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अभागी का स्वर्ग (Abhagi Ka Swarg) | शरतचंद्र चट्टोपाध्याय |

-: अभागी का स्वर्ग :-

(बांग्ला कहानी)

लेखक : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
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एक सात दिनों तक ज्वरग्रस्त रहने के बाद ठाकुरदास मुखर्जी की वृद्धा पत्नी की मृत्यु हो गई। मुखोपाध्याय महाशय अपने धान के व्यापार से काफी समृद्ध थे। उन्हें चार पुत्र, चार पुत्रियां और पुत्र-पुत्रियों के भी बच्चे, दामाद, पड़ोसियों का समूह, नौकर-चाकर थे-मानो यहां कोई उत्सव हो रहा हो। धूमधाम से निकलने वाली शव-यात्रा को देखने के लिए गांव वालों की काफी भीड़ इकट्ठी हो गई। लड़कियों ने रोते-रोते माता के दोनों पांवों में गहरा आलता और मस्तक पर बहुत-सा सिन्दूर लगा दिया। बहुओं ने ललाट पर चन्दन लगाकर बहुमूल्य वस्त्रों से सास की देह को ढंक दिया, और अपने आंचल के कोने से उनकी पद-धूलि झाड़ दी। पत्र, पुष्प, गन्ध, माला और कलरव से मन को यह लगा ही नहीं कि यहां कोई शोक की घटना हुई है-ऐसा लगा जैसे बड़े घर की गृहिणी, पचास वर्षों बाद पुन: एक बार, नयी तरह से अपने पति के घर जा रही हो। शान्त मुख से वृद्ध मुखोपाध्याय अपनी चिर-संगिनी को अन्तिम विदा देकर, छिपे-छिपे दोनों आंखों के आंसू पोंछकर, शोकार्त कन्या और बहुओं को सान्त्वना देने लगे। प्रबल हरि-ध्वनि (राम नाम सत्य है) से प्रात:कालीन आकाश को गुंजित कर सारा गांव साथ-साथ चल दिया। एक दूसरा प्राणी भी थोड़ी दूर से इस दल का साथी बन गया-वह थी कंगाली की मां।

वह अपनी झोंपड़ी के आंगन में पैदा हुए बैंगन तोड़कर, इस रास्ते से हाट जा रही थी। इस दृश्य को देखकर उसके पग हाट की ओर नहीं बढ़े। उसका हाट जाना रुक गया, और उसके आंचल में बैंगन बंधे रह गए। आंखों से आंसू बहाती हुई-वह सबसे पीछे श्मशान में आ उपस्थित हुई। श्मशान गांव के एकान्त कोने में गरुड़ नदी के तट पर था। वहां पहले से ही लकड़ियों का ढेर, चन्दन के टुकड़े, घी, धूप, धूनी आदि उपकरण एकत्र कर दिए गए थे। कंगाली की मां को निकट जाने का साहस नहीं हुआ। अत: वह एक ऊंचे टीले पर खड़ी होकर शुरू से अन्त तक सारी अन्त्येष्टि क्रिया को उत्सुक नेत्रों से देखने लगी। चौड़ी और बड़ी चिता पर जब शव रखा गया, उस समय शव के दोनों रंगे हुए पांव देखकर उसके दोनों नेत्र शीतल हो गए। उसकी इच्छा होने लगी कि दौड़कर मृतक के पांवों से एक बूंद आलता लेकर वह अपने मस्तक पर लगा ले। अनेक कण्ठों की हरिध्वनि के साथ पुत्र के हाथों में जब मन्त्रपूत अग्नि जलाई गई, उस समय उसके नेत्रों से झर-झर पानी बरसने लगा। वह मन-ही-मन बारम्बार कहने लगी-‘सौभाग्यवती मां, तुम स्वर्ग जा रही हो-मुझे भी आशीर्वाद देती जाओ कि मैं भी इसी तरह कंगाली के हाथों अग्नि प्राप्त करूं।’ लड़के के हाथ की अग्नि ! यह कोई साधारण बात नहीं।


