सती (Sati) | शरतचंद्र चट्टोपाध्याय |
-: सती :-
(बांग्ला कहानी)
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हरीश पबना एक संभ्रांत, भला वकील है, केवल वकालत के हिसाब से ही नहीं, मनुष्यता के हिसाब से भी। अपने देश के सब प्रकार के शुभ अनुष्ठानों के साथ वह थोड़ा-बहुत संबंधित रहता है। शहर का कोई भी काम उसे अलग रखकर नहीं होता। सबेरे 'दुर्नीति-दमन-समिति' की कार्यकारिणी सभा का एक विशेष अधिवेशन था, काम समाप्तकर घर लौटते हुए थोड़ा विलंब हो गया था। अब किसी तरह थोड़ा सा खा-पीकर अदालत पहुँचना आवश्यक है। विधवा छोटी बहन उमा पास बैठी हुई देखभाल कर रही थी कि कहीं समय की कमी से खाने-पीने में कमी न रह जाए।
पत्नी निर्मला धीरे-धीरे समीप जाकर बैठ गई, बोली, 'कल के अखबार में देखा है, हमारी लावण्यप्रभा यहाँ लड़कियों के स्कूल की इंस्पेक्ट्रेस होकर आ रही है।'
यह साधारण-सी बात कुछ संकेतों में बहुत गंभीर थी।
उमा चकित होकर बोली, 'सचमुच क्या? उस लावण्य का नाम यहाँ तक कैसे आ पहुँचा भाभी!”
निर्मला बोली, 'आ ही गया! इन्हें पूछती हूँ।'
हरीश मुँह उठाकर सहसा कड़वे स्वर से बोल उठा, 'मैं कैसे जानूँगा, सुनूँ तो? गवर्नमेंट क्या मुझसे पूछकर लोगों को बहाल करती है?'
स्त्री ने स्निग्ध स्वर से उत्तर दिया, 'अहा, नाराज क्यों होते हो, नाराजी की बात तो मैंने कही नहीं, तुम्हारी तदबीर-तकाजे से यदि किसी का उपकार हो तो वह प्रसन्नता की ही बात है! ' कहकर जैसी आई थी, वैसी ही मंथर-मृदु चाल से बाहर चली गई।
उमा घबरा उठी, 'मेरे सिर की शपथ है दादा, उठो मत, उठो मत!'
हरीश विद्युत-वेग से आसन छोड़कर उठ बैठा, “नहीं, शांतिपूर्वक एक कौर खाया भी नहीं जा सकता। आत्मघात किए बिना और...।” कहते-कहते शीघ्रतापूर्वक बाहर निकल गया। जाते समय राह में स्त्री का कोमल स्वर कान में पड़ा, 'तुम किस दुःख से आत्मघात करोगे? जो करेगा, उसे एक दिन दुनिया देख लेगी! '...
यहाँ हरीश का कुछ पूर्व-वृत्तांत कह देना आवश्यक है। इस समय उसकी आयु चालीस से कम नहीं है, परंतु जब सचमुच कम थी, उस छात्र-जीवन का एक इतिहास है। पिता राममोहन उस समय बारीसाल के सब- जज थे, हरीश एम.ए, परीक्षा की तैयारी करने के लिए कलकत्ता का मैस छोड़कर बारीसाल आ गया था। पड़ोसी थे हरकुमार मजूमदार--स्कूल इंस्पेक्टर। वे बड़े निरीह, निरभिमानी एवं अगाध विद्वान् थे। सरकारी काम से फुरसत पाकर एवं बैठे रहकर, कभी-कभी आकर सदर आला बहादुर की बैठक में बैठते थे। गंजे मुंसिफ, दाढ़ी मुँडे डिप्टी, बहुत मोटे सरकारी वकील, शहर के अन्य गण्यमान व्यक्तियों के दल में से संध्या के पश्चात् कोई भी प्रायः अनुपस्थित नहीं रहता। उसका कारण था--सदर स्वयं थे निष्ठावान हिंदू। अतएव आलाप-आलोचना का अधिकांश भाग होता था धर्म के संबंध में और जैसा सब जगह होता है, यहाँ भी वैसे ही अध्यात्म तत्त्व-कथा की शास्त्रीय मीमांसा का समाधान होता, खंड-युद्ध की समाप्ति में। उस दिन ऐसी ही एक लड़ाई के बीच, हरकुमार अपनी बाँस की छड़ी हाथ में लिये धीरे-धीरे आ उपस्थित हुए। इस सब युद्ध- विग्रह व्यापार में, वे किसी भी दिन कोई अंश ग्रहण नहीं करते थे। स्वयं को ब्राह्म-समाज के अंतर्गत समझने से हो अथवा शांत-मौन प्रकृति के मनुष्य होने के कारण हो, चुप रहकर सुनने के अतिरिक्त, गले पड़कर अपन मत प्रकट करने की चंचलता उनमें एक दिन भी नहीं देखी गई, परंतु आज दूसरी ही बात हुई। उनके कमरे में घुसते ही गंजे मुंसिफ बाबू उन्हीं को मध्यस्थ मान बैठे। इसका कारण यह था कि इस बार छुट्टी में कलकत्ता जाकर वे कहीं से इन महोदय के भारतीय-दर्शन के संबंध में गंभीर ज्ञान का एक जनरव सुन आए थे। हरकुमार मुसकराते हुए सहमत हो गए। थोड़ी ही देर में पता चल गया कि शास्त्रों के बंगला अनुवाद मात्र का सहारा लिए ही उनके साथ तर्क नहीं चल सकता। सब लोग प्रसन्न हुए, न हुए तो केवल सब-जज बहादुर स्वयं ही अर्थात् जो व्यक्ति जाति खो बैठा है, उसका फिर शास्त्र-ज्ञान किसलिए? और कहा भी ठीक यही! सबके उठ जाने पर, उनके परमप्रिय सरकारी वकील-बाबू आँखों का इशारा कर हँसते हुए बोले, 'सुना तो छोटे साहब, भूत के मुँह से राम-नाम और क्या!'
डिप्टी साहब ठीक सम्मति नहीं दे सके, कहा, 'कुछ भी हो, परंतु जानते खूब हैं। सब जैसे कंठस्थ है! पहले मास्टरी करते थे या नहीं।...'
