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देहाती समाज | शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के द्वारा लिखा गया बांग्ला उपन्यास | (अध्याय - 9, अध्याय - 12)

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देहाती समाज | अध्याय 9

ताई जी के घर से लौटते-लौटते रमेश का सारा गुस्सा पानी हो गया। वह अपने मन में सोचने लगा - कितनी आसान बात थी! आखिर मैं गुस्सा करूँ भी, तो किस पर करूँ? जो अपनी जहालत में अपना-पराया, अपनी भलाई-बुराई का भी ज्ञान नहीं कर सकते, जो भलाई में बुराई का संशय करते हैं, जो अपने घरवाले, अपने पड़ोसी से ही लड़ने में अपनी बहादुरी समझते हैं, चाहे बाहरवाले के सामने भीगी बिल्ली ही बने रहें - और यह वे जान-बूझ कर नहीं करते, बल्कि उनका ऐसा स्वभाव ही बन गया है, तो फिर ऐसे लोगों पर भी क्या गुस्सा होना! किताबों में कितना गलत वर्णन होता है - गाँव की स्वच्छता का, आपसी भाईचारे का! पड़ोसी का दुख देख कर पड़ोसी दौड़ आता है, इस तरह से उसकी सहायता में तत्पर रहता है; किसी के घर में खुशी होती है तो सारा गाँव खुशी में फूला नहीं समाता। पर उसने जो कुछ किताबों में पढ़ा था, उसका नितांत उलटा पाया इन गाँवों में! जितना आपसी द्वेष-वैमनस्य गाँवों में उसे मिला, उतना शहरों में नहीं। इन्हीं सारी बातों को सोच-सोच, उनका सारा शरीर अजीब सिहरन से भर उठा। किताबों में पढ़ी धारणा के बल पर ही, जब कभी शहर के कोलाहलपूर्ण भागों में उसे बुराई दीख पड़ती, तभी उसका दिल अपने गाँव भाग चलने को व्याकुल हो उठता। पर अब जब नियति ने उसे गाँव में ला कर पटक दिया, तो उसकी सारी धारणा एक दिन में धूल में मिल गई; और आज गाँव का जो स्वरूप उसके सामने आया, वह अपने घोर विकृत रूप में - जो निरंतर पतन के गङ्ढे की तरफ ही अग्रसर होता जा रहा है। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि अपने धर्म और समाज के इसी स्वरूप को ये सर्वांगीण सुंदर मानते हैं, और शहर के धर्म और समाज को निकृष्ट! उसी में वे परम संतुष्ट हैं।

आँगन में पैर रखते ही, रमेश ने एक अधेड़ स्त्री को, एक दस-ग्यारह वर्ष के लड़के के साथ, सहमी-सी एक कोने में बैठे देखा। रमेश को आया देख, वह उठ कर खड़ी हो गई। उस लड़के की दयनीय दशा देख कर, बिना कुछ जाने ही रमेश का दिल रो उठा। गोपाल सरकार चंड़ी मंडप के बरामदे में बैठे, लिखा-पढ़ी में लगे थे। उन्होंने वहाँ से उठ कर रमेश के पास आ कर कहा - 'दक्षिणी मुहाल में इसका घर है। पिता का नाम द्वारिका पण्डित है, आपसे कुछ विनती करने आई है।'

रमेश ने समझ लिया कि विनती का मतलब भिक्षा है! और तभी उसे फिर गुस्सा हो आया। झुँझला कर बोला - 'सारे गाँव में मैं ही दानी बचा हूँ? और कोई घर में नहीं है क्या?'

'बात भी ऐसी ही है, बाबू! बड़े बाबू के समय में, द्वार पर आया व्यक्ति कभी खाली हाथ नहीं लौटा। उसी आस में आज भी लोग यहीं दौड़ कर आते हैं।' बेचारी स्त्री को देख कर उसने कहा - 'कामिनी की माँ! जब वह जीता था, तब उसका प्रायश्‍चित क्यों नहीं कराया? भला यह गलती नहीं है लोगों की? अब लगे दौड़ने! घर में मुर्दा पड़ा है। क्या कुछ बरतन-भाँडे नहीं हैं इसके पास?'

कामिनी की माँ उस लड़के की पड़ोसिन थी, उसने उत्तर दिया - 'जो विश्‍वास न आता हो मेरी बात का, तो आप खुद ही चल कर देख लें। होता, तो क्या मरे बाप को घर में छोड़ कर, इस तरह भीख माँगने आता? क्या तुमने नहीं देखा कि जो कुछ मेरे पास था, सब कुछ खर्च कर दिया मैंने इन्हीं लोगों पर, पिछले छह महीनों में ही। सोचा था कि ब्राह्मण है, वहीं इसके बच्चे भूखों न मरने लगें।'

रमेश की समझ में अब कुछ-कुछ आया। गोपाल सरकार ने सारी बात विस्तार से कही - 'इस लड़के के बाप द्वारिका चक्रवर्ती को छह महीने से दमा हो गया था। आज सवेरे उनके प्राण निकल गए। बंगाल में दमा और इसी प्रकार के कई रोगों के संबंध में प्रायश्‍चित करना पड़ता है। मगर जो होना चाहिए था, वह नहीं हुआ; तभी लाश घर में पड़ी है, उसे कंधा लगाने कोई भी नहीं गया। अब भी प्रायश्‍चित नहीं होगा तो लाश यों ही पड़ी रहेगी। कामिनी की माँ ने ही छह माह से इसकी सहायता की थी और उसी में अपना भी सब कुछ लगा बैठी - अब इसके पास भी कुछ नहीं रहा। तभी लड़के को लेकर, आपके पास विनती करने आई है।'

थोड़ी देर मौन रह कर रमेश ने कहा - 'इस समय दो बजे हैं। प्रायश्‍चित न करने पर, क्या वास्तव में लाश वैसे ही पड़ी रहेगी?'

'जी! यह शास्त्र का नियम जो ठहरा! मुर्दा न पड़ा रहे, इसलिए बेचारी भीख माँगने निकली है। क्यों कामिनी की माँ, कहीं और भी गई थी क्या?'

लड़के ने अपनी मुट्ठी में बँधे पाँच आने पैसे दिखा दिए और कामिनी की माँ बोली - 'मुकर्जी के घर से चवन्नी मिली है, और हवलदार ने दिए हैं चार पैसे। पर प्रायश्‍चित में तो लगेंगे सवा दो रुपए! इससे कम में तो हो ही नहीं सकता! यदि बाबू की कृपा हो जाए तो...।'

'और अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं, घर जाओ! मैं आदमी भेज कर सारा प्रबंध करा दूँगा।'

वे लोग चले गए। गोपाल सरकार की तरफ अत्यंत दु:खित नेत्रों से देख कर रमेश बोला - 'क्यों सरकार जी, इस गाँव में भला कितने घर इस तरह के गरीब होगें?'

'दो-तीन होंगे। ये लोग भी खाते-पीते थे। पर एक पेड़ के पीछे सनातन हजारी से उन्हें द्वारिका का मुकदमा चला, और नौबत यहाँ तक आ गई कि बस उजड़ ही गए! दाने-दाने को मोहताज हो गए! यहाँ तक हालत न भी बिगड़ती।' - वह स्वर धीमा करके बोले - 'हमारे वेणी बाबू और गोविंद गांगुली ने बढ़ावा दे-दे कर, इस दशा को पहुँचा दिया इन बेचारों को!'

रमेश बोला - 'और वेणी बाबू के ही यहाँ इनकी मिलकियत गिरवी होती चली गई, और पिछले साल मूल में सूद मिला कर, कौड़ी के दाम सारी जायदाद उन्होंने खरीद ली! धन्य है यह कामिनी की माँ, जो इस बेचारे की दीनावस्था में सहायता करके, मानवता का सही धर्म निभाया!'

फिर रमेश ने एक दीर्घ निःश्‍वास, गोपाल सरकार को उसका सब प्रबंध करने को भेज दिया और मन-ही-कहा - 'ताई जी, आपकी आज्ञा मेरे सिर-माथे पर! अब मेरे प्राण भी यहाँ निकल जाएँ तो मुझे दु:ख न होगा; पर इस गाँव को छोड़ कर अब कहीं नहीं जाने का!'

 

देहाती समाज | अध्याय 10

उस दिन से तीन महीने बाद, एक दिन रमेश सवेरे-सवेरे तारकेश्‍वर के तालाब पर, जिसे दुग्ध सागर भी कहते हैं, गया था। वहीं पर सहसा एक स्त्री से उसकी भेंट हो गई, नितांत एकांत में। वह बेसुध हो उसकी ओर घूरता रहा। वह स्त्री स्नान करके गीली धोती पहने, सीढ़ी चढ़ कर ऊपर आ रही थी। पानी से भीगे उसके केश, पीठ पर मस्ती से पड़े अलसा रहे थे। उसकी उम्र बीस वर्ष की होगी। पानी के भार से, धोती शरीर से सट गई थी, यौवन उससे बाहर फूट रहा था। चौंक कर, पानी का कलश जमीन पर रख, तुरंत अपने दोनों से अपने यौवन-कलश छिपा, अपने ही में सिमटती-सकुचाती वह बोली -'यहाँ कैसे आए आप?'

