड़े प्यार से उसका आह्वान किया था।
भोजन समाप्त होने पर नौका चल पड़ी। अन्नपूर्णा बड़े स्नेह से ब्राह्मण-बालक से उसके घर की बातें, उसके स्वजन-कुटुंबियों का समाचार पूछने लगीं। तारापद ने अत्यंत संक्षेप में उनका उत्तर देकर बाहर आकर परित्राण पाया। बाहर परिपूर्णता की अंतिम सीमा तक भरकर वर्षा नदीं ने अपने आत्म-विस्मृत उद्दाम चांचल्य से प्रकृति-माता को मानो उद्विग्न कर दिया था। मेघ-मुक्त धूप में नदी किनारे की अर्धनिमग्न काशतृण-श्रेणी एवं उसके ऊपर सरस सघन ईख के खेत और उससे भी परवर्ती प्रदेश में दूर-दिंगत चुंबित नीलांजन-वर्ग वनरेखा, सभी-कुछ मानो किसी काल्पनिक कथा की सोने की छड़ी
प्रसिद्ध लोककथा है कि एक राजकुमार ने सोने की छड़ी छुआकर सोई हुई राजकुमारी को जगा दिया था, चाँदी की छड़ी छुआने से वह सो जाती थी। सोने की छड़ी प्रेम जाग्रत् अवस्था का प्रतीक है। के स्पर्श से सद्यःजाग्रत् नवीन सौंदर्य की भाँति नीरव नीलाकाश की मुग्ध दृष्टि के सम्मुख परिस्फुटित हो उठा हो; सभी कुछ मानो सजीव स्पंदित, प्रगल्भ प्रकाश में उद्भासित, नवीनता से मसृण और प्राचुर्य से परिपूर्ण हो।
तारापद ने नौका की छत पर पाल की छाया में जाकर आश्रय लिया। ढालू हरा मैदान, पानी से भरे पाट के खेत, गहन श्याम लहराते हुए आमन (हेमंतकालीन धान।) धान, घाट से गाँव की ओर जाने वाले सँकरे रास्ते, सघन वन-वेष्टित छायामय गाँव–एक के बाद एक उसकी आँखों के सामने से निकलने लगे। जल, स्थल, आकाश, चारों ओर की यह गतिशीलता, सजीवता, मुखरता, आकाश-पृथ्वी की यह व्यापकता और वैचित्र्य एवं निर्लिप्त सुदूरता, यह अत्यंत विस्तृत, चिरस्थायी, निर्निमेष, नीरव, वाक्य-विहीन विश्व तरुण बालक के परमात्मीय थे; पर फिर भी वह इस चंचल मानव को क्षण-भर के लिए भी स्नेह-बाहुओं में बाँध रखने की कोशिश नहीं करता था। नदी के किनारे बछड़े पूँछ उठाए दौड़ रहे थे, गाँव का टट्टू-घोड़ा रस्सी से बँधे अपने अगले पैरों के बल कूदता हुआ घास चरता फिर रहा था, मछरंग पक्षी मछुआरों के जाल बाँधने के बाँस के डंडे से बड़े वेग से पानी में झप से कूदकर मछली पकड़ रहा था, लड़के पानी में खेल रहे थे, लड़कियाँ उच्च स्वर से हँसती हुई बातें करती हुई छाती तक गहरे पानी में अपना वस्त्रांचल फैलाकर दोनों हाथों से उसे धो रही थीं, आँचल कमर में खोंसे मछुआरिनें डलिया लेकर मछुआरों से मछली खरीद रही थीं, इस सबको वह चिरनूतन अश्रांत कौतूहल से बैठा देखता था। उसकी दृष्टि की पिपासा किसी भी तरह निवृत्त नहीं होती थी।
नौका की छत पर जाकर तारापद ने धीरे-धीरे खिबैया-माँझियों से बातचीत छेड़ दी। बीच-बीच में आवश्यकतानुसार वह मल्लाहों के हाथ से लग्गी लेकर खुद ही ठेलने लग जाता; माँझियों को जब तमाखू पीने की जरूरत पड़ती तब वह स्वयं जाकर हाल सँभाल लेता। जब जिधर हाल मोड़ना आवश्यक होता, वह दक्षतापूर्वक संपन्न कर देता।
संध्या होने के कुछ पूर्व अन्नपूर्णा ने तारापद को बुलाकर पूछा, ‘‘रात में तुम क्या खाते हो’’
तारापद बोला, ‘‘जो मिल जाता है वही खा लेता हूँ; रोज खाता भी नहीं।’’
इस सुंदर ब्राह्मण-बालक की आतिथ्य-ग्रहण करने की उदासीनता अन्नपूर्णा को थोड़ी कष्टकर प्रतीत हुई। उनकी बड़ी इच्छा थी कि खिला-पिलाकर, पहना-ओढ़ाकर इस गृह-च्युत यात्री बालक को संतुष्ट करें। किंतु किससे वह संतुष्ट होगा, यह वे नहीं जान सकीं। नौकरों को बुलाकर गाँव से दूध-मिठाई आदि खरीद मँगाने में अन्नपूर्णा ने धूमधाम मचा दी। तारापद ने पेट-भर भोजन तो किया, किंतु दूध नहीं पिया। मौन स्वभाव मतिलाल बाबू तक ने उससे दूध पीने का अनुरोध किया।
उसने संक्षेप में कहा, ‘‘मुझे अच्छा नहीं लगता।’’
