बड़ी दीदी | शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के द्वारा लिखा गया बांग्ला उपन्यास | (अध्याय - 5, अध्याय - 8)
अध्याय - 5
सुरेन्द्र को अपने घर गए हुए छः महिने बीत चुके हैं। इस बीच माधवी ने केवल एक ही बार मनोरमा को पत्र लिखा था। उसके बाद नहीं लिखा।
दर्गा पूजा के समय मनोरमा अपने मैके आई और माधवी के पीछे पड़ गई, ‘तू अपना बन्दर दिखा।’
माधवी ने हंसकर कहा, ‘भला मेरे पास बन्दर कहां है?’
मनोरमा उसकी ठोड़ी पर हाथ रखकर कोमल कंठ से बड़े सुर-ताल से गाने लगी,
‘सिख अपना बन्दर दिखला दे, मेरा मन ललचाता है।
तेरे इन सुन्दर चरणों में कैसी शोभा पाता है?’
‘कौन-सा बन्दर?’
‘वही जो तूने पाला था।’
‘कब?’
मनोरमा ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘याद नहीं? जो तेरे अतिरिक्त और किसी को जानता ही नहीं।’
माधवी समझ तो पहले ही गई थी और इसलिए उसके चेहरे का रंग बिगड़ता जा रहा था। तो भी अपने को संयत करते बोली, ‘ओह, उनकी चर्चा करती हो। वह तो चले गए।’
‘ऐसे सुन्दर कमल जैसे उसे पसंद नहीं आए?’
माधवी ने मुंह फेर लिया। कोई उत्तर नहीं दिया। मनोरमा ने बड़े प्यार से उसका मुंह हाथ से पकड़कर अपनी ओर घुमा लिया। वह तो मजाक कर रही थी। लेकिन माधवी की आंखों में मचलते आंसुओं को देखकर हैरान रह गई। उसने चकित होकर पूछा, ‘माधवी, यह क्या?’
माधवी अपने आप को संभाल न सकी। आंखों पर आंचल रखकर रोने लगी।
मनोरमा के आश्चर्य की सीमा न रही। कहने के लिए कोई उपयुक्त बात भी न खोज सकी। कुछ देर माधवी को रोने दिया, फिर जबर्दस्ती उसके मुंह पर से आंचल हटाकर उसने दुःखी स्वर में पूछा, ‘क्यों बहन, एक मामूली-सा मजाक भी बर्दास्त नहीं हुआ?’
माधवी ने आंसू पोछते हुए कहा, ‘बहन, मैं विधवा जो हूं।’
इसके बाद दोनो काफी देर तक चुपचाप बैठी रही। फिर चुपके-चुपके रोने लगीं। माधवी विधवा थी। उसके दुःख से दुःखी होकर मनोरमा रोने लगी थी, लेकिन माधवी के रोने कार कारण कुछ और ही था। मनोरमा ने बिना सोचे-समझे जो मजाक किया था कि ‘वह तेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता,’ माधवी इसी के बारे में सोच रही थी। वह जानती थी कि बात बिल्कुल सच है।
बहुत देर के बाद मनोरमा ने कहा, ‘लेकिन काम अच्छा नहीं हुआ।’
‘कोन-सा काम?’
‘बहन, क्या यह भी बताना होगा? मैं सब कुछ समझा गई हूं।’
पिछले छः महिने से माधवी जिस बात को बड़ी चेष्टा से छिपाती चली आ रही थी, मनोरमा से उसे छिपा नहीं सकी। जब पकड़ी गई तो मुंह छिपाकर रोने लगी। और एकदम बच्चे की तरह रोने लगी।
अन्त में मनोरमा ने पूछा, ‘लेकिन चल क्यों गए?’
‘मैंने ही जाने के लिए कहा था।’
‘अच्छा किया था-बुद्धिमानी का काम किया था।’
माधवी समझ गई कि मनोरमा कुछ भी समझ नहीं पाई है, इसलिए उसने धीरे-धीरे सारी बातें समझाकर बता दीं। फिर बोली, ‘मनोरमा, अगर उनकी मृत्यु हो जाती तो शायद मैं पागल हो जाती।’
मनोरमा ने मन-ही-मन कहा, ‘और अब भी पागल होने में क्या कसर रह गई है?’
मनोरमा उस दिन बहुत दुःखी होकर घर लौटी और उसी रात अपने पति को पत्र लिखने लगी-
‘तुम सच कहते हो-स्त्रियां का कोई विश्वास नहीं। मैं भी अब यही कहती हूं। क्योंकि माधवी ने आज मुझे यह शिक्षा दी है। मैं उसे बचपन से जानती हूं। इसलिए उसे दोष देने को जी नहीं चाहता। साहस ही नहीं हो रहा। समूची नारी जाति को दोष दे रही हूं। विधाता को दोष दे रही हूं कि उन्होंने इतने कोमल और जल जैसे तरल पदार्थ से नारी के ह्दय का निर्माण क्यों किया। उनके चरणों में मेरी विनम्र प्रार्थना है कि वह नारी ह्दय को कठोर बनाया करे, और मैं तुम्हारे चरणों पर सिर रखकर तुम्हारे मुंह की ओर देखती हुई मरूं। माधवी को देखकर बहुत ही डर लगता है। उसने मेरी जन्म-जन्मांतर की धारणाएं उलट-पुलट दी हैं। मेरा भी अघिक विश्वास न करना और जल्दी आकर ले जाना।’
उसके पति ने उत्तर में लिखा-
‘जिसके पास सौदर्य है, गुण है, वह उसका प्रदर्शन करेगा ही। जिसके ह्दय में प्रेम है, जो प्रेम करना जानता है वह प्रेम करेगा ही। माधवी की लता आम के वृक्ष का सहारा लेती है। संसार की यही रीति है। इसमें हम-तुम क्या कर सकते हैं। मैं तुम पर अत्यधिक विश्वास करता हूं। इसके लिए तुम चिन्तित मत होना।’
मनोरमा ने अपने पत्र को माथे से लगाकर और उनके चरणों में प्रणाम करके लिखा--
‘मुहंजली माधवी-उसने वह किया है जो एक-विधवा को नहीं करना चाहिए था। उसने मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम किया है।’
पत्र पाकर मनोरमा के पति मन-ही-मन हंसे। फिर उन्होंने मजाक करते हुए लिखा---
‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि माधवी मुंहजली है, क्योंकि उसने विधवा होकर मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम किया है। यह तुम लोगों के नाराज होने की बात है कि विधवा होकर सधवाओं के अधिकार में हाथ क्यों डाला? मैं जब तक जीता रहूंगा तब तक तुम्हारे लिए चिन्ता की कोई बात नहीं है।’ यदि ऐसी सुविधा तुम्हें मिल तो कभी मत छोड़ना खूब मजे से किसी आदमी के साथ प्रेम कर लो, लेकिन मनोरमा, तुम मुझे चकित नहीं कर सकी हो। मैंने एक बार एक लता देखी थी। लगभग आधा कोस जमीन पर रेंगती-रेंगती अंत में एक वृक्ष पर चढ़ गई थी। अब उसमें न जाने कितने पत्ते और कितनी पुष्प मंजरियां निकल आई हैं। जब तुम यहां आओगी, तब हम दोनों उसे देखने चलेंगे।’
मनोरमा ने नाराज होकर इस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया।
लेकिन माधवी के आंखो के कोनों मे लालिमा छा गई थी। उसका हर समय फूल की तरह खिला रहने वाला चेहरा कुछ गंभीर हो गया था। काम-धन्धे में उतना जी नहीं लगता था। एक प्रकार की कमजोरी-सी आ गई थी। आज भी उसमें उसी प्रकार की सबकी देखभाल करने और सबसे प्रति आत्मीयता पूर्ण व्यवहार करने की इच्छी पहले जितनी ही है। बल्कि पहले की अपेक्षा वढ़ गई हैं, लेकिन अब सारी बातें पहले की तरह याद नहीं रहती। बीच-बीच में भूल हो जाती है।
अब भी सब लोग उसे बड़ी दीदी कहते हैं। अब भी सब लोग उसी कल्पतरू की ओर देखते है, उसी के सामने हाथ फैलाते हैं
और इच्छित फल प्राप्त कर लेते है। लेकिन अब वह कल्पवृक्ष उतना सरल नहीं हैं। पुराने आदमियों को बीच-बीच में आशंका होने लगती है कि कहीं आगे चलकर यह सूख न जाए।
मनोरमा रोजाना आती है और-और बातें तो होती हैं, लेकिन यही बात नहीं होती। मनोरमा समझती है कि माधवी को इससे दुःख होता है। अब इन बातों की आलोचना जितनी न हो उतना ही अच्छा है। मनोरमा यह भी सोचती है कि किसी तरह यह अभागी यह सब भूल जाए।
सुरेन्द्र अच्छा होकर अपने पिता के घर चला गया है। विमाता उस पर नियंत्रण रखना कुछ कम कर दिया है। इसी से सुरेन्द्र का शरीर कुछ ठीक होने लगा है, लेकिन वह पूरी तरह ठीक नहीं हो पाया है। उसके अंतर में एक व्यथा है। सौंदर्य और यौवन की आकांक्षा और प्यास अभी तक उसके मन में पैदा नहीं हुई है। यह सब बाते वह नहीं सोचता अब भी वह पहले की तरह लापरवाह है। आत्म-निर्भता उसमें नहीं है, लेकिन किस पर निर्भर रहना चाहिए, वह यह नहीं खोज पाता। खोज नहीं पाता क्योंकि वह अपना काम आप कर ही नहीं पाता। अब भी अपने काम के लिए वह दूसरों के मूंह की ओर देखता रहता है, लेकिन अब पहले की तरह किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता। सभी कामों में उसे कुछ-न-कुछ कमी दिखाई देती है। थो़ड़ा बहुत असंतोष प्रकट करता है। उसकी विमाता यह सब देख सुनकर कहती है, ‘सुरेन्द्र अब बदल गया हा।’
बीच में उसे ज्वर हो गया था। बहुत कष्ट हुआ। आंखों में आंसू बहने लगे। विमाता पास ही बैठी थी। उन्होंने यह नई बात देखी तो उसकी आंखों से भी आंसू बहने लगे। बड़े प्यार से उसके आंसू पोंछ कर पूछा, ‘क्या हुआ सुरेन्द्र बेटा?’