हाकिम प्रसन्न नहीं हुए। बोले, “उसकी जानकारी के मुँह में आग! यही लोग होते हैं ज्ञान-पापी, इनकी कभी मुक्ति नहीं होती ।”
हरीश उस दिन चुपचाप एक ओर बैठा था। इस स्वल्पभाषी प्रौढ़ व्यक्ति के ज्ञान और पांडित्य को देखकर वह मुग्ध हो गया था। अस्तु, पिता का अभिमत चाहे जो हो, पुत्र ने अपने आगामी परीक्षा-समुद्र से मुक्ति पाने का भरोसा लिये हुए, उन्हें जाकर पकड़ लिया, सहायता करनी ही होगी। हरकुमार तैयार हो गए। यहीं उनकी कन्या लावण्य के साथ हरीश का परिचय हुआ। वह भी आई.ए. परीक्षा की पढ़ाई की तैयारी करने के लिए कलकत्ता की धमा-चौकड़ी को छोड़कर आई हुई थी। दिन से प्रतिदिन के आवागमन में हरीश ने केवल पाठ्यपुस्तकों के दुरूह अंश का अर्थ ही नहीं जाना, एक और भी जटिलतर वस्तु का स्वरूप जान लिया, जो तत्त्व की दृष्टि से बहुत बड़ा था, परंतु उस बात को अभी रहने दो! क्रमश: परीक्षा के दिन पास खिंचते आने लगे, हरीश कलकत्ता चला गया। परीक्षा उसने अच्छी तरह दी एवं अच्छी तरह पास भी की।
कुछ दिनों बाद जब फिर साक्षात्कार हुआ तो हरीश ने संवेदना से चेहरे को उदास बनाते हुए पूछा, "आप फेल हो गईं, यह तो बड़ा...।'
लावण्य ने कहा, 'इसे भी न कर सकूँ, मैं क्या इतनी अशक्त हूँ।'
हरीश हँस उठा। बोला, 'जो होना था, हो चुका! परंतु अबकी बार खूब अच्छी तरह परीक्षा देनी चाहिए।'
लावण्य तनिक भी लज्जित नहीं हुईं। बोली, 'खूब अच्छी तरह देने पर भी मैं फेल हो जाऊँगी। उसे मैं कर नहीं सकती!'
हरीश अवाक् हो गया। पूछा, “क्यों नहीं कर सकेंगी?"
लावण्य ने जवाब दिया, “क्यों फिर क्या? ऐसे ही!” यह कहकर वह हँसी रोकती हुई शीघ्रतापूर्वक चली गई।
क्रमशः बात हरीश की माँ के कानों में पहुँची।
उस दिन प्रात:काल राममोहन बाबू मुकदमे का निर्णय लिख रहे थे। जो अभागा हार गया था, उसका और कहीं भी कोई कूल-किनारा न रहे इस शुभ संकल्प को कार्य में परिणत करते हुए, निर्णय के मसविदे में छान- बीनकर शब्द-योजना कर रहे थे, पत्ती के मुख से लड़के का कांड सुनकर उनका माथा गरम हो उठा। हरीश ने मनुष्य-हत्या की है, सुनकर शायद वे इतने विचलित नहीं होते। दोनों आँखों को लाल करते हुए बोले, क्या! इतना...” इससे अधिक बात उनके मुँह से नहीं निकली।
दिनाजपुर रहते समय एक प्राचीन वकील के साथ--शिखागुच्छ, गीता-तत्त्वार्थ और पेंशन मिलने पर काशीदास की उपकारिता को लेकर दोनों का मत बहुत मिल गया था एवं मित्रता स्थापित हो गई थी। एक छुट्टी के दिन जाकर, उसी की छोटी लड़की निर्मला को फिर एक बार आँखों से देखकर, उसके साथ अपने लड़के का विवाह करने का पक्का वचन दे आए थे।
लड़की देखने में अच्छी थी, दिनाजपुर में रहते समय गृहिणी ने उसे अनेक बार देखा था, तथापि पति की बात सुनकर गाल पर हाथ रख लिया, 'कहते क्या हो जी, एक बार में ही पक्का वचन दे आए! आजकल के लड़के...।'
पति ने कहा, “परंतु मैं तो आजकल का बाप नहीं हूँ। मैं अपने पुराने जमाने के नियमानुसार ही लड़कों को भी बना सकता हूँ। हरीश की पसंद यदि न हो तो उसके लिए और उपाय हो सकता है, बताओ!
गृहिणी पति को पहचानती थी, वे चुप हो गई।
पति ने फिर कहा, 'भले घर की कन्या पंख-विहीन लड़की नहीं होती। वह यदि अपना माता के सतीत्व एवं पिता के हिंदुत्व को लेकर हमारे घर आएगी, उसी को हरीश का सौभाग्य समझना चाहिए।'
समाचार को प्रकट होने में देर न लगी। हरीश ने भी सुना। पहले उसने मन में सोचा; भागकर कलकत्ता आ पहुँचे, कुछ न जुटाने पर ट्यूशन ही करके जीविका-निर्वाह करेगा। पीछे सोचा, संन्यासी हो जाएगा। अंत में, पिता स्वर्ग; पिता धर्म: पिता हि परमं तप:--इत्यादि स्मरण करके चुप बैठ गया।
कन्या के पिता धूमधाम से वर देखने आए, एवं आशीर्वाद (सगाई) का काम भी इसी के साथ पूरा कर दिया। आयोजन में शहर के बहुत से संभ्रांत व्यक्ति भी आमंत्रित होकर आए थे। निरीह हरकुमार कुछ जाने बिना ही आए थे। उनके समक्ष रायबहादुर ने अपने भावी संबंधी मैत्र महाशय की हिंदू धर्म में प्रगाढ़ निष्ठा का परिचय दिया एवं अंग्रेजी शिक्षा में संख्यातीत दोषों का वर्णन कर बहुत प्रकार से ऐसा अभिमत प्रकट किया कि उन्हें हजार रुपये महीना नौकरी के देने के अतिरिक्त अंग्रेजों का और कोई गुण नहीं है। आजकल के दिन और ही तरह के हो गए हैं, लड़कों को अंग्रेजी पढ़ाए बिना काम नहीं चलता, परंतु जो मूर्ख इस म्लेच्छ-विद्या और म्लेच्छ-सभ्यता को हिंदुओं के पवित्र अंत:पुर की लड़कियों में खींच लाना चाहते हैं, उनका इहलोक भी खराब है, परलोक भी खराब है!