नदी पर दो-तीन दिन बीत गए। तारापद ने भोजन बनाने, सौदा खरीदने से लेकर नौका चलाने तक सब कामों में स्वेच्छा और तप्परता से योग दिया। जो भी दृश्य उसकी आँखों के सामने आता, उसी ओर तारापद की कौतूहलपूर्ण दृष्टि दौड़ जाती; जो भी काम उसके हाथ लग जाता, उसी की ओर वह अपने आप आकर्षित हो जाता। उसकी दृष्टि, उसके हाथ, उसका मन सर्वदा ही गतिशील बने रहते, इसी कारण वह इस नित्य चलायमान प्रकृति के समान सर्वदा निश्चिंत, उदासीन रहता; किंतु सर्वदा क्रियासक्त भी। यों तो हर मनुष्य की अपनी एक स्वतंत्र अधिष्ठान भूमि होती है, किंतु तारापद इस अनंत नीलांबरवाही विश्व-प्रवाह की एक आनंदोज्ज्वल तरंग था–भूत-भविष्यत् के साथ उसका कोई संबंध न था। आगे बढ़ते जाना ही उसका एकमात्र काम था।
इधर बहुत दिन तक नाना संप्रदायों के साथ योग देने के कारण अनेक प्रकार की मनोरंजनी विद्याओं पर उसका अधिकार हो गया था। किसी भी प्रकार की चिंता से आच्छन्न न रहने के कारण उसके निर्मल स्मृति-पट पर सारी बातें अद्भुत सहज ढंग से अंकित हो जातीं। पांचाली कथकता१, कीर्तन-गान, जात्राभिनय के लंबे अवतरण उसे कंठस्थ थे। मतिलाल बाबू अपनी नित्य-प्रति की प्रथा के अनुसार एक दिन संध्या समय अपनी पत्नी और कन्या को रामायण पढ़कर सुना रहे थे, लव-कुश की कथा की भूमिका चल रही थी, तभी तारापद अपना उत्साह संवरण न कर पाने के कारण नौका की छत से उतर आया और बोला, ‘‘किताब रहने दें। मैं लव-कुश का गीत सुनाता हूँ, आप सुनते चलिए!’’
यह कहकर उसने लव-कुश की पांचाली शुरू कर दी। बाँसुरी के समान सुमिष्ट उन्मुक्त स्वर पर आकर झुके पड़ रहे थे। उस नदी-नीर के संध्याकाश में हास्य, करुणा एवं संगीत का एक अपूर्व रस-स्त्रोत प्रवाहित होने लगा। दोनों निस्तब्ध किनारे कौतूहलपूर्ण हो उठे, पास से जो सारी नौकाएँ गुजर रही थीं उनमें बैठे लोग क्षण-भर के लिए उत्कंठित होकर उसी ओर कान लगाए रहे। जब गीत समाप्त हो गया तो सभी ने व्यथित चित्त से लंबी साँस लेकर सोचा, इतनी जल्दी यह क्यों समाप्त हो गया?
सजल नयना अन्नपूर्णा की इच्छा हुई कि उस लड़के को गोद में बिठाकर छाती से लगाकर उसका माथा चूँम ले। मतिलाल बाबू सोचने लगे, यदि इस लड़के को किसी प्रकार अपने पास रख सकूँ तो पुत्र का अभाव पूरा हो जाए। केवल छोटी बालिका चारुशशि का अंतःकरण ईर्ष्या और विद्वेष से परिपूर्ण हो उठा।
चारुशशि अपने माता-पिता की इकलौती संतान और उनके स्नेह की एकमात्र अधिकारिणी थी। उसकी धुन और हठ की कोई सीमा न थी। खाने, पहनने, बाल बनाने के संबंध में उसका स्वतंत्र मत था; किंतु उसके मन में तनिक भी स्थिरता नहीं थी। जिस दिन कहीं निमंत्रण होता उस दिन उसकी माँ को भय रहता कि कहीं लड़की साज-सिंगार को लेकर कोई असंभव जिद न कर बैठे। यदि दैवात् कभी केश-बंधन उसके मन के अनुकूल न हुआ तो फिर उस दिन चाहे जितनी बार बाल खोलकर चाहे जितने प्रकार से बाँधे जाते, वह किसी तरह संतुष्ट न होती। और अंत में रोना-धोना मच जाता। हर बात में यही दशा थी। पर कभी-कभी जब चित्त प्रसन्न रहता तो उसे किसी भी प्रकार की कोई आपत्ति न होती। उस समय वह प्रचुर मात्रा में स्नेह प्रकट करके अपनी माँ से लिपटकर चूमकर हँसती हुई करते-करते उसे एकदम परेशान कर डालती। यह छोटी बालिका एक दुर्भेंद्य पहेली थी।
यह बालिका अपने दुर्बोध्य हृदय के पूरे वेग का प्रयोग करके मन-ही-मन विषम ईर्ष्या से तारापद का निरादर करने लगी। माता-पिता को भी पूरी तरह से उद्विग्न कर डाला। भोजन के समय रोदनोन्मुखी होकर भोजन के पात्र को ठेलकर फेंक देती, खाना उसको रुचिकर नहीं लगता; नौकरानी को मारती, सभी बातों में अकारण शिकायत करती रहती। जैसे-जैसे तारापद की विद्याएँ उसका एवं अन्य सबका मनोरंजन करने लगीं, वैसे-ही-वैसे मानो उसका क्रोध बढ़ने लगा। तारापद में कोई गुण है, इसे उसका मन स्वीकार करने से विमुख रहता और उसका प्रमाण जब प्रबल होने लगा तो उसके असंतोष की मात्रा भी बढ़ गई। तारापद ने जिस दिन लव-कुश का गीत सुनाया उस दिन अन्नपूर्णा ने सोचा, संगीत से वन के पशु तक वश में आ जाते हैं, आज शायद मेरी लड़की का मन पिघल गया है। उससे पूछा, ‘‘चारु, कैसा लगा?’’