सुरेन्द्र ने कुछ बताया नहीं।
उसने एक पोस्ट कार्ड मंगाया और उक पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा ‘बड़ी दीदी, मुझे बुखार चढ़ा है, बहुत कष्ट हो रहा है।’
लेकिन वह पत्र लेटर बोक्स तक नहीं पहुंचा। पहले उसके पलंग पर से जमीन पर गिरा पड़ा। उसके बाद जो नौकर उस कमरे में झाड़ देने आया, उसने अनार के छिलको, बिस्कुट टुकडों और अंगूर के डंठलों के साथ वह पत्र भी बुहार कर फेंक दिया। सुरेन्द्र ह्दय की आकांक्षा धूल में मिलकर, हवा में उड़कर, ओस में भीगकर, ओर अंत में धूप खाकर एक बबूल के पेड़ के नीचे पड़ी रह गई।
पहले तो वह अपने पत्र के उत्तर की मूर्तिमती आशा की टकटकी लगाए रहा, उसके बाद हस्ताक्षरों की, लेकिन बहुत दिन बीत गए, उत्तर नहीं आया।
इसके बाद उसके जीवन में एक नई घटना हुई। यद्यपि नई थी लेकिन बिल्कुल स्वभाविक थी। सुरेन्द्र के पिता राय महाशय बहुत पहले से इसे जानते थे और इसकी आशा कर रहे थे।
सुरेन्द्र के नाना पवना जिले के बीच के दजें के जमींदार थे। बीस-पच्चीस गावों में उनकी जमींदारी थी। लगभग पचास हजार रुपये सालाना कि आमदनी थी। उनके पास कोई लड़का-बच्चा नहीं था, इसलिए खर्च बहुत कम था। उस पर वह एक प्रसिद्ध कंजूस थे। यह इसलिए वह अपने लम्बे जीवन में ढेर सारा धन इकट्ठी कर सके थे। यहा राय महाशय इस बात कि निश्चित रूप से जानते थे कि उसकी मृत्यु के बाद उनकी सारी धन-सम्पति उनके एकमात्र दोहित्र सुरेन्द्रनाथ को ही मिलेगी। ऐसा ही हुआ भी। राय महाशय को समाचार मिला कि उनके ससुर मृत्यु शैया पर पड़ हैं। वह लड़के के लेकर तत्काल पवना चले गए, लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया था।
बड़ी धूमधाम से उनका श्राद्ध हुआ। व्यवस्थित जमींदारी और अधिक व्यवस्थित हो गई। अनुभवी, बुद्धिमान, पुराने वकील राय महाशय की कठोर व्यवस्था में प्रजा और भी अधिक परेशान हो उठी। अब सुरेन्द्र का विवाह होना भी आवश्यक हो गया। विवाह कराने बाले नाइयों के आने-जाने से गांव भर में एक तूफान-सा आ गया। पचास कोस के बीच जिस धर में भी सुन्दर कन्या थी, उस घर में नाइयों के दल बार-बार अपनी चरणधूल पहुंचाकर कन्या के माता-पिता को सम्मानित और आशान्वित करने लगे।
इसी प्रकार छह महीने बीत गए।
अंत में विमाता आई और उसके रिश्ते-नाते के जितने भी लोग थे, सभी आ गए। बन्धु-बान्धवों से घर भर गया।
इसके बाद एक दिन सवेरे तुरही बजाकर ढोल-ढक्के की भीषण आवाजों और करतालों की खनखनाहट से सारे गांव को गुंजायमान कर सुरेन्द्रनाथ अपना विवाह कर लाया।
अध्याय - 6
लगभग पांच वर्ष बीत चुके हैं। राय महाशय अब इस संसार में नहीं हैं और ब्रजराज लाहिडी भी स्वर्ग सिधार चुके हैं। सुरेन्द्र की विमाता अपने पति की जी हुई सारी धन सम्पति लेकर अपने पिता के घर रहने लगी है।
आजकाल सुरेन्द्रनाथ की लोग जितनी प्रशंसा करते है, उतनी ही बदनामी भी करते है। कुछ लोगों का कहना ही कि ऐसा उदार, सह्दय, दयालु और कोमल स्वभाव का जमींदार और कोई नहीं है, और कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा अत्याचारी, अन्यायी और उत्पीड़क जमींदार आज तक इस इलाके में कोई पैदा ही नहीं हुआ।
यह दोंनो ही बातें सच हैं। पहली बात सुरेन्द्रनाथ के लिए सच है और दूसरी उनके मैंनेजर मथुरानाथ के लिए सच है।
सुरेन्द्रनाथ की बैठक में आजकल दोस्तों की खूब भीड़ लगी रहती है। वह लोग बड़े सुख से संसार के शौक पूरे करते है। पान, तम्बाकू, शराब-कबाब, किसी भी चीड की उन्हें चिता नहीं करनी पड़ती। सब चीजे स्वतः ही उनके मुंह में आ जाती है। इन बातों के प्रति मुथरा बाबू का विशेष उत्साह है। खर्च के लिए रुपये वर्दाश्त करना पड़ता है। मथुरा बाबू का किसी के भी पास एक पैसा भी बाकी नहीं रह सकता। घर जलाने, किसी को उजाड़ कर गांव से निकाल देने या कचहरी की छोटी-सी तंग कोठरी में बंद कर देने आदि-आदि में उनके साहस और उत्साह की कोई सीमा नहीं है।
प्रजा के रोने की दर्द भरी आवाज कभी-कभी शान्ति देवी के कानों तक भी पहुंच जाती है। वह पति को उलाहना देती हई कहती हैं-‘तुम खुद अपनी जमींदारी नहीं देखोगे तो सबकुछ जल कर भस्म हो जाएगा।’
यह सुनकर सुरेन्द्रनाथ चौंक पड़ता है और कहता है, ‘यदी तो। क्या यह सब बातें सच है।’
‘सच नहीं है। सारा देश निन्दा कर रहा है। केवल तुम्हारे ही कानों तक ये बातें नहीं पहुंचतीं। चौबीस घंटे दोस्तों को लेकर बैठे रहने से कहीं यह बातें सुनाई देती है। ऐसे मैनेजर की जरूरत नहीं। उसे निकाल बाहर करो।’
सुरन्द्रनाथ दुःखी होकर कहता है, ‘ठीक है। अब कल से मैं खुद ही सब देखा करूंगा।’
इसके बाद कुछ दिनों कत जमींदारी देखने की धूम मच जाती। कभी-कभी मथुरानाथ घबरा उठते और गंभीर होकर कह बैठते, ‘सुरेन्द्र बाबू, क्या इस तरह जमींदारी रखी जा सकती है?’