रमेश दंग रह गया, यह देख कर कि वह इसे पहचानती है। चौंक कर एक तरह हट कर बोला - 'क्या मुझे पहचानती हैं आप?'

'जी! पर आप आए कब यहाँ?'

'आया तो आज ही सवेरे हूँ। मामा के घर से और भी औरतें आनेवाली थीं; पर वे तो आई नहीं दीखतीं!'

'ठहरे कहाँ हैं यहाँ पर?'

'कहीं भी नहीं! यही आने का यह मेरा पहला ही मौका है। अब तो आज की रात बिताने को कहीं स्थान तलाश करना ही होगा।'

'नौकर तो होगा साथ में?'

'नौकर तो नहीं है, अकेला हूँ।'

'हूँ!' और मुस्कराते हुए उसने अपनी आँखें ऊपर कीं, फिर चारों आँखें आपस में लड़ गईं। पर उसने तुरंत ही आँखें नीची कर लीं, और थोड़ी देर कुछ सोचती -सी रह कर बोली - 'तो चलिए फिर, साथ!'

और उसने अपना पानी का कलश उठा कर चलना शुरू कर दिया। रमेश अजीब असमंजस में पड़ गया। बोला - 'अगर मेरे चलने से किसी प्रकार की हानि हो, तो आप इस तरह चलने को कहती भी नहीं, इसी विश्‍वास पर मैं चलता हूँ आपके साथ! याद तो मुझे भी आ रही है कि मैंने आपको कहीं देखा है। सूरत पहचानी-सी पड़ती है, पर यह नहीं याद आ रहा कि कहाँ और कब देखा है। कृपया अपना परिचय तो दे देतीं आप!'

'आप यहाँ प्रतीक्षा कीजिए थोड़ी देर, मैं पूजन कर अभी आई। फिर साथ चलते-चलते, रास्ते में परिचय भी दूँगी आपको!'

और वह मंदिर में चली गई। रमेश उसकी तरफ विमोहित दृष्टि से देखता रहा कि निश्‍चय ही यह यौवन ही है, जो उसकी धोती में से छन-छन कर उसके अंतर को घायल कर रहा है। उसका अंग-अंग रमेश को पहचाना-सा लगने लगा, पर पूरी तरह से उसे अंत तक याद न कर सका। आधा घण्टे बाद पूजा समाप्त कर जब वह मंदिर से बाहर निकली तब फिर पहचान पाने के लिए उसने एक गहरी नजर उसके चेहरे पर डाली, पर फिर भी न पहचान सका।

रास्ते में चलते समय रमेश ने पूछा - 'क्या आप यहाँ अकेली ही रहती हैं?'

'अकेली तो नहीं, एक दासी साथ है, जो घर पर ही काम कर रही होगी! वैसे तो यहाँ का सभी कुछ भली प्रकार मुझसे परिचित है, जब-तब यहाँ आया ही करती हूँ।'

'पर मैं यह तो अब तक न समझ पाया, कि आप मुझे क्यों ले रही हैं अपने साथ?'

उसने रमेश के प्रश्‍न का तुरंत कोई उत्तर न दिया। थोड़ी देर तक तो दोनों ही चुपचाप चलते रहे, फिर उस स्त्री ने कहा - 'न चलने पर, यहाँ आपको खाने -पीने में बड़ा कष्ट होगा। मैं रमा हूँ।'

रमा ने अपने सामने बैठा कर रमेश को खाना खिलाया और पान खिला कर, उसके आराम करने के लिए, अपने ही हाथों से दरी बिछा कर दूसरे कमरे में चली गई। रमेश आँखें बंद करके दरी पर आराम करने लगा। लेटे-लेटे उसे तेईस वर्ष का जीवन इस एक क्षण में ही नितांत बदला-बदला नजर आने लगा। बचपन से ही उसका सारा जीवन निर्देश में ही बीता था, और इस उमर तक, भूख का अनुभव उन्हें सिर्फ पेट भरने तक ही था। उन्हें यह मालूम न था कि उसमें भी एक तृप्ति का आनंद होता है, जिसे आज रमा के हाथ का, उसके सामने ही, उसके माधुर्य में पके भोजन कर उसने पाया था।

रमा को चिंता थी कि वह यहाँ पर रमेश के खाने के लिए कोई विशेष सामग्री न जुटा पाई थी। सभी चीजें बहुत साधारण-सी थीं। उसे यह चिंता कचोट रही थी कि वह कहीं भूखा न रह जाए और उसके मुँह से निंदा के शब्द उसे सुनने पड़ें। पर उसके भूखे रहने में, खुद के भूखे रहने की उसे कितनी चिंता थी? उसने आज सारी लज्जा और संकोच को परे रख, अपने अभिभूत अंत:करण से सारा खाना रमेश के सामने रख दिया था, और कमी को कहीं रमेश ताड़ न ले, इसलिए स्वयं उनके सामने आ कर बैठी थी। और जब रमेश ने भोजन समाप्त कर तृप्ति की साँस ली, तो उससे कहीं बढ़ कर तृप्ति का निःश्‍वास रमा के अंत:करण से निकला - जिसे चाहे और किसी ने न देखा हो, पर अंतर्यामी से वह किसी तरह छिपी नहीं रही।

रमेश दोपहर में कभी सोने का आदी नहीं रहा, इसलिए अपने सामने की खिड़की से बाहर वर्षा के बाद धूमिल बादलों से आच्छादित आकाश को वह टकटकी बाँधे देखता रहा। इस समय से अपनी आनेवाली रिश्तेदार स्त्रियों का बिलकुल खयाल ही न रहा। तभी सहसा उसे रमा का सुकोमल स्वर दरवाजे पर से सुनाई पड़ा - 'आज यहीं न रह जाए! घर तो आपको जाना नहीं है आज!'

रमेश उठ कर बैठता हुआ बोला - 'मकान मालिक से तो अभी मेरा परिचय हुआ नहीं, उनकी आज्ञा के बिना कैसे रह सकता हूँ।'

'मकान मालिक ही आपसे ठहरने का अनुरोध कर रहे हैं! मैं ही इस मकान की मालकिन हूँ।'

'भला यहाँ मकान क्यों ले रखा है?'

'यह स्थान मुझे बहुत रमणीक लगता है। जब तब यहीं आ कर दिन बिता जाती हूँ। आजकल तो यहाँ सूना-सा पड़ा है, वरना कभी-कभी तो तिल धरने तक की जगह नहीं मिलती!'

'तो फिर उसी समय आया करो न!'

रमा ने इसका उत्तर न दिया, केवल मुस्करा कर रह गई।

'तारकेश्‍वर बाबा के प्रति तुम्हारी बड़ी भक्ति जान पड़ती है, क्यों?'

'वैसे मेरे भाग्य कहाँ! पर जो कुछ बन पड़ता है, साँस रहते करने की कोशिश तो करनी ही चाहिए!'

रमेश ने इसके बाद कई सवाल किए। रमा भी वहीं चौखट पर बैठ गई और बात का रुख पलटती हुई बोली - 'क्या खाते हैं रात को आप?'

रमेश ने जरा मुस्करा कर कहा -'जो मिल जाए! खाने पर बैठने के बाद मैं कभी खाने के विषय में नहीं सोचता, और हमेशा अपने महाराज की अक्ल पर संतोष कर लेता हूँ।'

'आज यह उदासी कैसे है?'

रमेश न समझ सका कि रमा ने उसका मखौल उड़ाने के लिए यह वाक्य कहा है अथवा साधारण व्यंग्य में। उसने छोटा-सा उत्तर दिया-'कुछ नहीं, वैसे ही। जरा-सी सुस्ती है!'

'औरों के काम में तो सुस्ती दिखाते कभी नहीं देखा आपको!'

'अगर दूसरे के काम में सुस्ती की जाएगी, तो भगवान की अदालत में उसके प्रति उत्तरदायी होना पड़ेगा! हो सकता है, अपने काम में सुस्ती दिखाई पर भी उत्तर देना पड़ता हो, पर उतना नहीं - यह तो निश्‍चय ही है!'

थोड़ी देर मौन रह कर रमा बोली - 'इस उमर में आपको परलोक की चिंता कैसे लग गई? तीन ही वर्ष तो बड़े हैं आप मुझसे!'