उसने कोई उत्तर दिए बिना बड़े जोर से सिर हिला दिया। भाषा में इस मुद्रा का तरजुमा करने पर यह रूप होता–जरा भी अच्छा नहीं लगा, और न कभी अच्छा लगेगा।
चारु के मन में ईर्ष्या का उदय हुआ है, यह समझकर उसकी माँ ने चारु के सामने तारापद के प्रति स्नेह प्रकट करना कम कर दिया। संध्या के बाद जब चारु जल्दी-जल्दी खाकर सो जाती तब अन्नपूर्णा नौका-कक्ष के दरवाजे के पास आकर बैठतीं और मति बाबू और तारापद बाहर बैठते। अन्नपूर्णा के अनुरोध पर तारापद गाना शुरू करता। उसके गाने से जब नदी के किनारे की विश्रामनिरता ग्राम-श्री संध्या के विपुल अंधकार में मुग्ध निस्तब्ध हो जाती और अन्नपूर्णा का कोमल हृदय स्नेह और सौंदर्य-रस से छलकने लग जाता तब सहसा चारु बिछौने से उठकर तेजी से आकर सरोष रोती हुई कहती, ‘‘माँ, तुमने यह क्या शोर मचा रखा है! मुझे नींद नहीं आती।’’ माता-पिता उसको अकेला सुलाकर तारापद को घेरकर संगीत का आनंद ले रहे हैं, यह उसे एकदम असह्य हो उठता। इस दीप्त कृष्णनयना बालिका की स्वाभाविक उग्रता तारापद को बड़ी मनोरंजक प्रतीत होती। उसने इसे कहानी सुनाकर, गाना गाकर, वंशी बजाकर वश में करने की बहुत चेष्टा की; किंतु किसी भी प्रकार सफल नहीं हुआ। केवल जब मध्याह्न में तारापद नदी में स्नाने करने उतरता, परिपूर्ण जलराशि में अपनी गौरवर्ण सरल कमनीय देह को तैरने की अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं में संचालित करता, तरुण जल-देवता के समान शोभा पाता, तब बालिका का कौतूबल आकर्षित हुए बिना न रहता। वह इसी समय की प्रतीक्षा करती रहती; किंतु आंतरिक इच्छा का किसी को भी पता न चलने देती, और यह अशिक्षापटु, अभिनेत्री ध्यानपूर्वक ऊनी गुलूबंद बुनने का अभ्यास करती हुई बीच-बीच में मानो अत्यंत उपेक्षा-भरी दृष्टि से तारापद की संतरण-लीला देखा करती।
नंदीग्राम कब छूट गया, तारापद को पता न चला। विशाल नौका अत्यंत मृदु-मंद गति से कभी पाल तानकर, कभी रस्सी खींचकर अनेक नदियों की शाखा-प्रशाखाओं में होकर चलने लगी; नौकारोहियों के दिन भी इन सब नदी-उपनदियों के समान, शांति-सौंदर्यपूर्ण वैचित्र्य के बीच सहज सौम्य गति से मृदुमिष्ट कल-स्वर में प्रवाहित होने लगे। किसी को किसी प्रकार की जल्दी नहीं थी; दोपहर को स्नानाहार में बहुत समय व्यतीत होती; और इधर संध्या होते न होते बड़े दिखने वाले किसी गाँव के किनारे, घाट के समीप, झिल्लीमंद्रित खद्योतखचित वन के पास नौका बाँध दी जाती।
इस प्रकार दसेक दिन में नौका काँठालिया पहुँची। जमींदार के आगमन से घर से पालकी और टट्टू-घोड़ों का समागम हुआ, और हाथ में बाँस की लाठी धारण किए सिपाही-चौकीदारों के दल ने बार-बार बंदूक की खाली आवाज से गाँव के उत्कंठित काक समाज को ‘यत्परोनास्ति’ मुखर कर दिया।
इस सारे समारोह में समय लगा, इस बीच में तारापद ने तेजी से नौका से उतरकर एक बार सारे गाँव का चक्कर लगा डाला। किसी को दादा, किसी को काका, किसी को दीदी, किसी को मौसी कहकर दो-तीन घंटे में सारे गाँव के साथ सौहार्द्र बंधन स्थापित कर लिया। कहीं भी उसके लिए स्वभावतः कोई बंधन नहीं था, इससे तारापद ने देखते-देखते थोड़े दिनों में ही गाँव के समस्त हृदयों पर अधिकार कर लिया।
इतनी आसानी से हृदय-हरण करने का कारण यह था कि तारापद हरेक के साथ उसका अपना बनकर स्वाभाविक रूप से योग दे सकता था। वह किसी भी प्रकार के विशेष संस्कारों के द्वारा बँधा हुआ नहीं था, अतएव सभी अवस्थाओं में और सभी कामों में उसमें एक प्रकार की सहज प्रवीणता थी। बालकों के लिए वह बिलकुल स्वाभाविक बालक था और उनसे श्रेष्ठ और स्वतंत्र, वृद्धों के लिए वह बालक न रहता, किंतु पुरखा भी नहीं; चरवाहों के साथ चरवाहा था, फिर भी ब्राह्मण। हरेक के हर काम में वह चिरकाल के सहयोगी के समान अभ्यस्त भाव से हस्तक्षेप करता। हलवाई की दुकान पर बैठकर साल के पत्ते से संदेश पर बैठी मक्खियाँ उड़ाने लग जाता। मिठाइयाँ बनाने में भी पक्का था, करघे का मर्म भी उसे थोड़ा-बहुत मालूम था, कुम्हार का चाक चलाना भी उसके लिए बिलकुल नया नहीं था।