सुरेन्द्रनाथ सूखी हंसी हंसकर रह जाते, ‘मथूरा बाबू, दुखियों का लहू चूसकर जमींदारी रखने की जरूरत ही क्या है?’
‘अच्छा तो फिर आप मुझे छुट्टी दीजिए। मैं चला जाऊं?’
सुरेन्द्र तुरन्त नरम पड जाता। इसके बाद जो कुछ पहले होता था फिर वही होने लगा जाता। सुरेन्द्रनाथ फिर बैठक तक सीमित होकर रह जाते।
इधर हाल ही में नई और जुड़ गई। एक बाग बनकर तैयार हुआ है, उसमें एक बंगला भी है। उसमें कलकत्ता से एलोकेशी नाम की एक वेश्या आकर ठहरी है। बहुत अच्छा नाचती-गाती है और देखने-सुनने में भी बूरी नहीं है। टूटे छत्ते की मधुमुक्खियों की तरह मित्र लोग सुरेन्द्र की बैठक छोड़कर उसी ओर दौड़ पड़े हैं। उन लोगों के आनन्द और उत्साह की कोई सीमा नहीं है। सुरेन्द्र को भी वह उसी ओर खींच ले गए हैं। आज तीन दिन हो गए, शान्ति को अपने पति देव के दर्शन नहीं हुए।
चौथे दिन अपने पति को पाकर वह दरवाजे पर पीठ लगाकर बैठ गई, ‘इतने दिन कहां थे?’
‘बाग में था।’
‘वहां कौन है जिसके लिए तीन दिन तक वहीं पड़े रहे।’
‘यही तो...!’
‘हर बात में यही तो... मैंने सब सुन लिया है।’ इतना कहते-कहते शान्ति रो पड़ी।
‘मैंन ऐसा कोन-सा अपराध किया है जिसके लिए तुम इस तरह मुझे ठुकरा रहे हो?’
‘कहां? मैं तो...।’
‘और किस तरह पैरों से ठुकराना होता है? हम लोगों के लिए इससे बढ़कर और कौन-सा अपमान हो सकता है?’
‘यही तो... वह सब लोग...?’
जैसे शान्ति ने यह बात सुनी ही नहीं। और भी जोर से रोते हुए कहा, ‘तुम मेरे स्वामी हो, मेरे देवता हो, मेरे यह लोक और परलोक तुम्हीं हो। मैं क्या तुम्हें नहीं पहचानती। मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारी कोई नहीं हूं।♦एक दिन के लिए भी मैंने तुम्हारा मन नहीं पाया। मेरी यह पीड़ी तुम्हें कौन बताए? तुम शर्मिन्दा होगे और तुम्हें दुःख होगा, इसलिए मैं कोई बात नहीं कहती।’
‘तुम रोती क्यों हो शांति?’
‘क्यों रोती हूं, यह तो अन्तर्यामी ही जानते है। यह भी समझती हूं की तुम लापरवाही नहीं करते। तुम्हारे मन में भी दुःख है। तुम और क्या करोगे,’ शांतिने कहा और फिर अपनी आंखें पोंछकर बोली, ‘यदि मैं जन्म भर यातना भोगूं तब भी कोई हर्ज नहीं, लेकिन तुम्हें क्या कष्ट है अगर जान सकूं.....’
सुरेन्द्रनाथ ने उसे अपने पास खींचकर और अपने हाथ से उसकी आंखें पोंछकर बड़े प्यार से पूछा, ‘तो फिर क्या करोगी शांति?’
भला इस बात का उत्तर शांति क्या देती। और भी जोर-जोर से रोने लगी।
कुछ देर के बाद बोली, ‘तुम्हारा शरीर भी आजकल अच्छा नहीं हैं।’
‘आजकल की क्यो? पिछले पांच वर्ष से अच्छा नहीं है। जिस दिन कलकत्ता में गाड़ी के नीचे दबा था। छाती और पीठ में चोट लगने के कारण एक महिने तक बिस्तर पर पड़ा रहा था, तभी से शरीर अच्छा नहीं है। वह दर्द आज तक किसी तरह नहीं गया। मुझे स्वयं आश्चर्य है कि मैं किस तरह जी रहा हूं।’
शांति ने जल्दी से स्वीमी के सीने पर हाथ रखकर कहा, ‘चलो हम लोग देश छोड़कर कलकत्ता चलें। वहां अच्छे-अच्छे डॉक्यर हैं।’
सुरेन्द्र ने सहसा प्रसन्न होकर कहा, ‘अच्छी बात है, चलो। वहां बड़ी दीदी भी है।’
‘तुम्हारी बड़ दीदी को देखने को मेरा भी जी बहुत चाहता है। उन्हें लाआगे ने?’ शांति ने कहा।
‘लाउंगा क्यों नहीं’, इसके बाद कुछ सोचकर बोला, ‘वह जरूर आएंगी, जब सुनेंगी कि मैं मर रहा हूं।’
शांति ने सुरन्द्र का मूंह बन्द करते हुए कहा, ‘मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं। इस तरह की बातें मत करो।’
‘वह आ जाएं तो मुझे कोई दुःख ही नहीं रह जाए।’
अभिमान से शांति का ह्दय फूल गया। अभी-अभी उसने कहा कि स्वामी उसके कोई नहीं हैं, लेकिन सुरेन्द्र ने इतना नहीं समझा, इतना नहीं देखा। वह तो कुछ कह रहा था, उसे बहुत आनंद आ रहा था।
‘तुम स्वयं ही जाकर बड़ी दीदी को बुला लाना। क्यों ठीक होगा न?’
शांति ने सिर हिलाकर सहमति प्रकट की।
‘वह जब आएंगी तब तुम खुद ही देख लोगी कि मुझे कोई कष्ट ही नहीं रह जाएगा।’
शांति की आंखों मे आंसू बहने लगे।
दूसरे दिन उसने दासी के द्वारा मथूरा बाबू से कहलवा दिया कि बाग में जिसे लाकर रखा है अगर उसे इसी समय न निकाल दिया तो उनके भी मैनेजरी करने की जरूरत नहीं रह जाएगी। अपने स्वीमी से भी उसने बिगड़कर कहा, ‘और जो भी हो, अगर तुमने घर से बाहर पांव रखा तो मैं अपना सिर पटक कर और खून की नदी बहाकर मर जाऊंगी।’
‘ठीक है। लेकिन वह लोग...!’