पति, पुत्र, कन्या, नाती, नातिन, दास, दासी, परिजन-सम्पूर्ण गृहस्थी को उज्जवल करते हुए यह स्वर्गारोहण देखकर उसकी छाती फूलने लगी- जैसे इस सौभाग्य की वह फिर गणना ही नहीं कर सकी। सद्य प्रज्वलित चिता का अजस्र धुआं नीले रंग की छाया फेंकता हुआ घूम-घूमकर आकाश में उठ रहा था। कंगाली की मां को उसके बीच एक छोटे-से रथ की आकृति जैसे स्पष्ट दिखाई दे गई। उस रथ के चारों ओर कितने ही चित्र अंकित थे। उसके शिखर पर बहुत से लता-पत्र जड़े हुए थे। भीतर जैसे कोई बैठा हुआ था-उसका मुँह पहचान में नहीं आता, परन्तु उसकी मांग में सिंदूर की रेखा थी और दोनों पदतल आलता (महावर) से रंगे हुए थे। ऊपर देखती हुई कंगाली की मां की दोनों आंखों से आंसुओं की धारा वह रही थी। इसी बीच एक पन्द्रह-सोलह वर्ष की उम्र के बालक ने उसके आंचल को खींचते हुए कहा-‘तू यहां आकर खडी है, मां, भात नहीं रांधेगी ?’
चौंकते हुए पीछे मुड़कर मां ने कहा-‘राधूंगी रे ! अचानक ऊपर की ओर अंगुली उठाकर व्यग्र स्वर में कहा-‘देख-देख बेटा ब्राह्मणी मां उस रथ पर चढ़कर स्वर्ग जा रही हैं !’

लड़के ने आश्चर्य से मुंह उठाकर कहा-‘कहां ?’ फिर क्षणभर निरीक्षण करने के बाद बोला-‘तू पागल हो गई है मां ! वह तो धुआं है।’ फिर गुस्सा होकर बोला-‘दोपहर का समय हो गया, मुझे भूख नहीं लगती है क्या ?’ पर मां की आंखों में आंसू देखकर बोला-‘ब्राह्मणों की बहू मर गई है, तो तू क्यों रो रही है, मां ?’
कंगाली की मां को अब होश आया। दूसरे के लिए-श्मशान में खड़े होकर इस प्रकार आंसू बहाने पर वह मन-ही-मन लज्जित हो उठी। यही नहीं, बालक के अकल्याण की आशंका से तुरन्त ही आंखें पोंछकर तनिक सावधान-संयत होकर बोली-‘रोऊंगी किसके लिए रे-आंखों में धुआं लग गया; यही तो !
‘हां, धुआं तो लग ही गया था ! तू रो रही थी।’
मां ने और प्रतिवाद नहीं किया। लड़के का हाथ पकड़कर घाट पर पहुंची; स्वयं भी स्नान किया और कंगाली को भी स्नान कराकर घर लौट आई-श्मशान पर होने वाले संस्कार के अन्तिम भाग को देखना उसके भाग्य में नहीं बदा था।

सन्तान के नामकरण के समय माता-पिता की मूर्खता पर, विधाता अन्तरिक्ष में बैठे हुए-अधिकतर केवल हंसकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते, तीव्र प्रतिवाद भी करते हैं। इसी से उनका सम्पूर्ण जीवन-उनके स्वयं के नामों को ही मरण-पर्यन्त चिढ़ाता रहता है। कंगाली की मां के जीवन का इतिहास छोटा-सा है, परन्तु उस छोटे-से कंगाली-जीवन ने विधाता के इस परिहास से छुटकारा पा लिया है। उसके जन्म के बाद ही उसकी मां मर गई, पिता ने क्रुद्ध होकर उसका नाम रक्खा ‘अभागी’। मां थी नहीं, पिता नदी में मछली पकड़ते घूमता रहता था-वह न दिन देखता, न रात। फिर भी न जाने किस प्रकार, छोटी-सी अभागी एक दिन कंगाली की मां बनने के लिए बची रही-यह एक आश्चर्य की बात है। जिसके साथ विवाह हुआ, उसका नाम था रसिक बाघ। कुछ दिन बाद ही वह अभागी को छोड़कर दूसरे गांव में चला गया; अभागी अपने अभाग्य एवं उस शिशुपुत्र कंगाली को लेकर गांव में ही पड़ी रही।

उसका वही कंगाली आज बड़ा होकर पन्द्रहवें वर्ष में पदार्पण कर रहा है। फिलहाल उसने बेंत का काम सीखना आरम्भ किया है। अभागी को आशा होने लगी है कि और एक वर्ष तक अपने अभाग्य के साथ जूझ लेने पर उसका दु:ख अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।