रमेश ने मुस्कराते हुए कहा - 'तब तो तुम्हें मुझसे भी कम परलोक की चिंता रहनी चाहिए! ईश्‍वर की कृपा से तुम्हारी बड़ी उमर हो, पर मैंने अपने बारे में, अपना हर दिन जीवन का अंतिम दिन समझा है।' रमेश ने यह वाक्य अपनी व्यथा के दिग्दर्शन के लिए भी कहा था, और उसका असर भी ठीक ही बैठा। रमा के चेहरे पर काली छाया दौड़ गई। थोड़ी देर मौन रह कर उसने कहा - 'मैंने आपको कभी न मंदिर जाते देखा, न ध्यान करते ही! पर वह न सही, खाना खाते समय आचमन करना भी आपको याद नहीं रहा क्या?'

'याद तो है, पर यह खूब समझता हूँ कि उसका याद रहना-न-रहना एक-सा ही है! और यह सब तुम पूछ क्यों रही हो?'

'आपको परलोक की बड़ी चिंता है, इसलिए।'

रमेश निरुत्तर रहा। फिर थोड़ी देर तक दोनों ही मौन रहा। बाद में रमा बोली - 'हिंदू घर की किसी विधवा को, अपने किसी सगे द्वारा 'बड़ी उमर' का आशीर्वाद शाप देने के बराबर है!' थोड़ी देर मौन रह कर वह फिर बोली -'मैं यह भी नहीं कहती कि आज ही मरने को बैठी हूँ। पर यह जरूर सत्य है कि अधिक दिन तक जीने के विचार से ही मेरा सारा शरीर सिहर उठता है। परंतु आपके साथ यह बात लागू नहीं होती! वैसे तो मुझे कोई हक नहीं कि आपसे किसी बात के लिए जोर दे कर कहूँ, पर जब दूसरों के लिए मगज मारना आपको भी, दुनिया में आ जाने के बाद बचपना मालूम पड़े, तब मेरी बात याद कर लीजिएगा!'

रमेश ने इसका कोई भी उत्तर नहीं दिया। एक लंबी-सी, ठण्डी आह उसके अंदर से फूट निकली। थोड़ी देर बाद, अस्फुट स्वर में वह बोला-'जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, वहाँ तक तो मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं पड़ती! आज तो मेरा -तुम्हारा कोई नाता नहीं, बल्कि यों कहूँ तो अधिक सत्य होगा कि मैं तुम्हारे रास्ते का एक रोड़ा हूँ। फिर भी आज जितनी खातिर तुमने मेरी की है, उतनी खातिर जिसे रोज मिले, वह दूसरों के दु:ख और उनकी व्यथा देख, पागल हो कर इधर-उधर दौड़े बिना नहीं रह सकता! मैं अभी पड़ा-पड़ा यही सोच रहा था। किंतु तुमने जरा-सी देर में ही, मेरे जीवन-स्रोत में नवीनता की एक उमंग भर दी है। जीवन में यह पहला अवसर है, जब किसी ने मुझे इतने प्रेम और आदर के साथ अपने पास बैठा कर खिलाया है। और वह तुम हो, रमा! आज जीवन में पहली बार, तुम्हारे हाथ और प्रेम से परोसा खाना खा कर यह ज्ञात हुआ कि भोजन में भी महान आनंद है!'

रमा सुन-सुन कर मारे लज्जा के सिहर उठी। उसका सारा चेहरा आरक्त हो उठा। अपने को संयत कर उसने कहा - ' लेकिन इसे भी आप थोड़े दिनों में भूल जाएँगे; और फिर कभी याद भी आएगा, तो यों ही मामूली तौर पर!'

रमेश ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। रमा ने ही फिर कहा - 'मैं अपना अहोभाग्य समझूँगी, अगर आप घर जा कर मेरी निंदा न करें!'

रमेश ने एक ठण्डी आह भर कर कहा - 'न मैं इसकी तारीफ करूँगा, न निंदा ही! मेरा आज का दिन तो इन दोनों से परे है!'

रमा निरुत्तर रही; थोड़ी देर तक दोनों ही चुपचाप बैठे रहे। बाद में रमा वहाँ से उठ कर कमरे में चली गई, जहाँ उसकी आँखों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें टपकने लगीं।

 

देहाती समाज | अध्याय 11

दो दिनों से बराबर पानी बरस रहा था, आज कहीं जा कर थोड़े बादल फटे। चंडी मंडप में गोपाल सरकार और रमेश दोनों बैठे जमींदारी का हिसाब-किताब देख रहे थे कि सहसा करीब बीस किसान रोते-बिलखते आ कर बोले - 'छोटे बाबू, हमारी जान बचा लो, नहीं तो गली-गली भीख माँगनी पड़ेगी! बाल-बच्चे दर-दर की ठोकरें खाएँगे।'

रमेश ने स्तब्ध हो कर पूछा - 'मामला क्या है?'

'हमारी सौ बीघे जमीन में पानी भर गया है। यदि पानी न निकला, तो सारा धान सड़ जाएगे और गाँव-का-गाँव भूखा मर जाएगा!'

रमेश की समझ में कुछ नहीं आया, तब सरकार जी ने किसानों से एक के बाद एक विस्तार से सारा मामला पूछ कर रमेश को समझा दिया। इन्हीं सौ बीघों पर सारे गाँव की आस लगी थी। गाँव के सभी किसानों की कुछ-न-कुछ जमीन इस हिस्से में पड़ती है। इस जमीन के पूरब में सरकारी बाँध है, और उत्तर-पश्‍चिम में ऊँचा बसा गाँव और दक्षिण की तरफ एक बाँध है, जिसके मालिक हैं मुकर्जी और घोषाल परिवार। इसी तरफ से खेतों का पानी बाहर निकाला जा सकता है। लेकिन उस बाँध के करीब, इन्हीं दोनों परिवारों का एक तालाब है, जिसमें से हर वर्ष लगभग दो सौ मछलियाँ निकाली जाती हैं। ये किसान आज सबेरे से ही बाँध पर धारना दिए बैठे थे। वेणी बाबू ने भी सवेरे से ही बाँध पर पहरा लगा रक्खा है। ये सब अभी-अभी वहीं से उठ कर रोते हुए आए हैं, रमेश भैया से अपनी फरियाद करने।'

रमेश को अब और कुछ सुनने की जरूरत न थी। वह सीधे उठा और वेणी के घर की तरफ चल दिए। जब वहाँ पहुँचा, जो शाम हो चुकी थी। वेणी बाबू मसनद के सहारे बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उनके पास ही हालदार बैठे, संभवतः इसी विषय की चर्चा कर रहे थे।

रमेश ने बिना कुछ भूमिका बाँधे कहा - 'अब बाँध बिना तोड़े काम नहीं चलने का। उसे तोड़ना ही होगा!'

वेणी ने हुक्का हालदार के हाथ में देते हुए पूछा - 'किस बाँध के बारे में कह रहे हो?'

रमेश आवेश में तो था ही, वेणी की इस अन्यमनस्कता ने उसे और भी तीखा कर दिया - 'ऐसे कितने बाँध हैं आपके तालाब के, तो आप समझ नहीं पा रहे हैं! वेणी भैया, अगर यह बाँध न काटा गया, तो सारा धान सड़ जाएगा। कृपया आप उसे काट देने की इजाजत दे दीजिए!'

'और बाँध टूटने के साथ ही हमारी दो-तीन सौ की मछलियाँ जो बह जाएँगी, उसका नुकसान कौन देगा - तुम या तुम्हारे किसान?'

'किसान तो बेचारे दे ही क्या सकेंगे; और मैं दूँ - यह मेरी समझ में नहीं आता!'

'तो फिर बाँध काट कर अपना नुकसान करूँ? यह बात मेरी भी समझ में नहीं आती! हालदार चाचा, अब तुम्हीं देख लो हमारे छोटे भाई साहब इसी तरह चलाएँगे जमींदारी! रमेश! वे ससुरे सब-के-सब यहाँ रो रहे थे; और जब यहाँ कुछ बस नहीं चला, तब तुम्हारे यहाँ जा पहुँचे। मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम्हारे यहाँ दरवाजे पर कोई चौकीदार नहीं या उसके पैर में जूता नहीं, जो वे इस तरह अंदर घुस गए! घर जा कर इसका प्रबंध करो। तुम पानी की फिकर मत करो, वह आप ही निकल जाएगा!'

वेणी बाबू अपनी बात पूरी कर, अपने आप ही ठहाका मार कर हँस दिए, और हालदार ने भी उनका साथ दिया। बात रमेश के सब्र के बाहर हुई जा रही थी, पर अपने को किसी कदर संयत करके विनीत स्वर में बोला - 'बड़े भैया, जरा सोचिए तो - हमारा दो सौ का ही नुकसान हो गया, पर इन गरीबों का तो सारा अनाज मारा जाएगा। करीब पाँच-सात हजार का नुकसान हो जाएगा बेचारों का!'

'हो तो उससे हमें क्या मतलब? चाहे पाँच हजार का हो, चाहे पचास हजार का, हमारी बला से! मैं क्यों उन सालों के लिए दो सौ का नुकसान सहूँ?'

'फिर ये लोग खाएँगे क्या, साल भर तक!'

