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देहाती समाज | शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के द्वारा लिखा गया बांग्ला उपन्यास | (अध्याय - 13, अध्याय - 16)

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देहाती समाज | अध्याय 13

दो महीने से, कई दूसरे डाकुओं के साथ भजुआ हवालात में बंद है। उस दिन रमेश के घर में तलाशी हुई; पर कोई ऐसी चीज न मिली, जिससे संदेह किया जा सकता हो। आचार्य ने भजुआ की तरफ से गवाही दी कि वह घटनावाली रात को उनके साथ उनकी लड़की के लिए वर देखने गया था, फिर भी भजुआ की जमानत नहीं हुई।

वेणी ने रमा के घर आ कर कहा - 'शत्रु को यों ही नहीं नीचा दिखाया जा सकता! बड़े-बड़े पैतरे चलने पड़ते हैं, तब कहीं काम बन पाता है! अगर उस दिन तुम थाने में रिपोर्ट न लिखाती कि मछलियों का हिस्सा लेने के लिए भजुआ घर पर लाठी लेकर चढ़ आया था, तो भला आज वह हवालात में बंद होता? उसी रिपोर्ट के साथ तुमने रमेश का नाम भी लिखा दिया होता, तो फिर देखती मजा! लेकिन उस समय तो तुमने मेरी एक भी बात नहीं मानी!'

रमा का चेहरा फक्क पड़ गया। वेणी ने कहा - 'तुम चिंता मत करो, तुम्हें गवाही देने नहीं जाना पड़ेगा। और अगर जाना भी पड़ा, तो इसमें एतराज ही क्या है? जमींदारी चलानी है, तो ऐसे-वैसे बहुतेरे काम करने ही पड़ेंगे।'

रमा चुप रही।

'रमेश यूँ आसानी से हाथ नहीं आने का! उसने भी तगड़ी चाल चली है। उसके नए स्कूल की वजह से हम लोगों को बड़े दुख उठाने पड़ेंगे। मुसलमान किसान एक तो वैसे ही हम लोगों को जमींदार नहीं मानते; पढ़-लिख जाएँगे तो फिर जमींदार रहना भी बेकार ही समझो!'

रमा जमींदारी का हर काम वेणी बाबू की राय से ही करती थी। जमींदारी के मामले में आज तक उनमें कभी दो मत नहीं हुए थे। आज ही पहला मौका था, जब रमा ने उनकी बात को काट दिया। उसने कहा - 'रमेश भैया का भी तो इसमें नुकसान ही है!'

वेणी को संदेह था कि रमा विवाद करेगी, इसलिए पहले से ही उन्होंने सारी बातें सोच रखी थीं। बोले - 'तुम यह बातें नहीं जानती! उसे तो हम लोगों को परेशान करने में ही खुशी है, फिर चाहे इसमें उसे नुकसान ही क्यों न उठाना पड़े। देखती तो हो, जब से आया है, पानी की तरह रुपए लुटा रहा है। नीच कौम में, चारों तरफ छोटे बाबू के नाम की ही तूती बोल रही है - यही उनके लिए सब कुछ हैं, हम कुछ नहीं! अब यह और अधिक दिन नहीं चलने का! तुमने पुलिस की आँखों में उसे खटका दिया है, अब वही उससे सुलझ लेगी!'

वेणी ने बड़े गौर से रमा की तरफ देखा, कि उनके इस कथन से रमा को जो उत्साह और प्रसन्नता होनी चाहिए थी वह नहीं हुई। बल्कि उसके चेहरे का रंग एकदम सफेद पड़ गया।

'मैंने ही थाने में रिपोर्ट कराई थी, क्या यह बात रमेश भैया को मालूम पड़ गई है?'

'ठीक-ठीक तो नहीं कह सकता, लेकिन एक दिन तो पता लगेगा ही! सभी बातें खुलेंगी न, भजुआ के मुकदमे में!'

रमा चुप ही, मानों मन -ही -मन किसी बड़ी चोट से आहत हो कर अपने को संयत कर रही हो। रह-रह कर उसे यही खयाल होने लगा कि एक दिन रमेश को पता चलेगा ही कि उसको संकट में डालनेवालों में सबसे आगे मैं हूँ। थोड़ी देर बाद सिर उठा कर उसने पूछा - 'आजकल तो सभी के मुँह पर उनका नाम है न?'

'अपने ही गाँव में नहीं, बल्कि इसकी देखा-देखी आस-पास भी पाँच-छह गाँवो में स्कूल खुलने और रास्ते बनने की तैयारी सुनी जा रही है! आजकल तो नीच कौम के हर आदमी के मुँह से यह बात सुन लो - अन्य देश इसलिए उन्नति कर रहे हैं कि गाँव-गाँव में स्कूल हैं! रमेश ने यह वायदा किया है कि जहाँ भी नया स्कूल खुलेगा, वह दो सौ रुपए उस स्कूल के लिए देगा। उसे चाचा जी की जितनी संपत्ति मिली है, वह सब इसी तरह के कामों में लुटा देगा! मुसलमान लोग तो उसे पीर और पैगम्बर समझते हैं!!'

रमा को एकबारगी खयाल आया कि काश, उनके इस पुण्य कार्य में उसका नाम भी शामिल हो सकता! लेकिन दूसरे क्षण यह खयाल गायब हो गया, और उसका समस्त हृदय अंधकार से अभिभूत हो उठा।

'मैं भी उसे सहज में नहीं छोड़ने का! कोई धोखे में भी न रहे कि वह हमारी सारी रिआया को इस तरह बरगला कर बिगाड़ता रहेगा, और हम इसी तरह हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहेंगे! भजुआ की तरफ से भैरव गवाही दे आया। अब मुझे यही देखना है कि वह अपनी लड़की की शादी कैसे करता है! तरकीब तो एक और भी है, लेकिन उसमें गोविंद चाचा की राय ले लूँ। डाके तो जब-तब यहाँ-वहाँ पड़ते ही रहते हैं! इस बार तो नौकर को फँसाया है, अबकी उसी को किसी मामले में धर लपेटने में कोई खास मुश्किल न पड़ेगी! मैं नहीं समझता था कि तुम्हारी बात इतनी ठीक निकलेगी! तुमने तो पहले ही दिन कह दिया था कि वह भी शत्रुता निभाने में किसी से पीछे नहीं रहेगा!'

रमा निरुत्तर रही। वेणी यह न समझ सके कि उनकी उत्साहवर्द्वक, उत्तेजनापूर्ण बातें और अपनी भविष्यवाणी सही बैठने की भूरि-भूरि प्रशंसा भी रमा के मन को प्रफुल्लित न कर सकी, बल्कि उसके चेहरे पर कालिमा घनी हो उठी। उस समय उसके हृदय में कैसा द्वंद्व छिड़ा होगा! लेकिन वेणी की दृष्टि से रमा के चेहरे की कालिमा न छिप सकी। इस पर वेणी को विस्मय भी काफी हुआ। वहाँ से उठ कर वे मौसी के पास दो-चार बातें कर अपने घर जाने को उद्यत हुए कि रमा ने उन्हें इशारे से अपने पास बुलाया और धीरे से पूछा -'छोटे भैया को अगर जेल हो गई, तो क्या इससे हमारे नाम पर धब्बा न लगेगा!'

वेणी ने विस्मयान्वित हो कर पूछा - 'हमारे नाम पर क्यों धब्बा लगेगा?'

'वे अपने ही सगे जो हैं! अगर हम ही उन्हें न बचाएँगे, तो दुनियावाले हमको क्या कहेंगे!'

'जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा! हम उसमें क्या कर सकते हैं?'

'यह बात तो दुनिया ही जानेगी कि रमेश भैया का काम डाका डालने का नहीं है - वे तो परोपकार में ही अपना जीवन बिता रहे हैं। आस-पास के सभी गाँवों में इस बात की खबर उड़ेगी, तब उन सबके सामने हम अपना मुँह कैसे उठा सकेंगे?'

वेणी ठहाका मार कर हँसने लगे और बोले - 'आज यह कैसी बातें कर रही हो?'

एक बार रमा ने मन-ही-मन वेणी और रमेश के चेहरे की तुलना की और उसका सिर नीचा हो गया। उसने कहा - 'मुँह पर चाहे गाँववाले डर के मारे कुछ न कहें, पर पीछे-पीछे तो कोई उन्हें रोक नहीं सकता! शायद तुम कहो कि पीठ पीछे तो राजमाता को भी भला-बुरा कहा जा सकता है। लेकिन भगवान भी तो देखेंगे! वे हमें किसी निरपराधी को झूठ-मूठ फँसाने पर क्षमा न करेंगे!'

'बाप रे! वह लड़का तो न देवी-देवता को मानता है न ईश्‍वर को ही। पूरा नास्तिक है! शीतलाजी का मंदिर टूट रहा है, उसकी मरम्मत कराने के लिए उसके पास आदमी भेजा, तो कहा कि जिन्होंने तुम्हें भेजा है, उन्हीं से जा कर यह कह दो कि ऐसे बेकार के कामों में खर्च करने के लिए उसके पास फालतू पैसे नहीं हैं, और उसे भगा दिया। शीतला जी के मंदिर की मरम्मत करना -उनके लिए बेकार का काम है, और मुसलमानों के लिए खर्च करना उचित है! ब्राह्मण की संतान हो कर भी संध्या-वंदना कुछ नहीं करता। मुसलमानों के हाथ का पानी भी पी लेता है। थोड़ी-सी अंग्रेजी क्या पढ़ ली कि धरम-करम भूल बैठा। परमात्मा के यहाँ से उसे इस सबकी सजा मिलेगी!'