कंगाली ने पोखर (कच्चा तालाब) से हाथ-मुंह धोकर लौटकर देखा-उसके भोजन की थाली के बचे भोजन को मां एक मिट्टी के पात्र से ढक कर रख रही है। आश्चर्यचकित होकर उसने पूछा-‘तुमने नहीं खाया मां ?’
‘बहुत देर हो गई बेटा-अब भूख नहीं रही।’
लड़के ने विश्वास नहीं किया, बोला-‘नहीं, भूख क्यों नहीं रही ? कहां है, देखूं तो तेरी हांडी ?’
इस छलना द्वारा वह बहुत दिनों से कंगाली को धोखा देती आ रही है; आज उसने हांडी देखकर ही छोड़ी। उसमें केवल एक ही व्यक्ति के भोजन के लिए भात था। तब वह प्रसन्न मुख से मां की गोद में जा बैठा। इस उम्र के बालक साधारणत: इस प्रकार नहीं करते, परन्तु शैशव से अक्सर बीमार रहने के कारण मां की गोद छोड़कर उसे बाहर के संगी-साथियों में हिलमिल जाने का सुयोग नहीं मिला। एक बांह गले में डालकर, मुंह के ऊपर मुंह रखकर कंगाली ने चकित स्वर में कहा-‘मां, तेरा शरीर तो गर्म है; तू क्यों धूप में खड़ी होकर-मुर्दे को जलता हुआ देखने गई ? फिर क्यों जाकर नहा आई ?...मुर्दा जलना क्या तैने..।’

मां ने झटपट लड़के के मुंह को हाथ से दबाते हुए कहा-‘छि: बच्चे, मुर्दा जलना नहीं कहते, पाप होता है ! सती लक्ष्मी महारानी रथ पर चढ़कर स्वर्ग गई हैं।’
बालक ने सन्देह करते हुए कहा-‘तेरे पास एक ही बात है मां। रथ पर चढ़कर भी कहीं कोई स्वर्ग जाता है ?’
मां बोली-‘मैंने तो आंखों से देखा है कंगाली-ब्राह्मणी मां रथ के ऊपर बैठी थीं। उनके रंगे हुए दोनों पांवों को सबने अपनी आंखों से देखा है रे !’
‘सबने देखे हैं ?’
‘हां, सभी ने देखे हैं !’

कंगाली मां की छाती से चिपककर बैठा सोचने लगा। मां का विश्वास करना ही उसकी आदत है, विश्वास करने की ही उसने बचपन से शिक्षा पाई है। वही मां जब कह रही है कि सबने आंखें गड़ाकर इतनी बड़ी बात को देखा-तब अविश्वास करने का फिर कोई कारण ही नहीं है। थोड़ी देर बाद वह धीरे-धीरे बोला-‘तब तो तू भी स्वर्ग जाएगी मां ? बिंदी की मां उस दिन राखाल की बुआ से कह रही थीं-कंगाली की मां के समान सती लक्ष्मी दूलों के मुहल्ले में और कोई नहीं है।’
कंगाली की मां चुप रह गई। कंगाली उसी प्रकार धीरे-धीरे कहने लगा-‘पिता ने जब तुझे छोड़ दिया, तब कितने दु:ख और कष्ट तुझे झेलने पड़े। फिर भी एक दिन के लिए भी पिता पर तेरा क्रोध नहीं देखा गया। तुझे आशा थी कि कंगाली के बचने पर तेरा दु:ख दूर हो जाएगा। हां मां, तेरे न बचने पर मैं कहां बचता ? मैं तो बिना खाये-पीए, उतने दिनों में कब का मर गया होता।’

मां ने लड़के को दोनों हाथों से पकड़कर छाती से चिपटा लिया। वस्तुत: अनेक प्रकार के परामर्श देने वाले लोगों का अभाव न होते हुए भी सहायता करने वाला व्यक्ति उन दिनों कोई नहीं मिल पाया था। यही नहीं, और भी बहुत उपद्रव उसके साथ किया गया था। उन बातों को स्मरण कर अभागी की आंखों से पानी बहने लगा। लड़का अपने हाथ से इन्हें पोंछता हुआ बोला-‘कांथरी बिछा दूं मां, सोएगी ?’