‘मैं इन लोगों की व्यवस्था कर देती हूं। इतना कहकर शांति ने दासी को बुलाकर आज्ञा दी कि ‘दरबान से कह दो कि वह सब लोग अब मकान में न घुसने पाएं।’
और कोई उपाय न देखकर मथुरा बाबू ने एलोकेशी को विदा कर किया। यार लोग भी चम्पत हो गए।
सुरेन्द्रनाथ कलकत्ता न जा सका। छाती का दर्द अब कुछ कम मालूम होता है। शांति में भी अब कलकत्ता जाने का वैसा उत्साह नहीं रहा। यहीं रहकर वह यथासंभव अपने पति की सेवा-सुश्रूषा का प्रबन्ध करने लगी। कलकत्ता से एक अच्छे डॉक्टर को बुलाकर दिखाया गया। एक्सपर्ट डॉक्टर ने सब-कुछ देख सुनकर एक दवा की व्यवस्था कर दी और विशेष रूप से सावधान कर दिया कि छाती की इस समय जो हालत है, उसे देखते हुए किसी भी प्रकार का शारीरिक या मानसिक श्रम करना उचित नहीं।
सुअवरस देख मैनेजर साहब जिस तरह काम देख रहे थे उससे गांव-गांव में दूना हाहाकार मच गया। शांति भी बीच-बीच में सुनती, लेकिन अपने स्वामी को बताने का साहस न कर पाती।
अध्याय - 7
कलकत्ता के मकान में अब ब्रज बाबू के स्थान पर शिवचन्द्र मालिक है और माधवी के स्थान परक अब नई बहू धर की मालिक है। माधवी अब भी वहीं है। भाई शिवचन्द्र स्नेह और आदर करता है लेकिन अब माधवी का वहां रहने को जी नहीं चाहता। घर के दास, दासी, मुंशी, गुमाशते अब भी बड़ी दीदी कहते हैं, लेकिन सभी जानते है कि सन्दूक की चाबी अब किसी और के हाथ में चली गई है, लेकिन यह बात नहीं कि शिवचन्द्र की पत्नी किसी बात में माधवी का निरादर या अवज्ञा करती है, फिर भी वह ऐसा भाव प्रकट करने लगती है जिससे माधवी अच्छी तरह समझ ले कि अब बिंना इस नई स्त्री की अनुमति और परामर्श के उसे कोई काम नहीं करना चाहिए।
उस समय पिता का राज्य था, अब भाई का राज्य है, इसलिए कुछ अन्तर भी पड़ गया है। पहले उसका सम्मान भी होता था और वह जो भी चाहती थी वही होत था, लेकिन अब केवल आदर है, जिद नहीं है। पहेल पिता के कारण सब कुछ वही थी लेकिन अब वह केवल आत्मीयों और कुटुम्बियों की श्रेणी में आदर रह गई।
इस पर यदि कोई यह कहे कि हम शिवचन्द्र अथवा उसकी पत्नी को दोषी ठहरा रहे हैं और सीधे-सीधे न कहकर घुमा फिराकर उसकी निन्दा करते है तो वह हमारे अभिप्राय को ठीक-ठीक नहीं समझ पा रहे। संसार को जो नियम है और आज तक जो रीति-नीति बराबर चली आ रही है हम केवल उसी की चर्चा कर रहे हैं। माधवी का भाग्य फूट गया है। अब उसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है जिसे वह अपना कह सके। केवल इसी से कोई अपना अधिकार क्यो छोड़ने लगा। यह बात कौन नहीं जानता कि पति की चीज पर स्त्री का अधिकार होता है, लेकिन वह माधवी की कौन होती है? दूसरे के लिए वह अपना अधिकार क्यों छोड़ने लगी। माधवी सब कुछ समझती है। बहू जिस समय छोटी थी और ब्रजबाबू जीवित थे उस समय माधवी की नजर में प्रमिला और बहू में कोई अन्तर नहीं था लेकिन अब सब बातों में अन्तर है। वह सदा से अभिमानिनी है, इसलिए वह सबसे नीचे है। उसमें बात सहने का सामर्थ्य नहीं है इसलिए कोई बात नहीं कहती। जहां उसका कोई जोर नहीं हे वहां सिर ऊंचा करके खड़े होने से उसका सिर कट जाता है। जब उसके मन में दुःख होता है तब वह चुपचाप सह लेती है। शिवचन्द्र से भी कुछ नहीं कहती। स्नेह की दुहाई देना उसका आदत हनीं है। केवल इसी आत्मीयता के भरोसे अपना अधिकार जताने में उस लज्जा आती है। साधारण स्त्रियों की तरह लड़ाई-झगड़ा करने से उसे कितनी धृणा हे केवल वही जानती है।
एक दिन उसने शिवचन्द्र को बुलाकर कहा, ‘भैया, मैं ससुराल जाऊंगी।’
शिवचन्द्र चकित हो गया, ‘यह क्या माधवी, वहां तो कोई नहीं है।’
माधवी ने मृत स्वामी का उल्लेख करके कहा, ‘उनका छोटा भानजा काशी में ननद के पास है। उसी के साथ गोला में मजे से रह लूंगी।’
पावना जिले के गोला गांव में माधवी की ससुराल थी। शिवचन्द्र ने कुछ हंसकर कहा, ‘भला यहा भी कहीं हो सकता है। वहां तुम्हें बहुत कष्ट होगा।’
‘कष्ट क्यों होने लगा। वहां का मकान तो अभी तक गिरा नहीं है। दस-पांच बीघा जमीन भी है। क्या इतने में एक विधवा का गुजार नहीं हो सकता?’
‘गुजारे की बात नहीं है। रुपये की भी कोई चिन्ता नहीं है। लेकिनि माधवी तुम्हें वहां बहुत ही कष्ट होगा।’
‘नहीं भैया, कुछ कष्ट नहीं होगा।’
शिवचन्द्र ने कुछ सोचकर कहा, ‘बहन आखिर तुम क्यों जा रही हो? मुझे सारी बात साफ-साफ बता दो। मैं सार झगड़ा मिटाए देता हूं।’
शायद शिवचन्द्र ने अपनी पत्नी से अपनी बहन के विरूद्ध कुछ बातें सुनी होंगी। वही बातें शायद इस समय उसे याद आ गई। लज्जा से माधवी का मुख लाला पड़ गया। बोली, ‘भैया, क्या सह समझ रहे हो कि मैं लड़ाई-झगड़ा करके तुम्हारे घर से जा रही हूं?’
शिवचन्द्र स्वयं भी लज्जित हो गया। जल्दी से बोला, ‘नहीं, नहीं यह बात नहीं है, लेकिन यह घर सदा ही तुम्हारा है, फिर आज क्यों जाना चाहती हो?’
एक साथ उन दोनों को अपने स्नेहमय पिता की याद आ गई। दोनों की आंखें भर आई। आंखें पोंछकर माधवी ने कहा, ‘मैं फिर आऊंगी। जब तुम्हारे बेटे यज्ञोपवीत हो, तब ले आना। इस समय मैं जाती हूं।’
‘वह तो आठ-दस वरस बाद की बात है।’
‘अगर तब तक जिन्दा रही तो अवश्य आऊंगी।’
माधवी किसी भी तरह वहां रहने के लिए राजी नहीं हुई और जाने की तैयारी करने लगी। उसने नई बहू को घर-गृहस्थी की सारी बातें समझा दी। दास-दासियों को बुलाकर आशीर्वाद किया। चलने के दिन आंखों में आंसू भरकर शिवचन्द्र ने कहा, ‘माधवी, तुम्हारे भैया ने तो तुमसे कभी कुछ कहा नहीं।’
‘कैसी बात करते हो भैया,’ माधवी बोली।
‘सो नहीं। यदि किसी अशुभ क्षण में किसी दिन असावधानी से कोई बात....।’
‘नहीं भैया, ऐसी कोई बात नहीं है।’
‘सच कहती हो?’
‘हां, सच कहती हूं।’
‘तो फिर जाओ। तुम्हें अपने घर जाने से मना नहीं करूंगा। जहां तुम्हें अच्छा लगे, वहीं रहो, लेकिन समाचार भेजती रहना।’
माधवी ने पहले काशी जाकर अपने भानजे को साथ लिया और फिर उसका हाथ थामे गोला गांव में पहुचकर लम्बे सात वर्षो के बाद अपने पति के मकान में प्रवेश किया।
‘गोला गांव के चटर्जी महाशय घोर विपत्ति मे पड़ गए। उनमें और योगेन्द्रनाथ के पिता में बहुत ही घनिष्ठ मित्रता थी इसलिए मरते समय योगेन्द्रनाथ के जीवन काल में ही वही जमीन की देख-रेख करते थे। योगेन्द्र उसकी कुछ अधिक खोज-खबर नहीं लेते थे। उनके ससुर के पाक ढेरों रुपया था इसलिए पिता की छोड़ी हुई इस मामूली सम्पति पर उनकी नजर ही नहीं पडती थी। उनकी मृत्यु के बाद चटर्जी महाशय बहूत ही न्यायपूर्ण अधिकार बिना किसी बाधा के उस सम्पति का उपयोग कर रहे थे। अब इतने वर्षो के बाद विधवा माधवी ने आकर उनकी व्यवस्थित, बनी बनाई गृहस्थी में भारी बखेड़ा खड़ा कर दिया। चटर्जी महाशय को माधवी का यह हस्तक्षेप बहुत ही अखरा और यह बात भी स्पष्ट रूप से उनकी समझ में आ गई कि माधवी ने केवल ईर्ष्या और द्वेष के कारण ऐसा किया है। वह बहुत ही नाराज होकर आए और बोले, ‘देखो बहू, तुम्हारी जो दो बीधा जमीन थी उसकी दस साल की मालगुजारी ब्याज समेत सौ रुपये बाकी है। उसके न देने से तुम्हारी जमीन के नीलाम होने की नौबत आ गई है।’
माधवी ने अपने भानजे संतोष कुमार के द्वारा कहला दिया कि रुपये की चिन्ता नहीं और साथ ही उसने सौ रुपये भी तत्काल भेज दिए। वह रुपये चटर्जी महाशय ने अपने काम में खर्च कर लिए।
लेकिन माधवी इस तरह सहज में छोड़ने वाली नहीं थी। उसने संतोष को भेजकर कहलवाया कि केवल दो बीधे जमीन पर ही निर्भर रहकर मेरे स्वर्गीय ससुर का जीवन निर्वाह नहीं होता था इसलिए बाकी की जो जमीन जायदाद है वह कहां और किसके पास है?