रमा ने आगे विवाद बढ़ाना उचित न समझा, लेकिन रमेश के नास्तिक होने की बात से उसका मन क्षुब्ध हो उठा। वेणी अपने आप से ही कुछ अस्फुट स्वर में बुदबुदाते हुए चले गए। रमा थोड़ी देर तक चुपचाप खड़ी रही और फिर कोठरी में जा कर जमीन पर निश्‍चल बैठ गई। उसका एकादशी का व्रत था उस दिन, यह सोच कर बड़ी शांति मिली।

 

देहाती समाज | अध्याय 14

वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी थी। बंगाल के ग्रामवासियों को एक तरफ दुर्गा पूजा का आगमन आनंदित कर रहा था, तो उसके साथ मलेरिया के आगमन का भय भी सबको व्याकुल बना रहा था। रमेश को भी इस मलेरिया का शिकार होना पड़ा था। गत वर्ष तो वे उसके चंगुल से बच गए थे, पर इस वर्ष उसने उन्हें धर दबाया था। तीन दिन के बाद आज उनका बुखार उतरा था। वे उठ कर खिड़की के सहारे खड़े हो कर सबेरे की धूप ले रहे थे, और मन-ही-मन सोच रहे थे कि गाँव के बाहर जो गड्‍ढों में कीचड़ और पानी जमा है और बेकार झाड़ियाँ गंदगी बढ़ा कर मलेरिया के कीड़ों को जन्म दे रही हैं, उनसे गाँववालों को कैसे सचेत किया जाए। तीन दिन के बुखार ने उन्हें मलेरिया को गाँव से जड़-मूल से नष्ट करने पर बाध्य कर दिया था। वे सोच रहे थे कि मैं समझ-बूझ कर भी अगर इस महामारी से लोगों को सचेत नहीं करूँगा, तो ईश्‍वर कभी मुझे इसकी सजा दिए बिना नहीं रह सकते! उन्होंने पहले भी इस संबंध में गाँववालों से बात चलाई थी, पर यह चाह कर भी कि इस भीषण बीमारी से छुटकारा मिले, गड्‍ढों और झाड़ियों की गंदगी दूर करने को कोई भी साथ देने को तैयार न था। वे इसे व्यर्थ का काम समझ कर इसकी जरूरत को महसूस नहीं कर रहे थे। वे तो सोचते थे कि जिसे गरज होगी, वह अपने आप करेगा ही - और फिर ये गड्‍ढे और झाड़ियाँ आज की तो हैं नहीं, पुराने जमाने से चली आ रही हैं। और फिर, जो भाग्य में होगा, वह तो हो कर रहेगा ही, हम क्यों नाहक इस काम में अपना पैसा खर्च करें? रमेश को मालूम हुआ कि पास का एक गाँव तो इस महामारी के कारण प्रायः श्मशान हो गया है; और ताज्जुब यह है कि उसके पास एक दूसरा गाँव है, जहाँ अमन-चैन है। इस सूचना के पाते ही उन्होंने मन-ही-मन यह तय कर लिया था कि उनकी दशा ठीक होगी, तो वे निश्‍चय ही उस गाँव में जा कर, वहाँ की हालत का निरीक्षण करेंगे। उन्हें यह विश्‍वास हो गया था कि वहाँ मलेरिया न होने का कारण यही हो सकता है कि वहाँ पानी जमा न होता होगा और गाँव में सफाई रहती होगी। लोगबाग का ध्यान उस ओर न गया होगा; पर जब उन्हें यह बात समझाई जाएगी, तो निश्‍चय ही उनकी समझ में आएगी। उन्हें सबसे बड़ी प्रसन्नता इस समय इस बात की हो रही थी, कि आज उनकी इंजीनियरिंग शिक्षा के इस्तेमाल का समय आया है -और वे परोपकार में उसका इस्तेमाल कर सकेंगे।

वे इसी सोच में लगे थे कि किसी ने पीछे से रोनी आवाज में पुकारा -'छोटे बाबू!'

रमेश ने चौंक कर, पीछे मुड़ कर देखा कि भैरव जमीन पर औंधे पड़े फूट-फूट कर स्त्रियों की तरह बिलख रहे हैं। उनके साथ उनकी एक कन्या भी है, जिसकी उम्र लगभग आठ साल की है। वह भी अपने बाप के साथ, बिलख-बिलख कर कमरे को सिर पर उठाए है। थोड़ी देर में ही घर के सभी लोग जमा हो गए। रमेश स्तब्ध हो रहा था। उसकी कुछ समझ में न आया कि आखिर क्या मामला है! कोई मर गया है क्या? या कोई दुर्घटना हो गई है? कैसे उन्हें सांत्वना दें? गोपाल सरकार भी आ गए और भैरव का हाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश करने लगे। भैरव ने उसके दोनों हाथों से कस कर पकड़ते हुए, जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। भैरव का इस तरह रोना देख कर रमेश व्यग्र हो उठा और असमंजस में पड़ गया।

भैरव ने गोपाल सरकार की सांत्वना से स्वस्थ हो अपना दुख रोया। रमेश सुन कर अवाक रह गया। बात यह थी कि भजुआ तो भैरव की गवाही देने से छूट आया था। पर भैरव से पुलिसवाले तभी खार खा उठे थे। भजुआ को तो रमेश ने तभी अपने देश भेज दिया था, ताकि पुलिस की वक्र दृष्टि से वह बच सके। वह तो बच गया, लेकिन भैरव चक्कर में आ गए। जब उन्हें अपने संकट का हाल मालूम हुआ, तो वे दौड़ कर शहर गए और मामले की पूरी खोज-बीन की। उन्हें पता लगा कि राधानगर के संत मुकर्जी ने, जो वेणी के चचिया ससुर होते हैं, पाँच -छह रोज हुए तभी, सूद और मूल मिला कर ग्यारह सौ छब्बीस रुपए सात आने की डिगरी भैरव के नाम निकलवाई है। एक दिन के अंदर ही उसका सारा घर कुर्क करके रकम की अदायगी की जाएगी; और सबसे बड़ा ताज्जुब तो यह था कि भैरव के नाम से किसी ने उनका सम्मन भी तामील कर लिया था और अदालत में जा कर रुपया भरने का वायदा भी कर लिया था।

सारा का सारा मामला फर्जी था। यह था, एक गरीब से अपना प्रतिशोध लेने के लिए, समर्थों का जाल! अब मामले की अपील-पैरवी करने का वक्त बाकी न रहा था, और न भैरव के पास इतने रुपए ही थे कि अदालत में रुपए भर कर, इस जालसाजी के खिलाफ मामला आगे बढ़ाए। उसके सामने तो इस तरह झूठे जाल में फँसकर बरबादी के सिवा कुछ और न था।

बात साफ थी कि यह जाल गोविंद गांगुली और वेणी बाबू ने मिल कर बिछाया था! लेकिन किसी की हिम्मत न थी भैरव की बरबादी को देखते हुए भी, उनके विरुद्ध कुछ भी कह सके। रमेश ने साफ-साफ समझा कि इनके इस जाल के पीछे, एक दरिद्र ब्राह्मण की बरबादी में सबसे तगड़ा हाथ उनके पैसे का है, जिसके जोर पर आज सरकारी कानून का भी अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने में वे समर्थ हो सके। उनकी इस कुटिलता के लिए समाज में भी कोई विधान नहीं है। तभी अनेक अत्याचार करने पर भी वे देहाती समाज में सिरमौर बने बैठे हैं। ताई जी की बातें रह-रह कर उनके मस्तिष्क में टकराने लगीं, उन्हें उनकी उस दिन की बात याद आई, जब उन्होंने हँसते हुए कहा था कि बेटा, यह गाँववाले अंधकार के गर्त में पड़े हैं - बस, तुम एक बार जात-पाँत का, भले-बुरे का ध्यान न कर इनके मार्ग को प्रकाशित कर दो। इनको अँधेरे से निकाल कर उजाले में खड़ा कर दो, ताकि ये उजाले में अपना सही रास्ता पहचान सकें!! यह समझने में तब वे स्वयं ही समर्थ हो जाएँगे कि किसमें उनका हित है और किसमें अहित! और उन्होंने उनसे कहा था कि इस समय समाज को छोड़ कर कहीं भी न जाएँ! आज अपने यहाँ रहने की आवश्यकता को उन्होंने स्पष्ट ही महसूस किया।

रमेश ने एक ठण्डी आह भरते हुए मन-ही-मन कहा - 'यही है हमारा बंगाली देहाती समाज, जिसकी न्यायप्रियता, सहिष्णुता और आपसी मेल-मुहब्बत पर हमें गर्व है! हो सकता है कि कभी इसमें भी सजीवता रही हो, जब यहाँ सहिष्णुता, सद्‍भावना और न्यायप्रियता रही हो। लेकिन आज तो वह कुछ निश्‍चय ही नहीं है! लेकिन सबसे दुख की बात तो यह है कि बेचारे भोले-भाले ग्रामीण इस विकृत और मृतप्राय समाज से ही संतुष्ट हैं, इसके प्रति उनकी ममता छोड़े नहीं छूटती; और वे आँखें रहते हुए भी नहीं देख पा रहे कि इनकी यह मृग-संतुष्टि ही उनको पतन की ओर खींचे लिए जा रही है!'