मां चुप रही। कंगाली ने चटाई बिछाई, कांथरी बिछाई, माचे के ऊपर से तकिया उठाकर रख दिया। फिर उसे बिछौने की ओर खींचकर ले जाने लगा तो मां बोली-‘कंगाली, आज तुझे काम पर जाने की जरूरत नहीं।’
काम-काज न करने का प्रस्ताव कंगाली को बहुत अच्छा लगा, परन्तु बोला-‘जलपान के दो पैसे फिर वह नहीं देगा मां।’
‘न दे-आ तुझे एक कथा सुनाऊं।’
और नहीं लुभाना पड़ा, कंगाली उसी क्षण मां की छाती से लगकर लेटते हुए बोला-‘तो अब कह ! राजपुत्र, कोतवाल का पुत्र और वह पक्षीराज घोड़ा...।’

अभागी ने राजपुत्र, कोतवाल के पुत्र और पक्षीराज घोड़े की बात से कहानी आरम्भ की। ये सब उसकी दूसरों से बहुत दिनों की सुनी एवं कितनी ही बार कही हुई कथाएं थीं। परन्तु कुछ देर बाद ही-कहां गया उसका राजपुत्र, और कहां गया उसका कोतवाल का पुत्र-उसने इस प्रकार उपकथा आरम्भ की कि जो उसने दूसरे से नहीं सीखी थी-स्वयं की रचना थी। उसका स्वर जितना बढ़ने लगा, उष्ण रक्त-स्रोत जितने द्रुतवेग से मस्तिष्क में बहने लगा, उतनी ही वह जैसे नयी-नयी उपकथाओं के इन्द्रजाल की रचना करने लगी। उनका विराम नहीं था, विच्छेद नहीं था-कंगाली की छोटी-सी देह बार-बार रोमांचित होने लगी ! भय, विस्मय और पुलक से वह जोर से मां के गले को पकड़कर उसकी छाती में जैसे समा जाने की कोशिश करने लगा।

बाहर दिन ढल चुका था। सूर्य अस्ताचल को चले गए, सन्ध्या की म्लान छाया प्रगाढ़ होती हुई चराचर को व्याप्त कर उठी; परन्तु घर के भीतर आज फिर दीपक नहीं जला, गृहस्थी का शेष कर्तव्य पूरा करने के लिए कोई उठा नहीं-निविड़ अन्धकार में केवल रुग्ण माता का अबोध, गुंजन, निस्तब्ध पुत्र के कानों में सुधावर्षण करता हुआ चलने लगा। वह उसी श्मशान और श्मशान की कहानी थी-वही रथ, वही दोनों रंगे हुए पांव, वही उसका स्वर्ग जाना। किस प्रकार शोकार्त्त पति ने अन्तिम पदधूलि देकर रोते हुए विदा ली, किस प्रकार हरिध्वनि करते हुए लड़के माता को ढोते हुए ले गए, उसके पश्चात् सन्तान के हाथ की अग्नि। वह अग्नि केवल अग्नि ही नहीं कंगाली, वह तो साक्षात् हरिस्वरूप थी ! उसका आकाश तक उठा हुआ धुआं, धुआं नहीं था बच्चे, वह तो स्वर्ग का रथ था !
‘कंगालीचरण, मेरे बेटे !’
‘क्या मां ?’
‘तेरे हाथ की अग्नि यदि पा लूँ बेटे, तो ब्राह्मणी मां की भांति मैं भी स्वर्ग जा सकूंगी।’
कंगाली ने अस्फुट स्वर में केवल यह कहा-‘जा-ऐसा नहीं कहते।’
मां उस बात को शायद सुन भी नहीं सकी; उष्ण नि:श्वास छोड़कर कहने लगी-‘छोटी जात की होने पर भी, तब कोई घृणा नहीं कर सकेगा-दु:खी होने पर भी कोई रोककर नहीं रख सकेगा। आह ! लड़के के हाथ की अग्नि-रथ को तो आना ही पड़ेगा !’
लड़के ने मुंह ऊपर मुंह रखकर भर्राये कण्ठ से कहा-‘ऐसा मत कहो मां, मुझे बड़ा डर लगता है।’
मां ने कहा-‘और देख कंगाली, तेरे पिता को एक बार पकड़ लाऊंगी, वैसे ही अपने पांव की धूलि मस्तक पर देकर वे मुझे विदा करेंगे। वैसे ही पांवों में आलता, माथे पर सिन्दूर देकर-परन्तु कौन उसे देगा ? तू देगा न रे कंगाली। तू मेरा लड़का है, तू ही मेरी लड़की है-तू ही मेरा सर्वस्य है।’ कहते-कहते उसने लड़के को कसकर छाती से चिपटा लिया।