चटर्जी महाशय के क्रोध की सीमा न रही। स्वयं आकर बोले, ‘वह सारी जमीन बिक-बिका गई। कुछ बंदोबस्त में चली गई। आठ-आठ, दस-दस साल तक जमींदार की मालगुजारी न चुकाने पर जमीन भला किस तरह रह सकती थी।’
माधवी ने कहा, ‘क्या जमीन से कोई आमदनी नहीं होती थी जो मालगुजारी के थोड़े से रुपये नहीं दिए जा सके? और अगर जमीन सचमुच ही बिक गई है तो यह बताईए, उसे किसने बेचा और अब वह किसके पास है? यह सब मालूम होने पर उसे निकालने का इंतजाम किया जाए। और उसके कागज पत्र कहां है?’
चटर्जी महाशय ने जो उत्तर दिया, माधवी उसे समझ नहीं सकी। पहले तो ब्राह्मण देवता न जाने बहुत देर तक क्या-क्या बकते रहे और फिर सिर पर छाता लगाकर, कमर में रामनामी दुपट्टा बांधकर और अंगोछे में एक धोती लपेटकर जमीदार साहब की लालता गांव वाली कचहरी की ओर चल दिए। इसी लालता गांव में सुरेन्द्र नाथ का मकान और मैनेजर मथुरा बाबू का दफ्तर है। ब्राह्मण देवता आठ-दस कोस पैदल चलकर सीधे मथुरा बाबू के पास पहुंचे और रोते हुए कहने लगे, ‘दुहाई सरकार की। गरीब ब्राह्मण को अब गली-गली भीख मांगकर खाना पड़ेगा।’
‘ऐसे तो बहुत से आया करते हैं,’ मथुरा बाबू ने मुंह फेरकर पूछा, ‘क्या हुआ?’
‘भैया मेरी रक्षा करो।’
‘आखिर क्या हुआ?’
विधु चटर्जी ने माधवी के दिए सौ रुपये दक्षिणा के रूप में मथुरा बाबू के हाथ पर रखकर कहा, ‘आप धर्मांवतार हैं। अगर आपने मेरी रक्षा न की तो मेरा सर्वस्व चला जाएगा।’
‘अच्छा साफ-साफ बताओ क्या हुंआ है?’
‘गोला गांव के रामतनु सान्थाल की विधवा पुत्रवधू न जाने कहां से इतने दिन बाद आकर मेरी सारी जमीन पर दखल करना चाहती है।’ फिर उन्होंने हाथ में जनेऊ लेकर मैनेजर साहब का हाथ जोर से पकड़कर कहा, ‘मैं तो दस वरस से बराबर सरकारी मालगूजारी देता चला आ रहा हूं।’
‘तुम जमीन जोतते-बोते हो तो मालगुजारी नहीं दोगे?’
मथुरा बाबू ने उसका अभिप्राय अच्छी तरह समझ लिया। ‘विधवा को ठगना चाहते हो न?’
ब्राह्मण चुपचाप देखता रहा।
‘कितने बीधा जमीन है?’
‘पच्चीस बीधे।’
मथुरा बाबू ने हिसाब लगाकर कहा, ‘कम-से-कम तीन हजार रुपये की जमीन हुई। जमीदार कचहरी में कितनी सलामी दोगे?’
‘जो हुकुम होगा, वही दूंगा-तीन सो रुपये।’
‘तीन सो देकर तीन हजार का माल लोगे। जाओ हमसे कुछ नहीं होगा।’
ब्राह्मण ने रुखी आंखों से आंसू बहाकर कहा, ‘कितने रुपये का हुकुम होता है?’
‘एक हजार रुपये दे सकेगे?’
इसके बाद देर तक दोनों आदमियों मे गुपचुप सलाह-मशवरा होता रहा। परिणाम यह हुआ कि योगेन्द्र नाथ कि विधवा पर मालगुजारी और ब्याज मिलाकर डेढं हजार रुपये की नालिश कर दी गई। सम्मन निकला तो सही लेकिन माधवी के पास नहीं पहुंचा। इसके बाद एकतरफा डिगरी हो गई और ड़ेढ महिने के बाद माधवी को पता चला कि बाकी मालगुजारी के लिए जमीदार के यहां से नीलाम का इश्तेहार निकला और उसकी सारी जमीन जायदाद नीलाम हो गई है।
माधवी ने अपनी पड़ोसिन को बुलाकर कहा, ‘यह क्या यह बिल्कुल लुटेरों का देश है?’
‘क्यों क्या हुआ?’
‘एक आदमी धोखा देकर मेरा सब कुछ हड़प लेना चाहता है और तुम लोगों में से कोई देखता तक नहीं?’
उसने कहा, ‘भला हम लोग क्या कर सकते है। अगर जमीदार नीलाम कराए तो हम गरीब लोग उसमें क्या कर सकते है।’
‘खौर, वह तो जो हुआ सो हुआ, लेकिन मेरा घर नीलाम हो और मुझे खबर तक न हो? कैसे हैं तुम लोगों के जमींदार?’
तब उस स्त्री ने विस्तार से सारी बातें बताकर कहा, ‘ऐसा अन्यायी और अत्याचारी जमींदार इस देश में पहले कोई नहीं हुआ।’
इसके बाद उसने न जाने और कितनी ही बातें बताई। अब तक जितनी भी बातें उसे लोगों के मुंह से मालूम हुई थी एक-एक करके सब खोल दी।
माधवी ने डरते-डरते पूछ, ‘क्या जमींदार साहब से भेंट करने से काम नहीं निकल सकता?’
अपने भानजे संतोष कुमार के लिए माधवी यह भी करने को तैयार थी। वह स्त्री उस समय तो कुछ न कह सकी लेकिन वचन दे गई कि कल अपने लड़के से सारी बातें अच्छी तरह पूछने के बाद बताऊंगी। उसका बहनौत दो-तीन बार लालता गांव गया था। जमींदार की बहुत सी बातें जानता था, यहां तक कि वह बाग में ठरही एलोकेशी तक की कहनी सुन आया था। जब मौसी ने जमींदार के साथ रामतनुं बाबू की विधवा पूत्रवधू के भेंट करने के बारे में पूछा तो उसने यथाशक्ति अपने चेहरे को गंभीर बनाकर पूछा, ‘इस विधवा पुत्रवधू की उम्र कितनी है?’
मौसी ने उत्तर, ‘देखने में कैसी है?’
‘बिल्कुल परी जैसी।’
इस पर उसने एक विशेष प्रकार के भाव अपने चेहरे पर लाकर कहा, ‘हा, उनसे भेंट करने के काम तो हो सकता है लेकिन मैं तो कहता हूं कि वह आज राक तो वही नाव किराए पर लेकर अपने पिता के घर चली जाए।’
‘यह क्यों?’
‘इसलिए कि तुम कह रही हो कि वह देखने में परी जैसी है।’
‘तो इससे क्या?’
‘इसी से तो सबकुछ होता है। परी जैसी है इसलिए जमींदार सुरेन्द्र नाथ के यहां उसकी कुशल नहीं।’
मौसी ने अपने गाल पर हाथ रखकर कहा, ‘तू कैसी बातें करता है?’
बहनौत ने मुस्कुराकर कहा, ‘हां, यही बात है। देशभर के लोग इस बात को जानते हैं।’
‘तब तो उनसे भेंट करना उचित नहीं है।’
‘नहीं, किसी भी तरह नहीं।’
‘लेकिन उसकी सारी सम्पत्ति तो चली जाएगी।’
‘जब चटर्जी महाशय इस मामले में हैं तब सम्पत्ति मिलने की कोई आशा नहीं है और फिर वह गृहस्थदार की लड़की ठहरी। सम्पत्ति के साथ क्या उसका धर्म भी चला जाए?’