केवल हरकुमार के अतिरिक्त इसका गूढ़ार्थ किसी को अविदित नहीं रहा। उस दिन आयोजन समाप्त होने से पहले ही विवाह का दिन निश्चित हो गया एवं यथासमय शुभ-कार्य संपन्न होने में विघ्न भी नहीं पड़ा। कन्या को ससुराल भेजने से पहले मैत्र-पत्नी, निर्मला की सती-साध्वी माता ठकुरानी ने वधू-जीवन के चरम-तत्त्व को लड़की के कानों में डाल दिया। बोली, 'बेटी, पुरुष को आँखों-आँखों में न रखने पर वह हाथ से निकल जाता है। गृहस्थी करते समय और चाहे कुछ भूल जाना, पर यह बात कभी मत भूलना!'
उसके अपने पति ने चुटिया के गुच्छे और श्रीगीता के तत्त्वार्थ को लेकर उन्मत्त हो उठने से पहले तक उन्हें बहुत जलाया था। आज भी उनका दृढ विश्वास है--बूढ़े मैत्र के चिता पर शयन न करने तक उनके निश्चित होने का समय नहीं आएगा।
निर्मला पति की गृहस्थी चलाने आई एवं उसी घर को आज बीस वर्ष से चला रही है। इस सुदीर्घ काल में कितना परिवर्तन, कितना कुछ हो गया। रायबहादुर मर गए, धर्मनिष्ठ मैत्र स्वर्गवासी हो गए, पढ़ाई-लिखाई समाप्त होकर लावण्य का अन्यत्र विवाह हो गया। जूनियर वकील हरीश सीनियर हो गया, आयु भी अब यौवन पार कर प्रौढ़ता में जा पड़ी, परंतु निर्मला अपनी माता के दिए हुए मंत्र को जीवनभर नहीं भूली।
इस सजीव मंत्र की क्रिया इतनी जल्दी शुरू होगी, इसे कौन जानता था! रायबहादुर तब भी जीवित थे, पेंशन लेकर पबना के मकान में आ गए थे। हरीश के एक वकील-मित्र के यहाँ पितृ-श्राद्ध के उपलक्ष्य में कलकत्ता से एक अच्छी कीर्तनवाली आई थी। वह देखने में सुंदर और कम उमर की थी। बहुतों की इच्छा थी कि काम-काज समाप्त हो जाने पर, एक दिन अच्छी तरह उनका कीर्तन सुना जाए। दूसरे दिन हरीश को गाना सुनने का निमंत्रण मिला, सुनकर घर लौटते समय कुछ अधिक रात हो गई।
निर्मला ऊपर खुले बरामदे में, सड़क की ओर देखती हुई खड़ी थी। पति को ऊपर आते देखते ही पूछ बैठी, 'गाना कैसा लगा?'
हरीश ने प्रसन्न होकर कहा, 'अच्छा गाती है!'
देखने में कैसी है?'
“बुरी नहीं, अच्छी ही है!"
निर्मला ने कहा, “तब तो रात एकदम बिताकर ही आ जाते।"
इस अप्रत्याशित कुत्सित मंतव्य से हरीश क्रुद्ध हुआ था, आश्चर्य से अभिभूत हो गया। उसके मुँह से केवल इतना निकला, 'सो कैसे?'
निर्मला क्रुद्ध होकर बोली, 'ठीक तरह से! मैं नन्ही बच्ची नहीं हूँ, सब जानती हूँ, सब समझती हूँ, तुम मेरी आँखों में धूल डालोगे? अच्छा!'
उमा बगलवाले कमरे से दौड़ आकर भयभीत हुई बोली, 'तुम क्या कह रही हो भाभी, पिताजी सुन पाएँ तो...?'
निर्मला ने जवाब दिया, 'भले ही सुन लें! मैं तो गुपचुप बात कह ही नहीं रही हूँ।'
इस उत्तर के प्रत्युत्तर में उमा क्या कहे, सो नहीं सोच पाई; परंतु कहीं उसके उच्च स्वर से वृद्ध पिता की नींद टूट न जाए, इस भय से उसने दूसरे ही क्षण हाथ जोड़कर क्रोध को दबाए हुए गले से विनती करते हुए कहा, 'क्षमा करो भाभी, इतनी रात में चिल्लाकर और लज्जाजनक काम मत करो!'
बहू का कंठ-स्वर इससे बढ़ा ही, कम नहीं हुआ। कहा, 'किसके लिए लज्जाजनक? तुम क्यों कहोगी, ननदरानी! तुम्हारे हृदय का भीतरी भाग तो अब आग से भर ही नहीं सकता।' कहते-कहते उसने रोते हुए शीघ्रतापूर्वक कमरे में घुसकर जोर से दरवाजे बंद कर दिए।
हरीश ने कठपुतली की भाँति चुपचाप नीचे आकर शेष रात्रि मुवक्किलों के बैठने की बेंच पर सोते हुए काट दी। इसके पश्चात् दसेक दिन के लिए दोनों में वार्तालाप बंद हो गया।
परंतु हरीश को भी अब संध्या के बाद बाहर नहीं पाया जाता। बाहर जाने पर भी उसकी शंकाकुल व्याकुलता लोगों की हँसी की वस्तु हो उठती। मित्र लोग नाराज होकर कहने लगे, 'हरीश, जितने बूढ़े हो रहे हो, आसक्ति भी उतनी ही अधिक होती जा रही है, क्यों?'
हरीश अधिकांश जगहों पर उत्तर नहीं देता, केवल बहुत कुछ सोचने पर ही कहता, 'इस घृणा से यदि तुम लोग मुझे त्याग सको, तो तुम भी बचो और मैं भी बच जाऊँ।'
मित्र लोग कहते, 'व्यर्थ! व्यर्थ!'
उन्हें लज्जा दिलानेवाला अब स्वयं ही लज्जा से मरने लगा।
'उस बार पीलिया रोग से लोग बहुत अधिक मरने लगे। हरीश को भी रोग ने धर दबाया। कविराज ने आकर परीक्षा करने के उपरांत मुँह गंभीर बना लिया। कहा, 'मृत्युदायक है, बचना मुश्किल है!'
