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देहाती समाज | शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के द्वारा लिखा गया बांग्ला उपन्यास | (अध्याय - 1, अध्याय - 4)

देहाती समाज | अध्याय 1

बाबू वेणी घोषाल ने मुखर्जी बाबू के घर में पैर रखा ही था कि उन्हें एक स्त्री दीख पड़ी, पूजा में निमग्न। उसकी आयु थी, यही आधी के करीब। वेणी बाबू ने उन्हें देखते ही विस्मय से कहा, 'मौसी, आप हैं! और रमा किधर है?' मौसी ने पूजा में बैठे ही बैठे रसोईघर की ओर संकेत कर दिया। वेणी बाबू ने रसोईघर के पास आ कर रमा से प्रश्नख किया - 'तुमने निश्चिय किया या नहीं, यदि नहीं तो कब करोगी?'

रमा रसोई में व्यस्त थी। कड़ाही को चूल्हे पर से उतार कर नीचे रख कर, वेणी बाबू के प्रश्नं के उत्तर में उसने प्रश्नह किया - 'बड़े भैया, किस संबंध में?

'तारिणी चाचा के श्राद्ध के बारे में। रमेश तो कल आ भी गया, और ऐसा जान पड़ता है कि श्राद्ध भी खूब धूमधाम से करेगा! तुम उसमें भाग लोगी या नहीं?' - वेणी बाबू ने पूछा।

'मैं और जाऊँ तारिणी घोषाल के घर!' - रमा के स्वर में वेणी बाबू के प्रश्नण के प्रति निश्च्य था और चेहरे पर उनके प्रश्नऊ पर ही प्रश्नर का भाव।

'हाँ, जानता तो मैं भी था कि तुम नहीं जाओगी, और चाहे कोई भी जाए! पर वह तो स्वयं सबके घर जा कर बुलावा दे रहा है। आएगा तो तुम्हारे पास भी शायद, क्या उत्तर दोगी उसे?' - वेणी बाबू ने कहा।

रमा ने उत्तर दिया - 'दरवाजे पर दरबान ही उत्तर दे देगा। मैं काहे को कुछ कहने जाऊँगी?' रमा के स्वर में कुछ झल्लाहट थी।

पूजा में ध्यानावस्थित मौसी ने वेणी बाबू और रमा की बातचीत सुनी। उनका मन वैसे ही क्षुब्ध था, और क्षुब्ध हो उठा। वे अपने को न रोक सकीं, पूजा छोड़ आ ही गईं उन दोनों के पास। रमा की बात पूरी होते-न-होते, गरम घी में पड़ी पानी की छींट-सी छनक कर बोलीं - 'दरबान काहे को कहेगा? मैं कहूँगी! मैं क्या कभी भूल सकती हूँ? क्या उठा रखा था तारिणी बाबू ने हमारा विरोध करने में! उन्होंने अपने इसी लड़के से हमारी रमा को ब्याहना चाहा था। सोचा था - ब्याह हो जाने पर यदुनाथ मुखर्जी की सारी धन-दौलत उनकी हो जाएगी! तब तक यतींद्र पैदा नहीं हुआ था। जब मनोरथ पूरा न हुआ, तब इसी ने भैरव आचार्य से जप-तप, टोन-टोटके और न जाने क्या-क्या उपाय करा कर मेरी रमा का सुहाग लूट लिया - उस नीच जातिवाले ने। वह अपने जीवन की पहली सीढ़ी पर ही विधवा हो गई। समझे वेणी, बड़ा ही नीच था - तभी तो मरते बेटे का मुँह देखना तक नसीब नहीं हुआ!' कहते-कहते मौसी हाँफने लगीं। उनके व्यंग्य-बाणों को सुन कर वेणी बाबू की आँखें नीची हो गई। तारिणी घोषाल उनके चाचा थे, उनकी बुराई उन्हें कुछ अखर - सी गई।

रमा ने मौसी से कहा - 'किसी की जाति के बारे में तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए। जाति तो किसी के हाथ की बात नहीं है।

वेणी बाबू ने अपनी झेंप को दबाते हुए कहा - 'तुम्हारा घर ऊँचा है! तुमसे हमारा संबंध कैसे हो सकता है? तारिणी चाचा का ऐसा विचार करना ही भूल थी। रही टोने-टोटके और उनके ओछे व्यवहार की बात - सो वह भी ठीक ही कहा है मौसी ने! चाचा से कोई काम बचा नहीं है। और वही भैरव, जिसने यह सब किया, आज रमेश का सगा बना है।'

'वेणी! रमेश रह कहाँ रहा था अब तक? दस-बारह साल से तो देश में दिखाई ही नहीं दिया।' - मौसी ने पूछा।

'मुझे नहीं मालूम! चाचा के साथ, तुम्हारी ही तरह हमारी भी कोई घनिष्ठता न थी। सुना है कि इतने दिनों तक वह न जाने बंबई था या और कहीं। कुछ कहते हैं - उसने डॉक्टरी पास की है और कुछ कहते हैं वकालत। कोई यह भी कहता है कि यह सब तो झूठ है, और लड़का शराब पीता है - जब घर में आया था, तब भी उसकी आँखें नशे से लाल-लाल अड़हुल जैसी थीं।' - वेणी ने कहा।

'अच्छा! इतना शराबी? तब तो उसे घर में आने देना ठीक नहीं।' - मौसी की आँखें विस्मय से फट गईं।

वेणी ने उत्साह दिखाते हुए कहा - 'हाँ! उसे घर में नहीं घुसने देना चाहिए। तुम्हें तो रमेश याद होगा न, रमा?'

'क्यों नहीं! मुझसे थोड़े ही तो बड़े हैं। और फिर हम दोनों ने साथ-ही-साथ तो पढ़ा, उस शीतला तल्लेवाली पाठशाला में। उनकी माँ मुझे बहुत प्यार करती थी। उनका स्वर्गवास मुझे अच्छी तरह याद है।'

'बड़ा प्यार करती थी! उनका प्यार कुछ नहीं था, सब अपना काम बनाने की बातें थी।' - मौसी ने तेवर चढ़ा कर कहा।

'बिलकुल ठीक कहा मौसी, आपने! छोटी चाची भी...।'

'अब इन गड़े मुर्दों को उखाड़ने से क्या फायदा?' - रमा ने मौसी को बीच में टोककर झल्लाते हुए कहा। रमेश के पिता से इतना झगड़ा होते हुए भी, उसकी माँ के प्रति रमा के हृदय में एक विशेष आदर था और एक कसक थी - तथा वह भाव उसके हृदय से अभी तक सर्वथा मिटा नहीं था।

वेणी ने रमा की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा - 'यह तो ठीक ही है - छोटी चाची भले घर की थीं। आज भी उनकी याद आते ही मेरी माँ का हृदय रो उठता है।' फिर बात को तूल पकड़ते देख, उसे बदल कर झट बोले - 'तो फिर ठीक रहा न, बहन? अब उसमें कुछ हेर-फेर तो न होगा?'

रमा ने कहा - 'भैया, बाबू जी कहा करते थे कि दुश्मन, आग और कर्ज का कुछ भी बाकी छोड़ना अच्छा नहीं होता। तारिणी बाबू ने अपने जीते जी हमको कम नहीं सताया। एक बार तो उन्होंने हमारे बाबूजी को जेल भिजवाने में कोई कसर उठा नहीं रखी थी - और यह रमेश उन्हीं के लड़के हैं। यह सब हम कैसे भूल सकती हैं? हम लोग तो न जाएँगे और बस चला, तो अपने किसी संबंधी को भी नहीं जाने देंगे। बाबूजी जमीन-जायदाद, घर-द्वार और धन-दौलत का हम दोनों भाई-बहनों में बँटवारा तो कर गए, पर देखभाल तो सब कुछ मेरे ही मत्थे है।' रमा चुप हो गई। उसके ओठों पर मुस्कान की रेखाएँ थीं। थोड़ी देर शांत रह कर उसने फिर कहा - 'क्या तुम कोई ऐसी जुगत नहीं निकाल सकते कि कोई भी ब्राह्मण उसके घर न जाए?' उसके स्वर में आग्रह मिश्रित गंभीरता थी।

'जुगाड़ तो मैं भी ऐसा ही कर रहा हूँ। बस - तुम्हारा सहयोग बना रहे, फिर किसी बात की चिंता नहीं! मैं तुम्हें विश्वाकस दिलाता हूँ कि मैं उसे कुआँपुर गाँव से भगाए बिना चैन न लूँगा। तब देखूँगा - कौन-कौन आते हैं भैरव की मदद को?' - वेणी ने कुछ और आगे खिसक कर कहा।

'दाँव-पेच में तो रमेश भी कुछ कम नहीं है और वही उसकी मदद करेगा! और तो कोई क्यों करने लगा!' - रमा ने कहा।

'यही मौका है उसे दबाने का! बाँस की टहनी को कच्ची रहते ही तोड़ना अधिक आसान होता है, पकने पर नहीं। अभी तो रमेश इस दुनिया के अनुभव में बिलकुल कच्चा ही है! अभी वह क्या जाने कि जायदाद कैसे चलाई जाती है?' - वेणी बाबू ने और आगे सरक कर जमते हुए कहा।

रमा ने कहा - समझती-बूझती तो मैं भी हूँ।'

'तुम न समझोगी तो कौन समझेगा - और फिर इसमें ऐसी गूढ़ बात ही क्या है? सच माने में तुम्हें तो लड़का होना चाहिए था! बड़े-बड़े अच्छे जमींदार भी समझ-बूझ में तुम्हारा पार नहीं पा सकते!' - वेणी बाबू बोले और उठते हुए उन्होंने फिर कहा - 'अच्छा तो मैं अब चलूँ, कल फिर समय मिलने पर आऊँगा।'

रमा अपनी इस तारीफ से प्रसन्न हो उठी थी। वेणी बाबू को जाते देख, वह उन्हें तनिक रोकना चाहती थी कि एकाएक आँगन में एक अनजाने, भरे हुए गले की ध्वनि - 'रानी कहाँ है?' सुन कर अचकचा उठी।

रमा के छुटपन में, रमेश की माँ उसे इसी नाम से पुकारती थी, लेकिन समय बीत जाने पर उसे यह बात याद न रही थी। वेणी बाबू का चेहरा भयातुर विस्मय से काला पड़ गया।

रमेश नंगे पैर, सूखे सिर पर दुपट्टा बाँधे आँगन में उसके सामने आ खड़ा हुआ और वेणी बाबू को देखते ही बोला - 'वेणी भैया, आपको तो मैं सारे गाँव में ढूँढ़ आया और आप यहाँ हैं? अच्छा चलिए, आपके बिना तो सारा काम रुका पड़ा है!'

रमा भी भागने का कोई रास्ता न पा कर सहमी-सी चुपचाप एक ओर खड़ी रही। रमेश उसको देख, निश्चिय-भरे शब्दों में बोला - 'तुम तो अब इतनी बड़ी हो गई! अच्छी तरह तो रही न!' रमा चुप थी। वह अचकचाई-सी, भौंचक, सहमी खड़ी रही। रमेश ने फिर थोड़ा मुस्कराते हुए पूछा - 'मुझे पहचानती हो न? वही तुम्हारा पुराना रमेश भैया हूँ।'

रमा अब भी न बोल सकी। फिर उसने वैसे ही आँखें नीचे किए हुए पूछा - 'आप तो अच्छे हैं?'