अभागी के जीवन-नाटक का अन्तिम अंक समाप्त हो चला है-जिसका विस्तार अधिक नहीं, सामान्य ही है। जान पड़ता है, तीस वर्ष ही अब तक पार हुए होंगे, या न हुए होंगे। अन्त भी हुआ उसी प्रकार सामान्य भाव से। गांव में कविराज नहीं थे, दूसरे गांव में उनका निवास था। कंगाली जाकर रोया-धोया, हाथ-पांव जोड़े, अन्त में लोटा गिरवी रखकर उन्हें एक रुपये की प्रणामी (सलामी) दी। उस सबका कितना आयोजन करना पड़ा-खरल, मधु, अदरक का सत्व, तुलसी के पत्तों का रस। कंगाली की मां ने लड़के से नाराज होकर कहा-‘क्यों तू मुझे बिना बताये लोटा गिरवी रखने चला गया, बच्चे ?’ हाथ झुकाकर कई गोलियां लेकर, उन्हें माथे से लगाकर फेंकते हुए उसने कहा-‘अच्छी होऊंगी तो वैसे ही हो जाऊंगी। बाग्दी-दूलों के घर में अभी भी कोई औषधि खाने से नहीं बचता।’

दो-तीन दिन इसी प्रकार बीत गए। पड़ोसी खबर पाकर देखने के लिए आये। वे जो घरेलू नुस्खे जानते थे-हिरन के सींग का घिसा हुआ पानी, गिट्टी-कौड़ी जलाकर शहद में मिलाकर चटा देना इत्यादि-बिना खर्चे की ओषधियों को बता सब अपने काम से चले गए। बालक कंगाली घबड़ा उठा। मां ने उसे गोद में खींचते हुए कहा-‘कविराज की गोलियों से कुछ नहीं होता बेटे ! और उन लोगों की ओषधियों से क्या काम चलेगा ? मैं ऐसे ही अच्छी हो जाऊंगी।’
कंगाली ने रोते हुए कहा-‘तुमने गोलियां खाई ही नहीं मां, चूल्हे में फेंक दीं। ऐसे क्या कोई अच्छा होता है ?’
‘मैं ऐसे ही अच्छी हो जाऊंगी ! अच्छा, देख,-तू थोड़ा-सा भात-वात बनाकर खा ले, मैं भी देखूंगी।’
कंगाली पहली बार अनभ्यस्त हाथों से भात रांधने लगा। न तो वह मांड ही निकाल सका, न अच्छी तरह पसा ही सका। चूल्हा उससे जलता नहीं-उसमें पानी गिर पड़ने से धुआं होता है, भात पसाते समय चारों ओर गिर पड़ता है। मां के नेत्र छलछला आए। उसने स्वयं एक बार उठने की चेष्टा की; परन्तु माथा सीधा न कर सकी, खाट पर ही लुढ़क गई। खाना बन जाने पर बालक को पास बुलाकर, किस प्रकार क्या करना होता है, इसका विधिवत् उपदेश करते समय उसका क्षीण कण्ठ अवरुद्ध हो गया, आंखों से जल की अविरल धारा बहने लगी।