रायबहादुर तब तक परलोक जा चुके थे। हरीश की वृद्धा माता पछाड़ खाकर गिर पड़ीं। निर्मला ने घर से बाहर निकलते हुए कहा, “मैं यदि सती माता की सती कन्या हूँ, तो मेरी माँग का सिंदूर पोंछने का साहस किसमें है? तुम लोग उन्हें देखो, मैं जा रही हूँ!” कहकर वह शीतला के मंदिर में जा, हत्या देकर पड़ गई, 'वे बचेंगे तो फिर घर लौटूँगी अन्यथा यहीं रहकर उनके साथ चली जाऊँगी।'
सात दिन तक देवता के चरणामृत के अतिरिक्त कोई उसे पानी तक नहीं पिला सका।
कविराज ने आकर कहा, 'बेटी, तुम्हारे पति आरोग्य हो गए, अब तुम घर चलो।'
लोग भीड़ करके देखने आए, स्त्रियों ने पाँव की धूलि ली, उसके माथे में थोप-थोपकर सिंदूर भर दिया, 'मनुष्य तो नहीं, जैसे साक्षात् देवी हो!' वृद्धों ने कहा, “सावित्री का उपाख्यान मिथ्या है। क्या 'कलियुग में धर्म चला गया', कह देने से एकदम सोलहों आने चला गया? यम के मुख से पति को ले आई है!"
मित्र लोग लाइब्रेरी में बहस करने लगे, 'किसी साथ से ही मनुष्य स्त्री का गुलाम होता है। विवाह तो हम लोगों ने भी किया है, परंतु ऐसी स्त्री कोई नहीं होगी। अब समझ में आया कि हरीश संध्या के बाद बाहर क्यों नहीं रहता था।'
वीरेन वकील भला आदमी है। गत वर्ष छुट्टियों में काशी जाकर वह किसी संन्यासी से मंत्र ले आया है। टेबुल पर प्रचंड काराघात करता हुआ बोला, 'मैं जानता था कि हरीश नहीं मर सकेगा। वास्तव में सतीत्व नामक वस्तु क्या मामूली बात है? घर में रहने के लिए कह गई, 'यदि सती माता की सती कन्या होऊँ तो'-- ओह! शरीर सिहर उठता है।'...
तारणी चटर्जी बूढ़े हो चले हैं, अफीमखोर आदमी हैं, एक ओर बैठे हुए एकाग्रचित्त से तंबाकू पी रहे थे। हुक्के को बेयरा के हाथ में दे, निश्श्वास छोड़ते हुए बोले, 'शास्त्र के मत से सहधर्मिणी की बात कठिन है। मुझ ही को देखो न, केवल सात लड़कियाँ ही हैं। विवाह करते-करते ही कंगाल हो गया।'
बहुत दिनों बाद ठीक होकर फिर जब हरीश अदालत में आया, तब कितने लोगों ने उसका अभिनंदन किया, उसकी संख्या नहीं।
ब्रजेन्द्रबाबू ने खेदपूर्वक कहा, 'भाई हरीश, 'स्त्रैण' (स्त्री का गुलाम) कहकर तुम्हें बहुत लज्जित किया है, क्षमा करो! लाखों क्यों, करोड़ों-करोड़ों के बीच तुम्हारे जैसा भाग्यवान कोई है! तुम धन्य हो! '
भक्त वीरेन बोला, 'सीता-सावित्री की बात को न तो छोड़ दो, परंतु लीलावती-गार्गी हमारे ही देश में जन्मी थीं। भाई, स्वराज्य-फराज कुछ भी कहो, किसी तरह नहीं हो सकता, जब तक स्त्रियों को फिर उसी तरह का नहीं बना दिया जाता! मुझे तो लगता है कि शीघ्र ही पबना में एक आदर्श नारी-शिक्षा-समिति स्थापित करने की आवश्यकता है एवं जो आदर्श महिला उसकी परमानेंट (स्थायी) प्रेसीडेंट होंगी, उनका नाम तो हम सभी जानते हैं!'
वृद्ध तारिणी चटर्जी ने कहा, 'उसी के साथ एक दहेज-प्रथा-निवारिणी समिति होना भी जरूरी है, सारा देश क्षार-क्षार हो गया है।'
ब्रजेन्द्र ने कहा, 'हरीश, तुम्हारा तो बचपन में अच्छा लिखनेवाला हाथ था, तुम्हें उचित है कि तुम इस 'रिकवरी' के संबंध में एक 'आर्टिकल' लिखकर 'आनंद बाजार पत्रिका' में छपवा दो।'
हरीश किसी बात का जवाब नहीं दे सका, कृतज्ञता से उसकी दोनों आँखें छलछला आई।
मृत जमींदार गुसाईंचरण की विधवा पुत्रवधू के साथ अन्य पुत्रों का जमीँदारी के संबंध में मुकदमा छिड़ गया। हरीश था विधवा का वकील। जमींदार के लोगों में न जाने कौन किस पक्ष का हो, यह विचारकर गुप्त परामर्श करने के लिए विधवा स्वयं ही इससे पूर्व दो-एक बार वकील के घर आई थीं। आज सवेरे भी उनकी गाड़ी आकर हरीश के सदर दरवाजे पर रुकी। हरीश ने चकित होकर उन्हें अपनी बैठक में आकर बैठाया। बातचीत कहीं निजी बैठक के दूसरे कमरे में बैठे हुए मुहरिर के कानों में न जा पड़े, इस भय से दोनों ही सावधानी से धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। विधवा के किसी असंलग्न प्रश्न पर हरीश द्वारा हँसकर जबाब देने की चेष्टा करते ही बगलवाले कमरे के परदे की ओट में से अचानक एक तीक्ष्ण कंठ-स्वर आया, 'मैं सब सुन रही हूँ!'
विधवा चौंक पड़ी, हरीश लज्जा और आशंका से काठ हो गया।
एक जोड़ी अत्यंत सतर्क कान और नेत्र उस पर दिन-रात पहरा लगाए रहते हैं, यह बात वह क्षणभर के लिए भूल गया था।
परदा हटाकर निर्मला रणचंडी सी बाहर निकल आई। हाथ हिलाकर कंठ-स्वर में जहर घोलती हुई बोली, 'फुसफुसाकर बातें करके मुझे धोखा दोगे? मन में भी मत सोचना! क्यों, मैंने अपने साथ तो कभी इस तरह हँसकर बातें करते नहीं देखा!'
अभियोग बिल्कुल झूठा नहीं था।
विधवा भयभीत होकर बोली, 'यह क्या उपद्रव है हरीशबाबू!'