दूसरे दिन उस स्त्री ने सारी बाते माधवी को बता दीं। सुनकर वह हैरान रह गई। दिन भर जमींदार सुरेन्द्रनाथ के बारे में सोचती रही। उसने सोचा, यह ना तो बहुत ही परिचित है, लेकिन उस व्यक्ति के साथ मेल नहीं खाता। यह नाम तो उसने मन-ही-मन कितने ही दिनों तक याद किया है। उसे आज पूरे पांच वर्ष हो गए। भूल गई थी उसे, लेकिन आज बहुत दिनों बाद फिर याद हो आया।
स्वप्न और निद्रा में माधवी ने बड़े कष्ट से वह रात बिताई। अनेक बार उसे पुरानी बातें याद आ जाती थीं और उसकी आंखों में आंसू उमड़ आते थे।
संतोष कुमार ने उसके मुख की और डरते-डरते कहा, ‘मामी, मैं अपनी मां के पास जाऊंगा।’
स्वयं माधवी ने भी यह बात कोई बार सोची थी, क्योंकि जब यहां ठिकाना ही नहीं रहा तब काशी वास करने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। उसने संतोष के लिए ही जमींदार से भेंट करने के बारे में सोचाथा लेकिने वह हो नहीं सकता। मोहल्ले टोले के और अड़ोसी-पड़ोसी मना कर रहे हैं। इसके सिवा वह चाहे जहां जाकर रहे।
अब एक नया बखेड़ा और खड़ा हो गया है। वह है उसका रूप और यौवन। माधवी सौचने लगी, मेरा भाग्य भी कैसा फूटा है। यह सारे उपद्रव अभी तक उसके शरीर के साथ जुड़े हुए हैं। आज सात वर्ष हो गए। यह सब बातें उसके ध्यान में ही नहीं आईं और इन बातों का स्मरण करा देने वाला भी कोई नहीं था। पति की मृत्यु के बाद जब वह अपने पिता के घर चली गई थी तब सभी ने उसे बड़ी दीदी और मां कहकर पुकारा था। इन सम्मानपूर्ण सम्बोधनों ने उसके मन को वृद्ध बना डाला था। कहां का रूप और कहां का यौवन? जहां उसे बड़ी बहन का काम करना पड़ता था और मां जैसा स्नेह लुटना पड़ता था, वहां क्या यह सब बातें याद रह सकती? याद नहीं थी, लेकिन अब याद हो आई हैं। उसने लज्जा से काफी हंसी हंसकर कहा, ‘यहां के लोग अंधे हैं या जानवर?’ लेकिन यह माधवी की भूल थी। सभी का मन उसकी तरह इक्कीस-बाईस वर्ष की उम्र में बूढ़ा नहीं हो जाता।
तीन दिन बाद जमींदार का एक प्यादा उसके दरवाजे के ठीक सामने आसन जमाकर बैठ गया ओर पुकार-पुकारकर लोगों को जमींदार सुरेन्द्रनाथ की नई कीर्ति के बारे में लोगों को बताने लगा। तब माधवी संतोष का हाथ पकड़कर दासी के साथ नाव पर जा बैठी।
गोला गांव से पन्द्रह कोस दूर सोमरापुर में प्रमिला का विवाह हुआ था। आज एक वर्ष से वह ससुराल में ही है। शायद फिर वह कलकत्ता जाएगी, लेकिन माधवी उस समय वहां कहां रहेगी? इसलिए उससे मिल लेना आवश्यक है।
सवेरे सूर्य उदय होते ही माझियों ने नाव खोल दी। धारा के साथ नाव तेजी से बह चली। हवा अनुकूल नहीं थी, इसलिए नाव धीरे-धीरे बासों के बीच से गुजरती, कटीले वृक्षो और झाड़ियो को बचाती, घास-पता को ठेलती हुई चलने लगी। संतोष कुमार के आनंद की सीमा नहीं रही। वह नाव की छत पर से हाथ बढ़ाकर वृक्षों की पत्तियां तोड़ने के लिए आतुर हो उठा। माझियों ने कहा, ‘अगर हवा नहीं रुकी तो नाव कल दोपहर तक सोमरापुर नहीं पहुंच सकेगी।’
आज माधवी का तो एकादशी का व्रत है, लेकिन संतोष कुमार के लिए कहीं नाव बांधकर खाना बनाकर खिलाना होगा। माझियों ने कहा, ‘दिस्ते पाड़ा के बाजार में अगर नाव बांधी जाए तो बहुत सुभाती रहेगा। वहां सब चीजें मिल जाती है।’
दासी ने कहा, ‘अच्छा भैया, ऐसा ही करो। जिससे दस-ग्यारह बजे तक लड़के को खाना मिल जाए।’
अध्याय - 8
कार्तिक के महीना समाप्ति पर है। थोड़ी-थोड़ी सर्दी पड़ने लगी है। सुरेन्द्र नाथ के ऊपर बाले कमरे में खिड़की के रास्ते प्रातःकाल के सूर्य का जो प्रकाश बिखर रहा है, सुरेन्द्र दिखाई दे रहा है। खिड़की के पास ही ढेर सारे बही-खाते और कागज-पत्र लेकर टेबल पर एक ओर सुरेन्द्र नाथ बैठे हैं। अदायगी-वसूली, बाकी-बकाया, जमा खर्चे-बन्दोबस्त, मामले-मुकदमे, फाइल आदि सब एक-एक करके उलटते और देखते थे। इन सब बातों को देखना-सुनना उसके लिए एक तरह से आवश्यक भी हो गया है। न होने से समय भी नहीं कटता है। शांति के साथ इसके लिए बहुत कुछ झगड़ा ही करना पड़ा है। बड़ी कठिनाई से वह उसे समझा सके हैं कि अक्षरों की ओर देखने से ही मनुष्य के कलेजे का दर्द नहीं बढ़ जाता या उसे तुरन्त ही धर-पकड़कर बाहर ले जाने की आवश्यकता नहीं होती। लाचार होकर शांति ने स्वीकार कर लिया है और आवश्यकतानुसार वह सहायता भी देती है।
आजकल पति पर शांति का पूरा-पूरा अधिकार है। उसकी एक भी बात टाली नहीं जाती। केवल दस-पांच कम्बख्त यार-दोस्त मिलकर कुछ दिनों से शांति को बहुत क्लेश पहुंचा रहे थे, लेकिन पत्नी की आज्ञा से अब सुरेन्द्र नाथ का घर से बाहर निकलना तक बन्द है। शांति ने डॉक्टर के परामर्श और निर्देशों को जी-जान से पूरा करने की ठान ली है।
अभी-अभी वह पास ही बैठी लालफीते से कागजों के बंडल बांध रही थी। सुरेन्द्र नाथ ने एक कागज पर से सिर उठाकर पुकारा, ‘शांति?’
शांति कहीं चली गई थी। थोड़ी देर में लौटकर आ गई, ‘मुझे बुला रहे थे?’
‘हां, मैं जरा दफ्तर जाऊंगा।’
‘नहीं, जो कुछ चाहिए बताओ, मैं ला देती हूं।’
‘कुछ चाहिए नहीं। सिर्फ मथुरा बाबू से कुछ बातें करना चाहता हूं।’
‘उन्हें बुलवा देती हूं। तुम्हें जाने की जरूरत नहीं, लेकिन इस समय उनकी क्या जरूरत पड़ गई?’
‘कह देना अगहन के महीने से उन्हें काम करने की जरूरत नहीं है।’
शांति और शंकित हो उठी, लेकिन संतुष्ट होकर पूछा., ‘आखिर उनका क्या अपराध है?’
‘अपराध क्या है, सो तो अभी ठीक-ठीक नहीं बता सकता, लेकिन बहुत ज्यादती कर रहे है।’
इसके बाद अदालल का एक हुक्मनामा और कई कागज पत्र दिखाकर कहा, ‘यह देखो, गोल गांव की एक विधवा का सारा घर-बार नीलाम करके खरीद लिया है। मुझसे एक बार पूछा तक नहीं।’
शांति ने दुःखी होकर कहा, ‘हाय! हाय! विधवा का? तब तो यह काम अच्छा नहीं हुआ, लेकिन बिका कैसे?’