तारापद ने सारे गाँव को वश में कर लिया, बस केवल ग्रामवासिनी बालिका की ईर्ष्या वह अभी तक नहीं जीत पाया था। यह बालिका उग्रभाव से उसके बहुत दूर निर्वासन की कामना करती थी, यही जानकर शायद तारापद इस गाँव में इतने दिन आबद्ध बना रहा।
किंतु बालिकावस्था में भी नारी के अंतर रहस्य का भेद जानना बहुत कठिन है, चारुशशि ने इसका प्रमाण दिया।
ब्राह्मण पुरोहिताइन की कन्या सोनामणि पाँच वर्ष की अवस्था में विधवा हो गई थी; वह चारु की समवयस्का सहेली थी। अस्वस्थ होने के कारण वह घर लौटी सहेली से कुछ दिनों तक भेंट न कर सकी। स्वस्थ होकर जिस दिन भेंट करने आई उस दिन प्रायः अकारण ही दोनों सहेलियों में कुछ मनोमालिन्य की नौबत आ गई।
चारु ने अत्यंत विस्तार से बात आरंभ की थी। उसने सोचा था कि तारापद नामक अपने नवार्जित परम रत्न को जुटाने की बात का विस्तारपूर्वक वर्णन करके वह अपनी सहेली के कौतूहल एवं विस्मय को सप्तम पर चढ़ा देगी। किंतु, जब उसने सुना कि तारापद सोनामणि उसको ‘भाई’ कहकर पुकारती है, जब उसने सुना कि तारापद ने केवल बाँसुरी पर कीर्तन का सुर बजाकर माता और पुत्री का मनोरंजन ही नहीं किया है, सोनामणि के अनुरोध से उसके लिए अपने हाथों से बाँस की एक बाँसुरी भी बना दी है, न जाने कितने दिनों से वह उसे ऊँची डाल से फल और कंटक-शाखा से फूल तोड़कर देता रहा है तब चारु के अंतःकरण को मानो तप्तशूल बेधने लगा। चारु समझती थी कि तारापद विशेष रूप से उन्हीं का तारापद था–अत्यंत गुप्त रूप में संरक्षणीय; अन्य साधारणजन केवल उसका थोड़ा-बहुत आभास-मात्र पाएँगे, फिर भी किसी भी तरह उसका सामीप्य न पा सकेंगे, दूर से ही उसके रूप-गुण पर मुग्ध होंगे और चारुशशि को धन्यवाद देते रहेंगे। यही अद्भुत दुर्लभ, दैवलब्ध ब्राह्मण-बालक सोनामणि के लिए सहजहम्य क्यों हुआ? हम यदि उसे इतना यत्न करके न लाते, इतने यत्न से न रखते तो सोनामणि आदि उसका दर्शन कहाँ से पातीं? सोनामणि का ‘भैया’ शब्द सुनते ही उसके शरीर में आग लग गई।
चारु जिस तारापद को मन ही मन विद्वेष-बाणों से जर्जर करने की चेष्टा करती रही है, उसी के एकाधिकार को लेकर इतना प्रबल उद्वेग क्यों?–किसकी सामर्थ्य है जो यह समझे!
उसी दिन किसी अन्य तुच्छ बात के सहारे सोनामणि के साथ चारु की गहरी कुट्टी हो गई। और वह तारापद के कमरे में जाकर उसकी प्रिय वंशी लेकर उस पर कूद-कूदकर उसे कुचलती हुई निर्दयतापूर्वक तोड़ने लगी।
चारु जब प्रचंड रोष में इस वंशी-ध्वंस कार्य में व्यस्त थी तभी तारापद ने कमरे में प्रवेश किया। बालिका की यह प्रलय-मूर्ति देखकर उसे आश्चर्य हुआ। बोला, ‘‘चारु, मेरी वंशी क्यों तोड़ रही हो?’’
चारु रक्त नेत्रों और लाल मुख से ‘‘ठीक कर रही हूँ, अच्छा कर रही हूँ’’ कहकर टूटी हुई वंशी को और दो-चार अनावश्यक लातें मारकर उच्छृवसित कंठ से रोती हुई कमरे से बाहर चली गई। तारापद ने वंशी उठाकर उलट-पलटकर देखी, उसमें अब कोई दम नहीं था। अकारण ही अपनी पुरानी वंशी की यह आकस्मिक दुर्गति देखकर वह अपनी हँसी न रोक सका। चारुशशि दिनोंदिन उसके परम कौतूहल का विषय बनती जा रही थी।
उसके कौतूहल का एक और क्षेत्र था, मतिलाल बाबू की लाइब्रेरी में तस्वीरों वाली अंग्रेजी की किताबें। बाहरी जगत् से उसका यथेष्ट परिचय हो गया था, किंतु तस्वीरों के इस जगत् में वह किसी प्रकार भी अच्छी तरह प्रवेश नहीं कर पाता था। कल्पना द्वारा वह अपने मन में बहुत कुछ जमा लेता, किंतु उससे उसका मन किसी प्रकार तृप्त न होता।
तस्वीरों की पुस्तकों के प्रति तारापद का यह आग्रह देखकर एक दिन मतिलाल बाबू बोले, ‘‘अंग्रेजी सीखोगे? तब तुम इन सारी तस्वीरों का अर्थ समझ लोगे!’’