रमेश ने कहा - 'अच्छी तरह तो हूँ ही! पर मैं तुम्हारे लिए, 'तुम' से 'आप' कब हो गया?'

फिर रमेश ने वेणी बाबू को संबोधित करते हुए कहा - 'भैया, रमा की यह बात मेरी स्मृति में आज भी वैसी ही ताजी है। जब मेरी माँ का स्वर्गवास हुआ था और मेरी वेदना आँसू बन कर बह रही थी, तब रमा ने मेरे व्यथित हृदय को शांत कर, आँसू पोंछते हुए कहा था - भैया, रोओ नहीं! तुम्हारी माँ मर गई तो क्या हुआ? क्या मेरी माँ तुम्हारी माँ नहीं? रमा, तुम्हें तो अब यह बात याद न होगी!' फिर थोड़ा रुक कर उन्होंने पूछा - 'मेरी माँ की तो तुम्हें याद है न?'

रमा वैसी ही मूर्तिवत खड़ी रही - सिर नीचा किए हुए, और वह रमेश के किसी प्रश्नर का उत्तर न दे सकी। रमेश ने रमा को सुनाते हुए ही कहा - 'मैं तो यहाँ नितांत शरणार्थी हो कर आया हूँ। मेरा यहाँ तुम लोगों के सिवा कौन है? तुम लोगों के बिना गए तो कोई काम नहीं सिमट सकता।'

मौसी रमेश के पीछे खड़ी-खड़ी सब बातें सुन रही थी। जब उन्होंने देखा कि रमेश की बात का कोई भी उत्तर नहीं दे रहा है, तो स्वयं ही सामने आ कर बोलीं - 'तुम तारिणी के ही लड़के हो न?'

रमेश मौसी को पहचानता न था। उसने उन्हें कभी देखा भी न था। जब वे रमा की माँ की बीमारी के समय इस घर में आई थी, तब वह यहाँ से जा चुका था। मौसी तब से यहीं रही। रमेश उनके इस प्रश्नी से अप्रतिभ हो उठा।

मौसी ने फिर कहा - 'तुम्हें किसी भले आदमी के घर में, बिना कुछ कहे-सुने, बिना पूछे-ताछे घुस आने में तनिक भी लाज न आई और ऊपर से यों बढ़-बढ़ कर बातें करते हो?'

रमेश को साँप सूँघ गया हो जैसे। वैसे ही चित्रवत नि:शब्द खड़े वेणी बाबू - 'मौसी, अब मैं चला' - कहते हुए खिसक गए।

अंत में रमा ने ही मुँह खोला - 'मौसी! तुम अपना काम देखो - कहाँ की बकवास में लग गई।

मौसी उसे रमा का इशारा समझ और भी तीखे स्वर में बोलीं - 'देखो रमा, तुम इस समय चुप रहो! जो बात कहनी है, उसे तत्काल कह देना ही अच्छा होता है, फिर के लिए टालना ठीक नहीं। वेणी को इस तरह जाने की क्या जरूरत थी? कह तो जाता कि हम लोग तुम्हारा कुछ दिया तो खाते नहीं, जो तुम्हारी चाकरी करने आएँ! यह बात स्वयं ही कह जाता, तब तो जानती कि बड़ा मर्द है। तारिणी मरा, तो गाँव भर का भार उतर गया।'

रमेश को स्वप्न में भी इन बातों के सुनने की आशंका न थी। रसोईघर की कुण्डी झनझनाई, लेकिन किसी ने उसकी ओर कान तक न दिया। मौसी ने मूर्तिवत खड़े रमेश को लक्ष्य कर फिर कहा - 'मैं दरबान से तुम्हारा अपमान कराना नहीं चाहती। तुम ब्राह्मण के बेटे हो इसलिए! अब तुम यहाँ से चले जाओ! किसी भले आदमी के घर में घुस कर, इस तरह की बातें करना शोभा नहीं देता। रमा तुम्हारे घर नहीं जाएगी!'

रमेश के मुँह से अनायास ही एक ठंडी साँस निकल गई और इधर-उधर देख, रसोईघर की तरफ आँख उठा कर उन्होंने कहा - 'मुझे नहीं मालूम था, रानी! मुझसे भूल हुई, मुझे क्षमा करना! तुमने न आने का निश्चोय ही कर लिया है, तो फिर मैं अब क्या कहूँ। और रमेश धीरे-धीरे वहाँ से चला गया। किसी ने उसका कोई जवाब न दिया। वह यह भी न जान सका कि रमा रसोईघर में किवाड़ की आड़ में खड़ी, टकटकी बाँधे, अवाक, उसी के मुख की तरफ देख रही थी।

रमेश के जाते ही, वेणी बाबू झट वहाँ फिर आ पहुँचे। वे वहाँ से भागे नहीं थे, बल्कि वहीं कहीं छिप कर, रमेश के वहाँ से टलने की बाट जोह रहे थे। उन्होंने प्रसन्न हो कर कहा - 'मौसी, तुमने तो खूब भिगो-भिगोकर सुनाई! हम तो कभी इतनी तेजी से कह भी नहीं सकते थे। क्या कोई दरबान इस काम को कर सकता था? मैं तो यहीं खड़ा छिपा-छिपा सब सुन रहा था। यह अच्छा ही हुआ कि वह अपना-सा मुँह लिए चला गया।'

मौसी ने साभिमान कहा - 'अगर तुम हम औरतों पर यह भार छोड़ खिसक न जा कर, स्वयं ही यह बात कहते तो और भी अच्छा होता और अगर अपने मुँह से यह बातें नहीं कह पा रहे थे, तो भी यहीं खड़े-खड़े सुनते कि मैंने उसे क्या-क्या कहा! तुम्हारा इस तरह जाना ठीक नहीं था!'

मौसी की कड़वी बातें सुन वेणी कुछ अप्रतिभ-सा हो गया। वह तय न कर पाया कि इसका क्या जवाब दे। रमा ने रसोई में बैठे-बैठे कहा - 'अच्छा ही हुआ मौसी, जो तुमने अपने आप ही इन बातों को कह दिया। और कोई तुम्हारी तरह ऐसी जहर-बुझी बातें न कह सकता था!'

रमा की इस बात पर मौसी और वेणी दोनों ही को विस्मय हुआ और मौसी ने तीखी आवाज में रमा से पूछा - 'क्या कहा तूने?'

'कुछ नहीं, तुम अपनी पूजा पूरी कर लो! कई बार उसे यों ही अधूरी छोड़ तुम्हें उठना पड़ा है? देर हो रही है। आज क्या रसोई-वसोई कुछ न करने की बात तय कर ली है?' - रमा रसोई से बाहर निकल आई, बिना किसी से बोले, उधरवाली कोठरी में चली गई।

वेणी बाबू कुछ न समझ सके और उन्होंने पूछा - 'यह सब क्या है?'

मौसी ने नाक सिकोड़ते हुए कहा - 'मैं क्या जानूँ? इस महारानी की बात समझना, हम जैसी नौकरानियों का काम नहीं है!' इतना कह कर मौसी विक्षुब्ध हो, पूजा में फिर लग गई। वेणी भी वहाँ से चला गया।

 

देहाती समाज | अध्याय 2

सौ वर्ष पूर्व, बाबू बलराम मुखर्जी तथा बलराम घोषाल विक्रमपुर गाँव से साथ-साथ आ कर कुआँपुर में आ बसे थे। संयोग की बात थी दोनों अभिन्न मित्र भी थे और दोनों का नाम भी एक ही था। मुखर्जी बाबू बुद्धिमान और प्रतिष्ठित कुल के थे। उन्होंने अच्छे घर में शादी करके और सौभाग्य से अच्छी नौकरी भी पा कर यह संपत्ति बनाई थी। शादी-ब्याह व गृहस्थी का जीवन तो घोषाल बाबू का भी बीता था पर वे आगे ने बढ़ सके। कष्ट में ही उनका सारा जीवन बीत गया। उनके ब्याह के मसले पर ही दोनों में कुछ मनमुटाव हो गया था और उसने इतना भयंकर रूप धारण कर लिया कि उस दिन के बाद से पूरे बीस वर्ष तक वे जिंदा रहे, पर एक ने भी किसी का मुँह नहीं देखा। जिस दिन बलराम मुखर्जी का स्वर्गवास हुआ, उस दिन भी घोषाल बाबू उनके घर नहीं गए। पर उनकी मृत्यु के दूसरे दिन ही, एक अत्यंत विस्मयजनक समाचा सुन पड़ा कि वे मरते समय अपनी संपत्ति का आधा भाग अपने पुत्र को और आधा अपने मित्र के पुत्र को दे गए हैं। तभी से कुआँपुर की जायदाद पर दोनों परिवारों का अधिकार चला आ रहा है। इस बात पर उनको भी गर्व है और गाँववाले भी इसे मानते हैं। जिस समय की बात हम कह रहे हैं उस समय घोषाल परिवार भी दो भागों में बँट चुका था। अभी कई दिन हुए, तब उसी परिवार के तारिणी घोषाल मुकदमे के काम से शहर कचहरी गए थे, पर उनको तो बड़ी कचहरी का बुलावा आ गया था और वे वहाँ चले गए। उनके इस असमय स्वर्गवास हो जाने पर कुआँपुर में ही नहीं, आस-पास भी हलचल मच गई। तारिणी घोषाल परिवार बँटवारे की छोटी शाखा से थे; और बड़ी शाखा से वेणी घोषाल हैं, जिन्होंने उनकी मृत्यु पर संतोष की साँस ली। उन्होंने चुपके-चुपके ही जुगाड़ लगाया कि किसी तरह उनके श्राद्ध में गड़बड़ी मच जाए। तारिणी रिश्ते में वेणी के चाचा होते थे। पिछले दस वर्षों से चाचा-भतीजों में भी अनबन थी और महीनों तक किसी ने एक-दूसरे का मुँह भी न देखा था। तारिणी घोषाल की गृहिणी दस वर्ष पहले ही मर चुकी थी। तब उन्होंने अपने पुत्र को तो मामा के पास भेज दिया था और स्वयं अकेले ही, नौकर-चाकर और नौकरानियों के साथ सब काम सँभालते, मुकदमे वगैरह करते-कराते दिन काटते रहे। रमेश को जब उनकी मृत्यु का समाचार मिला उस समय वह रुड़की कॉलेज में थे। एक अरसे के बाद वह अपने गाँव - समाचार मिलते ही - चल पड़े और अंतिम संस्कार आदि करने को कल तीसरे पहर अपने घर आ पहुँचे।

अब दो दिन बाद ही, बृहस्पतिवार को श्राद्ध होने वाला है। धीरे-धीरे पास-पड़ोस से सारे बड़े-बूढ़े, सगे-संबंधी जमा हो रहे हैं। घर में काम की चहल-पहल मची हुई है। नहीं आ रहे हैं तो उसी गाँव के लोग सिर्फ भैरव आचार्य अपने घर वालों के साथ यहाँ काम में हाथ बँटा रहे हैं। उनके अलावा अन्य किसी के आने की आशा रमेश को न थी। यह आशा न होते हुए भी रमेश ने तैयारी पूरी की थी - बड़े जोर-शोर के साथ।