थोड़ी देर तक तो रमेश अपने मनोभाव में ही खोया रहा। उससे जागने पर वे उठ कर खड़े हो गए, और गोपाल सरकार को भैरव के जाली कर्जेवाली सारी रकम के भुगतान के लिए एक चेक दिया और बोले - 'आप सारी बातें समझ कर शहर जाइए! ये रुपए जमा कीजिए और अपील का भी जैसे बन पड़े इंतजाम करके आइए! इंतजाम ऐसा हो कि झूठे जाल बिछानेवालों को अच्छा सबक मिल जाए!' भैरव और गोपाल दोनों ही, रमेश के इस साहसिक काम से दंग रह गए। रमेश ने फिर गोपाल सरकार को सारी बातें विस्तार से समझा दीं, तो भैरव को विश्‍वास हुआ कि रमेश मजाक नहीं कर रहा है, बल्कि उसने जो कुछ किया है, वह सत्य है! आत्म-विस्मृत भैरव ने रोते हुए रमेश के पैर पकड़ लिए और रो-रो कर आशीर्वाद की झड़ी लगा दी। रमेश को उन्होंने इस तरह पकड़ लिया कि अगर कोई दुबला -पतला कमजोर आदमी होता, तो अपने को छुड़ाने में उसे बड़ी मुश्किल पड़ जाती। बिजली की तरह यह बात सारे गाँव में फैल गई। सभी ने सोचा कि अब वेणी और गांगुली, दोनों की जान साँसत में पड़ जाएगी। सभी का खयाल था कि रमेश ने भैरव की मदद में जो इतने रुपए दिए हैं, सो इसलिए कि वेणी और गांगुली से वे अपनी शत्रुता का बदला लेना चाहते हैं। किसी ने स्वप्न में भी यह न सोचा कि रमेश ने भैरव की यह सहायता एक निर्धन के प्रति अपने कर्तव्य पालन के नाते की है!

इस घटना को बीते करीब एक महीना हो गया। मलेरिया के प्रतिरोध कार्य में उन्होंने अपने को इस बुरी तरह जुटा रखा था कि उन्हें यह याद ही न रहा कि कब भैरव के मुकदमे की तारीख है! आज शाम को रोशन चौकीदार की आवाज सुन कर उन्हें एकाएक तारीख की याद आई।

उन्हें नौकर से पता चला कि आज भैरव के धोवते का अन्नप्राशन है। उन्हें इसका कोई निमंत्रण ही नहीं मिला था, यह जान कर वे एकदम चकित रह गए। नौकर से उन्हें यह भी पता चला कि भैरव ने आज गाँव भर को दावत दी है और खूब जोर-शोर से तैयारी की है। उन्होंने घरवालों से पूछा, पर किसी ने यह नहीं बताया कि उनके नाम भी कोई निमंत्रण आया था। उन्हें यह खयाल आते ही भैरव के मुकदमे की तारीख भी कल ही होते हुए भी, वे उनसे पिछले बीस-पच्चीस दिनों से मिलने नहीं आए थे। फिर भी किसी तरह उनका मन यह विश्‍वास न कर सका कि उन्हें दावत देने में वह चूक गया है। अपने इस संदेह पर उन्हें स्वयं ही लज्जा आने लगी और तुरंत एक दुपट्टा कंधे पर डाल कर वे भैरव के घर की तरफ चल पड़े। घर के बाहर पहुँचकर उन्होंने देखा कि बहुत-से आदमी वहाँ जमा हैं। आँगन में एक पुराना शामियाना तना हुआ है, और शामियाने में मुकर्जी और घोषाल बाबू के घर से पाँच-छह पुरानी-सी लालटेनें ला कर जलाई गई हैं। लालटेनों से रोशनी कम और धुआँ इतना निकल रहा है कि वहाँ किसी आदमी का खड़ा होना भी दूभर है। सारा वातावरण असीम दुर्गंध से भर गया है - खाना-पीना समाप्त हो चुका है और अधिकतर आदमी अपने-अपने गाँव को जा रहे हैं, गाँव के बड़े-बूढ़े 'जाऊँ-जाऊँ' कर रहे हैं। हरिदास और धर्मदास उनसे कुछ और देर बैठने के लिए विनती कर रहे हैं! और गोविंद गांगुली वहाँ से थोड़ी दूर पर किसान के लड़के के साथ अकेले में गप कर रहे हैं। रमेश को वहाँ आया देख कर सबके होश फाख्ता हो गए। भैरव खुद भी किसी काम से बाहर निकल आए, रमेश को वहाँ खड़ा देख कर सहमते हुए-से, फिर तेजी से अंदर चले गए। यह सब देख का रमेश उलटे पैर बाहर लौट आया। बाहर उन्हें किसी के पुकारने की आवाज सुनाई पड़ी - 'रमेश भैया!'

रमेश ने रुक कर पीछे मुड़ कर देखा कि दीनू हाँफते हुए चले आ रहे हैं। पास आ कर उन्होंने कहा - 'आइए भैया जी, घर में पधारिए!'

रमेश ने हँसने की कोशिश की, लेकिन न हँस सका। रास्ता चलते दीनू ने कहा - 'भैरव के साथ जो आपने उपकार किया है वह भैरव के माँ-बाप भी नहीं कर सकते! लेकिन उसका भी विशेष दोष नहीं है। घर-गृहस्थी के साथ हम लोगों को समाज में दिन काटने पड़ते हैं। अगर आपको निमंत्रण दिया जाता, तो फिर...आप तो स्वयं ही सब बातें समझते हैं। तुमने शहर की आबहवा में जिंदगी बिताई है, तभी तुम्हें जात-पाँत का कोई विशेष विचार नहीं है न! उस बेचारे को तो अभी लड़कियों का ब्याह करना है! अपने समाज का हाल तो तुम जानते ही हो!'

रमेश ने उद्विग्न हो कर कहा - 'मैं सब समझ गया!'

रमेश के मकान के दरवाजे पर खड़े हो कर ये बातें हो रही थीं। दीनू से प्रसन्न होते हुए कहा - 'तुम कोई बच्चे तो हो नहीं, जो समझोगे नहीं! समझोगे क्यों नहीं? और फिर हम बुड्‍ढों को तो अपने परलोक की भी चिंता है - उस बेचारे गरीब ब्राह्मण को दोष नहीं दिया जा सकता!'

रमेश जल्दी से घर में घुसते हुए यह कहते हुए चला गया - 'हाँ, बात तो ठीक कह रहे हैं आप!'

रमेश को अब समझने के लिए कुछ बाकी न रहा था कि उसे जाति से अलग कर दिया गया है। उसकी आँखों से क्रोध की अग्नि निकलने लगी और हृदय व्यथा से भर उठा। सबसे ज्यादा बात जो उन्हें खटक, वह यह थी कि भैरव को, मुझे न बुलाने पर; पिछले व्यवहार के लिए क्षमा कर दिया है और अब वह उनका आदमी हो गया है। रमेश कुर्सी पर बैठते हुए, एक ठण्डी आह भर कर अपने-आपसे बोला - 'भगवान, इस कृतघ्न को कोई दण्ड भी है? क्या तुम क्षमा कर सकोगे इसे?'

 

देहाती समाज | अध्याय 15

वैसे तो रमेश को भी संदेह हो गया था कि भैरव ने उसके साथ धोखा किया है, और दूसरे दिन गोपाल सरकार ने शहर से लौट कर इस बात की पुष्टि भी कर दी कि भैरव ने अपने को अदालत में न हाजिर करके हमारे साथ दगा की है, और मुकदमा खारिज हो गया है। उसने जो कुछ रुपए जमा किए थे, वे सब वेणी के हाथ लगे। सुनते ही रमेश ऊपर से नीचे तक आग-बबूला हो उठा। रमेश ने भैरव को जाल से बचाने के लिए ही रुपए जमा किए थे, लेकिन उसने कृतघ्नता की हद कर दी! कल के अन्नप्राशन में निमंत्रित न किए जाने और आज की इस कृतघ्नता ने उनके समस्त तंतुओं को गुस्से से झनझना दिया। जिस अवस्था में वह बैठा था वैसे ही उठ कर बाहर जाने लगा। उसकी आँखों से रक्त बरस रहा था। गोपाल सरकार ने उनकी लाल आँखों को देख कर, डरते हुए धीरे से पूछा - 'कहीं जा रहे हैं क्या आप?'