तारापद ने तुरंत कहा, ‘‘सीखूँगा।’’
मति बाबू बड़े खुश हुए। उन्होंने गाँव के एंट्रेंस स्कूल के हेडमास्टर रामरतन बाबू की प्रतिदिन संध्या-समय इस लड़के को अंग्रेजी पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिया।
तारापद अपनी प्रखर स्मरण-शक्ति एवं अखंड मनोयोग के साथ अंग्रेजी शिक्षा में प्रवृत्त हुआ। मानो वह किसी नवीन दुर्गम राज्य में भ्रमण करने निकला हो, उसने पुराने जगत् के साथ कोई संपर्क न रखा; मुहल्ले के लोग अब उसे न देख पाते; जब वह संध्या के पहले निर्जन नदी-तट पर तेजी से टहलते-पाठ कंठस्थ करता, तब उसका उपासक बालक-संप्रदाय दूर से खिन्नचित्त होकर संभ्रमपूर्णक उसका निरीक्षण करता, उसके पाठ में बाधा डालने का साहस न कर पाता।
चारु भी आजकल उसे बहुत नहीं देख पाती थी। पहले तारापद अंतःपुर में जाकर अन्नपूर्णा की स्नेह-दृष्टि के सामने बैठकर भोजन करता था–किंतु इसके कारण कभी-कभी देर हो जाती थी। इसीलिए उसने मति बाबू से अनुरोध करके अपने भोजन की व्यवस्था बाहर ही करा ली थी। अन्नपूर्णा ने व्यथित होकर इस पर आपत्ति प्रकट की थी, किंतु अध्ययन के प्रति बालक का उत्साह देखकर अत्यंत संतुष्ट होकर उन्होंने इस नई व्यवस्था का अनुमोदन कर दिया।
तभी सहसा चारु भी जिद कर बैठी, ‘‘मैं भी अंग्रेजी सीखूँगी।’’ उसके माता-पिता ने अपनी कन्या के इस प्रस्ताव को पहले तो परिहास का विषय समझकर स्नेह-मिश्रित हँसी उड़ाई–किंतु कन्या ने इस प्रस्ताव के परिहास्य अंश को प्रचुर अश्रु जलधारा से तुरंत पूर्ण रूप से धो डाला। अंत में इन स्नेह-दुर्बल निरुपाय अभिभावकों ने बालिका के प्रस्ताव को गंभीरता से स्वीकार कर लिया। तारापद के साथ-साथ चारु भी मास्टर से पढ़ने लग गई।
किंतु पढ़ना-लिखना इस अस्थिर चित्त बालिका के स्वभाव के विपरीत था। वह स्वयं तो कुछ न सीख पाई, बस तारापद की पढाई में विघ्न डालने लगी। वह पिछड़ जाती, पाठ कंठस्थ न करती। किंतु फिर भी वह किसी प्रकार तारापद से पीछे रहना न चाहती। तारापद के उससे आगे निकलकर नया पाठ लेने पर वह बहुत रुष्ट होती, यहाँ तक कि रोने-धोने से भी बाज न आती थी। तारापद के पुरानी पुस्तक समाप्त कर नई पुस्तक खरीदने पर उसके लिए भी नई पुस्तक खरीदनी पड़ती। तारापद छुट्टी के समय स्वयं कमरे में बैठकर लिखता और पाठ कंठस्थ करता, यह उस ईर्ष्या-परायण बालिका से सहन न होता। वह छिपकर उसके लिखने की कॉपी में स्याही उड़ेल देती, कलम चुराकर रख देती, यहाँ तक कि किताब में जिसका अभ्यास करना होता उस अंश को फाड़ आती। तारापद बालिका की यह सारी धृष्टता आमोदपूर्वक सहता; असह्य होने पर मारता, किंतु किसी प्रकार भी उसका नियंत्रण नहीं कर सका।
दैवात् एक उपाय निकल आया। एक दिन बहुत खीझकर निरुपाय तारापद स्याही से रँगी अपनी लिखने की कॉपी फाड़-फेंककर गंभीर खिन्न मुद्रा में बैठा था; दरवाजे के समीप खड़ी चारु ने सोचा, आज मार पड़ेगी। किंतु उसकी प्रत्याशा पूर्ण नहीं हुई। तारापद्र बिना कुछ कहे चुपचाप बैठा रहा। बालिका कमरे के भीतर-बाहर चक्कर काटने लगी। बारंबार उसके इतने समीप से निकलती कि तारापद चाहता तो अनायास ही उसकी पीठ पर थप्पड़ जमा सकता था। किंतु वह वैसा न करके गंभीर ही बना रहा। बालिका बड़ी मुश्किल में पड़ गई। किस प्रकार क्षमा-प्रार्थना करनी होती है, उस विद्या का उसने कभी अभ्यास न किया था, अतएव उसका अनुतप्त क्षुद्र हृदय अपने सहपाठी से क्षमा-याचना करने के लिए अत्यंत कातर हो उठा। अंत में कोई उपाय न देखकर फटी हुई लेख-पुस्तिका का टुकड़ा लेकर तारापद के पास बैठकर खूब बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा, ‘मैं फिर कभी किताब पर स्याही नहीं फैलाऊँगी।’ लिखना समाप्त करके वह उस लेख की ओर तारापद का ध्यान आकर्षित करने के लिए अनेक प्रकार की चंचलता प्रदर्शित करने लगी। यह देखकर तारापद हँसी न रोक सका–वह हँस पड़ा। इस पर बालिका लज्जा और क्रोध से अधीर होकर कमरे में भाग गई। जिस कागज के टुकड़े पर उसने अपने हाथ से दीनता प्रकट की थी उसको अनंतकाल के लिए अनंत जगत से बिलकुल लोप कर पाती तो उसके हृदय का गहरा क्षोभ मिट सकता।
उधर संकुचित चित्त सोनामणि एक-दो-दिन अध्ययनशाला के बाहर घूम-फिरकर झाँककर चली गई। सहेली चारु शशि के साथ सब बातों में उसका विशेष बंधुत्व था, किंतु तारापद के संबंध में वह चारु को अत्यंत भय और संदेह से देखती। चारु जिस समय अंतःपुर में होती, उसी समय का पता लगाकर सोनामणि संकोच करती हुई तारापद के द्वार के पास आ खड़ी होती। तारापद किताब से मुँह उठाकर सस्नेह कहता, ‘‘क्यों सोना! क्या समाचार है? मौसी कैसी है?’’