रमेश की इस बात पर वेणी बाबू फिर एक बार खूब जोर से, अपने सारे बदन को हिलाते हुए हँसे, और फिर खाँस-खँखारकर सुस्थिर हो बोले - 'पूछते हो, खाएँगे क्या? देखना, साले अभी हमारे पास दौड़ कर आएँगे, जमीन गिरवी रख कर उधार लेने! रमेश, जरा ठण्डे दिमाग से काम लो! हमारे बुजुर्ग इसी तरह राई-राई कर हमारे लिए कुछ जुटा कर रख गए हैं, और हमें भी उन्हीं की तरह बहुत समझ-बूझ कर, खा-पी कर भी कुछ और जोड़ कर, अपने बच्चों के लिए छोड़ जाना है।'

रमेश का अंतर क्षोभ, लज्जा और घृणा से विदीर्ण हो उठा। फिर भी उसने संयत स्वर में कहा - 'जब आपने फैसला ही कर लिया है, तो और कुछ कहना ही बेकार है! जाता हूँ, रमा से कहूँगा! अगर वह मान गई, तो फिर आप मानें या न मानें, उससे क्या होता है?'

वेणी का चेहरा गंभीर हो उठा और उन्होंने कहा - 'जाओ, कह देखो - उससे भी! जो मेरी राय है, सो उसकी होगी, और फिर वह ऐसी-वैसी लड़की नहीं, जो तुम्हारे चरके में आ जाए! उसने तो तुम्हारे बाप की नाक में दम कर दिया था। फिर तुम तो लड़के हो!'

रमेश इस अपमान की बात को सुन कर वहाँ और न ठहर सका और बिना कुछ उत्तर दिए चला गया।

जब वह रमा के यहाँ पहुँचा, उस समय रमा तुलसी चौके के आगे दीपक जला कर, प्रणाम करके खड़ी थी। उसे आया देख कर वह दंग रह गई। उसका आँचल गले से लिपटा हुआ था, और उसकी मुद्रा ऐसी थी मानो रमेश को ही प्रणाम कर रही हो। रमेश को उस समय यह भी याद न रहा, कि कभी मौसी ने उसे यहाँ आने को मना कर दिया था। वह धड़धड़ाता हुआ सीधे अंदर घुसा चला गया था। जब रमा को उस अवस्था में देख कर चुपचाप खड़ा रहा। करीब एक महीने के बाद, उन दोनों की आज भेंट हुई थी।

'तुमने बातें तो सब सुन ही ली होंगी! मैं बाँध तोड़कर खेतों का पानी निकालने के लिए तुमसे पूछने आया हूँ।'

रमा ने आँचल सिर पर सम्हालते हुए कहा -'बड़े भैया की तो इसमें राय नहीं है, फिर भला कैसे हो सकता है?'

'उनकी राय नहीं है, मुझे मालूम है! पर अकेले उनकी राय नहीं हो, तो उससे क्या?' थोड़ी देर चुप रह कर रमा ने कहा - 'माना कि आपका कहना ठीक है कि बाँध तोड़कर खेतों का पानी निकाल देना ही इस समय उचित है! पर ताल की मछलियाँ कैसे रोकी जा सकेंगी?'

'वे तो नहीं रोकी जा सकेंगी इतने पानी में! उनका नुकसान तो सहना ही होगा हम लोगों को नहीं सहेंगे, तो सारा गाँव भूखों मर जाएगा।'

रमा ने कोई उत्तर नहीं दिया। रमेश ने ही कहा - 'तो फिर तुम्हारी स्वीकृति है न?' रमा ने सुकोमल स्वर में कहा - 'नहीं, मैं नहीं सह सकती, इतने रुपयों का नुकसान!'

रमेश को न जाने कैसे यह विश्‍वास था, कि रमा उसके कहने को कभी नहीं टालेगी! पर आशा के विपरीत यह उत्तर सुन, वह अवाक खड़ा रहा। रमा ने भी उसकी इस मनोदशा का अनुभव किया और कहा - 'यह जायदाद मेरी तो है नहीं, मेरे छोटे भाई की है! मैं सिर्फ उसकी तरफ से देखभाल करती हूँ।'

'इसमें तुम्हारा भी तो हिस्सा है!'

'वह तो सिर्फ नाम के लिए! पिताजी अच्छी तरह जानते थे कि अंत में सारी जायदाद यतींद्र को ही मिलेगी।'

रमेश ने सानुग्रह कहा - 'रमा, हम सब में तुम्हारी अवस्था अच्छी मानी जाती है। थोड़े-से रुपयों की तो बात ही है! मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ, रमा! इन गरीब किसानों पर दया करो, वे भूखों मर जाएँगे! मुझे स्वप्न में भी यह आशा न थी कि तुम इतनी कठोर हो सकती हो!'

रमा ने सुकोमल किंतु दृढ़ स्वर में कहा - 'इतना नुकसान सहना मेरे काबू के बाहर है, और इसके लिए अगर आप मुझे कठोर कहते हैं तो कोई बात नहीं! मैं कठोर ही सही! और फिर आप ही क्यों नहीं सह लेते यह नुकसान?'

रमा के कोमल स्वर में भी कितना व्यंग्य छिपा था, इसका अनुभव कर, व्यथा की अग्नि से रमेश का अंतर जल उठा। वह बोला - 'आदमी की आदमियत तभी कसौटी पर कसी जाती है, जब वह रुपए के संपर्क में आता है! यहीं मनुष्य की असलियत खुल गई है! मेरी निगाहों में तो तुम - आज से पहले सदैव - बहुत ही ऊँची थीं; पर आज तुम मेरी नजर में वह न रहीं, जो पहले थीं! आज मैंने जाना कि तुम सिर्फ कठोर ही नहीं हो, बल्कि नीयत की भी ओछी हो!'

रमा का भी सारा हृदय व्यथा से विदीर्ण हो उठा। उसने रमेश की तरफ विस्फरित नेत्रों से देख कर कहा - 'क्या कहूँ अब मैं?'

'रमा, तुम्हारी कितनी ओछी नीयत है कि तुमने मुझे इस मामले में इतना व्यग्र देख कर, मुझसे पूरा नुकसान उठाने की बात कही! पुरुष होने पर भी, बड़े भैया के मुँह से ऐसी ओछी बात न निकल सकी, जो एक स्त्री होते हुए तुम्हारे मुँह से निकल सकी! नुकसान तो मैं इससे भी अधिक सह सकता हूँ। पर रमा, मेरी एक बात याद रखना कि दुनिया में किसी की दया से अपना स्वार्थ पूरा करने से बड़ा और कोई पाप नहीं! आज तुमने वही किया है!'

रमा स्तब्ध -विस्फरित नेत्रों से देखती की देखती रह गई, एक शब्द भी न निकला उसके मुँह से। रमेश ने शांत, संयत, दृढ़ स्वर में फिर कहा - 'रमा इस तरह तुम मुझसे नुकसान पूरा नहीं करा सकतीं और न बाँध तोड़ने से ही रोक सकती हो! मैं जाता हूँ अभी और जा कर बाँध तोड़ दूँगा! जो हो सके तुम लोगों से, वह कर लेना!' रमेश यह कह कर आगे बढ़ गया। रमा ने विह्नल हो कर पुकारा। वह लौट आया। रमा ने कहा - 'आपने मेरे घर में ही खड़े हो कर मेरा अपमान किया है - इसके संबंध में तो मैं आपसे कुछ नहीं कहती, पर आपको यह बताए देती हूँ कि आप बाँध तोड़ने की कोशिश किसी तरह भी न करें!'

'क्यों?'

'इसलिए कि मैं आपसे झगड़ा नहीं करना चाहती!'

रमेश ने अँधेरा होते हुए भी, इस वाक्य को कहते-कहते रमा के सफेद होते हुए चेहरे और काँपते हुए होंठों को देखा। पर उस समय उसके पास किसी का मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण करने का न तो समय ही था और न इच्छा। इसलिए बोला - 'मैं भी नहीं चाहता झगड़ा करना, लेकिन मेरे निकट तुम्हारे इस भाव की कोई कद्र नहीं, मैं जानता हूँ। व्यर्थ की बातों के लिए मेरे पास समय नहीं!' मौसी उस समय ठाकुर जी के कमरे में थीं, तभी उन्हें इन सब बातों का पता नहीं चला। जब वह नीचे आईं, तो उन्होंने देखा कि दासी के साथ रमा बाहर जा रही है। मौसी ने विस्मित हो पूछा - 'रमा! आँधी-मेह की रात में कहाँ चली?'

'बड़े भैया के यहाँ जा रही हूँ जरा?'