हरीश विमूढ़ की भाँति क्षणभर देखता रहकर बोला, 'पागल!'
निर्मला ने कहा, 'पागल! पागल ही सही, परंतु करोगे क्या, सुनूँ तो?' कहकर वह हाऊ-हाऊ करके रोती हुई, अचानक घुटने टेककर विधवा के पाँवों के पास धम्-धम् करके माथा फोड़ने लगी। मुहर्रिर काम छोड़कर दौड़ा आया, एक जूनियर वकील उसी के लिए आया था, वह आकर दरवाजे के समीप खड़ा हो गया, बोस- कंपनी का बिल भुगतान के लिए आया हुआ आदमी उसी के कंधे के ऊपर उचकने लगा एवं उन्हीं की आँखों के सामने निर्मला सिर फोड़ने लगी, 'मैं सब जानती हूँ! मैं सब समझती हूँ! रहो, तुम्हीं लोग सुखी रहो, परंतु सती माता की कन्या यदि होऊँ, यदि मन-वचन से एक के अतिरिक्त दूसरे को जानती भी होऊँ, यदि,..।'
इधर विधवा स्वयं भी रोती हुई कहने लगी, 'यह क्या तमाशा है, हरीशबाबू! यह क्या बदनामी दी जा रही है, यह क्या मेरा...।'
हरीश ने किसी बात का कोई प्रतिवाद नहीं किया। नीचा मुँह किए खड़े हुए उसके मन में होने लगा; पृथ्वी! क्यों नहीं फट जाती हो!'
लज्जा, घृणा, क्रोध से हरीश उसी कमरे में स्तब्ध होकर बैठा रहा। अदालत जाने की बात सोच भी नहीं सका। दोपहर को उमा आकर बहुत साध्य-साधना एवं सिर की शपथ देकर कुछ खिला गई। संध्या होने से पूर्व ब्राह्मण महाराज ने चाँदी की कटोरी में थोड़ा सा पानी लेकर पाँवों के पास रख दिया। हरीश को पहले तो इच्छा हुई कि लात मारकर फेंक दे, परंतु आत्मसंबरण करके आज भी पैर का अँगूठा उसमें डुबा दिया। पति का चरणामृत पान किए बिना निर्मला किसी दिन पानी भी नहीं छूती थी।
रात में बाहर के कमरे में अकेला लेटा हुआ हरीश सोच रहा था। उसके इस दुःखमय दूभर जीवन का अंत कब होगा! ऐसा बहुत दिन बहुत प्रकार से सोचा है, परंतु अपनी इस सती स्त्री के एकनिष्ठ प्रेम के दुस्सह नागपाश बंधन से मुक्ति का कोई भी मार्ग उसकी आँखों को दिखाई नहीं दिया।
दो वर्ष बीत गए। निर्मला ने खोज करके जाना है कि अखबार की खबर झूठी नहीं है, लावण्य सचमुच ही पबना के लड़कियों के स्कूल की निरीक्षिका बनकर आ रही है।
आज हरीश ने कुछ जल्दी ही अदालत से लौटकर छोटी बहन उमा को बताया कि रात ट्रेन से उसे विशेष आवश्यक काम से कलकत्ता जाना होगा, लौटने में शायद चार दिन की देर हो जाएगी। बिछौना एवं आवश्यक कपड़े-लत्ते नौकर द्वारा ठीक करवा रखने हैं।
पंद्रह दिन से पति-पत्नी में बोलचाल बंद थी।
रेलवे-स्टेशन दूर है, रात के आठ बजे ही मोटर से बाहर निकल जाना पड़ेगा। संध्या के बाद वह मुकदमे के आवश्यक कागज-पत्र हैंडबैग में रख रहा था, निर्मला ने तभी प्रवेश किया।
हरीश ने मुँह उठाकर देखा, कुछ कहा नहीं।
निर्मला ने क्षणभर मौन रहकर प्रश्न किया, 'आज कलकत्ता जा रहे हो क्या?'
हरीश ने कहा, 'हाँ! '
'क्यों?'
'क्यों, फिर क्या? मुवक्किल का काम है, हाईकोर्ट में मुकदमा है।'
'चलो न, मैं भी तुम्हारे संग चलूँगी!'
'तुम चलोगी? जाकर कहाँ ठहरोगी, सुनूँ तो?'
निर्मला ने कहा, 'जहाँ भी होगा! तुम्हारे साथ पेड़ के नीचे रहने में भी मुझे लज्जा नहीं है।'
बात अच्छी थी, एक सती स्त्री के उपयुक्त थी, परंतु हरीश के सर्वांग में जैसे कौंच की फली मल दी गई! कहा, 'तुम्हें लज्जा नहीं है, मुझे है! मैंने पेड़ के नीचे के बदले फिलहाल किसी एक मित्र के घर जाकर ठहरना निश्चित किया है।'
निर्मला बोली, 'तब तो और भी अच्छा है, उसके घर में भी स्त्री होगी, बाल-बच्चे होंगे, मुझे कोई असुविधा नहीं होगी!'
हरीश ने कहा, 'नहीं, यह नहीं होगा! किसी ने बोला नहीं, कहा नहीं, बिना बुलाए दूसरे के मकान में तुम्हें ले जाकर मैं नहीं ठहर सकूँगा।'
निर्मला बोली, 'नहीं हो सकेगा, सो जानती हूँ, मुझे साथ लेकर लावण्य के घर में तो ठहरा नहीं जा सकता!'
हरीश क्रुद्ध हो उठा। हाथ-मुँह हिलाकर चिल्लाता हुआ बोला, 'तुम जैसी घृणित हो, वैसी ही नीच भी! वह विधवा भद्र महिला है, मैं वहाँ क्यों जाऊँगा? वह भी मुझे आने के लिए क्यों कहेगी? इसके अतिरिक्त, मेरे पास समय ही कहाँ है? दूसरे के काम से कलकत्ता जाकर साँस छोड़ने की फुर्सत भी नहीं मिलेगी!'
“मिलेगी, जी मिलेगी!” कहकर निर्मला कमरे से बाहर निकल गई।
तीन दिन बाद हरीश के कलकत्ता से लौट आने पर स्त्री ने कहा, 'चार-पाँच दिन की कह गए, तीन दिन में ही लौट आए, यह तो बड़ा...।'
हरीश ने कहा, 'काम खत्म हो गया, चला आया।'
निर्मला ने जोर से हँसते हुए एक प्रश्न किया, 'लावण्य से साक्षात्कार नहीं हुआ शायद!'