'कहीं नहीं, अभी आया!' और जल्दी से वे भैरव के घर की ओर चले गए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा - चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। वे घर में घुसे चले गए। उस समय भैरव की स्त्री तुलसी का दीपक जलाने के लिए खड़ी थी। रमेश को इस तरह अकस्मात आया देख कर, भैरव की स्त्री मारे डर के सिहर उठी। रमेश ने उससे पूछा - 'कहाँ हैं आचार्य जी?' रमेश के शरीर पर एक कुर्ता भी नहीं था और अँधेरे में केवल उनका चेहरा ही स्पष्ट दिखाई दे रहा था। रमेश के प्रश्‍न पर, भैरव की स्त्री ने अपने मुँह में ही बुदबुदा कर उत्तर दिया, जो स्पष्ट न होने के कारण रमेश को पूरा तो न सुन पड़ा, पर उसका निष्कर्ष उन्होंने यह निकाला कि भैरव घर पर नहीं है। तभी एक छोटे लड़के को गोद में लिए हुए भैरव की बड़ी लड़की लक्ष्मी बाहर निकली। अँधेरे में रमेश को न पहचान सकने के कारण उसने अपनी माँ से पूछा कि कौन हैं? माँ भी कुछ कह न सकी और रमेश भी मौन खड़ा रहा। लक्ष्मी दोनों में से किसी को बोलता न देख भयभीत हो चिल्ला पड़ी - 'बाबू! देखो, यह न जाने कौन आँगन में खड़ा है? कुछ बोलता भी नहीं!'

'कौन है। कहते हुए भैरव निकल आए। रमेश को इस अँधेरे में भी पहचानने में उन्हें देर न लगी। उनके हाथ-पैर सुन्न हो गए।

रमेश ने कर्कश स्वर में कहा - 'इधर तशरीफ लाइए!' और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए, आगे लपक कर अपनी मजबूत मुट्ठी से उसके हाथ पकड़ लिए और तीव्र स्वर में पूछा -'तुमने ऐसा क्यों किया?'

भैरव रोने लगा - 'बाप रे बाप! मार डाला! दौड़ो रे दौड़ो! अरे, लक्ष्मी, जल्दी जा, वेणी बाबू से कह दे!'

घर भर के सारे बच्चे रोने-चीखने लगे और सारा मुहल्ला उनके रोने-बिलखने से गूँज उठा। रमेश ने उसे जोर से झटका देते हुए चुप रहने को कहा और डाँट कर फिर पूछा - बोलो, तुमने ऐसा क्यों किया?'

भैरव जोर-जोर से चीखते-चिल्लाते ही रहे। रमेश की बात का उत्तर न दिया और बराबर रमेश से अपने को छुड़ाने के लिए खींचातानी करते रहे। हल्ला-गुल्ला सुन कर अड़ोस-पड़ोस के औरत-मर्द आँगन में जमा हो गए और देखते-देखते वहाँ भीड़-सी लग गई। लेकिन आवेशोन्मत्त रमेश ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और बराबर भैरव को दबोचते ही रहे। भीड़ अवाक् हो, चुपचाप खड़ी देखती रही। रमेश की शक्ति के बारे में लोग वैसे ही भयभीत थे। अनेक कहानियाँ उनके दल के बारे में प्रचलित हो गई थीं। उनके इस समय के रुद्र रूप को देख कर, उनको रोकने का किसी में साहस न हुआ। गोविंद तो पहले ही भीड़ में छिप गए थे। वेणी भी यह तमाशा देख-छिपने के लिए इधर-उधर ताकने लगे। लेकिन भैरव की नजर उन पर पड़ गई और वह एकदम चिल्ला पड़े - 'बड़े बाबू!' लेकिन उन्होंने उनकी एक व्यग्र पुकार की ओर ध्यान न दे, भीड़ में अपने को झट से छिपा लिया। तभी भीड़ में एक तरफ से खलबती-सी मची और दूसरे क्षण ही रमा रास्ता करते हुए रमेश के पास आ, उसका हाथ पकड़ कर बोली -'छोड़ दो अब! बहुत हो लिया!'

रमेश ने क्रोधित आँखों से उसकी ओर देखते हुए कहा - क्यों?'

रमा ने दाँत भींच कर गुस्से से स्वर में कहा - 'तुम्हें शर्म नहीं आती जो इतने आदमियों के बीच ऐसा कर रहे हो! मैं तो मारे शर्म के गड़ी जा रही हूँ।'

अब रमेश ने आँगन की तरफ उठ कर देखा और तुरंत ही भैरव को छोड़ दिया।

रमा ने अत्यंत कोमल सानुरोध स्वर में कहा - 'तुम घर जाओ अब!'

रमेश बिना एक भी शब्द बोले वहाँ से चला गया, मानो एक जादू-सा हो गया। रमेश के जाने के पश्‍चात रमा के कहने पर इस तरह शांतिपूर्वक चले जाने के प्रति, भीड़ में एक-दूसरे की आँखें मूक आलोचना करने लगीं। मानो वे नहीं चाहते थे कि यह घटना इस तरह समाप्त होती!

धीरे-धीरे सभी लोग वहाँ से जाने लगे। गोविंद गांगुली ने खतरा टला देख निश्‍चिंतता की साँस ले, भीड़ से निकल, गंभीर मुद्रा में उँगली नचाते हुए कहा, 'यह जो घर में आ कर वह भैरव को मार-मार कर अधमरा कर गया, इसके लिए क्या उपाय किया जाए, अब जरा इसका उपाय सोच लो!'

भैरव मुँह नीचा किए सिसक रहे थे। उन्होंने वेणी की तरफ दीनभाव से मुँह उठा कर देखा। रमा भी वहाँ मौजूद थी। वेणी का मंतव्य समझ कर बोली - 'बड़े भैया! वैसी तो कोई विशेष बात हुई नहीं है, जिनके कारण मामले को तूल दिया जाए, और फिर इधर भी दोष तो कम नहीं है!'

वेणी ने आश्‍चर्यान्वित हो कर कहा - 'यह तुम क्या कहती हो?'

लक्ष्मी भी खंभे के सहारे खड़ी रो रही थी। वहीं से तड़प कर बोली - 'तुम तो उसका पक्ष लोगी ही, रमा बहन! अगर तुम्हारे बाप को, तुम्हारे घर में घुस कर कोई मार जाता इस तरह, तो तुम क्या करतीं, जरा यह बताओ?'

रमा चौंक पड़ी उसका स्वर सुन कर। उसने आ कर इसके पिता की जान बचा दी थी। इसका एहसान वह माने, न माने, इसकी रमा को परवाह न थी, लेकिन उसका यह व्यंग्य वाक्य रमा के दिल में तीर की तरह चुभ गया। फिर भी वह अपने को संयत कर बोली - 'लक्ष्मी, ऐसी बात मत कहो! मेरे और तुम्हारे बाप में कोई समानता नहीं, और फिर मैंने तो तुम्हारा भला ही किया है!'

लक्ष्मी भी जवाब देने में किसी से कम न थी। गाँव की औरत जो ठहरी, तीव्र स्वर में बोली - 'बड़े घर की हो न! डर के मारे इसलिए कोई कुछ कहता नहीं! नहीं तो जग जाहिर है कि तुम क्यों उसका पक्ष ले रही हो? तुम्हारी जगह और कोई होती तो इतने पर फाँसी लगा लेती।'

वेणी ने लक्ष्मी को डाँटते हुए कहा - 'अरे चुप भी रह न! क्यों व्यर्थ में उखाड़ती है इन बातों को?'

'उखाड़ूँ क्यों नहीं? यह उसी का पक्ष लेकर बात जो कह रही है, जिसने बाबू को अधमरा कर दिया! कहीं कुछ हो जाता तो?'

रमा स्तब्ध हो गई। लेकिन लक्ष्मी को वेणी की इस डाँट ने उसके क्रोध को फिर सजग कर दिया। लक्ष्मी की तरफ देखते हुए उसने कहा -'ऐसे मनुष्य के हाथ से मौत पाना भी बड़े सौभाग्य की बात है, लक्ष्मी! अगर वे इनके हाथ से मर गए होते, तो निश्‍चय ही उनको स्वर्ग मिलता।'

लक्ष्मी के जले पर नमक लग गया। तिलमिला कर बोली - 'तभी तो तुम फिदा हुई हो उस पर!'

रमा ने इस बात का लक्ष्मी को तो कोई उत्तर दिया नहीं, वेणी की ओर उन्मुख हो बोली - 'यह क्या बात है, बड़े भैया? जरा साफ-साफ बताओ न!' वह एकटक प्रश्‍नात्मक नेत्रों से उनकी ओर देखती रही। मानो उसके नेत्र, वेणी के अंतर में भीतर तक आर-पार हो कर उसके दिल को टटोलना चाहते हों।

वेणी ने व्यग्र हो कर कहा - 'मैं तो कुछ जानता नहीं बहन! ये लोग ही ऐसी न जाने क्या-क्या लगाते फिरते हैं। उन पर ध्यान मत दो।'

'पर कहते क्या हैं ये लोग?'

वेणी ने अन्यमनस्क हो कर कहा - 'कहते फिरें, उनके कहने भर से ही तो किसी की दोष लग नहीं जाएगा!'

रमा ने यह अनुभव किया कि वेणी की वह बातें कोरी बनावटी सहानुभूति मात्र हैं। थोड़ी देर चुप रह कर उसने कहा - 'तुम्हें तो किसी बात के कहने से दोष नहीं लगता, लेकिन सब तो तुम्हारी तरह से हैं नहीं! लेकिन कहता कौन है, लोगों से यह सब बातें तुम?'