‘उस पर दस साल की मालगूजारी बाकी थी। ब्याज और मूलधन मिलाकर ड़ेढ हजार रुपये की नालिश हुई थी।’
रुपयों की बात सुनकर शांति मथूरा बाबू के प्रति कुछ नर्म पड़ गई और मुस्कुराकर बोली, ‘इसमें मैनेजर का दोष है? वह इतने रुपये कैसे छोड़ देते?’
सुरेन्द्र नाथ गंभीर होकर सोचने लगे।
शांति ने पूछा, ‘क्या इतने रुपये छोड़ देने चाहिए?’
‘छोड़ेग नहीं तो क्या एक असहाय विधवा को घर से निकालेंगे? तुम क्या यही राय देती हो?’
इस प्रश्न के अन्दर जो आग छिपी थी, वह शांति के शरीर में समा गई। दुःखी होकर बोली, ‘नहीं! घर से निकाल देने को नहीं कहती। अगर तुम अपने रुपये दान करने लगे तो मैं उसमें बाधक क्यों बनने लगी?’
सुरेन्द्र नाथ ने हंसते हुए कहा, ‘शांति यह बात नहीं है। मेरे रुपये क्या तुम्हारे नहीं हैं? लेकिन यह बताओ, जब मैं न रहूंगा उस समय तुम...।’
‘कैसी बातें करते हो?’
‘मुझे जो अच्छा लगता है, वह तुम करोगी न?’
शांति की आंखों में आंसू आ गए, क्योंकि उसके पति की शारीरिक हालत अच्छी नहीं थी। बोली, ‘इस तरह की बातें क्यो करते हो?’
‘अच्छी लगती हैं, इसलिए करता हूं। शांति तुम मेरी इच्छाओं और आकांक्षाओं को याद नहीं रखोगी?’
शांति ने आंखो पर आंचल रखकर सिर हिला दिया।
कुछ देर बाद सुरेन्द्र नाथ ने कहा, ‘यह तो मेरी बड़ी दीदी का नाम है।’
शांति ने आंखों पर से आंचल हटाकर सुरेन्द्र नाथ की ओर देखा।
सुरेन्द्र नाथ ने एक कागज दिखाते हुए कहा, ‘यह देखो मेरी बड़ी दीदी का नाम है?’
‘कहा?’
‘यह देखो माधवी देवी-जिसका मकान नीलाम हुआ है।’
पल भर में शांति बिल्कुल बुझ गई। ‘इसी से शायद लौटा देना चाहते है।’
सुरेन्द्र नाथ ने हंसते हुए उत्तर दिया, ‘हां, इसलिए। मैं सब कुछ लौटा दूंगा।’
माधवी की बात सुनकर शांति कुछ दुःखी हो उठती। लगा उसके अन्दर ईर्ष्या की भावना थी। उसने कहा, ‘हो सकता है कि वह तुम्हारी दीदी न हो। केवल माधवी नाम है। सिर्फ नाम से ही क्या...?’
‘क्या बड़ी दीदी के नाम का मैं कुछ सम्मान नहीं करूंगा?’
‘भले ही करो, लेकिन वह स्वयं तो इस जान नहीं पाएंगी।’
‘लेकिन मैं अनादर नहीं कर सकता। भले ही वह जान न पाए।’
‘नाम तो ऐसे बहुत लोगों के हैं।’
‘तुम दुर्गा का नाम लिखकर उस पर पांव रख सकती हो?’
‘छीः कैसी बातें कहते हो? देवी का नाम लेकर।’
सुरेन्द्र नाथ हंस पडा, ‘अच्छा, देवी का नाम न सही लेकिन मैं तुम्हें पांच हजार रुपये दे सकता हूं, अगर एक काम कर सको।’
‘कौन-सा काम?’ शांति ने प्रसन्न होकर पूछा।
दीवार पर सुरेन्द्र नाछ का एक फोटो टंगा था। उसकी और उंगली से इशारा करके बोले, ‘यह फोटो अगर...।’
‘क्या?’
‘चार ब्राह्मणों के द्वारा यदि नदी के किनारे जला सको तो...।’
कहीं पास ही बिजली गिरने पर जैसे सारा खून पल भर में ही सूख जाता है, सांप के काटे हुए रोगी की तरह बिल्कुल नीला पड़ जाता है, ठीक वही दशा शांति की हो गई। इसके बाद धीरे-धीरे उसके चेहरे का खून लौट आया। दुःख भरी नजरों से पति की ओर देखती हुई चुपचाप नीचे उत्तर गई। पुरोहित को बुलाकर शांति और सर्वस्व वाचन की यथोचित रूप से व्यवस्था की और राजा की आधे राजस्व की मन्नतें मानकर मन-ही-मन प्रतिज्ञा की कि यह बड़ी दीदी चाहे कोई भी हो, उनके बारे में कभी कुछ न कहूंगी। इसके बाद बहुत देर तक अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके आंसू बहाती रही। अपने जीवन में ऐसी कड़वी बात आज से पहले उसने कभी नहीं सुनी थी।
सुरेन्द्र नाथ पहेल तो कुछ देर चुप बैठे रहे, फिर बाहर चले गए।
दफ्तर में मथूरा बाबू से भेंट हुई। पूछा, ‘गोला गांव में किसकी सम्पति नीलाम हुई है?’
‘मृत रामतनु सान्याल की विधवा पुत्रवधु की।’
‘क्यों?’
‘दस साल की मालगुजारी बाकी थी।’
‘खाता कहां है?’ देखें।’
मथुरानाथ पहले तो सन्नाटे में रह गए। फिर बोले, ‘खाता वगैरह तो अभी तक पवना से मंगाया ही नहीं गया है।’
‘खाता लाने के लिए आदमी भेजो। विधवा के रहने तक के लिए जरा सी जगह भी नहीं छोड़ी गई?’
‘शायद नहीं।’
‘तब वह रहेगी कहा?’
मथुरा बाबू ने साहस बटोरकर उत्तर दिया, ‘इतने दिनों तक जहां थी, वही रहेगी। ऐसा ही लगता है।’
‘इतने दिनों तक कहां थी?’
‘कलकत्ता में अपने पिता के धर।’
‘पिता का नाम जानते हो?’
‘हां जानता हूं। ब्रजराज लाहिड़ी।’
‘और विधवा का नाम?’
‘माधवी देवी।’
सुरेन्द्र नाथ सिर वहीं झुकाकर बैठ गए। मथुरा बाबू ने घबराकर पूछा. ‘क्या हुआ?’
सुरेन्द्र नाथ ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। एक नौकर बुलाकर उससे कहा, ‘एक अच्छे धोड़े पर जीन कसने के लिए कह दो। मैं इसी समय गोला गांव जाऊंगा। यहां से गोला गांव कितनी दूर है, जानते हो?’
‘लगभग दस कोस।’ अभी नौ बजे हैं। एक बजते-बजते वहां पहुंच जाएंगे।
‘उत्तर की ओर। आगे जाकर पश्चिम की ओर मुड़ना होगा।’
इसके बाद चाबुक पड़ते ही धोड़ा दौड़ता हुआ निकल गया।
शांति को यह समाचार मिला तो ठाकुर जी वाले कमरे में अपना सिर पटक-पटककर फोड़ लिया और बोली, ‘ठाकुर जी, क्या यही था तुम्हारे मन में? क्या अब मैं उन्हें फिर पाऊंगी?’
इसके बाद दो प्यादे धोड़े पर सवार होकर गोला गांव की ओर तेजी से दौड़ पड़े। खिड़की में से उन्हें देखकर शांति धीरे-धीरे अपने आंसू पोंछने लगी। उसने कहा, ‘मा दुर्गे, एक जोड़ भैंसा चढाऊंगी-जो चाहोगी वही दूंगी। बस उन्हे लोटा लाओ। मैं अपना सलेजा चीरकर लहूं चढ़ाऊंगी। जितना भी चाहो उतनी ही-जब तक तुम्हारी प्यास न बुझे।’
गोलागांव पहुंचने में और दो कोस बाकी हैं। धोड़े की टापें तक फेन से बर गई हैं। जी जान से धूल उड़ाता, खेतों की मेड़ो को तोड़ता हुआ और नालों को फांदता हुआ घोड़ा भागता चला जा रहा है। सिर के ऊपर प्रचंड सूर्य दहक रहा है।
धोड़े पर सवार रहने की हालल में ही सुरेन्द्र नाथ का मिचलाने लगा था। लग रहा था कि जैसे अन्दर की सारी नसें कटकट बाहर निकल पड़ेगी। इसके बाद ही खांसी के साथ खून की दो-तीन बूंदे टप से धूल से अटे कुर्ते पर टपक पड़ी। सुरन्द्र नाथ ने हाथ से मुंह पोंछ लिया।
एक बजे से पहले ही वह गोला गांव में पहुंच गए।
रास्ते में एक दुकानदार से पूछ्, ‘यह गोला गांव है?’