हरीश ने कहा, 'नहीं!'
निर्मला ने बड़ी भली आदमिन की भाँति पूछा, 'कलकत्ता जाकर भी एक बार खबर क्यों नहीं ली?'
हरीश ने जवाब दिया, 'समय नहीं मिला।'
'इतने पास जाकर थोड़ा सा समय तो निकाला ही जा सकता था।' कहकर वह चली गई।
इसके महीनेभर बाद, एक दिन अदालत जाने के लिए बाहर निकलते समय हरीश ने बहन को बुलाकर कहा, 'आज मेरे लौटने में शायद थोड़ी रात हो जाएगी, उमा! '
'क्यों दादा?'
उमा पास ही थी, धीरे-धीरे बात हो रही थी, परंतु कंठ-स्वर को ऊँचा चढ़ाकर किसी अदृश्य को लक्ष्य करते हुए हरीश ने उत्तर दिया, 'योगिनबाबू के घर एक जरूरी परामर्श करना है, देर हो सकती है।'
लौटने में देरी हुई; रात के बारह से कम नहीं। हरीश ने मोटर से उतरकर बाहर के कमरे में प्रवेश किया। कपड़े उतारते समय सुना, स्त्री ऊपर के जंगले से ड्राइवर को बुलाकर पूछ रही है, 'अब्दुल, योगिनबाबू के मकान से आ रहे हो शायद?'
अब्दुल ने कहा, 'नहीं माईजी, स्टेशन से आए हैं।'
'स्टेशन? स्टेशन से क्यों? गाड़ी से कोई आया था शायद?'
अब्दुल ने कहा, 'कलकत्ता से एक माईजी और बच्चा आया था।'
'कलकत्ता से? बाबू उन्हें लेने गए और घर पहुँचा आए शायद?'
'हाँ' कहकर अब्दुल गाड़ी को गैरेज में ले आया।
कमरे में हरीश ओट में खड़ा रहा। ऐसी संभावना की बात उसके मन में भी नहीं आई थी, ऐसी बात नहीं है, परंतु अपने नौकर से झूठ बोलने का अनुरोध करना, उससे किसी प्रकार नहीं हो सका। रात को ही शयन-गृह में एक कुरुक्षेत्र-कांड हो गया।
दूसरे दिन सबेरे लावण्य अपने लड़के को लिए घर आ उपस्थित हुई। हरीश बाहर के कमरे में था, उससे कहा, 'मेरा आपकी स्त्री से परिचय नहीं है, चलिए, बातचीत कर लूँ!'
हरीश की छाती के भीतर उलट-पुलट होने लगी। एक बार उसने यह भी कहना चाहा कि इस समय काम की बड़ी भीड़ है, परंतु यह कारण ठीक नहीं लगा। उसे साथ ले जाकर अपनी स्त्री के साथ उसका परिचय करा देना पड़ा।
दसेक वर्ष का लड़का और लावण्य। निर्मला ने उन्हें ससम्मान ग्रहण किया। लड़के को खाने के लिए दिया एवं उसकी माँ को आसन बिछाकर बलपूर्वक बैठाया। कहा, 'मेरा सौभाग्य है, जो आपके दर्शन पाए!'
लावण्य इसका उत्तर देती हुई बोली, 'हरीशबाबू के मुँह से सुना था, आपने क्रमश: वार-व्रत और उपवास कर-करके शरीर को नष्ट कर डाला हैं। इस समय भी तो अधिक अच्छा नहीं दिखता।'
निर्मला हँसती हुई बोली, 'यह सब प्रशंसा करने की बातें हैं, परंतु यह सब उन्होंने कब कहा?' हरीश उस समय भी पास ही खड़ा था, वह एकदम विवर्ण हो उठा।
लावण्य ने कहा, 'इसी बार कलकत्ता में। खाने बैठे तो केवल आपकी ही बात! उनके मित्र कुशलबाबू के मकान से हम लोगों का मकान बहुत पास ही है न, छत के ऊपर से जोर से पुकारने पर भी सुनाई पड़ता है।...'
निर्मला बोली, 'खूब सुविधा से?'
लावण्य हँसकर बोली, 'किंतु केवल उसी से काम नहीं चलता था; लड़के को भेज, बाकायदा पकड़वाकर बुलाया जाता था।'
'अच्छा?'
लावण्य बोली, 'फिर जातीय कट्टरता भी नहीं छोड़ते-ब्राह्मों का स्पर्श किया हुआ खाते नहीं थे, मेरी बुआ के हाथ तक का नहीं। सबकुछ मुझे स्वयं बनाकर परोसना पड़ता था।' यह कहकर वह हँसती हुई कौतुक सहित हरीश की ओर देखती हुई बोली, 'अच्छा, इसमें आपको क्या लज्जा थी, कहिए तो? मैंने क्या ब्राह्म- समाज छोड़ दिया है!'
हरीश का सर्वांग थरथराने लगा, उसकी मिथ्यावादिता प्रमाणित हो जाने से उसके मन में हुआ--इतने दिन तक माँ वसुमती (पृथ्वी) ने कृपा करके शायद उसे पेट में रख छोड़ा था, परंतु अत्यंत आश्चर्य यह था कि निर्मला आज भयंकर उन्मादपूर्ण कोई कांड न करके स्थिर बैठी रही। संशय की वस्तु ने निर्विरोध सत्य के रूप में दिखाई देकर शायद उसे हतचेतन कर डाला था।
हरीश बाहर जाकर स्तब्ध, पीले पड़े मुँह से बैठा रहा। इस भीषण संभावना की बात स्मरणकर लावण्य को पहले से ही सतर्क कर देने की बात बहुत बार उसके मन में आई थी, परंतु आत्माभिमान हो या केवल मर्यादाहीन चोरी-छिपे का प्रभाव, किसी प्रकार भी इस शिक्षित और भद्र महिला के सामने वह कुछ कह नहीं सका था।
लावण्य के चले जाने पर निर्मला आँधी की भाँति कमरे में घुसती हुई बोली, 'छिह तुम झूठे हो! इतनी झूठी बातें कहते हो!'
हरीश आँखें लाल कर उछल पड़ा, 'खूब कहा! मेरी खुशी!'