सोनामणि कहती, ‘‘बहुत दिन से आए नहीं, माँ ने तुमको एक बार चलने के लिए कहा है। कमर में दर्द होने के कारण वे तुम्हें देखने नहीं आ सकतीं।’’
इसी बीच शायद सहसा चारु आ उपस्थित होती। सोनामणि घबरा जाती, वह मानो छिपकर अपनी सहेली की संपत्ति चुराने आई हो। चारु आवाज को सप्तम पर चढ़ाकर, भौंह चढ़ाकर, मुँह बनाकर कहती, ‘‘ये सोना, तू पढ़ने के समय हल्ला मचाने आती है, मैं अभी जाकर पिताजी से कह दूँगी।’’ मानो वह स्वयं तारापद की एक प्रवीण अभिभाविका हो, उसके पढ़ने-लिखने में लेश-मात्र भी बाधा न पड़े और मानो दिन-रात बस इसी पर उसकी दृष्टि रहती हो। किंतु वह स्वयं किस अभिप्राय से असमय ही तारापद के पढ़ने के कमरे में आकर उपस्थित हुई थी, यह अंतर्यामी से छिपा नहीं था और तारापद भी उसे अच्छी तरह जानता था। किंतु बेचारी सोनामणि डरकर उसी क्षण हजारों झूठी कैफियतें देतीं; अंत में जब चारु घृणापूर्वक उसको ‘मिथ्यावादिनी’ कहकर संबोधित करती तो वह लज्जित-शंकित-पराजित होकर व्यथित चित्त से लौट जाती। दयार्द्र तारापद उसको बुलाकर कहता, ‘‘सोना, आज संध्या समय मैं तेरे घर आऊँगा, अच्छा!’’
चारु सर्पिणी के समान फुफकारती हुई उठकर कहती, ‘‘हाँ, जाओगे! तुम्हें पाठ तैयार नहीं करना है? मैं मास्टर साहब से कह दूँगी!’’
चारु की इस धमकी से न डरकर तारापद एक-दो दिन संध्या के समय पुरोहित जी के घर गया था। तीसरी या चौथी बार चारु ने कोरी धमकी न देकर धीरे-धीरे एक बार बाहर से तारापद के कमरे के दरवाजे की साँकल चढ़ाकर माँ के मसाले के बक्स का ताला लाकर लगा दिया। सारी संध्या तारापद को इसी बंदी अवस्था में रखकर भोजन के समय द्वार खोला। गुस्से के कारण तारापद कुछ बोला नहीं और बिना खाए चले जाने की तैयारी करने लगा। उस समय अनुतप्त व्याकुल बालिका हाथ जोड़कर विनयपूर्वक बारंबार कहने लगी, ‘‘तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, फिर ऐसा नहीं करुँगी। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, तुम खाकर जाना!’’ उससे भी जब तारापद वश में न आया तो वह अधीर होकर रोने लगी; संकट में पड़कर तारापद लौटकर भोजन करने बैठ गया।
चारु ने कितनी बार अकेले में प्रतिज्ञा की कि वह तारापद के साथ सद्व्यवहार करेगी, फिर कभी उसे एक क्षण के लिए भी परेशान न करेगी, किंतु सोनामणि आदि अन्य पाँच जनों के बीच आ पड़ते ही न जाने कब, कैसे उसका मिजाज बिगड़ जाता और वह किसी भी प्रकार आत्म-नियंत्रण न कर पाती। कुछ दिन जब ऊपर-ऊपर से वह भलमनसाहत बरतती तब किसी आगामी उत्कट-विप्लव के लिए तारापद सतर्कतापूर्वक प्रस्तुत हो जाता। आक्रमण हठात् तूफान, तूफान के बाद प्रचुर अश्रुवारि वर्षा, उसके बाद प्रसन्न-स्निग्ध शांति।
इस तरह लगभग दो वर्ष बीत गए। इतने लंबे समय तक तारापद कभी किसी के पास बँधकर नहीं रहा। शायद पढ़ने-लिखने में उसका मन एक अपूर्व आकर्षण में बँध गया था; लगता है, वयोवृद्धि के साथ उसकी प्रकृति में भी परिवर्तन आरंभ हो गया था और स्थिर बैठे रहकर संसार के सुख-स्वच्छंदता का भोग करने की ओर उसका मन लग रहा था; कदाचित् उसकी सहपाठिनी बालिका का स्वाभाविक दौरात्म्य, चंचल सौंदर्य अलक्षित भाव से उसके हृदय पर बंधन फैला रहा था।
इधर चारु की अवस्था ग्यारह पार कर गई। मति बाबू ने खोजकर अपनी पुत्री के विवाह के लिए दो-तीन अच्छे रिश्ते जुटाए। कन्या की अवस्था विवाह के योग्य हुई जानकर मति बाबू ने उसका अंग्रेजी पढ़ना और बाहर निकलना बंद कर दिया।
इस आकस्मिक अवरोध पर घर के भीतर चारु ने भारी आंदोलन उपस्थित कर दिया।