वे सवेरे से ही घर के अंदर काम में व्यस्त थे। जब बाहर निकल कर आए, उस समय बाहर की बैठक में बुजुर्ग लोग हुक्का पी रहे थे। जैसे ही वे उनके पास जा कर नम्रतापूर्वक कुछ कहने को हुए, वैसे ही उनके पीछे से किसी के आने की आहट पा, उधर मुड़ कर देखा कि एक सज्जन - जो काफी बूढ़े हैं, जिनके कंधो पर एक मैला दुपट्टा पड़ा है, नाक पर एक बड़ा-सा चश्मा है जिसकी कमानी टूट गई है और जो डोरी से कान पर विशेष रूप से साधा गया है, बाल सफेद हैं, मूँछें भी - जो हुक्के के धुएँ से कुछ धुआँरी हो गई हैं, अपने साथ पाँच-छह लड़के-लड़कियों की पलटन लिए, खाँसते हुए अंदर घुस रहे हैं। अंदर आ कर, थोड़ी देर तक तो उसी मोटे-से चश्मे के अंदर से, आँखें फाड़-फाड़ कर वे रमेश को घूरते रहे और फिर एकबारगी फूट कर रो पड़े। रमेश पहचान न सका कि ये सज्जन हैं कौन! रमेश ने घबरा कर, बढ़ कर उनका हाथ पकड़ा तभी वह भरे गले से बोले - 'मुझे तो यह आशंका नहीं थी कि तारिणी मुझे इस तरह छोड़ कर चला जाएगा। मैं घोषाल की तरफ से ही होता हुआ आ रहा हूँ। लगी-चुपड़ी तो मुझे आती नहीं। मेरे चटर्जी वंश की परंपरा ही साफ बात करने की है, सो मैं उसके मुँह पर अब भी कहता आया हूँ कि हमारा रमेश श्राद्ध का जैसा इंतजाम कर रहा है - वैसा न हुआ है और न करना ही संभव है! इधर तो इतना बड़ा आयोजन देखा भी न होगा किसी ने!' थोड़ा रुक कर फिर बोले - 'न जाने मेरे बारे में तुमसे ये लोग क्या-क्या लगी-लिपटी कह रहे होंगे! पर यह तुम जान लो कि मेरा नाम धर्मदास है और सचमुच ही मैं धर्म का दास हूँ।' और बूढ़ा अपने भाषण के गर्व में गोविंद गांगुली के हाथ से हुक्का ले, खूब जोर से कश खींचने और फिर खाँसने लगा।

श्राद्ध के आयोजन की बड़ाई में धर्मदास ने झूठ नहीं कहा था। वैसा बड़ा आयोजन तो वास्तव में इधर किसी ने कभी नहीं देखा था। कलकत्ता के हलवाइयों ने आ कर मिठाइयाँ बनाना शुरू किया था, आगे की तरफ मिट्टी खोदकर। इसी से मुहल्ले-टोले के छोटे लड़के-लड़की, उसी की तरफ चक्कर काट रहे थे। उधर चंडी-मंडप के दूसरी तरफ भैरव आचार्य बाँटने के लिए थान से धोतियाँ फाड़-फाड़ कर, उनकी तह बनाने में व्यस्त थे। एक तरफ कुछ आदमी बैठे रमेश के इस आयोजन को मूर्खता और फिजूलखर्ची बता कर, उसे मुफ्त में ही कोस रहे थे। बेचारे दीन-दु:खी गरीब खबर पा-पा कर दूर-दूर से चले आ रहे थे। घर भर में कहीं शोर हो रहा था तो कहीं किसी बात पर आपस में कुछ तू-तू मैं-मैं हो रही थी। चारों तरफ चहल-पहल मची थी। धर्मदास ने खाँसते -खाँसते अपनी आँखें चारों तरफ घुमा कर इस अधिक व्यय का अंदाजा लगाया, तो उनकी खाँसी और तीव्र हो उठी।

रमेश ने उनकी संवेदना पर सकुचाते हुए कुछ कहना चाहा, पर बीच में ही धर्मदास ने उन्हें हाथ के संकेत से रोक कर, स्मृति के ही नाम पर ढेर-सी बातें कह दीं, जो कुछ समझी न जा सकी।

गोविंद गांगुली आ तो सबसे पहले गए थे, परंतु अवसर होने पर भी और चाह कर भी, वे तमाम बातें कहने में चूक गए थे जो धर्मदास ने आते ही कह दीं। पहला अवसर चूका जान कर, वे अपने पर गुस्सा हो रहे थे। अनमना जान कर और तुरंत ही ऐसा मौका हाथ से न जाने देने के विचार से, तपाक से बोले - 'भैया धर्मदास, जब मैं कल सबेरे घर से निकल कर सीधा यहाँ को ही आ रहा था, तो रास्ते में ही वेणी ने मुझे पुकारा कि चाचा, हुक्का पीते जाओ! पहले सोचा कि जरूरत ही क्या है, उसके पास जाने की? पर तुरंत ही दिमाग ने दौड़ लगाई कि वहाँ चल कर, दिल की टटोल जरूर कर लेनी चाहिए। रमेश भैया, तुम क्या कभी सोच सकते हो कि वेणी ने क्या कहा होगा? बोला - 'रमेश की सहायता को तुम्हीं पहुँच गए चाचा, या और कोई भी जाएगा खाने-पीने को? बस तुम्हीं अकेले रहोगे?'

'भला मैं क्यों चूकता! अरे, वह बड़ा है तो अपने घर का होगा और फिर हमारा रमेश किसी से क्या कम है? उसके घर से भला एक मुट्ठी चिड़वा भी जो कभी मिल जाए किसी को!' मैंने तपाक से उत्तर दिया - 'घबराते क्यों हो? रमेश के घर से लौटने और जाने का रास्ता तो यहीं हो कर है। जब दीन-दु:ख भिक्षा लेकर लौटने लगे, तब दरवाजे पर खड़े हो कर जरा देखना। आँखें फटी-की-फटी रह जाएँगी! रमेश की उम्र कम है तो क्या, दिल पाया है उसने! इतनी उमर तक तो इन आँखों ने कभी इतनी जबरदस्त तैयारी देखी नहीं है। पर धर्मदास, सच पूछो तो तारिणी भैया का ही सारा प्रताप है! वे ही सब कुछ करा रहे हैं, ऊपर बैठे-बैठे।'

धर्मदास का दिल मसोस कर रह गया, जब उन्होंने देखा कि गोविंद गांगुली तो इतनी ढेर-सी चुपड़ी बातें कह गया, और वे खाँसते ही रह गए। वे जितना अधिक आवेश में आते, खाँसी उतनी ही और भी जोर मारती। वे आगे कुछ कहने को अत्यंत व्यग्र हो उठे, पर घंटों खाँसते ही रह गए। गांगुली महाशय ने बातों की दूसरी किश्त शुरू की। बोले - 'भैया, तुम्हारी माँ जो थीं न वे हमारी सगी फुफेरी बहन की ममेरी बहन थीं, राधानगर के बनर्जी के घर की! हमारा तुम्हारा तो अपना-सा मामला है! तारिणी भैया की तो पूछो मत! हर बात में बुलाओ गोविंद को, बुलाओ गोविंद को! चाहे मामला-मुकदमा हो, चाहे और कोई काम।'

धर्मदास अपनी बात कहने को छटपटाने लगे। उन्होंने पूरी कोशिश से खाँसी को रोका और बोले - 'क्यों बेकार की बातें मारते हो, गोविंद! मैंने भी यहाँ जिंदगी काटी है। सब जानता हूँ। जब उस साल गवाही में चलने की बात चली तो बोले कि पैर में जूता नहीं है! बिना जूता कैसा जाया जाएगा और जब तारिणी भैया ने जूता दिलवा दिए, तब शहर जा कर वेणी की तरफ से गवाही दे आए थे।' कह कर धर्मदास खाँसने लगे।

गोविंद ने पोल खुलती देख, लाल-पीली आँखें कर कहा - 'मैंने दी थी गवाही?'

'नहीं दी थी क्या?'

'झूठा दुनिया भर का!'

'तेरा बाप होगा झूठा!'

गोविंद ने अपना टूटा छाता ताना और फौरन खड़े हो कर गरज कर कहा - 'ठहर तो साले, अभी बताता हूँ।'

धर्मदास ने भी अपना बाँस का सोटा सीधा किया। पर दूसरे ही क्षण बुरी तरह खाँसने लगे।

रमेश दोनों की बातों से दंग रह गया और लपक कर उनके बीच में आ कर खड़े हो गए। धर्मदास खाँसते-खाँसते बैठ गए और बोले - 'साले की बुद्धि तो देखो! मैं साले के नाते बड़ा भाई लगता हूँ।'

गोविंद ने भी छाता नीचा कर लिया और बैठते हुए बोले - 'देखो तो भला, यह साला और मेरा बड़ा भाई!'

हलवाइयों ने भी काम बंद कर तमाशा देखना शुरू कर दिया था। दूसरे लोग भी काम छोड़-छोड़, शोर सुन कर जमा हो गए। लड़के भी उनकी लड़ाई मजे से देख रहे थे और उन सबके आगे रमेश आँखें नीची किए, लज्जित-सा, डर कर खड़ा था। ब्राह्मण हो कर, वे लोग इस तरह मामूली-सी बातों पर ओछे लोगों की तरह आपस ही में गाली-गलौज कर रहे थे। भैरव बरामदे में बैठ कपड़े सी रहे थे। और वहीं बैठे-बैठे तमाशा देख रहे थे। वे भी बाद में वहाँ आ कर बोले - 'रमेश, करीब चार सौ एक धोतियाँ तह हो चुकी हैं, और धोतियाँ जल्दी चाहिए क्या?'

रमेश से कोई उत्तर ही न देते बना। रमेश की चुप्पी देख भैरव से न रहा गया, वह हँस दिया और सुकोमल स्वर में कहा - 'वाह गांगुली जी, बाबूजी तो बिलकुल खो-से गए हैं! आप खयाल न करें बाबू, इन बातों का। ऐसी बातें यहाँ हुआ ही करती हैं और फिर बड़े काम-धंधों में इस तरह दो-चार बार तनातनी न हो, तो फिर वह बड़ा काम ही क्या? यहाँ तक होता है कि कभी-कभी तो मार-पीट, खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है!' बाद में फिर उसने चटर्जी की तरफ उन्मुख हो कर कहा - 'चटर्जी महाशय, जरा अब चल कर देखिए तो, कि धोतियाँ काफी हैं या और फाड़ी जाएँ।'

तब तक धर्मदास इसका कुछ उत्तर दें, गोविंद महाशय झट से उठ कर खड़े हो गए और तपाक से बोले - 'ठीक तो है ही, यह सब तो चलता ही रहता है! तभी इसे बड़ा काम कहा जाता है। हमारे शास्त्रों तक में तो लिखा है कि बिना लाख बातों के ब्याह नहीं हुआ करते। भैरव, क्या उस साल की बात भूल गए, जब मुखर्जी महाशय की रमा के ब्याह में, राघव भट्टाचार्य और हारान में सर फुटव्वल तक की नौबत आ गई थी? पर भैया, मेरी बात पूछो तो यह काम भी ठीक नहीं। भला ओछे आदमी को, जिन्हें नीच कहते हैं, इस तरह धोती बाँटना कहाँ तक ठीक है? तब तुम्हीं कहो भैरव! यह रुपया पानी की तरह बहाना है या नहीं? नाम हो जाता - नाम! यदि कहीं ब्राह्मणों को एक-एक जोड़ा धोती और उनके बच्चों को भी एक-एक धोती दी जाती तो। मेरी राय में, यही करना चाहिए छोटे भैया को। धर्मदास भैया, तुम्हारी अपनी क्या राय है इसमें?'