निर्मला क्षणभर पति के मुँह की ओर चुपचाप देखती-देखती अचानक रो पड़ी; बोली, 'कहो, जितनी इच्छा हो झूठ कहो, जितनी खुशी हो मुझे ठगो, परंतु धर्म यदि है, यदि मैं सती माता की लड़की होऊँ, यदि शरीर और मन से सती होऊँ, तो मेरे लिए तुम्हें एक दिन रोना होगा, होगा!' कहकर वह जैसे आई थी अनबोल वैसे ही द्रुतवेग से बाहर निकल गई।
वार्त्तालाप पहले से ही बंद चल रहा था, जब अनबोल पक्का हो गया--नीचे के घर में ही सोना और खाना। हरीश अदालत जाता-आता बाहर के कमरे में अकेला बैठा रहता, नई कोई बात नहीं। पहले संध्या के समय एकाध बार क्लब में बैठता, अब वह भी बंद हो गया। कारण, शहर के उसी ओर लावण्य रहती थी। उसके मन को लगता--पति-प्राण पत्नी की दोनों आँखें, दस आँखें बनकर दसों दिशाओं में पति का हर समय निरीक्षण करती रहती हैं, वे कभी विराम नहीं लेतीं, विश्राम नहीं करतीं, मध्याकर्षण के न्याय से वे परे हैं। स्नान के पश्चात् दर्पण की ओर देखकर उसके मन को लगता--सती-साध्वी की इस अक्षय प्रेमाग्नि से उसके कलुषित शरीर के नश्वर मेद-मज्जा-मांस-शुष्क और निष्पाप होकर अत्यंत द्रुत--उच्चतर लोक में जले जाने के लिए तैयार हो रहे हैं। उसकी अलमारी में एक कालीसिंह की महाभारत थी। जब समय नहीं कटता, तब वह बैठा-बैठा सती स्त्रियों के उपाख्यान पढ़ा करता। कैसा है उनका प्रचंड पराक्रम और कैसी हैं इनकी अद्भुत कहानी। पति पापी-तापी जो भी हो, मात्र पत्नी के सतीत्व के बल पर ही समस्त पापों से मुक्त होकर, अंत में कल्पभर वे दोनों इकट्ठे रहते हैं--कल्प कितना बड़ा होता है, इसे हरीश नहीं जानता; परंतु लगता है कि वह कम नहीं होता एवं ऋषियों-मुनियों द्वारा लिखित शास्त्र के वाक्य भी मिथ्या नहीं होते, यह बात सोचकर उनका स्वाँग विवश हो उठता। परलोक के भरोसे को जलांजलि देकर वह बिछौने पर लेटा हुआ बीच-बीच में इहलोक की भावना को सोचता, परंतु कोई मार्ग नहीं। अंग्रेज होने पर, मामला-मुकदमा चलाकर अब तक जो भी होता, कुछ रफा-दफा कर डालता। मुसलमान होने पर वह तलाक देकर बहुत पहले ही तय कर डालता, परंतु वह बेचारा है निरीह, एक पत्नीव्रती भद्र बंगाली--नहीं, कोई उपाय नहीं। अंग्रेजी शिक्षा से बहुविवाह नष्ट हो गए, विशेषकर निर्मला, जिसका चंद्र-सूर्य भी मुँह नहीं देख पाते, बहुत बड़े शत्रु भी जिसे बिंदु-मात्र कलंक नहीं लगा सकते, वस्तुत: पति से भिन्न जिसका ज्ञान-ध्यान ही नहीं है, उसी का परित्याग! बाप रे, निर्मल निष्कलुष हिंदू-समाज में क्या वह फिर मुँह दिखा सकेगा? समाज के लोग खों-खों करके शायद उसे खा ही डालेंगे।
सोचते-सोचते आँख-कान गरम हो उठते, बिछौना छोड़कर मस्तक और मुँह पर पानी डालकर शेष रात्रि भी उसी कुर्सी पर बैठकर काट दी। इसी तरह शायद एक महीने से अधिक समय निकल गया। हरीश अदालत जाने को बाहर निकल रहा था, दासी ने आकर एक चिट्ठी उसके हाथ में दी, कहा, 'जवाब के लिए आदमी खड़ा हुआ हैं।'
लिफाफा खुला हुआ था, ऊपर लावण्य के हस्ताक्षर थे। हरीश ने पूछा, 'मेरी चिट्ठी किसने खोली?'
दासी ने कहा, 'माताजी ने!
हरीश ने चिट्ठी पढ़कर देखी, लावण्य ने बहुत दुःखी होकर लिखा है, 'उस दिन मेरी बीमारी आँखों से देख जाकर भी, फिर एक बार भी खबर नहीं ली कि मैं मर गई या जीवित हूँ, जबकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि इस विदेश में, आपको छोड़कर मेरा अपना व्यक्ति कोई भी नहीं है। जो भी हो, इस यात्रा में मैं मरी नहीं, बच गई हूँ! परंतु यह चिट्ठी उसकी नालिश के लिए नहीं है। आज मेरे लड़के की जन्मतिथि है, अदालत से लौटते समय एक बार आकर उसे आशीर्वाद दे जाएँ यही माँगती हूँ--लावण्य!'
पत्र के अंत में 'पुनश्च' लिखकर जताया था कि रात्रि का भोजन आज यहीं करना होगा। थोड़ा सा गाने- बजाने का भी आयोजन है।
चिट्ठी पढ़कर शायद वह क्षण भर के लिए उदास हो गया। अचानक आँख उठाते ही देखा, दासी ने हँसी छिपाने के लिए मुँह नीचा कर लिया है अर्थात् घर के दास-दासियों के लिए भी जैसे एक तमाशे की बात बन गई है। क्षण भर में उसकी शिराओं का खून खौल उठा--क्या इसकी सीमा नहीं है? जितना ही सहता हूँ, उतनी ही क्या सताने की मात्रा बढ़ती चली जा रही है?
पूछा, 'चिट्ठी कौन लाया है?'