गांव का ईश्वर नाई नाड़ी देखना जानता था। दूसरे दिन सबेरे उसने नाड़ी देखकर उसी के सामने मुंह को गम्भीर बना लिया। कंगाली की मां ने इसका अर्थ समझा; परन्तु उसे भय भी नहीं लगा। सब लोगों के चले जाने पर उसने लड़के से कहा-‘इस बार एक बार उन्हें बुलाकर ला सकता है बेटे ?’
‘किसे मां ?’
‘उन्हीं को रे-उस गांव में जो चले गये है।’
कंगाली ने समझते हुए भी पूछा-‘पिता को !’
अभागी चुप रह गई।
कंगाली बोला-‘वे आएंगे क्या मां ?’
अभागी को स्वयं भी पूरा सन्देह था, तो भी धीरे-धीरे कहा-‘जाकर कहना-मां केवल आपके पांवों की धूलि चाहती है।’
वह उसी समय जाने को तैयार हो गया। तब उसका हाथ पकड़कर वह बोली-‘थोड़ा-सा रोना-धोना बेटे। कहना-मां जा रही है।’
कुछ ठहरकर बोली,‘लौटते समय नाइन-भाभी से थोड़ा-सा आलता ले आना कंगाली; मेरा नाम लेते ही वह दे देगी-मुझे बहुत प्यार करती है।’
प्यार उसे बहुत-सी करती हैं। ज्वर होने की अवधि से मां के मुख से इन कई वस्तुओं की बातें इतनी बार, इतनी प्रकार से सुनी हैं कि वह वहां से रोता अपनी यात्रा पर चल दिया।

दूसरे दिन रसिक दूले समयानुसार जब आ उपस्थित हुआ; उस समय अभागी को जरा भी होश नहीं था। मुंह पर मृत्यु की छाया पड़ रही थी, आंखों की दृष्टि इस संसार के कार्य को त्यागकर किसी अनजाने देश में चली गई थी। कंगाली ने रोकर कहा-‘अरी मां ! पिता आए हैं-पांव की धूलि लोगी न ?’
मां शायद समझी, शायद नहीं समझी; शायद गहराई तक संचित उसकी वासना ने, संस्कार की भांति-उसकी दबी हुई चेतना पर आघात पहुंचाया। इस मृत्युपथ के यात्री ने अपनी विवश भुजाओं को शय्या से बाहर बढ़ाकर हाथ झुका दिए।
रसिक हतप्रभ खड़ा रहा। पृथ्वी पर उसकी पद-धूलि का कोई प्रयोजन है, इसे भी कोई चाह सकता है-यह उसकी कल्पना से परे था। बिन्दी की बुआ खड़ी हुई थी, उसने कहा-‘दो बाबा, थोड़ी-सी-पांवों की धूलि दो।’
रसिक आगे बढ़ आया। जीवन-भर स्त्री को उसने प्यार नहीं दिया, भोजन-वस्त्र नहीं दिया, कोई खोज-खबर नहीं ली; अब मृत्युकाल में उसे केवल थोड़ी-सी पद-धूलि देते समय वह रो उठा। राखाल की मां बोली-‘ऐसी सती-लक्ष्मी ब्राह्मण-कायस्थों के घर में न जन्म लेकर, हम दूलों के घर में क्यों जन्मी ? अब तो उसकी गति सुधार दो बेटा-‘कंगाली के हाथ से अग्नि पाने के लोभ में उसने अपने प्राण दे दिए है।’

अभागी के अभाग्य के देवता ने परोक्ष में बैठकर क्या सोचा था, पता नहीं; पर बालक की छाती में वह बात तीर की भांति बिंध गई।
उस दिन, दिन का समय तो कट गया, पहली रात भी कट गई; परन्तु सबेरे के लिए कंगाली की मां और प्रतीक्षा नहीं कर सकी। कौन जाने इतनी छोटी जाति के लिए भी स्वर्ग के रथ की व्यवस्था है अथवा नहीं, अथवा अन्धेरे में पैदल ही उन्हें जाना पड़ता है-परन्तु यह समझ में आ गया कि रात पूरी समाप्त होने से पहले ही उसने इस दुनिया को त्याग दिया।
झोंपड़ी के आंगन में एक बेल का पेड़ है। कहीं से कुल्हाड़ी लाकर रसिक ने चोट की अथवा नहीं की, परन्तु जमींदार का दरबान कहीं से दौड़ा चला आया और उसके गाल पर तड़ाक् से एक चांटा कस दिया, फिर कुल्हाड़ी छीनता हुआ बोला-‘बेटा, यह क्या तेरा अपना पेड़ है जो काटने लग गया ?’