धर्मदास ने भी पूरी गंभीरता के साथ, समर्थनसूचक सिर हिला कर कहा - 'बात तो ठीक ही कही गोविंद ने, रमेश भैया! नीच तो बस नीच ही होते हैं! लाख दो, पर सब पानी हो जाता है। कभी एहसान तक नहीं मानते!'

इन ब्राह्मणों की इतनी ओछी मनोवृत्ति देख, रमेश का उदार हृदय चोट खा कर क्षुब्ध हो उठा। वह अब भी नि:शब्द ही खड़ा था। पर जिनके मुख से ये बातें निकली थीं - वे तो अपनी बातों की उच्चता पर विशेष गर्व का अनुभव कर रहे थे। रमेश को सबसे अधिक ग्लानि उनके उस आचरण पर ही हो रही थी कि जिन्हें वे नीच कह रहे हैं, उन्हीं के समान स्वयं आपस में लड़ बैठे। पर वे तो उस पर तनिक भी सोच नहीं रहे थे। चिकने घड़े पर पानी की तरह उनके लिए बात आई-गई-सी हो गई थी। भैरव की प्रश्‍नसूचक दृष्टि अपनी ओर लगी देख रमेश ने कहा - 'दो सौ धोतियाँ और ठीक कर लीजिए।'

बात को दोहराते हुए गोविंद ने कहा - 'बिना इतनों के काम नहीं चलेगा! चलो, मैं भी चल कर हाथ बटाऊँ। तुम अकेले कब तक करोगे?' और बिना राय की प्रतीक्षा किए, कपड़े की ढेरी के पास जा बैठा।

रमेश अंदर जाने को हुए, पर धर्मदास उन्हें एक तरफ बुला कर ले गए और चुपके से उनके कान में कुछ बोले, जिसके उत्तर में रमेश ने भी स्वीकृतिसूचक सिर हिला दिया और अंदर चला गया। गोविंद गांगुली की तेज कनखियों ने कपड़े ठीक करते हुए भी यह देख लिया।

तभी एक और वृद्ध, जो ब्राह्मण ही थे और जिनकी मूँछें ऊपर को ऐंठी हुई थीं 'रमेश भैया, रमेश भैया' कहते हुए वहाँ आ पहुँचे। उनके दो-तीन लड़के-लड़कियाँ भी थीं, जिनमें सबसे बड़ी लड़की के शरीर पर फटी-पुरानी डोरिया की एक लाल धोती थी और लड़कों के बदन पर सिर्फ एक लँगोटी। सबकी आँखें उनकी तरफ उठ गई। गोविंद ने उनका स्वागत करते हुए कहा -'दीनू भैया! आओ बैठो! हमारा परम सौभाग्य है कि आपकी चरण-रज यहाँ पड़ी। बेचारा लड़का अकेला है। मारे काम के मरा जा रहा है, तभी आप लोगों की...।'

तभी धर्मदास ने तिरछी-तीखी नजर से गोविंद की तरफ देखा, जिसका अर्थ समझ, गोविंद ने बात का पहलू बदल कर कहा - 'आप लोग भैया इधर आने ही क्यों लगे!'

यह कह उनके हाथ में हुक्का थमा दिया। दीनू भट्टाचार्य जी बैठ गए और हुक्के से दो-तीन सूखे कश खींचे, पर वह तो पहले ही जल चुका था। बोले - 'भाई मैं तो गया बाहर, तुम्हारे ससुर के घर - तुम्हारी बहू को लेने। कहाँ हैं, रमेश भैया? रास्ते भर सुनता आया हूँ बड़ाई। खाने -पीने के बाद, जाते समय सबको सोलह-सोलह पूड़ियाँ चार-चार संदेश ऊपर से दिए जाएँगे।'

धीरे से गोविंद ने बात पूरी की - 'इसके अलावा एक-एक धोती भी मिलने की आशा है! मैंने तो कहा था न तुमसे कि वैसे तुम बुजर्गों के आशीर्वाद से, काम तो सब चौकस किया जा रहा है, पर वेणी भी अपनी कसर नहीं उठा रख रहा है। हाथ धो कर पीछे पड़ा है! मेरा-रमेश का खून एक है, नहीं तो वेणी ने मुझ पर भी डोरे खूब डाले। दो-दो बार आदमी भेज कर बुलवा चुका है और तुम हुए, धर्मदास भैया हुए, सो भी पराए थोड़े ही हो, अपने ही हो। अबे षष्टीचरण! जा, चिलम तो भर ला। भैया रमेश! जरा सुनना तो, एक बात कहनी है तुमसे।'

और रमेश को एक तरफ ले जा कर गोविंद गुपचुप बोले - 'धर्मदास की औरत अंदर आ गई है क्या? होशियार रहना भैया। उसके हाथ कुछ सौंप न देना! वहाँ का सारा घी, आटा, तेल, नमक आधा-आधा साफ गायब कर देगी। मैं अभी जा कर तुम्हारी मामी को ले आता हूँ। चिंता मत करो किसी बात की! सारा प्रबंध आ कर सम्हाल लेगी। जरा-सा तिनका भी कहीं इधर का उधर जो हो जाए, मजाल है!'

रमेश सिर हिला कर चुप हो गया, किंतु उसे विस्मय यह सोच कर हुआ कि धर्मदास की बहुत धीरे-से कही हुई, अपनी स्त्री को भेज देने की बात गोविंद ने कैसे भाँप ली।

जब ये बातें चल रही थीं, तभी दो नंगे-धड़ंगे लड़के आ कर दीनू के कंधों से लिपट कर कहने लगे - 'हम संदेश खाएँगे, बाबा!'

दीनू ने एक बार लड़कों की तरफ देखा, फिर रमेश और लड़कों की तरफ देख कर बोले - 'मेरे पास धरे हैं संदेश जो तुम्हें दे दूँ?'

लड़कों ने हलवाइयों की तरफ संकेत कर फिर वही बात कही।

फिर और भी लड़के -लड़कियाँ जमा हो गए, संदेश माँगते हुए।

रमेश व्यग्र हो बोला - 'बच्चे अपने-अपने घरों से तीसरे पहर के निकले हैं, भूखे होंगे! अरे, थाल इधर ले आना जी! क्या नाम तुम्हारा?'

हलवाई के संदेश का थाल लाते ही लड़के बंदरों की तरह से उस पर टूट पड़े और लूट मचा दी। उन्हें खाते देख, दीनू की जुबान पर भी लुआब आ गया और आँखें गीली और तीखी हो गईं। बोले - 'मुनिया! अरी बता तो बने कैसे हैं संदेश, या बस खा रही है!'

मुनिया ने खाते-खाते ही संदेश के बढ़िया होने की तारीफ की। पर इससे तो दीनू की लालसा मिटी नहीं। फिर बोले - 'बस, तुमको तो मीठा ही चाहिए। अच्छे-बुरे की तुम्हें क्या तमीज? अरे, भाई हलवाई! अभी से कड़ाही उतार दी? गोविंद भैया, अभी तो दिन है न?'

हलवाई ने लापरवाही से उत्तर दिया - 'हाँ, हाँ! अभी तो दोपहर है! यह समय तो हो गया, अब भी संध्या-पूजा नहीं कर सकेंगे, तब फिर कब करेंगे?'

हिम्मत करके दीनू बोल ही पड़े - 'एक गोविंद भैया को भी दो न, जरा चख कर परख करें तो तुम्हारे कलकतिया हाथ की! नहीं, नहीं! मुझे मत दो, मुझे नहीं चाहिए। नहीं मानते - तो फिर दे दो। आधा ही, आधा काफी है। ओ षष्ठीचरण! पानी ला तो जरा, हाथ तो धो लूँ।'

तभी रमेश ने षष्ठी को पुकार कर, अंदर से तीन-चार तश्तरियाँ लाने को भी कह दिया।

अंदर से पानी के गिलास और तश्तरियाँ आ गईं और पलक झपते ही आधा थाल चट कर दिया। दीनानाथ महाशय मुँह का माल अंदर निगलते हुए, कारीगरों की तारीफ में बोले - 'भइए, है कलकत्ते का ही हाथ! मानते हैं भाई धर्मदास!'

धर्मदास की तश्तरी अभी खाली न हो पाई थी। मुँह भी ठसाठस भरा था, तभी दीनानाथ के समर्थन में कुछ बोल तो न सके, पर उनकी मुख-मुद्रा साफ बता रही थी कि उनका भी रोम -रोम तारीफ कर रहा है।

गोविंद ने सबके अंत में हाथ धोने के लिए बढ़ते हुए कहा - 'हाँ भाई, मानते हैं, कलकत्ते का नाम निभा चले भाई!'

हलवाई भी अपनी बड़ाई सुन गदगद हो गया और अनुरोध के स्वर में बोला - 'जरा नुक्ती का लड्डू भी खा कर देखिए, कैसा बना है?'

गोविंद गांगुली की जुबान को एक पल की भी देर न लगी, जैसे कि पहले से ही तैयार थे उत्तर के लिए। मिठाई के लुआब से लिपिड़-सिपिड़ करते बोले - 'हाँ हाँ, क्यों नहीं! जरूर चखेंगे - लाओ न!'

और लड्डू भी आए। रमेश दंग हो रहा था, उन सबके व्यवहार देख-देख। संदेश की तादाद से अधिक खाए जा चुके थे, फिर भी लड्डू पर उन लोगों का हाथ साफ करना वे चकित दृष्टि से देख रहे थे।

दीनानाथ तो खा ही रहे थे। अपनी लड़की की ओर भी उन्होंने नुक्ती के दो लड्डू बढ़ाए। मुनिया ने कहा - 'पेट में जगह नहीं रही।' दीनानाथ महाशय बोले - 'अरे पगली, नहीं खाया जाएगा? जरा जा कर पानी से गला तर कर ले, सूख गया होगा! और तब भी न खाया जाए, तो धोती की खूँट में बाँध ले। सबेरे खा लेना! भाई खूब, क्या कहने! बड़े ही अच्छे बने हैं! खूब खिलाया। लेकिन रमेश, क्या दो ही मिठाई बनवाई है?'

हलवाई ने भी अपनी बड़ाई होती देख खुश हो कर कहा - 'अभी क्या है? अभी तो रसगुल्ला, खीरमोहन...।'

दीनानाथ ने रमेश की तरफ देख कर कहा - 'वाह! भाई वाह! खीरमोहन भी बना है? पर दिखाया तो नहीं। खीरमोहन तो राधानगर के बोस बाबू के घर में खाया था। क्या कहने थे उस खीरमोहन के! स्वाद आज तक भी बना हुआ है जुबान पर! क्या कहूँ भैया, खीरमोहन मुझे इतना अच्छा लगता है, इतना इच्छा लगता है कि...।'

तभी रमेश ने राखाल से, जो किसी काम से बाहर जा रहा था, भैरव आचार्य को खीरमोहन भिजवाने के लिए कहला भेजा।

शाम हो गई है, पर यह ब्राह्मण मंडली खीरमोहन की आशा में पलक-पाँवड़े बिछाए, जीभ से बार-बार होंठ साफ करके बैठी है। राखाल ने लौट कर उत्तर दिया - 'आज भण्डार का ताला बंद हो गया है, सो अब नहीं खुलेगा किसी भी चीज के लिए!'