'मैं?'

रमा भीतर-ही-भीतर मारे गुस्से के सुलग रही थी। लेकिन ऊपर से बड़ी कोशिशों से अपने को संयत बनाए रही। आवेश में वह अब भी न आई, बोली - 'हाँ, तुम्हीं कहते हो! तुम्हारे अलावा और कोई नहीं कह सकता! भला दुनिया में ऐसा कोई काम है, जिसे तुम न कर सकते हो? चोरी, जालसाजी, आग, फौजदारी आदि सभी तो हो चुके हैं, अब इसी की कसर क्यों रह जाए?'

वेणी सकते में रह गए। उनके मुँह से एक शब्द भी न निकल सका।

'तुम नहीं समझ सकते कि एक स्त्री के लिए उसके चरित्र पर दोष ही उसका सर्वनाश है! पर जानना तो मैं भी यही चाहती हूँ कि भला इसमें तुम्हारा क्या लाभ है मेरी बदनामी करने में?'

वेणी ने सहम कर काँपते स्वर में कहा - 'मैं क्या लाभ प्राप्त करूँगा?' लोगों ने स्वयं अपनी आँखों से, तुम्हें सवेरे के समय रमेश के घर में से निकलते देखा है!'

रमा ने उसकी इस बात को अनसुनी कर कहा - 'यहाँ इतनी भीड़ में और कुछ मैं कहना नहीं चाहती, पर इतना तो अवश्य ही कहे देती हूँ बड़े भैया कि तुम्हारे मन में क्या है सो मैं सब जानती हूँ। और यह भी तुम्हें चेताए देती हूँ कि तुम्हें मार कर ही मरूँगी!'

भैरव की पत्नी स्तब्ध खड़ी सब तमाशा देख रही थी। उसने रमा का हाथ पकड़ कर अत्यंत कोमल स्वर में कहा - 'पागल न बनो बेटी! सब जानते हैं कि तुम क्या हो? लक्ष्मी औरत हो कर भी, तू एक औरत की बदनामी क्यों करती है? मेरे ऊपर दया कर। इन्होंने जो तेरे बाप की जान बचाई है, उसे अगर सचमुच तेरे अंदर जरा भी अक्ल होती तो समझती!' और रमा को वह अपनी कोठरी में लिवा ले गई। उपस्थित लोग उसकी यह व्यंग्य भरी बात सुन, धीरे -धीरे वहाँ से चले गए।

रमेश इस घटना के बाद अपने आवेश पर स्वयं ही इतने खीझा कि उनसे उसके बाद, दो दिन घर से बाहर न निकला गया। रह-रह कर उनके मानस पटल पर, रमा ने स्वयं आ कर भीड़ के सामने उनके इस अवांछनीय आवेशपूर्ण कार्य की लज्जा को जो बताया, उसका विचार बार-बार अपनी झलक दिखाता रहा, और अपने कृत्य की लज्जा से मस्तक पर एक ओजस्वी आभा अंकित करता रहा। अत: उनके अंतर में जहाँ एक ग्लानि की भीषण जलन थी, वहीं पर रमा के इस प्रकार के आचरण का शीतल मलहम उन्हें शांति भी प्रदान कर रहा था। उन्हें यह भी ज्ञात न था कि जिस समय वे यह विचार कर रहे थे कि अभी और कुछ दिनों तक बाहर नहीं निकलना चाहिए, उसी समय विश्‍व प्रांगण में एक अन्य प्राणी भी इसी प्रकार की जलन से पीड़ित हो रहा था।

पर वे और अधिक अज्ञातवास न कर सके। पीरपुर गाँव की आज शाम की पंचायत में शरीक होने के लिए कई आदमी उन्हें बुलाने आए थे। रमेश ने ही स्वयं इस पंचायत की योजना बनाई थी। यह सुन कर कि आज उसकी बैठक हो रही है, उसमें जाने से वे किसी प्रकार न रुक सके और तैयार हो गए।

आस-पास के सभी गाँवों में गरीबों की संख्या बेशुमार है। अनेक तो उसमें से ऐसे हैं, जो खेतहीन मजदूर हैं, जिसके पास अपने जोतने-बोने के लिए एक बीघा भी जमीन नहीं है। दूसरों के खेतों पर मेहनत-मजदूरी कर पेट पालना ही उनकी जीविका का एकमात्र साधन है। यह नहीं कि वे हमेशा से गरीब ही रहे हों, पर समाज के आर्थिक ढाँचे ने उन्हें इस दशा में पहुँचा दिया है। महाजनों के कर्ज में दब कर, उनके सूद की चक्की में पिस कर इन्होंने अपनी सारी संपत्ति गँवा दी और वे महाजन इनकी बेबसी पर ही धनी बन बैठे। महाजन रुपए के सूद में, नकद न लेकर फसल के रूप में सूद लेते, जिससे कभी-कभी तो उन्हें मूल धन के बराबर फायदा हो जाता। जीवन में एक बार भी अगर कोई किसान - चाहे वर्षा की कमी के कारण अथवा किसी सामाजिक कार्य के लिए - कर्ज लेने पर विवश हो जाता तो फिर जीवन भर ही क्यों पुश्त-दर-पुश्त तक वह उसके जाल से छुटकारा न पाता। इस जाल में हिंदू-मुसलमान दोनों ही किसानों के जीवन छटपटा रहे हैं।

किताबों में रमेश ने थोड़ी-बहुत जानकारी प्राप्त की थी इस विषय की। पर उसका वीभत्स रूप उसने गाँव में ही आ कर, स्वयं अपनी आँखों से देखा, तो मारे विस्मय और क्षोभ के उसकी आँखें फटी-की-फटी रह गईं। उसने सोचा कि जो रुपए बैंकों में पड़े हैं, उनसे ही इन महाजनी जोंकों से उद्धार किया जाए। पर इस मार्ग में उन्हें ठोकर खानी पड़ी थी, जिसके अनुभव के कारण उन्होंने अपना इरादा बदल दिया और उनकी कुछ-कुछ धारणा ऐसी हो चली कि ये लोग जितने निर्धन और लाचार हैं, उतनी ही उनमें बुराइयाँ भी कूट-कूट कर भरी हैं। कर्ज लेकर न चुकाना तो उनके लिए साधारण-सी बात है! यही नहीं कि सभी ऐसे हैं! कुछ अच्छे लोग भली प्रकृति के भी हैं। पास-पड़ोस की सुंदर स्त्रियों और कुमारियों के बारे में बातें करना भी इनकी दिनचर्या में शामिल है। विधवा तो सभी घरों में प्राय: किसी-न-किसी अवस्था की है ही। पुरुषों के विवाह में दिक्कत पेश आने लगी है, तभी इनके समाज का नियमन काफी बड़ा है। कुछ भी हो, पर इनकी दुर्दशा देख कर किसी भी दिलवाले के लिए उधर से आँख फेरना मुश्किल है, जैसे बुराई में फँसे पुत्र की तरफ पिता की भावना होती है, वैसा ही रमेश की भावना भी इन लोगों के प्रति हो रही थी। पीरपुर की आज की पंचायत का उद्देश्य भी यही था।

शाम हो चली थी। चाँदनी बाहर के मैदानों पर अपनी शीतल चादर बिछा रही थी। रमेश तैयार हो कर खड़ा था वहीं जाने को, पर पैर नहीं बढ़े थे उधर अभी। कुछ सोच के वहीं खड़ा था कि रमा आ गई। उजाला न होने के कारण रमेश पहचान न सका, घर की नौकरानी समझ कर बोला - 'क्या चाहिए?'

'बाहर जा रहे हैं क्या आप?'

रमेश चौंक कर बोला - 'कौन, रमा? कैसे आईं इस समय?'

वह इस समय क्यों आई थी, यह बताना तो बेकार था, पर जिस काम से आई, उसके बारे में बहुत-सी बातें कहने को थीं। वह समझ नहीं पा रही थी कि बात कैसे शुरू हो। वह चुपचाप खड़ी रही, रमेश भी चुप रहा। थोड़ी देर बाद रमा बोली - 'कैसी है अब आपकी तबीयत?'

'ठीक नहीं है! रात को रोज ही बुखार आता है।'

'तो फिर आपके लिए तो यही अच्छा है कि कहीं बाहर घूम आइए जा कर!'

'होगा तो अच्छा! लेकिन कैसे जाऊँ?' कह कर थोड़ी व्यंग्य भरी मुस्कान खिल उठी उनके होंठों पर।

रमा उनकी हँसी से क्रोधित हो कर बोली - 'मैं जानती हूँ कि आप बहाना करेंगे कि यहाँ काम बहुत जरूरी है। पर मैं पूछती हूँ कि ऐसा कौन-सा जरूरी काम है, जो स्वास्थ्य से भी बहुत अधिक जरूरी है!'

रमेश ने उसी तरह मुस्कराते हुए कहा - 'स्वास्थ्य को गैरजरूरी तो मैं भी नहीं कहता, पर दुनिया में मनुष्य के सामने कभी-कभी ऐसे भी अवसर आते हैं, जब उनके सामने के काम का मूल्य जीवन से भी अधिक होता है! पर वह तो सब कुछ तुम्हारी समझ से परे है, रमा!'