तब अन्नपूर्णा ने एक दिन मति बाबू को बुलाकर कहा, ‘‘पात्र के लिए तुम इतनी खोज क्यों करते फिर रहे हो? तारापद लड़का तो अच्छा है। और तुम्हारी लड़की भी उसको पसंद है।’’
सुनकर मति बाबू ने बड़ा विस्मय प्रकट किया। कहा, ‘‘भला यह कभी हो सकता है! तारापद का कुल-शील कुछ भी तो ज्ञात नहीं है। मैं अपनी इकलौती लड़की को किसी अच्छे घर में देना चाहता हूँ।’’
एक दिन रायडाँगा के बाबुओं के घर से लोग लड़की देखने आए। वस्त्राभूषण पहनाकर चारु को बाहर लाने की चेष्टा की गई। वह सोने के कमरे का द्वार बंद करके बैठ गई–किसी प्रकार भी बाहर न निकली। मति बाबू ने कमरे के बाहर से बहुत अनुनय-विनय की, बहुत फटकारा, किसी प्रकार भी कोई परिणाम न निकला। अंत में बाहर आकर रायडाँगा के दूतों से बहाना बनाकर कहना पड़ा कि एकाएक कन्या बहुत बीमार हो गई है, आज दिखाई की रस्म नहीं हो सकेगी। उन्होंने सोचा लड़की में शायद कोई दोष है, इसी से इस चतुराई का सहारा लिया गया है।
तब मति बाबू विचार करने लगे, तारापद लड़का देखने-सुनने में सब तरह से अच्छा है; उसको मैं घर ही में रख सकूँगा, ऐसा होने से अपनी एकमात्र लड़की को पराए घर नहीं भेजना पड़ेगा। यह भी सोचा कि उनकी अशांत-अबाध्य लड़की का दुरांतपना उनकी स्नेहपूर्ण आँखों को कितना ही क्षम्य प्रतीत हो, ससुराल वाले सहन नहीं करेंगे।
फिर पति-पत्नी ने सोच-विचारकर तारापद के घर उसके कुल का हाल-चाल जानने के लिए आदमी भेजा। समाचार आया कि वंश तो अच्छा है, किंतु दरिद्र है। तब मति बाबू ने लड़के की माँ एवं भाई के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा। उन्होंने आनंद से उच्छ्वासित होकर सम्मति देने में मुहूर्त-भर की भी देर न की।
काँठालिया के मति बाबू और अन्नपूर्णा विवाह के मुहूर्त के बारे में विचार करने लगे, किंतु स्वाभाविक गोपनताप्रिय, सावधान मति बाबू ने बात को गोपनीय रखा।
चारु को बंद न रखा जा सका। वह बीच-बीच में बर्गी (प्राचीन मराठा अश्वारोही लुटेरों का सैन्य दल) के हंगामे के समान तारापद के पढ़ने के कमरे में जा पहुँचती। कभी रोष, कभी प्रेम, कभी विराग के द्वारा उसके अध्ययन-क्रम की निभृत शांति को अकस्मात् तरंगित कर देती। उससे आजकल इस निर्लिप्त मुक्त स्वभाव से ब्राह्मण के मन में बीच-बीच में कुछ समय के लिए विद्युत्स्पंदन के समान एक अपूर्व चांचल्य का संचार हो जाता। जिस व्यक्ति का हलका चित्त सर्वदा अक्षुण्ण अव्याहत भाव से काल-स्त्रोत की तरंग-शिखरी पर उतराकर सामने बह जाता वह आजकल प्रायः अन्यमनस्क होकर विचित्र दिवा-स्वप्न के जाल में उलझ जाता। वह प्रायः पढ़ना-लिखना छोड़कर मति बाबू की लाइब्रेरी में प्रवेश करके तस्वीरों वाली पुस्तकों के पन्ने पलटता रहता; उन तस्वीरों के मिश्रण से जिस कल्पना-लोक की रचना होती वह पहले की अपेक्षा बहुत स्वतंत्र और अधिक रंगीन था। चारु का विचित्र आचरण देखकर वह अब पहले के समान परिहास न कर पाता; ऊधम करने पर उसको मारने की बात मन में उदय भी न होती। अपने में यह गूढ़ परिवर्तन, यह आबद्ध-आसक्त भाव से अपने निकट एक नूतन स्वप्न के समान लगने लगा।
श्रावण में विवाह का शुभ दिन निश्चित करके मति बाबू ने तारापद की माँ और भाइयों को बुलावा भेजा। तारापद को यह नहीं बताया। कलकत्ता के फौजी बैंड को पेशगी देने के लिए मुख्तार को आदेश दिया और सामान की सूची भेद दी।