'मौसी, छोटे बाबू की कृपा से, रास्ता तो ऐसा बन गया है कि कहीं कीचड़ का नाम तक नहीं! अगर कहीं सिंदूर भी गिर जाए, तो उठा लो। भगवान, उनकी बड़ी उमर करे!' दासी बोली।

करीब ग्यारह बजे थे रात के। वेणी के चंडी मंडप में बहुत-से लोग आपस में बातें कर रहे थे। आकाश भी बादलों से साफ हो गया था और चंद्रमा की ज्योत्स्ना बरामदे में छिटक रही थी। वहीं एक खंबे के सहारे, एक अधेड़ मुसलमान आँखें बंद किए बैठा था। अजीब भीषण काया थी उसकी। उसके मुँह पर ताजा खून के छींटे थे और कपड़े भी खून से तर हो रहे थे। वह शांत-नि:शब्द बैठा था। वेणी उससे धीरे-धीरे विनीत स्वर में कह रहे थे -'अकबर, देखो बात मान लो मेरी, थाने चले चलो! सात बरस से कम को जेल न भेजा, तो घोषाल वंश का नहीं!' और पीछे रमा की तरफ मुड़ कर कहा - 'रमा, तुम समझाओ न इसे, चुप क्यों हो?'

रमा नि:शब्द रही। अकबर अली ने आँखें खोल कर सीधे बैठ कर कहा -'वाह, छोटे बाबू को मान गया, उन्होंने पिया है अपनी माँ का दूध! खूब चलाना जानते हैं लाठी!'

वेणी ने थोड़ा तेवर चढ़ा कर कहा - 'बस, यही कहने को तो मैं तुमसे कह रहा हूँ, अकबर! तुम उस लौंडे की लाठी से जख्मी हुए न, या उस पछइयाँ की लाठी से?'

अकबर के होंठों पर गर्व भरी मुस्कराहट खेल उठी। उसने कहा - 'वह साला ठिगना पछइयाँ लाठी चलाना क्या जाने! वह तो गौहर की पहली चोट से ही बैठ गया था। क्यों गौहर, ठीक है न!'

अकबर के दो लड़के थोड़ी दूर सहमे-सिकुड़े बैठे थे। वे भी आहत थे। गौहर ने सिर हिला कर अकबर की बात का समर्थन कर दिया, मुँह से कुछ नहीं बोला, अकबर फिर कहने लगा - 'मेरे हाथ की चोट खा कर तो साले की जान ही निकल जाती! उसका कचूमर तो गौहर की लाठी ने ही निकाल दिया!'

रमा भी उन लोगों के पास आ कर खड़ी हो गई। अकबर पीरपुर गाँव की उनकी जमींदार में बसता था। उसकी लाठी के जोर ने इन लोगों की बहुत -सी जायदाद पर कब्जा दिला दिया था। रमेश की बात के अपमानित हो कर, रमा ने उसे बुलावा दे कर बाँध पर पहरा देने को भेजा था। पर रमा की इच्छा थी, कि एक बार देखें कि रमेश उस पछइयाँ नौकर के बल पर क्या करते हैं; लेकिन उसे यह आशा न थी कि रमेश खुद भी जबरदस्त लठैत है।

रमा की तरफ देखते हुए अकबर ने कहा - 'रमा, जब वह साला गिर गया, तब छोटे बाबू ने उसकी लाठी उठा ली और फिर खुद जा कर बाँध रोक कर खड़े हो गए, और हम तीनों बाप-बेटों से हटाए भी न हटे। उस वक्त अँधेरे में भी उनकी आँखें चमक रही थीं। उन्होंने कहा था - अकबर, तुम बुङ्ढे ठहरे! अगर बाँध न काटा जाए, तो गाँव भर के आदमी भूखे मर जाएँगे, और उसमें तुम भी नहीं बचोगे! मैंने भी अदब से झुक कर सलाम करके कहा था -'बस, एक बार हट आओ छोटे बाबू -रास्ते से; फिर जरा देख लूँ इन लोगों को, जो तुम्हारे पीछे खड़े बाँध काट रहे हैं!'

वेणी आवेश में आ कर बीच में ही चिल्ला पड़े - 'बेईमान कहीं का! उसे ही सलाम झुका कर, यहाँ डींग मार रहा है?'

वेणी बाबू के इतना कहते ही तीनों बाप-बेटों के हाथ उठ गए। अबकर ने तीखे स्वर में कहा - 'होश में रहो बड़े बाबू, हम मुसलमान हैं। बेईमान मत कहना हमें! हम सब सह सकते हैं, बस यही नहीं सह सकते!' और माथे का खून पोंछ कर रमा की तरफ देखते हुए बोला - 'मालकिन, घर में बैठ कर बड़े बाबू मुझे बेईमान कहते हैं, वहाँ होते तो देखते - क्या हस्ती है छोटे बाबू की!'

मुँह बिचका कर वेणी ने कहा - 'तो फिर थाने ही चल कर बताओ न कि क्या है उसकी हस्ती! कहना कि हम बाँध कर खड़े पहरा दे रहे थे कि छोटे बाबू हम पर चढ़ आए और हमको उन्होंने मारा।'

अकबर ने जीभ दबा कर तोबा करते हुए कहा - 'आप तो रात को, दिन बताने के लिए मुझसे कहते हैं, बड़े बाबू! यह भला कैसे हो सकता है?'

'तो फिर और कुछ कह देना! पर जा कर घाव तो दिखला आओ अपने! कल ही वारंट निकलवा कर थाने में बंद करवा दूँगा उसे। जरा तुम भी समझाओ न इसे रमा! ऐसा अच्छा मौका फिर कभी हाथ न लगेगा!'

रमा से एक शब्द भी न बोला गया। उसने सिर्फ एक बार अकबर की तरह देख भर लिया।

'यह न होगा मुझसे, मालकिन!'

वेणी बाबू ने डपट कर कहा - 'क्यों नहीं होगा?'

अकबर ने भी तीव्र स्वर में कहा - 'क्या कहते हैं यह बाप बड़े बाबू! क्या मुझे जरा भी हया-शर्म नहीं है! मुझे चार गाँव के लोग सरदार कहते हैं। मालकिन, आप चाहें तो मैं जेल जा सकता हूँ, लेकिन फरियाद नहीं कर सकता!'

अब रमा ने कोमल स्वर में उससे पूछा -'अकबर, क्या एक बार भी थाने नहीं जा सकोगे?'

अकबर ने सिर हिलाते हुए, दृढ़ स्वर में कहा - 'नहीं! किसी तरह भी शहर जा कर अपने बदन के घाव नहीं दिखा सकता। चलो गौहर, चलें! फरियाद न बन सकेंगे हम लोग!'

और वे लोग जाने को उद्यत हो गए! वेणी क्रोध से आँखें लाल-पीली कर, मन-ही-मन बुरी-बुरी गालियाँ बकने लगे और रमा की इस असमर्थता की चुप्पी से जल कर खाक हुए जा रहे थे। जब उसकी कोई तरकीब अकबर और उनके लड़कों को न रोक सकी, तब रमा के अंतरतम से एक ठण्डी आह निकल पड़ी और आँखों में अनायास की आँसू छलछला आए। इतनी बड़ी पराजय, अपमान और नाकामयाबी मिलने पर भी, मानो उसके हृदय-पुट से एक बहुत पड़ा भार हट गया। इसका कारण वह अंत तक न जान सकी। उसकी सारी रात जागते ही कटी। रह -रह कर उसकी आँखों के सामने वही दृश्य घूमने लगा, जब उसने अपने सामने बैठा कर रमेश को खाना खिलाया था। और जैसे-जैसे वह रमेश के कोमल स्वभाव, बल और क्षमता की कल्पना करती गई, त्यों-त्यों उसकी आँखों से और भी आँसू बहते गए।

 

देहाती समाज | अध्याय 12

हालाँकि उस प्यार में कोई गंभीरता न थी - लड़कपन था, पर रमेश को रमा से अपने बचपन में अत्यंत गहरा प्रेम था, जिसकी गहराई का अनुभव सर्वप्रथम उन्होंने तारकेश्‍वर में किया था। पर उस शाम को रमेश अपने सारे लगाव तोड़कर रमा के घर से चला आया था, और तब से रमा के घर की दिशा भी उनको बालू की तरह नीरस और दहकती माया-सी जान पड़ने लगी। लेकिन उनकी आशा के विपरीत उनका सोना-जगना, खाना-पीना, उठना-बैठना, पढ़ना, काम-धंधा, सारा-का-सारा जीवन ही नीरस हो उठा था। तब उन्होंने अनुभव किया कि रमा ने उनके हृदय के कितने गहरे में स्थान बना लिया था। उसका मन अब गाँव से ही उचाट हो गया और वे गाँव छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाने का विचार फिर करने लगे। लेकिन सहसा एक घटना हो गई, जिसने उनके उखड़े पैर फिर एक बार को जमा दिए।

ताल के उस पार, वीरपुर गाँव उसी परिवार की जमींदारी में है। अधिकांश आबादी मुसलमान किसानों की है। एक दिन वहाँ के कुछ लोग गुट बाँध कर, रमेश के पास अपनी एक अरज लेकर आए और बोले - 'हम आपकी रिआया है, पर हमारे बच्चों को स्कूल में पढ़ने की इजाजत नहीं, सिर्फ इसलिए कि हम मुसलमान है! हमने कई बार अरज करके देख लिया, पर हमारी कोई नहीं सुनता। मास्टर भरती ही नहीं करते हमारे बच्चों को!'