रमेश को कुछ बुरा मालूम हुआ। वह बोला - ' कह दो जा कर कि मैं मंगवा रहा हूँ।

रमेश के तेवर में बल देख कर सहसा गोविंद गांगुली ने कहा - 'इस भैरव की बुद्धि देखी, तुमने भैया? जैसे सबसे ज्यादा उन्हीं को कलख हो, तभी तो कहता हूँ।'

तभी राखाल ने बीच में ही बात काट कर कहा - 'उस घर से आ कर, मालकिन ने भण्डार पर ताला लगा दिया है। उसमें आचार्य जी भला क्या कर सकते हैं?'

गोविंद और धर्मदास दोनों ही विस्मय से दंग रह गए, बोले - 'मालकिन कौन?'

रमेश ने भी विस्मयान्वित हो पूछा - 'ताई जी आई हैं क्या?'

'जी, आते ही उन्होंने छोटे और बड़े भण्डार की ताली अपने कब्जे में कर, उनमें ताला डाल दिया है।'

रमेश सुन कर विस्मयानंद के मारे अभिभूत हो गया और बिना कुछ कहे अंदर चला गया।

 

देहाती समाज | अध्याय 3

'ताई जी!' - रमेश ने पुकारा।

उस समय वे भण्डार में थीं। आवाज सुनते ही बाहर निकल आई। वेणी को देखते हुए उनकी उम्र पचास साल के करीब होनी चाहिए। वैसे उनके गठे शरीर को देख कर तो वे चालीस के लगभग जान पड़ती थीं। आज उनका रंग साफ और गोरा था। उनकी जवानी में, उनकी सुंदरता की दूर-दूर तक चर्चा थी और वह सौंदर्य आज भी, शरीर के गठन के साथ बना हुआ था। बाल उनके विधावाओं की तरह कटे हुए थे, जिनकी छोटी -छोटी घुँघराली लटें माथे पर आ कर उनकी सुंदरता को बढ़ा रही थीं। अंग-प्रत्यंग, चिबुक, होंठ, कपोल, सारे के सारे उनकी सुंदरता के प्रमाण बने थे। उनकी आँखें तो मानो रस में डूबी हुई थीं। रमेश उनकी छवि की तरफ एकटक देखता रहा।

ताई जी और रमेश की माँ में बड़ी घनिष्ठता थी। काफी दिनों तक दोनों के कोई संतान नहीं हुई थी। सास-ननद के तानों से तंग आ कर दोनों साथ बैठ कर रोई थीं और तभी पहली बार, एक ही दुख से दुखी होने के नाते, दोनों में प्रेम का सूत्रपात हो गया, जो अंत तक बना रहा। रमेश को भी वह विशेषतः प्यार करती थी।

आज एक अरसे के बाद जब रमेश की माँ अपनी देवरानी के भण्डार में गई, तभी से अपने हाथ से सँजो कर रखे गए सामान को देख, देवरानी की याद आ गई और उनकी आँखों से आँसू बह निकले।

दोनों के घर में आपसी मनमुटाव काफी दिनों पहले से चला आ रहा था। यहाँ तक कि मुकदमेबाजी तक की नौबत आ जाती थी और वही मनमुटाव अब तक भी न टूटा था।

रमेश की आवाज सुन कर, वे अपनी गीली आँखें पोंछ, बाहर निकलीं। उस समय उनकी आँखें लाल हो रही थीं और उनमें विषाद की आभा झलक रही थी, जिसे देख रमेश चकित-सा खड़े रह गया। ताई जी का दिल भी रमेश के लिए भर आया - जिसके न माता थी न पिता। पर अपने को संयत रख हँसते हुए बोलीं - 'पहचान लिया मुझे, बेटा रमेश?'

जब रमेश की माँ का देहांत हो गया था, तब इन्हीं ताई जी ने उसे अपनी छाती से लगा कर पाला था और जब तक वह अपने मामा के घर नहीं गया था, तब तक इन्हीं के प्यार में उसका शरीर बढ़ा था, पर कल जब वह इन्हीं ताई जी के घर मिलने गया, तो उन्होंने 'घर पर नहीं हैं' कह कर टलवा दिया था और उसके बाद मौसी ने वेणी के सामने और उसके पीछे भी, उसका घोर अपमान किया था। तब उसके टूटे दिल से एक आह निकली थी - 'मेरा यहाँ कोई नहीं है!' पर आज उन्हीं ताई जी को अपने आप आ कर भण्डार की कुंजी सम्हालते देख, वे विस्मय से चित्र लिखे-से खड़ा उनकी तरफ देखते रहे।

उनको इस तरह खड़ा देख कर विश्वेश्वरी ताई जी ने कहा -'बेटा! ऐसे मौकों पर दिल कमजोर करने से काम नहीं चलता।'

विश्वेश्वरी के स्वर में उन्हें कोमलता का तनिक आभास नहीं मिला। वे कल के उनके व्यवहार से उनका प्यार उमड़ता देख, रूठने का-सा उपक्रम कर रहे थे। पर तुरंत ही उन्होंने अनुभव कर लिया कि यहाँ इससे काम नहीं चलने का। जहाँ किसी को किसी पर रूठने का अधिकार होता है, वहाँ निभाव भी होता है। अन्यथा और विशेष कष्ट ही होता है। उसने जरा तुनक कर कहा - 'मेरा जी कमजोर नहीं, ताई जी! मैं तो तब जो बन पड़ता, आप ही कर लेता - फिर तुम्हारे आने की क्या जरूरत थी?'

वे फिर मृदु हँसी हँस पड़ीं। बोलीं - तुम मुझे बुला कर लाए होते, तो तुम्हारे सवाल का जवाब देती! सो, तुम तो बुला कर लाए नहीं! वैसे यह सुन लो कि जब तक सारा काम नहीं हो जाता, अंदर के सब काम मेरे ऊपर रहेंगे। भण्डार से भी सब चीजें यों ही नहीं निकलेंगी। रोज जाते समय, उसमें ताला डाल कर ताली तुम्हें सहेज जाया करूँगी और आते समय ले लूँगी, रोज-समझे? अच्छा! क्या उस रोज वेणी से मुलाकात हुई थी?'

रमेश को इस प्रश्‍न ने अजीब असमंजस में डाल दिया। क्या जवाब दे, उसने सोचा। पता नहीं, इनको अपने पुत्र के व्यवहार का पता है या नहीं। फिर बात को टाल कर बोला - 'उस समय वे घर पर मिले नहीं!'

रमेश ने ताई जी के मुख पर झलकती प्रश्‍न की व्यग्रता को अनुभव किया। रमेश के उत्तर से उनका खिंचाव ढीला पड़ा और मंद मुस्कान उनके होंठों पर खेलने लगी। बोलीं - 'वाह-वाह! एक बार नहीं मिला, तो दूसरी बार जाते! मैं जानती हूँ कि वह तुम लोगों से नाराज है, पर तुम्हें तो अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए! वह तुम्हारा बड़ा भाई है और इस समय तो हर किसी से, विनती-अनुरोध से अपने सारे झगड़े मिटा लेने चाहिए! मैं सोचती हूँ कि इस समय वह घर पर ही होगा! जाओ, मेरे बेटे, इस समय उससे मिल आओ!'

रमेश के मन में जो संदेह काम कर रहा था, उसका समाधान अभी तक नहीं हुआ था, और न उसके इस आग्रह का ही कारण उसे समझ पड़ा। वह उसी के समझने में असमंजस में पड़ा था तभी विश्वेश्वरी ने तनिक उसके और नजदीक आ कर धीरे से कहा - 'तुम तो अभी कल आए हो, क्या जानो ये लोग कैसे हैं? जो सब बाहर बैठे बातें बना रहे हैं, कहीं इनकी बातों में मत आ जाना! तुम अब जरा अपने बड़े भैया के पास, मेरे साथ चलो!'

रमेश ने भी दृढ़ता से कहा - 'ताई जी, बाहर जो लोग इस समय बैठे हैं, वे कैसे भी हों पर इस समय तो वे मेरे अपने ही हैं!'

रमेश की बात सुनते ही ताई जी के चेहरे का भाव अजीब तरह से परिवर्तित हो गया, जिसे देख रमेश की आगे की बात मुँह में ही रह गई और वे ताज्जुब से उनकी तरफ देखते रहे। उनका चेहरा एकदम फक्क पड़ गया था। थोड़ी देर उसी अवस्था में रह कर ताई जी ने लंबी-सी ठंडी साँस खींच कर कहा - 'जैसी तुम्हारी मर्जी! नहीं जाना चाहते उसके पास, तो फिर तुमसे कुछ कहना ही व्यर्थ है। पर इतना तो कहे ही देती हूँ कि चिंता मत करना तुम, किसी बात की! मैं फिर सबेरे ही आ जाऊँगी।' कह कर वे अपनी नौकरानी को बुला कर, उसके साथ पीछे की खिड़की के बाहर चली गई। रमेश को वेणी से मिलने में अन्यमनस्क देख कर उन्होंने समझ लिया कि वह वेणी से मिल चुका है, और निश्‍चय ही उससे कोई बात हो गई है। कुछ देर तक तो रमेश उस ओर ही देखता रहा, जिधर से वे गईं फिर उदास चेहरे सहित बाहर निकल कर आया, तो तुरंत ही उनसे गोविंद ने उद्विग्न हो पूछा - 'बड़ी माता जी आई थीं क्या?'

'हाँ!'

'सुना है, भण्डार की ताली भी अपने साथ लेती गई हैं।'

रमेश ने बिना बोले ही सिर हिला कर उसका उत्तर दे दिया। वैसे तो उन्होंने ताली दे कर जाने को कहा था, पर चलते समय न जाने क्यों अपने साथ ही लेती गई।

'क्यों धर्मदास, क्या कहा था न मैंने! सच ही निकली मेरी बात! रमेश भैया, तुम समझे इसका मतलब?' - गोविंद बोले।

रमेश को गोविंद की बात बुरी लगी, पर समय का विचार कर कुछ कहना ठीक नहीं समझा। दीनू भट्टाचार्य अभी तक मौजूद थे। वे अजीब भोंदू किस्म के आदमी थे, तभी तो बिना लिहाज के, मय बालगोपालों के, भरपेट मिठाई चढ़ा गए थे। वे आशीर्वाद देने का अवसर पाए बिना जा कैसे सकते थे। अब अवसर पा कर बोले - 'इसका मतलब समझना क्या मुश्किल है? वे रंग-ढंग समझती हैं, तभी ताली अपने साथ लेती गई हैं।'

दीनू की इस बात ने गोविंद के आग लगा दी। तुनक कर बोले - 'तुम बिना समझे-सोचे हर बात में टाँग क्यों अड़ा दिया करते हो? क्या समझो तुम, इन सब बातों को?'

गोविंद की डाँट से वह और मुँहफट हो कर बोले - 'वाह, बात ही ऐसी कौन-सी टेढ़ी है इसमें, जो समझ में न आए! सीधी-सी तो बात है कि बड़ी माता जी आ कर, भण्डार का ताला बंद कर, ताली बंद कर, ताली अपने साथ लेती गई हैं।'

'तुम्हारे आने का काम तो पूरा हो गया - अब तुम घर जाओ, बस! अब तो घर भर ने मिल कर खूब भरपेट खा भी लिया और खूब बाँध भी लिया, अब और क्या काम बाकी है तुम्हारा? रहा खीरमोहन, सो अब उसे परसों ही खाना। अब और कुछ नहीं मिलने का!' - गोविंद ने कहा।

रमेश को अब गुस्सा आ गया था और बेचारे दीनू तो मारे लज्जा के और भी दीन हुए जा रहे थे।

रमेश ने गोविंद को रोक दिया, नहीं तो और भी जाने क्या-क्या उनकी जुबान से निकल सकता था। जरा तेज स्वर में बोला - 'हर किसी का बेकार अपमान करने की आपकी यह क्या आदत है गांगुली जी!'