‘हां।’
‘रामतनु सान्याल का मकान किधर है?’
‘उस और है।’
धोड़ा फिर दौड़ने लगा और थोड़ी ही देर में उस मकान के सामने पहुंच गया।
दरवाजे पर ही एक सिपाही बैठा था। अपने मालिक को देखकर उसने प्रणाम किया।
‘घर में कौन है?’
‘कोई नहीं।’
‘कोई नहीं? ‘कहां गए?’
‘सवेरे नाव लेकर चले गए।’
‘कहां? किस रास्ते से?’
‘दक्ख्नि की और।’
‘नदी के किनारे-किनारे रास्ता है? धोड़ा चल नहीं सकता था। सुरेन्द्र नाथ ने धोड़ा छोड़ दिया और पैदल ही चल पड़े। रास्ते में एक बार उन्होंने देखा कि कुर्ते पर कोई जगह खून की बूंदे गिरकर धूल में जम गई हैं। इस समय भी उनके होठों पर से खून बह रहा था।
नदी में उतरकर एक अंजली जल पिया और फिर जी-जान से चलना शुरू कर दिया। पैंर में जूते तक नहीं हैं। सारा शरीर कीचड़ से भर गया है। कुर्ते पर खून के दाग हैं, जैसे किसी ने छाती पर खून छिड़क दिया हो।
दिन ढलने लगा। पैर अब आगे नहीं बढ़ रहे। लगता है अगर लेट गए तो हमेशा के लिए सो जाएगे, इसलिए जैसे अन्तिम शैया पर इस जीवन का महाविश्राम प्राप्त करने की आशा लिए पागलों की तरह दौड़ते चले जा रहे हैं। शरीर में जितनी भी शक्ति है, उसे बिना किसी कृपणता के खर्च करके अन्त में अनन्त आश्रय पा लेंगे और फिर कभी नहीं उठेंगे।
नदीं के मोड़ के पास वह एक नाव है न? करेमूं के झूरमुट को हटाती हुई रास्ता निकाल रही है।
सुरेन्द्र नाथ ने पुकारा ‘बड़ी दीदी...।’
लेकिन सूखे गले से आवाज नहीं निकली। केवल दो बूंद खून निकलकर बह गया।
‘बड़ी दीदी...।’ फिर दो बूंद खून बाहर निकल आया।
‘बड़ी दीदी।’ फिर दो बूंद खून।
करेमूं के झुरमुट ने नाव की गति को रोक दिया है। सुरेन्द्र नाथ पास पहुंच गए। उन्होंने फिर पुकारा, ‘बड़ी दीदी...।’
दिन भर उपवास और मानसिक कष्ट के कारण माधवी बेजान-सी संतोष कुमार के पास ही आंखे मूंह लेटी थी। सहसा उसके कानों में आवाज पहुंची। कोई चिर-परिचित स्वर पुकार रहा है। माधवी उठकर बैठ गई। अंदर से मुंह निकालकर देखा। सार बदन धूल और किचड़ से भरा हुआ है। अरे, यह तो मास्टर साहब हैं।’
‘अरे नयनतारा की मां, माझी से जल्दी नाव लगाने के लिए कह दे।’
सुरेन्द्र नाथ तब धीरे-धीरे किनारे पर गिरे जा रहे थे। सब लोगों ने मिलकर उन्हें उठाया और किसी तरह नाव पर लाकर लिटा दिया। मुंह और आंखो पर जल छिड़का।
एक माझी ने पहचानकर कहा, ‘यह तो लालता गांव के जमींदार है।’
माधवी ने इष्ट-कवच के साथ अपने गले का सोने का हार उतारकर उसके हाथ में दे दिया और बोली, ‘एक राक तक लालता गांव में पहुंचा दो। मैं तुम सभी को एक-एक हार इनाम में दूंगी।’
सोने का हार देखकर उनमे से तीन मांझी कंझे पर रस्सी लेकर नीचे उतर पड़े।
संध्या के समय सुरेन्द्र नाथ को होश आया। आंखे खोलकर माधवी की ओर देखते रहे। उस समय माधवी के चेहरे पर धूंधट नहीं था। केवल माथे का कुछ भाग आंचल से ढका था। वह अपनी गोद में सुरेन्द्र नाथ का सिर रखे बैठी थी।
कुछ देर तक देखते रहने के बाद सुरेन्द्र नाथ ने पूछा, ‘तुम बड़ी दीदी हो न?’
माधवी ने पहले तो बड़ी सावधानी से सुरेन्द्र नाथ के होठों पर लगी खून की बूंदे पोंछी। फिर अपने आंसू पोंछने लगी।
‘तुम बड़ी दीदी हो न?’
मैं माधवी हूं।’
सुरेन्द्र नाथ ने आंखे मूंदकर कोमल स्वर में कहा, ‘हां वही।’
मानो सारे संसार का सुख इसी गोद में छिपा हुआ था। इतने दिनों के बाद सुरेन्द्र नाथ वह सुख आज खोज पाया है, इसलिए होठों के कोनों पर मासूम-सी मुस्कुराहट रेंग उठी है, ‘बड़ी दीदी, बहुत कष्ट है।’
छलछल करती हुई नाव लगातार दौड़ी जा रही है। छप्पर के अन्दर सुरेन्द्र के चेहरे पर चन्द्रमा की किरणें पड़ रही हैं। नयनतारा की मां एक टूटा हुआ पंखा लेकर धीरे-धीरे झल रही है।
सुरेन्द्र नाथ ने धीरे से पूछा, ‘कहां जा रही थी?’
माधवी ने रुंधे गले से कहा, ‘प्रमिला की ससुराल’
‘छिः! बड़ी दीदी, भला इस तरह समधी के घर जाना होता है?’
अपनी अट्टालिका के सोने के कमरे में बड़ी दीदी की गोद में सिर रखकर सुरेन्द्र नाथ मृत्यु शैया पर पड़े हुए हैं। उनके दोनों पैर शांति अपनी गोद में लिए आंसुओं से धो रही है। पवना में जितने डॉक्टर और वैद्य हैं, उस सबके सम्मिलित प्रयास से भी खून रुक नहीं रहा। पांच वर्ष पहले की चोट अब खून उगल रही है।
माधवी के ह्दय के भीतर की बात स्पष्ट रूप से नहीं कही जा सकती क्योंकि हम उस अच्छी तरह नही जानते है। जान पड़ता है जैसे उसे पांच वर्ष पहले की बातें याद आ रही हों। उसने सुरेन्द्र नाथ को घर से निकाल दिया था और लौटा नहीं सकी थी और आज पांच वर्ष के बाद सुरेन्द्र नाथ लौट आया है।
शाम के बाद दीपक की उजली रोशनी में सुरेन्द्र नाथ ने माधवी के चेहरे की ओर देखा पैरां के पास शांति बैठी हुई थी। वह सुन न कसे इसलिए उसने माधवी का मुख अपने मुख के पास खींचकर धीरे से कहा, ‘बड़ी दीदी, उस दिन की बात याद है जिस दिन तुमने मझे घर से निकाल दिया था। आज मैंने तुमसे बदला ले लिया। तुम्हें भी निकाल दिया, क्यों बदला चुक गया न?’
माधवी ने सबकुछ भुलकर अपना सिर सुरेन्द्र नाथ के कंधे पर रख दिया।
इसके बाद जब उसे होश आया तब घर में रोना-पीटना चमा हुआ था।
बड़ी दीदी | अध्याय - 1, अध्याय- 4 |
Hindi Kahani
Nobel
Sarat Chandra Chattopadhyay
- asked 3 years ago
- B Butts