रमेश को इस पर विस्मय भी हुआ और गुस्सा भी, बोले - 'मेरे तो देखने-सुनने में भी कभी ऐसा अन्याय नहीं आया! मैं चलूँगा, तुम सबके साथ! आज ही अपने लड़कों को ला कर, मेरे सामने स्कूल में भरती करवा दो!'

किसानों ने कहा - 'वैसे तो हम डरनेवाले नहीं! लगान देते हैं, तब खेत जोतते हैं - किसी के एहसान में नहीं रहते! फिर भी यह नहीं चाहते कि नाहक में बात बतंगड़ बने, इससे न हमारा ही फायदा होगा, न और किसी का। हमारी तो मंशा है कि एक स्कूल हमारा भी अलग खुल जाता, तो हम बेखौफ अपने बच्चों को वहाँ तालीम दिला सकते। उसमें हमें आपकी मदद की दरकार है। अगर आपकी मेहरबानी हो जाए तो…।

रमेश भी बेकार की लड़ाई-झगड़ा नहीं चाहते थे। वैसे ही वे इससे आजिज आ गए थे। अतः उनकी राय ही उन्होंने मान ली। जोर-शोर के साथ एक नए स्कूल की नींव पड़ने की तैयारी होने लगी। इन किसानों की संगति और साथ से, रमेश के नीरस जीवन में फिर ताजगी आ गई और उनका हौसला दूना हो गया। उन्हें अपनी शक्ति भी अब बढ़ती मालूम हुई। उन्होंने अनुभव किया कि ये लोग उनके गाँववालों की तरह, बात-बात के लिए झगड़ा नहीं करते। और अगर खुदा न खास्ता झगड़ा हो भी जाता है तो फिर दवा-दरपन अदालत-साखी तक की नौबत नहीं आती, और गाँव के चौधरी की अदालत में ही फैसला हो जाता है। इस गाँव के मुसलमान किसानों के आपसी संबधों से रमेश को जो अनुभव हुआ, वह अपने गाँव के लोगों के अनुभव से विपरीत था। अगर एक पर कोई मुसीबत आ कर पड़ती, तो सारा गाँव, पास-पड़ोस एक हो, मिल कर उसका साथ देता था।

रमेश स्वयं भी जात-पाँत का भेदभाव नहीं मानता था; और जब इन्हें आस -पास के गाँव में ही जात-पाँत के भेद और अभेद की विषमता का अनुभव और जात-पाँत के प्रति उनकी घृणा और भी तीव्र हो उठी। उन्होंने समझा कि आपसी भेदभाव, धर्म-विभेद और जात-पाँत की छुआछूत के आधार पर पैदा हुआ द्वेष भाव हिंदुओं के पतन का मुख्य ही नहीं, बल्कि एकमात्र कारण है! और इसके विपरीत मुसलमानों में जात-पाँत, धर्म आदि का भेदभाव नहीं होता; अभी उनमें भाईचारा, एकता, आपकी सौहार्द् हिंदुओं से कहीं अधिक पाया जाता है। अपने गाँव में आपसी भेदभाव को मिटाना असंभव है। इसी कारण जब तक उनके जात-पाँति के भेदभाव नहीं मिट सकते, तब तक आपस में भाईचारा, आपसी प्रेम और सौहार्द भी पैदा नहीं हो सकता। अतः इस ओर प्रयास करना भी अपनी शक्ति को व्यर्थ खर्च करना है! पिछले वर्षों के अनुभव से रमेश ने यही निष्कर्ष निकाला था और अपने इन वर्षों के व्यर्थ जाने का विचार कर उन्हें बड़ा पछतावा होने लगा था। वैसे उन्हें यह विश्‍वास भी हो चला था, कि इस गाँव के लोगों के जीवन में तो इसी तरह आपसी ईष्या-द्वेष की चक्की में पिसते हुए दिन बिताना लिखा है। इसी तरह इनके दिन कटते आए हैं, कटने जाएँगे। अतः अब अपनी शक्ति दूसरी ओर लगानी ही उचित है। पर ताई जी से इस संबंध में बात कर लेना जरूरी था, और काफी दिन से उनके दर्शन भी करने का अवसर नहीं मिला था - इसी बहाने दर्शन भी हो जाएँगे।

और सबेरे-ही-सबेरे रमेश उनके दरवाजे पर जा पहुँचा। वह ताई जी की बुद्धि पर कितना विश्‍वास करता है, इसका स्वयं भी उसे ज्ञान नहीं था। जब वह वहाँ पहुँचा, तो ताई जी सबेरे के सब जरूरी कार्यों से निवृत्त हो, स्नान-ध्यान कर, अपनी कोठरी में बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थीं। उनकी आँखों पर चश्मा था। रमेश को आया देख कर ताई जी को भी विस्मय हुआ। किताब बंद कर, उसे अंदर बुला कर बैठाया और कौतूहलपूर्ण आँखों से उनकी तरफ देखती रहीं। फिर बोलीं - 'कैसे भूल पड़े आज इधर सबेरे ही?'

'आपके दर्शन को! कई दिनों से नहीं आ पाया था न! ताई जी, मैंने वीरपुर गाँव में एक नया स्कूल खोलने का निश्‍चय किया है।'

'सुना तो मैंने भी है; पर आजकल तुम अपने स्कूल में पढ़ाने भी नहीं जाते, सो क्यों?'

'ताई जी! इन लोगों की भलाई के लिए कुछ करना नेकी कर कुएँ में डालना है! ये लोग नहीं बर्दाश्त कर सकते कि किसी की भलाई हो, मदद हो! अहंकार ने इन्हें नितांत अंधा बना दिया है। ऐसे लोगों के लिए मेहनत करना बेकार में अपनी जान खपाना है! ताई जी! और तो और, जो इनकी भलाई करे - उसी से शत्रुता निभाने लग जाते हैं। मैं तो अब उनकी भलाई करूँगा, जिनकी भलाई करने से वास्तव में कुछ लाभ भी हो!'

'रमेश! यह तो संसार का आदि नियम-सा चला आ रहा है। जिसने भलाई करने का बीड़ा उठाया, उसी के शत्रुओं की संख्या का पार नहीं रहा। अगर भलाई करने का बीड़ा उठानेवाला ही इसी डर से अपना रास्ता छोड़ कर हट जाए, तो फिर उसमें और अन्य प्राणियों में अंतर ही क्या रह जाए! और न फिर संसार की गति ही चल सकती है। भगवान ने जिनको जीवन में जो भार सौंपा है, उसे तो हर हालत में उठाना ही होगा! उसी तरह यह भार तुम्हारे उठाने का है। इससे तुम मुँह नहीं मोड़ सकते! अच्छा, यह तो बता बेटा! क्या तू उनके हाथ का छुआ पानी भी पीता है?'

रमेश ने मुस्करा कर कहा - 'बस यही बात है? तुम्हारे पास शिकायत आ ही गई न! अभी तो पिया नहीं है उनके हाथ का पानी, पर पीने में भी कोई एतराज नहीं है मुझे! मेरे नजदीक जात-पाँत के भेद-भाव कोई मानी नहीं रखते!!'

विश्‍वेश्‍वरी आश्‍चर्यान्वित हो कर बोलीं - 'नहीं मानते जात-पाँत, क्यों? क्या जाति का कोई अस्तित्व ही नहीं?'

'मानता हूँ, जाति का अस्तित्व है - आज के समाज में! पर यह भी मानता हूँ - पूरे विश्‍वास के साथ कि यह अच्छा नहीं है! और इस पर तुम्हारी राय पूछने आया हूँ।'

'क्यों?'

रमेश ने आवेश में कहा - 'क्या यह भी तुम्हें बतलाना होगा ताई जी! क्या समाज में द्वेष-भाव, आपसी फूट, मन-मुटाव और तमाम लड़ाई -झगड़ों की जड़ केवल यह जाति भेद ही नहीं है? छोटी-बड़ी जाति और खानदान सारी र्ईष्या की जड़ है! छोटी जाति के कहे जानेवालों के लिए यह नितांत स्वाभाविक है कि वे ऊँची जातिवालों से द्वेष रखें, उनसे बैर करें और अवसर की ताक में रहें उन्हें नीचा दिखानें के लिए। उनके दिल में नीचेपन से निकलने के विद्रोह की भावना हर समय काम करती रहती है। और यही कारण है कि हिंदू जाति दिन-पर-दिन पतन की ओर गिरती जा रही है। उसके माननेवाले, उसे छोड़ कर दूसरे धर्मों को अपनाते जा रहे हैं। अगर ताई जी, तुम्हें जनसंख्या के आँकड़े पढ़ने को मिलते, तो तुम्हारी आँखें खुल जातीं कि कितने हिंदू इसी विषमता के कारण दूसरे धर्मों में चले गए हैं। फिर भी हिंदू जाति के ठेकेदारों को होश नहीं आ रहा है!'