'उसके घर की दासी।'
हरीश ने कहा, 'उससे कह दो कि मैं अदालत से लौटकर आऊँगा।' कहकर वह वीर-दर्प से मोटर में जा बैठा।
उस रात घर लौटते हुए हरीश को वास्तव में बहुत अबेर हो गई। गाड़ी से नीचे उतरते ही देखा--उसके ऊपर के सोने के कमरे के खुले हुए जंगले के पास निर्मला पत्थर की मूर्ति के समान स्तब्ध खड़ी हुई है।
डॉक्टरों के दल ने थोड़ी देर पहले ही विदा लो थी। पारिवारिक चिकित्सक वृद्ध ज्ञानबाबू जाते समय कह गए, 'शायद सब अफीम बाहर निकाल दी गई है। बहू के बचने में अब कोई शंका नहीं है।'
हरीश ने थोड़ी सी गरदन झुकाकर जो भाव प्रकट किए, वृद्ध ने उन पर ध्यान नहीं दिया; कहा, 'जो होना था, हो गया! अब पास-पास रहकर दो-चार दिन सावधानी रखने से विपत्ति दूर हो जाएगी।' 'जो आज्ञा', कहकर हरीश स्थिर होकर बैठ गया।
उस दिन बार-लाइब्रेरी के कमरे में बातचीत अत्यंत तीक्ष्ण और कठोर हो उठी। भक्त बीरेन ने कहा, ' मेरे गुरुदेव स्वामीजी ने कहा था, मनुष्य का कभी विश्वास मत करो। उस दिन गुसाईं बाबू की विधवा पुत्रवधू के संबंध में जो कांड प्रकट हो गया था, तुम लोगों ने तो विश्वास ही नहीं किया, बोले, 'हरीश ऐसा काम नहीं कर सकता!' अब देख लिया? गुरुदेव की कृपा से मैं ऐसी बहुत सी बातें जान सकता हूँ, जिनका तुम्हें सपना भी नहीं होता।'
ब्रजेन्द्र बोला, 'ओह! हरीश कितना धूर्त है! कैसी सती-साध्वी स्त्री है उसकी, फिर भी संसार का मजा देखता है। क्या केवल बदमाशों के ही भाग्य से ऐसी स्त्रियाँ मिलती हैं?'...
वृद्ध तारिणी चटर्जी हुक्का लिए गुड़गुड़ा रहे थे। बोले, 'निस्संदेह, मेरे तो सिर के बाल पक गए, परंतु “करैक्टर' (चरित्र) पर कभी कोई एक 'स्पॉट' (धब्बा) तक नहीं दे सका। फिर मेरे हुई सात-सात लड़कियाँ ब्याह करते-करते दिवालिया हो गया।'
योगिनबाबू ने कहा, 'हम लोगों की लड़कियों के स्कूल की निरीक्षिका लावण्यप्रभा ने महिलाओं को एक बार में ही अपना आदर्श दिखा दिया! अब तो गवर्नमेंट को 'मूव' करना ही उचित है।'
भक्त वीरेन बोला, “एब्सोल्यूट्ली नेसेसरी! (निश्चित रूप से आवश्यक है)।'
पूरा एक दिन भी नहीं बीत पाया, सती-साध्वी के पति हरीश के चरित्र को जाने बिना कोई भी बाकी नहीं रहा एवं मित्रवर्ग की कृपा से सब बातें उनके कान में भी आ पहुँचीं।
उमा ने आकर आँखें पोंछते हुए कहा, 'दादा, तुम दुबारा विवाह कर लो! '
हरीश ने कहा, 'पगली!'
उमा ने कहा, 'पगली क्यों! हमारे देश में तो पुरुषों के लिए बहु-विवाह था।'
हरीश ने कहा, 'तब हम लोग बर्बर और जंगली थे।'
उमा जिद करती हुई बोली, 'बर्बर किसलिए? तुम्हारे दु:ख को और कोई नहीं जानता, पर मैं तो जानती हूँ। संपूर्ण जीवन क्या इसी तरह व्यर्थ चला जाएगा?'
हरीश ने कहा, “उपाय कया है, बहन? स्त्री त्यागकर फिर विवाह कर लेने की व्यवस्था पुरुषों के लिए है, सो जानता हूँ; परंतु लड़कियों के लिए तो नहीं है। तेरी भाभी भी यदि इसी रास्ते को अपना सकती, तो मैं तेरी बात मान लेता, उमा!'
'तुम जाने क्या कहते हो दादा!' कहकर उमा नाराज होकर चली गई। हरीश चुप होकर अकेला बैठा रहा। उसके उपायहीन, अंधकारमय हृदय-तल में से केवल एक बात बार-बार उठने लगी, 'रास्ता नहीं है! कोई रास्ता नहीं है!' इस आनंदहीन जीवन में दुःख ही ध्रुव निश्चित बन गया है।
उसके बैठने के कमरे में तब संध्या की छाया गहन होती चली आ रही थी। अचानक उसे सुनाई पड़ा, पास के मकान के दरवाजे पर खड़ा हुआ वैष्णवी-भिखारियों का दल, कीर्तन के स्वर में दूती का विलाप गा रहा है -दूती मथुरा में आकर ब्रजनाथ की हृदय-हीन निष्ठुरता की कहानी रो-रोकर सुना रही है। उस समय उस अभियोग का क्या उत्तर दूती को मिला, सो नहीं जानता; परंतु यहाँ वह ब्रजनाथ के पक्ष में बिना पैसे का वकील बनकर खड़ा हो, तर्क-पर-तर्क एकत्रित कर मन-ही-मन कहने लगा, 'अरी दूती, नारी का एकनिष्ठ प्रेम बहुत अच्छी वस्तु है--संसार में उसकी तुलना नहीं, परंतु तुम तो सब बात समझोगी नहीं; कहीं भी नहीं है, परंतु मैं जानता हूँ कि ब्रजनाथ किसके भय से भाग गए एवं इक्कीस वर्ष तक फिर क्यों उधर देखा भी नहीं! कंस-टंस की बातें सब झूठी हैं--असली बात श्रीराधा का यही एकनिष्ठ प्रेम है।' थोड़ा सा रुककर कहने लगा, 'तब उस समय तो बहुत सुविधा थी कि मथुरा में छिपकर रहा जा सकता था! परंतु इस समय बड़ी कठिनाई है--न कहीं भागने की जगह, न कहीं मुँह छिपाने का स्थान! अब यदि भुक्तभोगी बज्रनाथ दया करके अपने शरणागत को तनिक जल्दी ही अपने चरणों में स्थान दे दें, तो वह बच जाए!'...
Hindi Kahani
Sarat Chandra Chattopadhyay
- asked 3 years ago
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