'वह कुछ भी समझना-सुनना मैं नहीं चाहती! बस, इतना जानती हूँ कि आपको कहीं बाहर जाना ही होगा! आप सरकार बाबू को सहेज जाइएगा, मैं देखभाल करती रहूँगी सब काम-धंधो की।'

रमेश ने आश्‍चर्यान्वित हो कहा - 'तुम करोगी देखभाल? और मेरे काम की? पर...!'

'पर-वर क्या?'

'मैं क्या विश्‍वास कर सकूँगा तुम पर?'

रमा ने सरल भाव से कहा - 'चाहे कोई और न भी कर सके, पर आप तो कर ही सकते हैं!'

रमा के इस नि:संकोच दृढ़ उत्तर से रमेश विस्मय में पड़ गया। थोड़ी देर मौन रह कर बोले - 'देखो, सोचूँगा!'

रमा ने उसी दृढ़ता से कहा - 'सोचने का समय अब नहीं है! आपको तो आज ही कहीं बाहर जाना होगा, और यदि नहीं गए तो...।'

रमा का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ कि रमेश के चेहरे पर लगी उसकी दृष्टि ने उसे व्यग्र होते अनुभव किया, क्योंकि रमा का यह अधूरा वाक्य ही भावी आशंका की सूचना के लिए काफी था। रमेश ने कहा - 'समझ लो, मैं चला गया! पर तुम्हें क्या लाभ होगा मेरे जाने से? तुमने स्वयं भी तो मुझे संकट में फँसाने में कोई कसर उठा नहीं रखी! तो फिर आज ही ऐसी क्या बात है, जो आगाह करने चली आईं? अभी सब घाव ताजा ही हैं! तुम स्पष्ट कहो कि अगर मैं चला जाऊँ तो तुम्हें क्या लाभ होगा? हो सकता है, तुम्हारा लाभ जान कर मैं जाने को तैयार हो भी जाऊँ!'

और रमा के उद्विग्न चेहरे की तरफ रमेश उत्तर की प्रतीक्षा में टकटकी लगा कर देखने लगे। पर रमा ने कोई उत्तर न दिया। रमेश अँधेरा होने के कारण न देख सका कि उनके व्यंग्यात्मक वाक्यों से रमा का स्वाभिमान कितना आहत हो उठा है! जितनी वेदना से उसका चेहरा विकृत हो उठा है। थोड़ी देर तक मौन रह कर अपने को सचेत कर रमा ने कहा - 'स्पष्ट ही कहती हूँ कि तुम्हारे जाने से लाभ तो मेरा कुछ भी न होगा, पर नुकसान अवश्य ही बड़ा होगा, गवाही देनी पड़ेगी मुझे!'

रमेश के स्वर में नीरसता थी, बोला - 'तो यह मामला है? लेकिन गवाही न दो तो क्या होगा?'

थोड़ी देर रुक कर रमा ने कहा - 'दो दिन बाद हमारे यहाँ पूजन है -महामाया का। गवाही न देने से कोई भी हमारे उस पूजन में शरीक न होगा और न फिर कोई यतींद्र के यज्ञोपवीत संस्कार के समय हमारे यहाँ भोजन ही करेगा!' कहती हुई रमा सिहर उठी।

इतना ही काफी था सारी परिस्थिति समझने के लिए पर रमेश से न रहा गया; पूछा - 'फिर क्या होगा?'

रमा ने तिलमिलाते हुए कहा - 'फिर...? नहीं-नहीं! जाना ही होगा तुम्हें! तुम चले जाओ! मैं विनती करती हूँ तुम्हारी, रमेश भैया! मैं बरबाद हो जाऊँगी, अगर तुम न गए तो!'

थोड़ी देर बाद तक दोनों में से कोई भी न बोल सका! अब से पहले रमा के मिलते ही रमेश आवेश से भर उठता था और लाख कोशिशें करने पर भी उसका मन शांत न हो पाता था। अपने इस आवेश और उन्मत्तता पर तब वह स्वयं ही खीज उठता, हृदय शांत न हो पाता था। इस समय भी, रमा को अपने घर के एकांत में पा कर, और पिछले दिन की घटना याद करके वह फिर आवेशोन्मत्त हो उठा। लेकिन रमा के अंतिम वाक्य ने उसके उन्मत्त ज्वार को वहीं शांत कर दिया। रमा के इस आग्रह में रमेश की स्वास्थ्य-चिंता के बहाने में अपना कितना जबरदस्त स्वार्थ छिपा था - इसे सुनते ही रमेश पर कटे पक्षी की तरह अपने भीतर-ही-भीतर तिलमिला उठा और एक दीर्घ नि:श्‍वास छोड़ कर बोला -'चला जाऊँगा! पर आज तो हो नहीं सकता! समय नहीं रहा अब और फिर मेरे यहाँ से चले जाने पर तुमको जितना बड़ा लाभ होगा - उससे कहीं जरूरी है मेरा आज रात को यहीं करना! तुम अपनी दासी को बुला कर जाओ। मैं अभी बाहर जा रहा हूँ।'

'आज नहीं जा सकते क्या, किसी भी तरह?'

'नहीं!...दासी कहाँ गई तुम्हारी?'

'मैं अकेली ही आई हूँ।'

रमेश चकित रह गया, बोले - 'क्यों? साहस कैसे किया तुमने, यहाँ अकेले आने का?'

रमा ने सुकोमल स्वर में कहा - 'क्या फायदा होता - उसे ला कर भी? वह होती भी तो तुम्हारे हाथ से मेरी रक्षा नहीं हो सकती थी। मैं आ सकी इसलिए, क्योंकि तुम पर मेरा विश्‍वास था!'

'वह ठीक है, लेकिन इस तरह जो झूठी बदनामी उड़ सकती है, उसकी ढाल तो वह बन सकती थी, रानी! रात भी काफी हो गई!'

रमेश बचपन में रमा को इसी नाम से पुकारता था। अपने उसी पुराने संबोधन को सुन कर रमा आत्मविभोर हो उठी, पर संयत हो कर बोली - 'वह भी बेकार ही होता, रमेश भैया! उजली रात है, अकेली ही जा सकती हूँ।'

और बिना किसी बात की प्रतीक्षा किए, रमा वहाँ से चली गई।

 

देहाती समाज | अध्याय 16

हर वर्ष रमा दुर्गा पूजा बड़ी धूम-धाम से करती थी - और पूजा के एक दिन पूर्व से ही 'गाँव के सब गरीब किसानों को जी भर कर भोजन कराती थी। चारों तरफ से आदमियों का जमघट हो जाता उसके घर माता का प्रसाद पाने के लिए। आधी रात के बाद भी घर भर में पत्तल पर, पुरवों, सकोरों में भर कर मिठाई का दौर चलता ही रहता। चारों तरफ जूठन बिखर जाता। खाने की सामग्री इस तरह बिखरी रहती कि आदमी के पैर रखने तक की जगह न मिल पाती। यह बात नहीं कि उस उत्सव में केवल हिंदू ही आ कर शामिल होते हों, पीरपुर के मुसलमान भी बड़े चाव से आ कर हिस्सा लेते और माता का प्रसाद बड़ी श्रद्धा से खाते थे।

रमा इस वर्ष दुर्गा पूजा के अवसर पर बीमार थी, फिर भी तैयारी पूरी की गई। सप्तमी की पूजा ठीक समय हुई। उसके बाद सुबह बीती, दोपहर आया, वह भी बीता और शाम होने आई, और चंद्रमा अपना खिलता मुखड़ा दिखा कर आसमान पर ज्योत्स्ना बिखेरने लगा। लेकिन उत्सव प्रांगण में कुछ इने-गिने भद्र पुरुषों के आलावा सुनसान था। भीतर चावल पर पपड़ी पड़ी जा रही थी। भोजन सामग्री भी रखी-रखी अपने भाग्य पर रो कर, स्वयं ही सिकुड़ी-ठिठुरी जा रही थी। पर माता का प्रसाद लेनेवाले किसानों में से एक भी अभी तक नहीं आया।

वेणी बाबू मारे तैश के, पैर फटफटाते कभी बाहर जाते, कभी अंदर आते और चीखते फिर रहे थे - 'इतना मिजाज इन नीच कौमों का कि हमने तो इतना सब कुछ इंतजाम किया इस सबके लिए और ये आए ही नहीं! न इसका मजा चखाया सालों को, तो बात ही क्या रही! चुन-चुन कर ठीक करूँगा ससुरों को - घर उजड़वा दूँगा!' और भी जो कुछ तैश में उनके मुँह में आता गया, सो वे कहते गए।

धर्मदास और गोविंद गांगुली भी आग बबूला हो रहे थे और घूम -घूम कर सोच रहे थे कि किसके बरगलाने से वे ससुरे नहीं आए हैं। सबको यह बड़ा ताज्जुब हो रहा था कि न एक हिंदू आया और न एक मुसलमान! दोनों ही कौमें इसमें एकमत हो गई थीं।

मौसी भी अंदर बैठी-बैठी चिल्ला रही थीं - बस शांतचित्त अगर था कोई तो रमा! उसने किसी पर दोष नहीं मढ़ा और न किसी का बुरा ही चीता। उसमें बिलकुल परिवर्तन आ गया था। न वह पहलेवाला गुस्सा रहा, न जिद रही और न वह अभिमान ही। बीमारी के कारण उसका रूप भी क्षीण हो चला था। चेहरे पर एक व्यथा एवं क्षोभ की कालिमा आ गई थी। आँखों से ऐसा जान पड़ता, मानो विश्‍व की सारी व्यथा का सागर समा गया हो, उसकी इन दो पुतलियों में! जो दरवाजा चंडी मंडप की तरफ से है उसी तरफ से आ कर वह देवी की मूर्ति के पास खड़ी हो गई। उसे आया देख हितचिंतक उसे सुना -सुना कर, बड़े -बड़े चुने वाक्यों में नीच कौम को कोसने लगे। रमा ने उन्हें सुना और मुस्कान की रेखा खिल गई उसके होंठों पर। उस मुस्कान में एक अजीब व्यथा छिपी थी, जिसमें अपने अवसान के प्रति अपने आप ही एक व्यंग्य था, किसी अन्य के प्रति कुछ भी नहीं! यह ठीक नहीं कहा जा सकता कि क्या-क्या छिपा था उसकी उस मुस्कान में?