'सच ही तो है! तुमने इतना सारा व्याख्यान दे डाला, पर मुझे ही होश नहीं आया! गणना करनेवाले अगर यह बता सकते कि कितने हिंदू केवल इसी कारण धर्म परिवर्तन के लिए विवश हुए, क्योंकि उन्हें नीच जाति का समझा जा है, तो शायद उन आँकड़ों पर विश्‍वास कर मुझे भी होश आता। बेटा, इसका कारण तो कुछ दूसरा ही है! माना कि यह भी समाज का दोष है, पर यह कारण तो निश्‍चय ही नहीं है कि उसे छोटी जाति का समझा जाता है!'

'ताई जी, यह मेरा ही कहना नहीं है, हमारे पण्डित लोगों का भी यही विश्‍वास है।'

'तो फिर विश्‍वास के विरुद्ध तो कुछ कहा नहीं जा सकता! लेकिन इन पण्डितों में से ही कोई यदि यह बताए कि फलाँ गाँव के इतने हिंदू जाति परिवर्तन कर गए, क्योंकि उन्हें छोटी जाति का समझा जाता था, तो मैं समझूँ! मेरा तो विश्‍वास है कि कोई पण्डित इसे नहीं बता सकता!'

'पर यह बात तो निश्‍चय ही सोची जा सकती है कि जो लोग छोटी जाति के माने जाते हैं, वे बड़ी जातिवालों के साथ वैमनस्य रखते हैं।'

विश्‍वेश्‍वरी को रमेश की इस आवेगपूर्ण बात पर फिर हँसी आ गई। बोली -'गलत! सरासर गलत बात है तुम्हारा तर्क! गाँव के किसी को इसकी चिंता नहीं कि अमुक ऊँची जाति का है और अमुक नीची जाति का! जिस प्रकार छोटे भाई के मन में यह द्वेष नहीं होता कि वह क्यों बड़े भाई के बाद पैदा हुआ - पहले क्यों नहीं पैदा हुआ, उसी तरह छोटी जाति के लोगों में भी यह द्वेष नहीं होता कि वे क्यों छोटी जाति में पैदा हुए! कायस्थ कभी यह ईर्ष्या नहीं करता कि मैं ब्राह्मण क्यों न पैदा हुआ और न कहार ही यह क्षोभ करता है कि वह कायस्थ घर में क्यों न जन्मा! और बेटा, जिस प्रकार बड़े भाई की चरण-रज में कोई संकोच नहीं होता, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मणों की चरण-रज लेने में, कायस्थों को भी लज्जा आने का कोई कारण नहीं! यह जात-पाँत किसी भी तरह आपस के मनोमालिन्य, वैमनस्य तथा ईर्ष्या-द्वेष का कारण नहीं है। और कम-से-कम बंगाली देहाती समाज में हर्गिज ही नहीं!'

रमेश मन-ही-मन चकित रह गया। बोला - 'ताई जी, फिर इसका कारण क्या है? वीरपुर के किसी मुसलमान के घर में तो इस तरह इतने लड़ाई -झगड़े होते नहीं! उलटे एक-दूसरे की मुसीबत में सभी मिल कर मदद करते हैं। यहाँ की तरह कोई उन पर अत्याचार नहीं करता। तुम्हें मालूम तो है ही कि उस दिन बेचारे द्वारिका पण्डित की अर्थी पड़ी रही, क्योंकि उसका प्रायश्‍चित नहीं हुआ!'

'मालूम है! लेकिन इसकी जड़ में जाति नहीं है। मुसलमान आज भी अपने धर्म को सच्चे रूप में मानते हैं और हम लोग नहीं! सच्चा धर्म आज हमारे देहातों से प्राय: खो गया है; अब उसकी जगह रह गया है थोथा आचार -विचार और कुसंस्कार, जिनको लेकर आज हमारे बीच में गुट बने हुए हैं।'

रमेश ने दीर्घ निःश्‍वास लेते हुए कहा - 'क्या इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं?'

'है, इसका उपाय है ज्ञान, जिसे तुमने अपनाया है! तभी तो तुमसे बार -बार कहती हूँ कि अपनी मातृभूमि को छोड़ कर कहीं भी न जाना!'

रमेश ने इसके उत्तर में कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि विश्‍वेश्‍वरी ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा - 'शायद तुम यही कहना चाहते हो कि अज्ञानता तो मुसलमानों में भी पाई जाती है! हाँ, पाई जरूर जाती है, लेकिन उनमें धर्म के प्रति अब भी जागरूकता है, वह हर तरह से उनकी रक्षा करते हैं और साथ ही उनका धर्म भी सजीव है! वीरपुर गाँव में जाफर नाम का एक धनी -मानी आदमी है, जिसने अपनी सौतेली माँ को खाने-पीने से तंग कर दिया था, तो उनके समाज में इसी कारण उसे बिरादरी से निकाल दिया। तुम यह बात वहाँ पूछ कर पता कर सकते हो। और हमारे यहाँ इन्हीं गोविंद गांगुली ने अपनी विधवा बड़ी भौजाई को इतना मारा कि बेचारी अधमरी हो गई। पर हमारे समाज की तरफ से क्या मजाल कि उन्हें कोई दण्ड दिया जा सके! वह खुद ही उसके कर्ता-धर्ता बने बैठे हैं। हमारे यहाँ इन सारे कर्मों को व्यक्तिगत माना गया है, जिसका दण्ड भगवान की अदालत में उसे मिलता है, और दूसरे जन्म में कहीं उसका फल भोगना पड़ता है। हमारे देहाती समाज को उन पर कुछ कहने-सुनने का कोई अधिकार नहीं!'

रमेश चित्र-लिखित-सा यह सब सुन रहा था। उसका मन ताई जी के इस तर्क को अंतिम सत्य मान कर स्वीकार नहीं कर पा रहा था। विश्‍वेश्‍वरी ने यह बात तोड़ते हुए कहा - 'बेटा, कहीं भूल मत कर बैठना! फल को ही उपाय समझने की वजह से, तुम जाति की ऊँच-नीच को ही इसका प्रधान कारण मानते हो, और यह सोचते हो कि जब तक इसमें कोई सुधार नहीं किया जाएगा, तब तक कोई सुधार होना संभव नहीं! लेकिन उससे दोनों ही पक्षों की हानि होगी। मगर यदि तुम मेरे कथन की सत्यता की परख करना चाहो, तो जरा शहर के आस-पास कुछ गाँवों में जा कर घूम आओ, और फिर कुआँपुर गाँव की स्थिति से उसकी तुलना कर देखो, तब आप ही सब बातें साफ हो जाएँगी।'

रमेश को कलकत्ता के पास के कुछ गाँवों का अनुभव था। उसने मन-ही-मन उनकी कल्पना की, और सहसा उनकी आँखों के सामने से पर्दा-सा हट गया, और वे विस्मयान्वित नेत्रों से विश्‍वेश्‍वरी के चेहरे की तरफ एकटक देखने लगे।

रमेश के इस परिवर्तन की ओर ध्यान न देते हुए विश्‍वेश्‍वरी बोलीं - 'मैं तुमसे अपनी जन्मभूमि को छोड़ कर कहीं न जाने के लिए बार-बार जो कहती हूँ, सो इसीलिए! जो लोग अपने गाँव के बाहर जा कर अनुभव प्राप्त करते हैं, अगर वे ही लोग अपने गाँव में लौट आएँ, उनसे अपना संबंध-विच्छेद न कर, तुम्हारी ही तरह उनके सुधार में लग जाएँ, तो हमारे देहाती समाज की यह बुरी हालत न रहे, जो आज है - और न फिर ये लोग तुम जैसों को ठुकरा कर, गोविंद गांगुली जैसों को सिर पर चढ़ाते।'

रमेश को उसी समय रमा का स्मरण हो आया और फिर अनमने से स्वर में उसने कहा - 'यहाँ से दूर जाने में मुझे कोई दुख नहीं होगा!'

विश्‍वेश्‍वरी उसके इस वाक्य का कारण तो न समझ पाईं, लेकिन स्वर का उन्होंने पूरी तरह अनुभव किया। बोलीं - 'यह कभी नहीं हो सकता, रमेश! अगर तुम अपना काम बीच ही में छोड़ कर चले जाओगे, तो तुम्हारी मातृभूमि तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगी!'

'मातृभूमि अकेले मेरी ही तो है नहीं, ताई जी!'

विश्‍वेश्‍वरी ने कुछ नाराज होते हुए कहा - 'वह तुम्हारी ही माता है, तुमने आते ही उसके दुख को पहचाना! माँ कभी अपने मुँह से अपने बेटों से कुछ नहीं माँगती। आज तक उसकी व्यथा किसी ने भी नहीं समझी सिवा तुम्हारे!'