आकाश में वर्षा के नए बादल आ गए। गाँव की नदी इतने दिन तक सूखी पड़ी थी; बीच-बीच में केवल किसी-किसी गढ्डे में ही पानी भरा रहता था; छोटी-छोटी नौकाएँ उस पंकिल जल में डूबी पड़ी थीं और नदी की सूखी धार में बैलगाड़ियों के आवागमन से गहरी लीकें खुद गई थीं–ऐसे समय एक दिन पिता के घर से लौटी पार्वती के समान न जाने कहाँ से द्रुतगामिनी जलधारा कल-हास्य करती हुई गाँव के शून्य वक्ष पर उपस्थित हुई–नंगे बालक-बालिकाएँ किनारे आकर ऊँचे स्वर के साथ नृत्य करने लगे, मानो वे अतृप्त आनंद से बारंबार जल में कूद-कूदकर नदी को आलिंगन कर पकड़ने लगे हों, कुटी में निवास करने वाली अपनी परिचित प्रिय संगिनी को देखने के लिए बाहर निकल आईं–शुष्क निर्जीव ग्राम में न जाने कहाँ से आकर एक प्रबल विपुल प्राण-हिल्लोल ने प्रवेश किया। देश-विदेश से छोटी-बड़ी लदी हुई नौकाएँ आने लगीं–बाजार का घाट संध्या समय विदेशी मल्लाहों के संगीत से ध्वनित हो उठा। दोनों किनारे के गाँव पूरे वर्ष अपने निभृत कोने में अपनी साधारण गृहस्थी लिए एकाकी दिन बिताते हैं, वर्षा के समय बाहरी विशाल पृथ्वी विचित्र पण्योपहार लेकर गैरिक वर्ण जलस्थ में बैठकर इन ग्राम-कन्याओं की खोज-खबर लेने आती है; इस समय जगत् के साथ आत्मीयता के गर्व से कुछ दिन के लिए उनकी लघुता नष्ट हो जाती है; सब सचल, सजग और सजीव हो उठते हैं एवं मौन निस्तब्ध प्रदेश में सुदूर राज्य की कलालापध्वनि आकर चारों दिशाओं को आंदोलित कर देती है।
इसी समय कुडूलकाटा में नाग बाबुओं के इलाके में विख्यात रथ-यात्रा का मेला लगा। ज्योत्स्ना-संध्या में तारापद ने घाट पर जाकर देखा, कोई नौका-चरखी लिए, कोई यात्रा करने वालों की मंडली लिए, कोई बिक्री का सामान लिए प्रबल नवीन स्त्रोत की धारा में तेजी से मेले की ओर चली जा रही है; यात्रा का दल सारंगी के साथ गीत गा रहा है और सम पर हा-हा-हा शब्द की ध्वनि हो उठती है, पश्चिमी प्रदेश की नौका के मल्लाह केवल मृदंग और करताल लिए उन्मत्त-उत्साह से बिना संगीत के खचमच शब्द से आकाश को विदीर्ण कर रहे हैं–उद्दीपनों की सीमा नहीं थी। देखते-देखते पूर्व क्षितिज से सघन मेघराशि ने प्रकांड काला पाल तानकर आकाश के बीच में खड़ा कर दिया, चाँद ढक गया–पूर्व की वायु वेग से बहने लगी, मेघ के पीछे मेघ दौड़ चले, नदी में जल कलकल हास्य से बढ़कर उमड़ने लगा–नदी-तीरवर्ती आंदोलित वनश्रेणी में अंधकार पुंजीभूत हो उठा, मेढकों ने टर्राना शुरू कर दिया, झिल्ली की ध्वनि जैसे कराँत लेकर अंधकार को चीरने लगी। सामने आज मानो समस्त जगत् की रथ-यात्रा हो, चक्र घूम रहा है, ध्वजा फहरा रही है, पृथ्वी काँप रही है, मेघ उड़ रहे हैं, वायु दौड़ रहा है, नदी बह रही है, नौका चल रही है, गान-स्वर गूँज रहे हैं। देखते-देखते गुरु गंभीर ध्वनि में मेघ गरजने लगा, विद्युत आकाश को चीर-चीरकर चकाचौंध उत्पन्न करने लगी, सुदूर अंधकार में से मूसलधार वर्षा की गंध आने लगी। केवल नदी के एक किनारे पर एक ओर काँठालिया ग्राम अपनी कुटी के द्वार बंद करके दीया बुझाकर चुपचाप सोने लगा।
दूसरे दिन तारापद की माता और भाई आकर काँठालिया में उतरे; उसी दिन कलकत्ता से विविध सामग्री से भरी तीन बड़ी नौकाएँ काँठालिया के जमींदार की कचहरी के घाट पर आकर लगीं एवं उसी दिन बहुत सवेरे सोनामणि कागज में थोड़ा अमावट एवं पत्ते के दोने में कुछ अचार लेकर डरती-डरती तारापद के पढ़ने के कमरे के द्वार पर चुपचाप आ खड़ी हुई–किंतु उस दिन तारापद नहीं दिखाई दिया। स्नेह-प्रेम-बंधुत्व के षड्यंत्र-बंधन उसको चारों ओर से पूरी तरह से घेरें, इसके पहले ही वह ब्राह्मण-बालक समस्त ग्राम का हृदय चुराकर एकाएक वर्षा की मेधांधकारणपूर्ण रात्रि में आसाक्तिविहीन उदासीन जननी विश्वपृथिवी के पास चला गया।
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