गोविंद चौंक पड़े और तुरंत ही संयम में हो, जबरदस्ती की हँसी हँसते हुए बोले - 'अपमान तो मैंने भैया किसी का नहीं किया। जो कहा है, वह सच कहा है। कोई सवा हाथ तो मैं डेढ़ हाथ! अरे तुम्हीं देखो धर्मदास भैया, इस ब्राह्मण की गुस्ताखी!'

गोविंद की इस ढिठाई पर रमेश दंग रह गया। उसके उस चेहरे की तरफ देख कर दीनू ने स्वयं ही कहा - 'रमेश भैया! जग जाहिर है कि मेरे पास न खेत है न मकान। गरीब ब्राह्मण हूँ। भिक्षावृत्ति पर ही जीवन चलता है, मेरा व मेरे परिवार का। कभी-कभी ऐसा अवसर मिलता है कि बच्चों को अच्छी चीज खिला सकूँ, जब कभी बड़े आदमियों के यहाँ कोई बड़ा काम होता है। तारिणी भैया का तो नियम ही था, हम लोगों को खिलाने-पिलाने का - और मैं निश्‍चित कह सकता हूँ कि हम लोगों के भरपेट खाने से उनकी आत्मा को खुशी होगी!' कहते-कहते उनके दीन नेत्रों में आँसू भर आए। अपने मैले दुपट्टे के छोर से आँसू पोंछ कर वे आगे बोले - 'भैया, मैं नहीं, मुझ जैसे सभी आस-पास के जितने भी गरीब हैं, कभी तारिणी भैया के दरवाजे से खाली हाथ नहीं लौटे! किसी को कानो-कान भी खबर न हो पाती थी। यहाँ तक कि उनका बायाँ हाथ भी उसे नहीं जान पाता था। अच्छा, अब चला - आप लोगों का समय अब और नष्ट न करूँगा। मुनिया! ओ हरिधान! चलो, अब घर चलें। कल सवेरे फिर आएँगे। भैया! तुमसे कुछ कहने लायक तो हूँ ही क्या, पर सदैव मेरा यह आशीर्वाद है कि अपने पिता ही की तरह होओ - और खूब लंबी उमर हो तुम्हारी!'

रमेश उनके साथ काफी दूर तक गया और रास्ते में बोला - 'दया बनाए रखिएगा भट्टाचार्य जी मेरे ऊपर जरा...कहते संकोच-सा मालूम होता है, पर अगर मेरे घर में हरिधान की माँ के चरण पड़ते, तो मैं अपने को धन्य समझता!'

दीनू ने एकदम रमेश के दोनों हाथ थाम लिए और कोमल स्वर में बोला - 'रमेश भैया! नाहक मुझे क्यों लज्जित करते हो! मैं दीन ब्राह्मण हूँ किस योग्य!'

और वे अपने सब बालगोपालों के साथ घर चले गए। रमेश भी लौट कर आ गया। जाते समय वह गोविंद से कुछ कटु शब्द कह गए थे, उनकी याद आते ही वह कुछ कहना चाहता था, पर गोविंद ने बीच में ही कहना शुरू कर दिया। बोले - 'भैया रमेश! तुम हमें जब बुलाते तभी हम आते और सारा काम आप ही करते। अपना ही काम है यह तो!'

धर्मदास, जो अब तक हुक्का ही गड़गड़ा रहे थे, अब लाठी के सहारे खड़े हो कर खाँसते-खाँसते बोले - 'वेणी नहीं हैं हम लोग कि जिसकी पैदाइश का ही नहीं पता! समझे कि नहीं?'

रमेश को धर्मदास की इस भोंडी-गंदी बात ने तिलमिला दिया, पर कुछ कहा नहीं उसने। अब तक वह यह अच्छी तरह से समझ चुका था कि अशिक्षित होने के कारण ही, जो मुँह में आता है, बिना सोचे-समझे ये लोग बक देते हैं।

जब सब चले गए, तो रमेश ने वेणी बाबू के पास जाने की सोची। ताई जी का आग्रह अब तक उसके मन में घुमड़ रहा था। वेणी बाबू के चंडी मंडप में जब वे पहुँचे, तब रात के आठ बजे थे। अंदर से, किसी बात पर घोर विवाद की आवाज सुनाई पड़ रही थी। सबसे तीव्र स्वर गोविंद गांगुली का था। वे पूरे दावे के साथ कह रहे थे - 'वेणी बाबू, मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मरते समय तारिणी बाबू ने एक पैसा भी नहीं छोड़ा था और यह जो इतना ठाठ-बाट हो रहा है, तो निश्‍चय जानो कि रमेश ने नंदी की कोठी से, कुछ नहीं तो तीन हजार रुपए तो कर्ज काढ़ा ही है! देखना, हम सबके देखते-ही-देखते, चार दिन में सारी शान न किरकिरी हो जाए तो कहना! भई, जितनी चादर हो, उतना ही पैर पसारना चाहिए, नहीं तो बदन तो उघरेगा ही!'

'गोविंद चाचा, तो फिर पक्का पता लगाना चाहिए इस बात का।' - वेणी के स्वर में उत्साह था।

'देखते चलो! इस बार उस घर में अच्छी तरह मैं स्थान तो बना लूँ, तब फिर...बाहर कौन खड़ा है? रमेश भैया? अरे वाह, इतनी रात गए बाहर? हम सब मर गए थे क्या?'

रमेश ने उनको तो कुछ उत्तर दिया नहीं, आगे बढ़ कर वेणी से कहा - 'मैं आपके ही पास आया हूँ, बड़े भैया!'

वेणी तो हक्का-बक्का हो गए, बोल ही न सके। गोविंद ने ही तुरंत उत्तर दिया - 'हम तो इसीलिए इनको समझाने आए थे कि भाई, तारिणी भैया का झगड़ा उनके साथ रहा, सो वह उनके साथ ही खतम हो गया - अब तो मेल हो जाए तुम दोनों में, तो हम सबको वह शुभ घड़ी देख कर आँखें ठण्डी करने का अवसर मिले! हमें तो आशा थी कि तुम आओगे ही! बड़े भाई भी तो पिता के समान होते हैं...हालदार मामा, तुम्हारी क्या राय है?...पर आप खड़े क्यों हैं अभी तक? बैठिए न, अरे है कोई, एक कम्बल या आसन ला कर बिछा दे यहाँ? वेणी बाबू, आप बड़े भाई लगते है, आप ही इस तरह अलग -अलग रहेंगे, तो फिर काम नहीं चलने का! और फिर अब तो बड़ी माता जी भी वहाँ हो आई हैं, फिर आपको अब क्या...?'

सहसा वेणी चकित रह गए, पूछा - 'अम्मा गई थीं क्या वहाँ?'

गोविंद तो चाहते ही थे कि वे चौंकें। अपनी बात का ठीक असर देख प्रसन्न हुए, पर उस भाव को छिपा कर विस्तार से बोले - 'गई ही नहीं हैं, बल्कि भीतर का सारा काम-धंधा और भण्डार का चार्ज भी ले लिया है उन्होंने। और न लेतीं, तो और कौन आता सम्हालने, भाई?'

किसी ने कुछ भी नहीं कहा। गोविंद ने ही दीर्घ नि:श्‍वास लेकर कहा - 'गाँव भर में उन जैसा तो कोई है नहीं! और न यही आशा है कि कभी हो भी सकेगा। कहोगे कि ठकुरसुहाती कह रहा हूँ - पर बात सच है कि बड़ी माँ जी लक्ष्मी हैं पूरी! सबको ऐसी माँ मिलने का सौभाग्य नहीं होता।' और दीर्घ नि:श्‍वास छोड़ शांत हो गए।

कुछ देर तक सब लोग मौन रहे, फिर वेणी बाबू ने धीरे से कहा - 'अच्छा!'

तपाक से गोविंद फिर उन पर अपनी बात का रद्दा रखते हुए बोले - 'नहीं वेणी बाबू! केवल 'अच्छा' भर कह देने से काम नहीं चलने का। सारा काम आपका इंतजार कर रहा है, चल कर सब सम्हालिए! हाँ भाई, सभी तो यहाँ पर हो, किस-किसको निमंत्रण दिया जाएगा, अभी यहीं बैठे-बैठे क्यों न बना लिया जाए! रमेश भैया, क्या कहते हो - हालदार मामा, धर्मदास भैया, बोलो न! क्या राय है तुम सबकी? आप लोग तो बता सकेंगे कि किसको बुलाया जाए किसको नहीं?'

रमेश ने अनुरोध के स्वर में कहा - 'मेरा परम सौभाग्य होता, बड़े भैया - यदि आप एक बार मेरे घर...'

'जब अम्मा हो आई हैं, तब मैं जाऊँ या न जाऊँ - गोविंद चाचा, क्या राय है तुम्हारी?'

रमेश ने गोविंद को कुछ कहने का अवसर न दे कर कहा - 'मैं आपको अधिक कष्ट तो नहीं देना चाहता भैया! सिर्फ एक बार, अगर विशेष कष्ट न हो, तो देख-भाल आइएगा!'

गोविंद कुछ कहना चाहते थे। पर बिना कुछ सुने ही रमेश वहाँ से चल दिया। उनके जाने के बाद गोविंद ने बाहर जा कर देख लिया कि दरअसल वह चले गए कि नहीं, फिर आ कर बोले - 'देखा आपने, ढंग-डौल, वेणी बाबू?'

वेणी उस समय कुछ और ही सोच रहे थे। गोविंद को उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।

गोविंद की पहली बातें भी रमेश ने सुन ली थीं और उसके पहुँचने पर उसने जो बातों का रुख पलटा था - वह भी देखा था, तभी उनका मन मारे घृणा के भर उठा था। जाते समय यही सोचते हुए वह अब आधी दूर निकल आया, तब वह वहाँ से फिर लिया। उस समय भी वहाँ खूब जोर से बातें चल रही थीं। पर अब के वहाँ खड़े हो कर सुनने की इच्छा न हुई। सीधे अंदर घुसते चले गए और अंदर जा कर ताई जी को पुकारा।

उस समय ताई जी अकेली, चुपचाप, अँधेरे में, सामनेवाले बरामदे में बैठी थीं। रमेश की आवाज ने उन्हें चौंका दिया, बोलीं - 'इतनी रात को कैसे, बेटा?'

रमेश पास पहुँच गया तो उन्होंने कहा - 'रुको, मैं किसी से रोशनी लाने को कह दूँ!' पर रमेश दीया लाने को मना कर, वहीं बैठ गया।

ताई जी ने फिर अपना प्रश्‍न उठाया - 'इतनी रात में कैसे आए, बेटा!'

रमेश ने सहज सरल स्वर में कहा - 'निमंत्रण नहीं दिया है अभी तक किसी को, उसी बारे में पूछने आया हूँ।'

'यह तो बड़ा विकट काम है। अच्छा! गोविंद वगैरह सब लोग क्या कहते हैं?'