उसके बाद रमेश ने बात और आगे न चलाई। थोड़ी देर तक चुपचाप बैठे रहने के बाद, अत्यंत आदर और भक्ति से विश्‍वेश्‍वरी की चरण-रज उन्होंने माथे पर लगा ली, और फिर धीरे -धीरे वहाँ से चले गए।

रमेश के हृदय में कर्तव्य, करुणा, दया और भक्ति की भावनाएँ उमड़ रही थीं।

भगवान भास्कर प्रात:काल की अँगड़ाई लेते हुए, अलसाई मुद्रा में मंथर गति से आकाश मार्ग पर बढ़ रहे थे। रमेश अपने कमरे की पूरब तरफ की खिड़की के पास खड़े, शून्य की तरफ एकटक देख रहे थे। सहसा किसी बालक की पुकार से चौंक कर पीछे मुड़ कर देखा, तो रमा के छोटे भाई यतींद्र को खड़े पाया। वह पुकार रहा था -'छोटे भैया! छोटे भैया!'

रमेश उसे बड़े प्यार से, हाथ पकड़ कर अंदर ले आए और बोले - 'किसे पुकार रहे थे, यतींद्र?'

'आपको ही?'

'मुझे? और छोटे भैया कह कर?' किसने बताया कि मुझे छोटे भैया कह कर पुकारा करो?'

'दीदी ने!'

'दीदी ने? क्या कुछ कहलाया है उन्होंने मेरे लिए?'

'वे मेरे साथ यहाँ आई हैं। वहाँ खड़ी हैं!' और उसने दरवाजे की तरफ इशारा कर दिया।

रमेश ने आश्‍चर्यान्वित हो कर देखा कि रमा एक खंभे की आड़ में खड़ी है। उसके पास पहुँच कर रमेश ने बड़े विनम्र और स्नेहसिक्त स्वर में कहा - 'आओ, अंदर आओ! मेरे अहोभाग्य कि तुम मेरे यहाँ आईं। पर मुझे ही बुला लिया होता। तुमने नाहक तकलीफ की!'

रमा ने इधर -उधर देखा कि यतींद्र का हाथ पकड़ रमेश के पीछे-पीछे चल दी, और उसके कमरे की चौखट के पास आ कर बैठ गई। बोली - 'मैं एक भीख माँगने आई हूँ आपके पास? कहिए, दीजिएगा?' और रमेश के चेहरे की तरफ एकटक देखने लगी। उस दृष्टि ने रमेश के सुप्त हृतस्वरों को झंकृत कर दिया, और दूसरे क्षण ही उनके समस्त तार झनझना कर एकबारगी टूट गए। थोड़ी देर पहले उनके मन में जो निश्‍चय आया और मनोकामनाएँ हिलोरें मार रही थीं, वे प्राय: लुप्त-सी हो गईं। उन्होंने पूछा - 'बोलो, तुम क्या चाहती हो?'

रमेश के स्वर में अन्यमनस्कता और उदासी थी। रमा ने भली प्रकार उसका अनुभव किया। बोली - 'वायदा कीजिए कि देंगे!'

कुछ देर तक मौन रह कर रमेश ने कहा - 'वचन तो नहीं दे सकता! बिना किसी हिचक के, तुम्हारी हर बात मान लेने की जो शक्ति थी, उसे तुमने अपने ही हाथों तोड़ -फोड़ डाला।'

रमा ने स्तब्ध हो कर कहा -'मैंने भला कैसे?'

'रमा, मैं आज तुमसे एक बात कहूँगा कि इस संसार में वह शक्ति, जिस पर मैं सम्पूर्ण विश्‍वास कर सकूँ, जिसकी कोई बात न टाल सकूँ, वह केवल तुम्हीं में थी! अब तुम्हें चाहे इस पर विश्‍वास हो या न हो और यदि वह शक्ति नियति के थपेड़े से नष्ट न हो गई होती, तो मैं यह बात कहता भी नहीं!' और थोड़ी देर तक मौन रह कर फिर उन्होंने कहा - 'आज इस बात को कहने में न मेरा ही नुकसान है, न तुम्हारा ही! उस दिन तक ऐसी कोई चीज न थी, जिसे तुम माँगो और मैं तुम्हें न दूँ! जानती हो, ऐसा क्यों था?'

रमा ने सिर हिला कर ही संकेत किया -'नहीं।' रमा का चेहरा किसी अव्यक्त लज्जा से आरक्त हो उठा।

'सुन कर लजाना भी मत, और न मेरे ऊपर नाराज होना! सोच लेना कि बीते जमाने की एक कहानी सुन रही हूँ।'

रमा के मन में हुआ भी कि उसे रोक दे, पर रोक न सकी और उसका सिर झुका ही रहा गया।

रमेश ने शांत-सुकोमल स्वर में कहा - 'मैं तुम्हें प्यार करता था और ऐसा करता था, जैसा मानो कभी किसी ने किसी को भी न किया होगा! जब मैं बच्चा था, तब मेरी माँ कहा करती थी कि हम दोनों का ब्याह होगा; और जब मुझे उससे निराश होना पड़ा, उस दिन मैं ऐसा रोया कि इसकी याद आज भी ताजा है।'

रमा का हृदय इन सब बातों को सुन कर बिलख उठा। उसका सारा अंतर विदीर्ण हो कर टुकड़े -टुकड़े हो रहा था। पर वह रमेश को न रोक सकी; मूर्तिवत शांत बैठी रही। रमेश ने आगे कहा - 'तुम सोचती होगी कि तुमसे यह बातें कहना तुम पर अन्याय करना है! सोचता मैं भी पहले ऐसा ही था, और तभी तारकेश्‍वर में, जब तुम्हारे सामीप्य ने मेरे समस्त जीवन को एक नवीनता प्रदान कर दी, उस समय मैं यह सब न कह सका। मैंने बड़े कष्ट से, अपने दिल में इस बात को दबा रखा था।'

रमा से अब चुप न रहा गया। बोली - 'आज फिर क्यों, अपने मकान में अकेला पा कर लज्जित कर रहे हैं?'

'नहीं, बिलकुल नहीं! मैं कोई ऐसी बात नहीं कहना चाहता, जिससे तुम्हें अपमान का अनुभव हो। न तुम वह पहले की रमा रही, और न मैं पहले का वह रमेश ही! फिर भी सुनो! मुझे उस दिन यह पूर्ण विश्‍वास हो गया था कि तुम सब सह सकती हो, सब कुछ कर सकती हो, लेकिन मेरा अहित नहीं सह सकती; और इसीलिए मुझे यह विश्‍वास हो चला था कि तुम्हारे ऊपर अपने हृदय के समस्त विश्‍वास को आधारित कर, शांति के साथ इस जीवन के सारे कामों को पूरा कराता चला जाऊँगा! लेकिन, जब उस रोज रात को मैंने अपने कानों से अकबर को यह कहते सुना कि तुमने स्वयं...! अरे कोई है! बाहर इतना हल्ला किसलिए मच रहा है?'

तभी गोपाल सरकार ने हाँफते हुए आ कर कहा - 'छोटे बाबू!' सुनते ही रमेश बाहर निकला। गोपाल सरकार ने उससे कहा - 'छोटे बाबू, पुलिसवालों ने भजुआ को पकड़ लिया।' कहते हुए उनके होंठ काँप उठे और जैसे-तैसे उन्होंने बात पूरी की - 'परसों रात को राधानगर में तो डकैती हुई, उसी में उसे शामिल बताया जाता है।'

कमरे की तरफ देखते हुए रमेश ने कहा - 'रमा, अब एक क्षण भी तुम्हारा यहाँ ठहरना ठीक नहीं! खिड़की के रास्ते तुरंत बाहर चली जाओ! पुलिस जरूर ही मकान की तलाशी लेगी।'

रमा का चेहरा एकदम सुस्त हो गया, खड़े होते हुए उसने कहा - 'तुम्हारे लिए तो कोई डर नहीं है न?'

'कहा नहीं जा सकता! मुझ तो यह भी नहीं मालूम कि मामला क्या है और किस हद तक पहुँच गया है।'

रमा के होंठ काँप उठे। उसे याद हो आया कि उस दिन थाने में रिपोर्ट उसी ने कराई थी। याद आते ही वह रोने लगी और बोली - 'मैं नहीं जाने की!'

रमेश चकित-से थोड़ी देर को देखता रहा, फिर व्यग्र हो कर बोले - 'नहीं रमा, तुम्हारा एक क्षण भी यहाँ ठहरना ठीक नहीं! फौरन चली जाओ!' और रमा को कहने का अवसर दिए बिना ही, यतींद्र का हाथ पकड़ कर, जबरदस्ती भाई -बहन को खिड़की के रास्ते बाहर कर उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया।

 

देहाती समाज | अध्याय - 13, अध्याय - 16 |

देहाती समाज | अध्याय - 5, अध्याय - 8 |

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