रसिक गाल पर हाथ फेरने लगा। कंगाली रोता हुआ-सा बोला-वाह, यह तो मेरी मां के हाथ का लगाया हुआ पौधा है दरबानजी। पिताजी को तुमने खामखाह क्यों मारा ?’
हिन्दुस्तानी दरबान तब उसे भी एक गाली देकर मारने चला; परन्तु वह अपनी मरी हुई मां की मृत देह से स्पर्श किए हुए बैठा था, अत: अशौच के भय से उसके शरीर पर हाथ नहीं मारा। शोरगुल से एक भीड़ जमा हो गई। किसी ने भी इस बात से इन्कार नहीं किया, कि बिना आज्ञा लिए रसिक का पेड़ काटना ठीक नहीं था। वे सब फिर दरबानजी के हाथ-पांव जोड़ने लगे कि कृपा करके उसे हुक्म दे दें। कारण, बीमारी के समय जो कोई देखने को आया था, कंगाली की मां उसी का हाथ पकड़कर अपनी अन्तिम अभिलाषा व्यक्त कर गई थी।
दरबान भुलावे में आ जाने वाला पात्र नहीं था; उसने हाथ हिलाकर कहा-‘यह सब चालाकी मेरे सामने नहीं चल सकती।’

जमींदार स्थानीय व्यक्ति नहीं थे। गूंद में उनकी एक कचहरी है। गुमाश्ता अघर राय उनके कारिन्दे हैं।

जिस समय सब लोग दरबान से निरर्थक विनय प्रार्थना करने लगे, कंगाली लंबी-लंबी सांसें लेकर दौड़ता हुआ एकदम कचहरी वाले मकान में पहुंच गया। उसने लोगों के मुंह से सुना था कि प्यादे लोग घूस लेते हैं। उसे निश्चित रूप से विश्वास हो गया कि इतने बड़े असंगत-अत्याचार की बात अगर मालिक को जाकर बता दी जाए, तो इसका कोई प्रतिकार हुए बिना नहीं रहेगा। हाय रे अबोध! बंगाल के जमींदारों और उनके कर्मचारियों को वह जानता नहीं था। मातृहीन बालक शोक तथा उत्तेजना से उद्भ्रान्त होकर एकदम ऊपर चढ़ता चला गया।

अघर राय अभी-अभी संध्या-पूजा तथा थोड़ा बहुत जलपान करने के बाद बाहर आए थे। विस्मित और क्रुद्ध होकर बोले, क्या है रे?'
'मैं कंगाली हूं। दरबान ने मेरे पिता को मारा है।'
'ठीक किया। लगान नहीं देता होगा अभागा शायद ।'
कंगाली बोला, 'नहीं, बाबूजी, पिताजी पेड़ काट रहे थे। मेरी मां मर गई है।'
कहते-कहते वह अपनी रुलाई नहीं रोक सका।

सवेरे-सवेरे इस रोने-धोने से अघर अत्यन्त खीज उठे। लड़का मुर्दा छूकर आया है। क्या पता यहां भी कुछ छू-छा न दिया हो! धमकाते हुए बोले, 'मां मर गई है तो नीचे जाकर खड़ा हो। अरे कौन है रे, इस जगह थोड़ा-सा गोबर-पानी डाल दो। किस जाति का लड़का है तू?'
कंगाली ने भयभीत हो आँगन में उतर कर खड़े होकर कहा, हम लोग दूले हैं ।
अघर ने कहा, दूले ? दूले के मुर्दे के लिए लकड़ी का क्‍या होगा, सुनूँ तो ?

कंगाली बोला, माँ जो मुझे अग्नि देने के लिए कह गई है ? आप पूछ लीजिए न बाबूजी, माँ तो सभी से कह गई है, सभी ने इस बात को सुना है। माँ की बात कहते समय उसके प्रत्येक क्षण के अनुरोध-उपरोध तुरन्त ही याद आ जाने से उसका कण्ठ मानो रुलाई के कारण फट पड़ना चाहने लगा ।
अघर ने कहा, माँ को जलाना चाहता है तो पेड़ के दाम पाँच रुपए लाओ । ला सकेगा ?