'मैं तो आज जो आप कहेंगी सो करूँगा! न मैं जानता हूँ और न जानना ही चाहता हूँ कि वे लोग क्या कहते हैं?'

रमेश के स्वर ने उन्हें विस्मय में डाल दिया, कुछ देर बाद बोलीं - 'तब तो कहते थे कि इस समय यही तुम्हारे सब कुछ हैं। खैर, छोड़ो, उस बात को! हम औरतों की भला उस मामले में क्या चलेगी? यहाँ तो सभी जगह यही खटराग है कि यह वहाँ नहीं खाता, तो वह यहाँ नहीं खाता! यही सबसे बड़ी मुश्किल अटका करती है, हर काम के समय।'

रमेश ने भी दो-चार दिन में ही जान लिया था कि कैसी-कैसी बातें उठती हैं यहाँ पर। पूछा उन्होंने - 'ऐसा क्यों होता है, ताई जी?'

'यहाँ रहने पर सब समझ लोगे! यहाँ बात-बात में झूठे-सच्चे दावेदार बन कर अदालत-कचहरी तक होती है। यही राग चलता रहता है, बेटा! अगर मैं पहले से तुम्हारे यहाँ पहुँच जाती, तो कभी इतना तूल न करने देती। अब तो यही चिंता है कि श्राद्ध के दिन क्या होगा!'

रमेश ताई जी का मंतव्य समझ न पाया, उद्विग्न हो बोला - 'पर मुझे इन दलबंदियों से क्या मतलब? अभी कल तो मैं आया हूँ, यहाँ मेरी किसी से क्या दुश्मनी है? इसलिए मैं इन दलबंदियों का विचार न कर, सभी ब्राह्मणों और गरीब शूद्रों को न्यौता दूँगा। पर आपकी आज्ञा तो लेनी होगी।'

कुछ देर तक सोचते रहने के बाद ताई जी ने कहा - 'मैं तो कुछ भी नहीं कह सकती इस तरह से! कहूँ भी तो बड़ी हाय-तौबा मच जाएगी। पर इसके ये मानी नहीं कि तुम गलत कहते हो! तुम्हारा कहना भी ठीक है, पर इतने भर से ही काम नहीं चल सकता। जिसे समाज ने अपने से अलग कर दिया है, तो उसे नहीं बुलाया जा सकता। समाज का किया - चाहे गलत ही हो - मानना होगा! न मानने से तो समाज चल ही नहीं सकता!'

इस समाज के कर्णधारों की उच्चता का परिचय रमेश को अभी-अभी बाहर की घृणास्पद बातों से मिल चुका था, जो उन्हें विशेष ग्लानि से अभिभूत कर रहा था। उन्हों उसी आवेश में कहा - 'यहाँ के समाज के कर्णधार यदि धर्मदास और गोविंद ही हैं, तो उसमें सचमुच ही किसी तरह की शक्ति न रहे, तभी अच्छा है!'

उनके आवेश को देख कर ताई जी ने संयत-शांत स्वर में कहा - 'इनके अलावा, तुम्हारे बड़े भाई भी उसी समाज के प्रमुख अंग हैं।'

रमेश ने इसका कोई उत्तर न दिया। ताई जी ही बोलीं - 'इन लोगों की राय से काम करना ही ठीक होगा, रमेश!'

उन्होंने तो अपने जाने काफी दूर की बात सोच कर ही कही थी, पर रमेश अपने आवेश में उसे समझ नहीं सका। बोले - 'मेरा यहाँ किसी से भी, किसी प्रकार का द्वेष भाव नहीं है। अभी आप ही ने कहा कि यहाँ दलबंदियाँ हैं, जिनका मेरी समझ में मुख्य कारण व्यक्तिगत द्वेष ही है। फिर भला मैं कैसे किसी को न्यौते से अलग कर सकता हूँ?'

ताई जी ने जरा हँसते हुए स्वर में कहा - 'मैं भी तो कुछ तेरी भलाई सोच कर ही कह रही हूँ। तेरी माँ की जगह हूँ मैं! मेरी बात न मानना भी तो ठीक नहीं!'

'पर मैं तो सभी को बुलाने का निश्‍चय कर चुका हूँ।'

ताई जी ने खिन्न होकर कहा - 'तब तो फिर मेरी आज्ञा लेने नहीं आए, सिर्फ मुँह-दिखावा ही करने आए हो!'

रमेश ने उनके स्वर से समझ लिया कि वे खिन्न हो गई हैं। पर अपना निश्‍चय नहीं छोड़ा उन्होंने। बोला - 'मुझे तो आशा थी कि मेरा जो काम ठीक होगा उसे आपका आशीर्वाद अवश्य प्राप्त होगा पर...।'

बीच में ही ताई जी ने कहा - 'पर तुम्हें यह भी तो सोचना चाहिए था कि मैं अपनी संतान का विरोध नहीं कर सकती!'

रमेश इस चोट से विह्‍वल हो उठा। कल से वह ताई को हर मायने में अपनी माँ ही मानने लगा था, पर यह सत्य है कि उससे पहले और अधिक गहरा स्थान उनकी संतान ने उनके हृदय में बना रखा है और यह विचार उसकी आशा पर आघात करने लगा। थोड़ी देर मौन रह कर, उठ कर खड़े होते हुए उन्होंने कहा - 'मैं यह जानता था, तभी कहा था कि मेरे किए जो कुछ हो सकेगा, अपने ही आप कर लूँगा! आप कष्ट न करें! आपको बुलाने का दुस्साहस नहीं किया था मैंने।'

ताई जी सुन कर मौन रहीं। जब रमेश उठ कर जाने लगा तब बोलीं, 'तो फिर अपने भण्डार की ताली भी लेते जाओ, बेटा!'

और ताली ला कर उन्होंने रमेश के पैरों पर फेंक दी। रमेश स्तब्ध खड़ा देखता रहा। थोड़ी ही देर बाद ताली उठा कर धीरे-धीरे बाहर चले गए। कुछ घण्टे पहले ही उनके दिल ने कहा था - 'अब किसी बात का डर नहीं, ताई जी सब सम्हाल लेंगी!' पर एक रात न बीती कि उसी दिल को एक ठण्डी आह भर कर कहने पर विवश होना पड़ा - 'नहीं, नितांत अकेला हूँ मैं! कोई नहीं है इस संसार में मेरा! ताई जी भी नहीं!!!'

 

देहाती समाज | अध्याय 4

श्राद्ध खत्म हो चुका है। रमेश आमंत्रित लोगों से परिचय कर रहा है। भीतर दावत के लिए पत्तल आदि बिछाई जा रही हैं। तभी भीतर सहसा कुछ शोर मचने लगा, जिसे सुन कर रमेश घबरा कर अंदर गया। उसके साथ बहुत-से लोग अंदर आ गए। पराण हालदार के साथ झगड़ा हुआ था। एक अधेड़ उम्र की स्त्री गुस्से से आँखें लाल-पीली कर, डट कर गालियाँ सुना रही है। और चौके के दरवाजे के पास एक विधवा स्त्री, जिसकी उम्र पच्चीस-छब्बीस वर्ष की है सिकुड़ी-सहमी-सी खड़ी थी। जैसे ही रमेश अंदर पहुँचा, उसे देखते ही वह अधेड़ स्त्री और भी तेज हो चिल्लाने लगी - 'तुम्हीं बताओ! तुम भी तो गाँव के एक जमींदार हो! क्या ब्राह्मणी क्षांती की इस गरीब कन्या का ही सारा दोष है? कोई हमारा है नहीं। तभी मन चाहे जितनी बार हमारे ऊपर जुर्माना कर, उसे वसूल भी कर लो और फिर समाज से खारिज-के-खारिज ही! इन्हीं गोविंद ने, वृक्षारोपण के समय दस रुपया जुर्माना लगा कर, स्कूल के नाम से लिया था और शीतल पूजा के नाम पर भी उन्होंने ही दो जोड़ी खस्सियों की कीमत भी रखवा ली थी। पूछो न इन्हीं से - सच कहती हूँ कि नहीं! फिर बार-बार एक ही बात पर क्यों तंग किया जाता है हम सबको?'

रमेश भौंचक्का-सा हो गया। उन्हें कुछ समझ में ही नहीं आया। गोविंद गांगुली ही सारी परिस्थिति को खुलासा करने के लिए उठ कर खड़े हुए। खड़े हो कर, एक बार रमेश और एक बार उसी स्त्री की तरफ गंभीर मुद्रा में देख गंभीर स्वर में बोला - 'जगजाहिर है कि गोविंद गांगुली मुँहदेखी नहीं कहता। जो कहता है, वह साफ ही कहता है! तुमने मेरा नाम ले दिया है क्षांती मौसी तब तो जो सच है, वही कहूँगा। माना कि तुम्हारी कन्या का प्रायश्‍चित और सामाजिक जुर्माना दोनों ही हो चुके हैं। पर हम पंचों ने उसे यज्ञ में लकड़ी देने का हक तो नहीं दिया है! हाँ, उसके मर जाने पर श्मशान तक जरूर कंधा लगाएँगे। पर और...।'

बीच में ही क्षांती मौसी चीख पड़ी - 'मरे तुम्हारी लड़की, उसी को कंधा देना! मेरी लड़की की चिंता मत करो। अपने सीने पर हाथ रखो और बताओ, कि वे जो उस भण्डार में बैठी-बैठी पान लगा रही है तुम्हारी छोटी मौसी, वे परसाल किसलिए डेढ़-एक महीने के लिए काशीवास करने गई थीं जो वहाँ से पीला-जर्द हल्दी का-सा रंग लेकर लौटी थीं? ये तो हैं बड़े घरों की बातें! मुझ तुम सबकी नस-नस मालूम है। कहने बैठूँगी तो सारी पोल खुल जाएगी। मैंने भी दुनिया देखी है!'

गोविंद गुस्से से दाँत किटकिटा कर बोले - 'ठहर तो बदजात !'

पर वह बदजात तो और भी एक-दो कदम आगे बढ़ कर, सीना तान कर, तुनक कर बोली - 'तेरी क्या हिम्मत, जो मुझ पर हाथ उठाए! किसी के भरोसे न रहना! मैं हूँ क्षांती ब्रह्मचारिणी, मुझसे रार बढ़ाओगे, तो अपना ही कोढ़ उघड़वाओगे। मेरी बेटी चौके में गई न गई, वैसे ही हालदार उसका अपमान करने लगे! क्या उनकी समधिन की बात जुलाहे के संग नहीं उड़ी थी? बस या और कुछ सुनने का इरादा है?'

रमेश तो हतबुद्धि-सा खड़ा रहा। भैरव ने आगे बढ़ कर क्षांती का हाथ पकड़ कर कहा - 'बस रहने दो मौसी, इतना ही बहुत है! चलो मेरे उस कमरे में बैठना, उठो सुकमारी बेटी!'

पराण हालदार ने अपना दुपट्टा कंधो पर सँभालते हुए उठ कर कहा - 'गोविंद, मैं एलानिया कह रहा हूँ कि जब तक इसको इस घर से निकाल कर बाहर नहीं किया जाता, मैं यहाँ पानी भी नहीं पीने का! और देख कालीचरण, तुझे अगर अपने मामा का जरा भी लिहाज है - तो तुम चलो उठ कर! यदि पहले से ही जानता कि यहाँ इन जैसे लोग भी जमा होंगे, तो कभी अपना धर्म नष्ट करने न आता। वेणी ने पहले ही टोका था कि मामा, वहाँ जाना ठीक नहीं! उठ, चल, आ कालीचरण!'