वेणी ने बिगड़ते हुए कहा - 'यह इस तरह हँस कर टाल देने की बात नहीं है! हर्गिज नहीं है! जरा पता तो चले कि आखिर है कौन इस सबकी जड़ में? यों मसल कर फेंक दूँगा उसको!' दाँत किटकिटा कर उन्होंने गुस्से से अपनी दोनों हथेलियाँ मसल डाली।

रमा उनका वह रूप देख कर सिहर उठी।

वेणी बोले - 'जिस रमेश पर इन ससुरों की इतनी हिम्मत पड़ी है, उन्हें नहीं मालूम कि वही खुद जेल में पड़ा चक्की पीस रहा है। इनको तो मैं देखते-देखते ठिकाने लगा दूँगा!'

रमा शांत रही। वह काम करने बाहर निकल आई, चुपचाप करती रही और फिर उसी तरह चुपचाप वहाँ से चली भी गई।

डेढ़ महीने से रमेश भैरव के घर में घुस कर उसे मार डालने के अपराध में जेल काट रहा था। नए मजिस्ट्रेट को पहले कूट-कूट कर भर दिया गया था कि रमेश के लिए ऐसे काम करना रोज की आदत है। उनको यह भी संदेह करा दिया गया था कि उनका हाथ इन डकैतियों में भी रहा है। इस तरह की जो झूठी रिपोर्टें पहले से थाने के रोजनामचे में दर्ज करा दी गई थीं, उन्होंने तो उनके संदेह को और भी पुष्ट करा दिया था, और उन्हें मुकदमे के फैसले में फिर किसी अन्य प्रमाण की जरूरत न रही। सिर्फ रमा को जरूरी गवाही देनी पड़ी थी कि रमेश आया था - भैरव के मकान में घुस कर उसे मारने! पर उसे यह नहीं याद कि उसने छुरी मारी या नहीं, या उसके पास छूरी थी भी या नहीं?

रमा के अदालत के सामने तो हलफ उठा कर यह बात कही थी, पर वास्तविकता क्या थी? परमेश्‍वर की अदालत में तो वह एक हलफ उठा कर सच पर परदा नहीं डाल सकती! वे तो स्वयं एक -एक बात जानते है। वहाँ क्या जवाब देगी? वह यह अच्छी तरह तरह जानती थी कि रमेश के हाथ में छुरी तो क्या, एक तिनका भी नहीं था! मगर वह झूठ बोलने के लिए विवश कर दी गई थी। वेणी जैसे व्यक्ति जिस समाज के अधिष्ठाता हों, वह सत्य के बल पर नहीं चलता। उसका तो झूठ, दगा, बेईमानी ही एकमात्र आसरा है - उसे यह धमकी दे कर गवाही के लिए विवश किया गया था कि उसे बदनाम कर समाज में मुँह दिखाने लायक न रखा जाएगा जैसे और भी पहले बहुतों के साथ किया जा चुका है! रमा को यह न मालूम था कि रमेश को इस अपराध में इतनी लंबी और कठिन सजा हो सकती है। उसने तो सोचा था कि ज्यादा से ज्यादा सौ-दो सौ रुपए का जुर्माना हो जाएगा। जुर्माने की तो उसने मन से चाह की थी। जब वह उसके बार -बार हठ करने और समझाने पर भी, अपना काम छोड़ अन्यत्र भागने को राजी न हुआ था तब खीझ कर उसने सोचा था कि इस तरह उसे एक सबक मिल जाएगा। पर उसने कभी यह न सोचा था कि अदालत उसके बीमारी से पीत चेहरे को देख कर भी न पसीजेगी और सीधे छह महीने की सजा बोल देगी। उसकी तो हिम्मत ही न पड़ी थी, अदालत में रमेश की तरफ आँख उठा कर देखने की, पर औरों के मुँह से सुन कर उसे मालूम पड़ा था कि वह लगातार उसी के चेहरे की तरफ टकटकी लगाए देखते रहे थे। उसे याद था कि सजा सुन चुकने के बाद, जब गोपाल सरकार ने उनसे आगे अपील करने की बात कही थी तो उसने दृढ़ स्वर में कहा था कि नहीं! अपील करने की कोई जरूरत नहीं, मैं इस तरह छूटना नहीं चाहता! अगर उसे जीवन पर्यन्त कैद की सजा दी जाती, तो भी वह अपील न करता, क्योंकि जेल इस गाँव से कहीं अच्छी होगी!

जिस संसार में इतना फरेब हो कि भैरव ने अपनी सहायता का बदला उन्हें धोखा दे कर दिया और रमा ने भी अदालत के सामने खड़े हो कर झूठी गवाही देने में हिचक न की, तो वे किसलिए छुटकारा चाहें? नि:संदेह जेल इसके अच्छी होगी!

उस समय की उनकी घृणा भरी वाणी रमा के हृदय पर हथौड़े की तरह चोट कर रही थी। रह-रह कर उसका आहत हृदय कराह उठता। उसने झूठी गवाही नहीं दी थी, फिर भी सच बात तो उसने छिपा ही दी! काश, उस समय यह ज्ञात होता कि सच बात न कहने पर उसे रात-दिन इस तरह ग्लानि में जलते रहना होगा। तुरंत उसके सामने भैरव का अपराध इतना गहनतम हो उठा, जिसके कारण रमेश ने उसे वह दण्ड देना चाहा था कि उसे सोचते ही उसके समस्त हृत्तंतु मूक वेदना से झंकृत हो उठे। रमेश ने उसके सिर्फ एक बार के कहने पर ही उसे माफ कर दिया था। उसे खयाल आया कि जितना रमेश ने उसकी बात को इस तरह मान कर उसका सम्मान किया है, उतना आज तक इस जीवन में कभी किसी ने नहीं दिया।

रात-दिन की इस जलन में एक सत्य उसके सामने निखर कर चमक उठा था। एक अमूल्य हस्ती को इस तरह, जिस समाज के भय से उसने गँवा दिया, वह समाज है क्या? क्या उसकी बिसात है? और क्या उसकी कसौटी? उसके ठेकेदार हैं वेणी और गांगुली जैसे लोग, जिनके पल्लों में झूठ और फरेब बँधे रहते हैं। जिसकी बिसात में है धनिकों, समर्थों के हाथों में नाचना, और जिसकी कसौटी है झूठ, फरेब, दगाबाजी! जो जितना बड़ा झूठा है, जितना बड़ा फरेबी है, वह उतना ही बड़ा समाज का ठेकेदार है।

सभी जानते हैं कि गोविंद की विधवा भौजाई का वेणी के साथ नाजायज संबंध है। पर उसका प्रेमी भी समाज का ठेकेदार है और उसका देवर भी! 'सैंया भए कोतवाल तो अब डर काहे का' - आज भी उनके बीच नीच कर्म, समाज की छाती को रौंदकर अपना ठेकेदारी की दुंदुभि बजा रहे हैं; ओर उनकी चहेती, समाज की छाती पर बैठी मूँग दल रही है।

इस समाज की चक्की ने नीचे अनेक निरपराध बे-मौत पिस कर चटनी बन गए, इन समाजपतियों के स्वार्थ के शिकार हो गए।

वही तस्वीर है, हमारे आज के समाज की और हिंदुत्व की!

रमा ने जब अपने कृत्य पर दृष्टिपात किया, तो भैरव के ऊपर गुस्से के बजाय अपने ऊपर ही उसे ग्लानि बढ़ गई। भैरव की लड़की की उम्र बारह वर्ष की होने को आई। यही है शादी की उमर! अगर उसकी शादी न हो सकी, इसी उमर में, तो फिर समाज के कुदाल से उसका बचना मुश्किल ही है!

समाज का यह विकराल रूप मनुष्य को क्या-क्या नहीं करने पर मजबूर कर डालता! नारी को समाज में अपने को असली कहने की वेदना से बचने के लिए समाजपतियों के हाथ अपनी लाज गिरवी रखनी पड़ती है; नर को न जाने कितने फरेब और धोखे का जीवन बिताना पड़ता है। जिस समाज के डर ने उसे झूठ बोलने पर विवश कर दिया, उसी के डर से यदि भैरव ने भी रमेश के साथ धोखा किया तो इसमें उनका दोष कैसे कहा जा सकता है?