कंगाली जानता था यह असम्भव है । उसका उत्तरीय खरीदने के लिए मूल्य के रूप में उसके भात खाने की पीतल की थाली को बिन्दी की बुआ एक रुपये में गिरवी रखने गई है, इसे वह आँखों से देख आया है। उसने गरदन को हिलाया, बोला, 'नहीं' ।

अघर ने मुंह को अत्यन्त विकृत बनाते हुए कहा, नहीं तो माँ को ले जाकर नदी के बहाव में बहा दे। किसके पेड़ पर तेरा बाप कुल्हाड़ी चलाने जा रहा है--पाजी, अभागा, बदमाश ।
कंगाली बोला, वह हमारे आँगन का पेड़ है-बाबूजी-? वह तो मेरी माँ के हाथ का बोया हुआ पौधा है।

हाथ का बोया हुआ पेड़ है ! पाँड़े, सुअर के गले में धक्का मार कर बाहर निकाल दो तो । पांड़े ने आकर गले में धक्का दिया एवं ऐसी बातें कहीं कि जिन्हें केवल ज़मीदार के कर्मचारी कह सकते हैं ।

कंगाली धूलि झाड़कर उठ खड़ा हुआ, उसके बाद धीरे-धीरे बाहर निकल गया, क्‍यों उसने मार खाई, क्या उसका अपराध था लड़का इसे सोच भी नहीं पाता ।

गुमाश्ते के निर्विकार हृदय में दाग़ तक नहीं पड़ा । पड़ने पर यह नौकरी उसे नहीं मिलती । कहा, परेश, देख तो इस बेटा का लगान बाकी पड़ा है कि नहीं । हो तो इसका जाल-वाल जो कुछ हो छीन ले आकर रख देना--अभागा भाग कर जा सकता है ।

मुखर्जियों के घर श्राद्ध का दिन बीच में केवल एक दिन बाकी है । समारोह का आयोजन गृहिणी के उपयुक्त होने का प्रयत्न हो रहा है। वृद्ध ठाकुरदास स्वयं ही देख-रेख करते हुए घूम रहे हैं, कंगाली ने आकर उनके सामने खड़े होकर कहा, पण्डितजी, मेरी माँ मर गई है ।
तू कौन है? क्या चाहता है तू ?
मैं कंगाली हूँ। माँ कह गई है उसे अग्नि देने के लिए।
तो दे न।

कचहरी की घटना इस बीच सब के मुंह से प्रचारित हो चुकी थी, एक आदमी ने कहा, उसे शायद एक पेड़ चाहिए। यह कह कर उसने घटना-को प्रकट कर दिया।

मुखोपाध्याय ने विस्मित और विरक्त होकर कहा सुनो इसकी बातें ! हमें ही कितनी लकड़ी की जरूरत है, कल के बाद परसों काम है जा-जा, यहाँ कुछ नहीं होगा--यहाँ कुछ नहीं होगा । यह कहकर अन्यत्र चल दिए ।

भट्टाचार्य महाशय, समीप ही बैठे हुए फर्द बना रहे थे, वे बोले, तेरी जाति में कोई कब जलाया जाता है रे--जा, मुंह में थोड़ी- सी आग रखकर नदी की धार में मिट्टी दे देना ।

मुखोपाध्याय महाश्य का बड़ा लड़का व्यस्त भाव से इस ओर से कहीं को जा रहा था, उसने कान खड़े कर कुछ सुनते हुए कहा, देखते हैं भट्टाचार्य महाशय, ये सब बेटे ब्राह्मण कायस्थ हो जाना चाहते हैं। कह कर काम की जल्दी में और कहीं चला गया । कंगाली ने और प्रार्थना नहीं की । इन दो घण्टों के अनुभव से संसार में वह जैसे एकदम बूढ़ा हो गया था । चुपचाप धीरे-धीरे अपनी मरी हुई माँ के पास जा उपस्थित हुआ ।

नदी की धार के पास गढ्डा खोदकर अभागी को सुला दिया गया । राखाल की माँ ने कंगाली के हाथ में एक पुआल की आंटी जला कर दे दी । उसी हाथ से माँ के मुख को स्पर्श करवा कर हटवा दिया । तदुपरान्त सबने मिलकर मिट्टी से ढँक कर कंगाली की माँ के अन्तिम चिह्न तक को विलुप्त कर दिया ।

सब अपने कामों में व्यस्त हो गए--परन्तु उस पुआल की आंटी से जो थोड़ा-सा धुआं निकल कर आकाश की ओर उठ रहा था, उसकी ओर अपलक नेत्रों से देखता हुआ कंगाली ऊर्धव-दृष्टि से सतब्ध खड़ा हुआ था ।

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