पर कालीचरण न उठा। सिर नीचा किए बैठा ही रहा। चार साल पहले की बात है, सभी जानते थे कि कलकत्ता का एक व्यापारी उसकी विधवा बहन को भगा ले गया था। काफी दिनों तक तो 'ससुराल गई है' फिर 'तीरथ को गई' आदि बातें बना कर बात छिपाई गई थी, बाद में जग जाहिर हो ही गई। वह इसी डर से कि कहीं आज इतने दिनों बाद वह बात फिर न उखड़ जाए, गरदन नीचे किए सहमा बैठा रहा। अब वह स्वयं पाट का व्यापार करता है।

पर गोविंद गुस्से से तमतमा रहे थे। उठ कर फिर जोर से चीख कर बोले - 'हाँ, हाँ! हम कोई भी पानी न पिएँगे, जब तक रमेश यह न बता दे कि बिना पंचों की राय के, इन बदजात औरतों को यहाँ क्यों बुलाया? हमारे पंच हैं वेणी बाबू, हालदार और यदु मुकर्जी!'

और सच ही, दस पाँच और भी आदमी, कंधों पर दुपट्टा सँभाल कर खड़े हो गए। सभी अच्छी तरह जानते थे कि इस देहाती समाज में, पासा पलटने में कौन-सी चाल उचित बैठती है।

फिर तो सब घरजानी-मनमानी करने लगे। भैरव और दीनू तो दरअसल रो-से पड़े और बेचारे कभी गोविंद की तो कभी हालदार की खुशामद करते और कभी क्षांती मौसी और लड़की की। और ऐसा ही दीखने लगा कि अब सारा-का-सारा बना-बनाया मामला बिगड़ने ही वाला है।

रमेश की एक तो वैसे ही भूख-प्यास के कारण अजीब दशा हो रही थी, अब इस काण्ड से तो उनके हाथ-पैर और फूल गए।

तभी पीछे से पुकार आई 'रमेश!' और पुकार के साथ ही सबकी दृष्टि उस आवाज की तरफ घूमी। सबने देखा कि विश्‍वेश्‍वरी खड़ी हैं। एक साथ सब चकित-से रह गए। रमेश ने भी देखा कि ताई जी उसके अनजाने ही जाने कब आ गई हैं, और उपस्थित लोगों ने भी भौंचक हो कर देखा कि यह ही विश्‍वेश्‍वरी हैं, वेणी की माँ।

विश्‍वेश्‍वरी आम तौर पर सबके सामने निकलती नहीं थीं - सो कुछ नहीं कहा जा सकता। वैसे तो गाँव में भी विशेष परदा चलता नहीं, मगर आज उन्हें इस तरह सबके सामने खड़ा देख सबको अत्यंत विस्मय हुआ। जिन्होंने उन्हें कभी देखा नहीं, उनके संबंध में सुना ही था, वे मंत्र-मुग्ध से, विस्फरित नेत्रों से देखते ही रह गए। लोगों की नजर उठते ही वे खंभे की ओट में आ गईं। रमेश उनके पास जा पहुँचा। उन्होंने उसे लक्ष्य कर उच्च-सुस्पष्ट स्वर में कहा -'गांगुली जी से कह दो कि इस तरह धमकी देने की जरूरत नहीं और हालदार जी से कह दो कि सभी को आदरपूर्वक बुलाया गया है। किसी का भी अपमान करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं! जिसे अखरता हो, उन्हें यहाँ शोर मचाने की जरूरत नहीं। कहीं और जा कर चिल्लाएँ और वहीं बैठें!'

सभी के कानों में उनके उच्च-स्पष्ट शब्द पड़ गए थे। रमेश को बात दोहराने की आवश्यकता न रही। और कहना भी पड़ता तो इतनी खूबी के साथ कह भी न पाता। उनसे वहाँ खड़ा भी न रहा गया, क्योंकि ताई जी को फिर से आया देख कर, उनकी आँखों में श्रद्धा के आँसू भर आए थे; जिन्हें छिपाने ने लिए वह जल्दी से एक कोठरी में चले गए और वहाँ जा कर रोने लगे। सवेरे से ही काम में लगे रहने के कारण, उन्हें अब तक ताई जी का आना मालूम न हो सका था और न उन्हें आशा ही थी कि वे आएँगी।

ताई जी की बात सुन कर सभी - जो उठ कर जाने को खड़े हो गए थे - अपनी-अपनी जगह बैठ गए, केवल पराण हालदार ही खड़े रहे। तभी भीड़ में से किसी की आवाज सुन पड़ी -'चाचा, खाने के बाद भी भला कहाँ मिलेंगी सोलह पूड़ियाँ और चार-चार संदेश? बैठ जाओ न!'

पर वे नहीं रुके, बाहर चले गए। गोविंद गांगुली बैठ तो गए, पर उनका चेहरा अंत तक उतरा रहा। और जब पंगत बैठी तब काम करने के बहाने वे पंगत में जीमने नहीं बैठे। मन में सभी समझ रहे थे कि गोविंद यों आसानी से किसी को बख्शनेवाले नहीं हैं!

उसके बाद सारा काम शांति से समाप्त हो गया और सभी आमंत्रित ब्राह्मण, अपने कुनबे-पड़ोस के सच्चे-झूठे नाम गिना कर, उनके नाम से खाने-पीने का सामान बाँध कर चलने लगे। रमेश बाहर अमरूद के पेड़ के नीचे, उदास-चिंत्त, विचारमग्न खड़ा था। उसने देखा कि दीनू भट्टाचार्य अपने बालगोपालों के साथ चले जा रहे हैं, सभी के हाथों और बगल तथा कंधों पर भोजन की सामग्री बँधी लटक रही थी। वे रमेश की नजर बचा कर निकल जाना चाहते थे, पर उनकी मुनिया रमेश को देख कर सहमी-सी बोल पड़ी - 'बाबूजी खड़े हैं, बाबा!'

रमेश ने मुनिया के स्वर से ही उनके दिल की बात समझ ली। रमेश को अगर कहीं स्वयं ही छिपने ही जगह होती तो छिप जाता, पर कहीं कोई स्थान था नहीं। तभी विवश हो कर उनके सामने आ कर हँसते हुए बोले - 'किसके लिए प्रसाद ले जा रही हो, मुनिया?'

मुनिया के पास अनेक छोटी-बड़ी पोटलियाँ थीं। दीनू जानते थे कि मुनिया ठीक उत्तर न दे सकेगी, अतः सकुचा कर स्वयं बोले - 'पास-पड़ोस में नीच कौम के बच्चे हैं - जूठन लिए जा रहा हूँ, उन बेचारों को बाँट दूँगा। पर रमेश भैया, सच जानो - आज जाना कि बड़ी माँ जी जग माँ जी हैं!'

रमेश ने उत्तर न दिया, चुपचाप फाटक तक साथ चला आया। वहाँ आ कर एकाएक उन्होंने प्रश्‍न किया - 'भट्टाचार्य जी, यह बताइएगा कि यहाँ आपस में मनमुटाव क्यों है। आप तो सब जानते होंगे!'

दीनू सहसा उत्तर न दे कर, थोड़ी देर इधर-उधर कर बोले - 'भैया, यहाँ की क्या कहते हो, यहाँ तो तब भी खैर है! मैं आपको मुनिया के मामा का हाल बताऊँ - अभी वहाँ गया था। जा कर सब देखा-सुना। वहाँ कायस्थों और ब्राह्मणों को मिला कर गिनती के बीस घर होंगे, पर इतने में ही चार गुट हैं वहाँ पर! दो-चार विलायती अमड़े भर तोड़ लेने पर ही, हरनाथ विश्‍वास ने अपने सगे भानजे को जेल की हवा खिलवा दी। और यह झगड़े-टण्टे कहाँ नहीं हैं? सभी जगह तो हैं!...मुनिया! हरधान थक गया होगा, उसके हाथ से पोटली ले लो।'

'तो क्या इसको दूर करने का कोई उपाय नहीं है?'

'भैया, यह तो कलजुग है, घोर कलजुग! इन सब बातों का दूर होना असंभव है! पर इतना तो मैं दावे से कह सकता हूँ - क्योंकि सभी तरह के लोगों से मेरा पाला पड़ता है, भिक्षा माँगने में - तुम जैसे नौजवानों में ही दया-धर्म बाकी है, पर इन बुड्ढों में तो नाम को भी नहीं! बस ये तो अवसर पाते ही आदमी को धर दबाते हैं, और फिर मार कर ही दम लेते हैं।' कह कर दीनू ने ऐसा चेहरा बनाया कि उसे देख कर रमेश हँसे बिना न रह सका। मगर दीनू हँसे बिना ही बोले - 'यह हँसी में उड़ा देने की बात नहीं है, भैया जी! अब तो आप काफी दूर चले आए, अँधेरे में।'

'आप इसकी चिंता न करें, आप तो कहते चलें...।'

'हर जगह यही हाल है! गोविंद गांगुली ने क्या-क्या पाप किए हैं, यह सब कहने लगूँ, तो बिना प्रायश्‍चित तो मैं भी गंदा हो जाऊँगा। क्षांती ब्राह्मणी ने ठीक ही कहा था। लेकिन गोविंद से डरते सभी हैं। झूठा मामला-मुकदमा गढ़ने में, गवाही देने में अव्वल है, और वेणी बाबू को हरदम उसका सहारा रहता है। तभी कोई उसके खिलाफ कुछ कहने का साहस नहीं करता! उसी का नमदा कसा रहता है सभी पर!'

फिर काफी देर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। रमेश का सारा शरीर मारे घृणा और गुस्से के तमतमा रहा था।

'मैं यहाँ कह दूँ आपसे कि क्षांती मौसी है बड़ी हिम्मतवाली, और सभी घरों की सात पुश्त तक का कच्चा चिट्ठा जानती हैं। उसे ये इस तरह आसानी से छुटकारा नहीं देंगे। किंतु यह बात भी पक्की समझिए कि वह बर्रों का छत्ता है - उसे छेड़ने से दाल-आटे का भाव पता चल जाएगा! उनकी ऐसी पोल खोलेगी कि फिर जिंदगी-भर सँभालते न सँभले। सभी के यहाँ पोल भरी पड़ी है। वेणी बाबू को ही...।'

रमेश ने बीच में रोक कर कहा - 'उसके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं, भट्टाचार्य जी!'

'हाँ ठीक ही है! मुझे क्या जरूरत किसी का ढँका उघारने की! और कहीं वेणी ने सुन लिया, तो फिर मेरी खैर ही नहीं!'

'आपका घर अभी और कितनी दूर है?'

'अब तो आ ही गए! इस बाँधा के पास ही है मेरी झोपड़ी। अगर आपके चरण किसी दिन...।'

'हाँ, आऊँगा किसी दिन आपके यहाँ। कल सवेरे तो फिर दर्शन होंगे न आपके और उसके बाद भी दर्शन देते रहिएगा!'

और वहीं से रमेश अपने घर लौट आया! भट्टाचार्य आशीर्वाद की झड़ी लगाते हुए, अपने बालगोपालों के साथ घर चले गए।

देहाती समाज | अध्याय - 5, अध्याय - 8 |

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