उसी समय घर के सामने से एक वृद्ध सनातन हाजरा कहीं जा रहा था। गोविंद गांगुली ने बढ़ कर उसे पुकारा, मगर वह न आया, उसने उसकी खुशामद की और अंत में एक तरह से जबरदस्ती हाथ पकड़ कर, वेणी के सामने ला कर उसे खड़ा कर दिया।

उसे देखते ही वेणी ने गुस्से में लाल-पीला हो कर कहा - 'आजकल तो तुम लोगों का दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गया है। क्यों सनातन, तुम्हारे कंधों पर जान पड़ता है, एक सिर और कुलबुला उठा।'

'जब आप सबके दो सिर नहीं, तो भला और फिर किसके होंगे, बड़े बाबू? हम गरीबों के? कभी नहीं!'

'क्या बक-बक करता है?' मारे क्रोध के वेणी काँप उठे। वेणी के यहाँ सनातन ने सारा मालमत्ता थोड़ा पहले गिरवी रखा था। तब यही सनातन दोनों जून आ कर उनकी चिरौरी करता था। आज उनके मुँह से इतनी बात!

'दो सिर किसी के भी नहीं होते - मैंने तो यही कहा है, बड़े बाबू!'

गोविंद ने बात को बढ़ा कर कहा - 'तुम्हारी छाती में कितना दम-खम है, हम तो यही देख रहे हैं! भला यह भी कोई बात है कि तुम माता का प्रसाद तक लेने नहीं आए?'

सनातन ने हँसते हुए कहा - 'हमारे सीने का दम-खम! कर तो चुके - आपके हाथ में जो कुछ भी था! जाने भी दीजिए उन सब बातों को, पर यह जान लीजिए कि चाहे वह माता का प्रसाद हो और चाहे कुछ भी हो, कोई भी कायस्थ ब्राह्मण के घर नहीं आएगा। भला धरती माता कैसे सहन कर सकती है, इतना बड़ा पाप!'

एक दीर्घनिःश्‍वास रमा की तरफ देख कर वह बोला - 'बहन, आपको मैं चेताए जाता हूँ, रमेश बाबू को सजा हो जाने के कारण पीरपुर के मुसलमान लड़के खार खाए बैठे हैं। कह नहीं सकता कि जब वे छूट कर आएँगे, तब क्या होगा! पर अभी ही दो-तीन बार वे सब बड़े बाबू के घर चक्कर लगा गए हैं, बस खैरियत ही समझो कि बड़े बाबू उस समय उनकी निगाह में नहीं पड़े!' कह कर उसने वेणी पर एक नजर डाली।

सुनते ही वेणी का सारा गुस्सा काफूर हो गया और मारे भय के पीला पड़ गया उनका चेहरा।

'आप जरा होशियारी से रहें, बड़े बाबू! मैं झूठ नहीं कहता, दुर्गा माई के सामने बैठा हूँ। कहीं रात-बिरात बाहर न निकलिएगा! कहाँ कब कौन बैठा हो, कहा नहीं जा सकता!'

वेणी ने कुछ कहना चाहा, पर जुबान न खुली मारे भय के।

अब रमा बोली - 'सनातन, तुम लोगों की नाराजगी शायद छोटे बाबू के ही कारण है?'

दुर्गा की मूर्ति की तरफ देख कर सनातन ने कहा - 'बात तो ऐसी ही है! झूठ बोल कर नरक का भागी नहीं बनूँगा। मुसलमान तो छोटे बाबू को हिंदुओं का देवता मानते हैं। बास पूछिए मत, उनको गुस्सा बहुत ज्यादा है, प्रमाण भी मौजूद है आपने सामने। जफर अली से भला कभी किसी को आशा थी, एक पैसे की? लेकिन उसी ने - जिस दिन छोटे बाबू को सजा सुनाई गई - स्कूल को एक हजार रुपए दान दिए हैं। मैंने तो यहाँ तक भी सुना है कि मस्जिद में छोटे बाबू के लिए नमाज पढ़ कर दुआ माँगी जाती है!'

सनातन की बात सुन कर रमा का दिल खिल उठा और आनंद से चमकती आँखों से वह समातन की तरफ देखती रही।

सहसा सनातन का हाथ पकड़ कर वेणी ने कहा -'तुम जरा थाने चल कर दारोगा जी के सामने यह बात कह दो, सनातन! मैं तुम्हें मुँह-माँगा इनाम दूँगा! दो बीघे जमीन माँगोगे, तो वह भी तुम्हें दूँगा, देवता के सामने कसम खा कर यह वचन देता हूँ।'

सनातन चकित दृष्टि से वेणी के मुँह की तरफ देखता रहा, बोला - 'अब मैं बुढ़ापे में, लालच में आ कर यह नीच काम करूँ, बड़े बाबू? मरने पर मेरा मुरदा उठाना तो अलग रहा, ठोकर मारने भी कोई पास न फटकेगा! छोटे बाबू ने तो जमाना ही उलट दिया है, अब पहले दिनों के सपने मत देखो, बड़े बाबू!'

'तो तू एक ब्राह्मण की बात टालेगा, क्यों?'

'अगर मैंने कुछ कहा तो आप बिगड़ खड़े होंगे, गांगुली जी। उस दिन पीरपुर के स्कूल में छोटे बाबू ने कहा था - सिर्फ जनेऊ पहन लेने भर से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता! आपकी नस-नस से जानकार हूँ मैं! जिंदगी देखते ही देखते कट गई है, आपकी करतूतें!! आपकी करनी क्या ब्राह्मणों को शोभा देती है! तुम्हीं कहो बहन! मैं झूठ कह रहा हूँ?'

रमा निरुत्तर रही। उसका सिर झुक गया। सनातन बोला - 'छोटे बाबू जब से जेल गए हैं, तभी से जफर अली की चौपाल पर, रोज शाम को दोनों गाँवों के नौजवान लड़के जमा होते हैं, खुलेआम वे कहते-फिरते हैं कि असली जमींदार तो छोटे बाबू ही हैं - बाकी तो सब उचक्के हैं! डरना किस बात का? ब्राह्मण का-सा आचरण करें, तो हम उन्हें ब्राह्मण भी मान सकते हैं। नहीं तो हममें और उनमें अंतर ही क्या है?'

वेणी ने उदास मुँह से कहा - 'वे हम पर इतने नाराज क्यों हैं, सनातन, इसका कारण बता सकते हो?'

'माफ कीजिए, बड़े बाबू! अब उनसे यह बात छिपी नहीं रही है कि इन सब खुराफातों की जड़ में आप ही हैं!!'

वेणी की सारी नसें मारे भय के नीली पड़ गई थीं। नीच कौम के सनातन से यह वाक्य सुन कर भी उनकी नसों में जोश न आया।

'तो जाफर का घर है, उनका अड्डा! बता सकते हो, क्या करते हैं वे सब वहाँ?'

गोविंद के चेहरे की तरफ देखता हुआ, थोड़ी देर तक तो सनातन मौन रहा, मानो कुछ सोच रहा हो। फिर कहा उसने - 'यह तो मैं नहीं जानता कि वे सब वहाँ क्या करते हैं। पर इतना आपको बता दूँ कि अपना भला चाहते हो, तो अब उधर आँखें मत उठाना। सारे हिंदू-मुसलमान नौजवान एकमत हो गए हैं! जब से छोटे बाबू जेल गए हैं, बस नारद ही बने बैठे हैं। तुमने उन्हें छेड़ा कि शिकार बने!'

कह कर सनातन तो चला गया। उसके जाने के बाद, किसी के मुँह से थोड़ी देर तो कोई बात ही न निकली। सभी के चेहरों पर, भय के मारे मुर्दनी छाई थी। रमा को उठ कर जाते देख वेणी ने कहा - 'सुन लिया न सब हाल, रमा?'

रमा के होंठों को मुस्कान की रेखा छू गई। शब्द उसके मुँह से एक भी न निकला। उसकी मुस्कान ने वेणी के शरीर को तीखे तीर की तरह वेध दिया। बोले - 'रमा, तुम तो हँसोगी ही! औरत हो न! तुम्हें तो घर में ही रहना है, हमको तो बाहर सब कुछ भुगतना होगा। न जाने कब कौन सिर फोड़ कर रख दे। उसी भैरव के कारण यह दिन देखना पड़ रहा है। तुमने जा कर बचा दिया उसे, नहीं तो यह सब बखेड़ा क्यों तैयार होता? यही दिन देखने होते हैं, औरतों के साथ काम करने में!'

मारे भय के वेणी का मुँह अजीब हो रहा था। रमा वेणी की नस-नस से परिचित थी, पर उसे यह आशंका न थी कि वे निर्लज्जता से अपना सारा दोष उनके माथे मढ़ देंगे। और थोड़ी देर तक स्तब्ध खड़ी रह कर वहाँ से वह चली गई।

वेणी भी दो लालटेन ले, पाँच-छह आदमियों की चौकसी में, चौकन्ने हो कर अपने घर चल दिए।

 

देहाती समाज | अध्याय - 17, अध्याय - 19 |

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