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दर्शन शास्त्र क रहस्य ( Darshan shastrak mahatv ) - खट्टर ककाक तरंग - हरिमोहन झा |

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दर्शन शास्त्र क रहस्य

(खट्टर ककाक तरंग)

लेखक : हरिमोहन झा
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खट्टर कका भाङक नशा में बुत्त रहथि । हमरा हाथ में ग्रन्थ देखि पुछलन्हि- ई की थिकौह ?

हम कहलिऎन्ह - दर्शन शास्त्र ।

खट्टर कका मुस्कुरा उठलाह । बजलाह - आब तोरा पर बतहपन सवार भेलौह अछि ?

हम कहलिऎन्ह - खट्टर कका, दर्शनकार कैं अहाँ बताह कऽ कऽ बुझैत छिऎन्ह ?

खट्टर कका बजलाह – हमहीं किऎक ? संसारे बुझैत छैन्ह । हिनका लोकनिक बुद्धिए विलक्षण होइ छैन्ह । घृताधारं पात्रं वा पात्राधारं घृतम् ?

हम - खट्टर कका, कपिल कणाद गौतम आदि

खट्टर कका बजलाह – हौ, ओहो लोकनि अधिकतर हमरे जकाँ फरठिया ब्राह्मण छलाह ! फटक नाथ गिरधारी, जिनका लोटा ने थारी । अभाव क जते क हुनका लोकनि कैं भेलैन्ह ततेक ककरो हैब कठिन छैक । तैं एतेक रासे दुःख क वर्णन कऽ गेल छथि ।

हमरा चुप्प देखि खट्टर कका कहय लगलाह – हौ, असल में बुझह त हुनका लोकनि कैं बड्ड कष्ट होइ छलैन्ह । जाड़ में मृग छाला पर कठुआ कऽ सूतथि। गर्मी में घामे पसीने तर भऽ जाथि। स्वाइत तितिक्षा क अभ्यास पर एतेक जोर दऽ गेल छथि ! उपाये की रहैन्ह ! वर्षा में कुटी चुबैन्ह । साँप गोजर पैसि जाइन्ह । बहराथि त पैर में कुश-पाथर गड़ैन्ह । गाछे गाछ फल ताकथि । बानर सॅं बचैन्ह त फलाहार नहिं त निराहार ! पेट खलि कऽ पीठ में सटि जाइन्ह। ताहि पर बाघ-सिंहक भय ! निशाचरक उपद्रव ! हुनका लोकनिक दुःखक ओर-छोर नहिं रहैन्ह । तखन यदि सर्व दुःखम नहिं कहितथि त की कहितथि ? ओहन पृष्टभूमि में दुःखबाद नहिं बहराइत त की बहराइत ? ओ लोकनि तेहन उदासीक सुर उठौलन्हि जे एखन धरि एहि देशक लोक विरहा गवैत अछि । ई बूझह त हुनके लोकनिक कलपना पड़ल छैक ।

हम - परन्तु ओ लोकनि जे एतेक रासे द्रव्यगुण क विवेचना कऽ गेल छथि ? खट्टर कका बजलाह – हौ, ओहो लोकनि जनै छलाह जे सभ पदार्थ क मूल थीक द्रव्य। गुणी लोकनि धनवानेक आश्रित रहैत एलाह अछि। तैं 'द्रव्याश्रितो गुणः '। सभटा कार्य द्रव्येक बल पर होइ छैक । तैं द्रव्याश्रितं कर्म । ई लोकनि द्रव्य क हेतु खेखनियां कटैत छलाह । कामिनी-कांचन विना जी खङष्टल रहै छलैन्ह । तैं एही दूनू पर सभ सॅं अधिक चोट कैने छथि । आन लोक केवल सुत्र पढैत छैन्ह, हम भितरिया मनोविज्ञान पढैत छिऎन्ह ।

हम - परन्तु ओ लोकनि कर्मफल ओ पूर्वजन्म क जे एतेक विचार कैने छथि?

खट्टर कका बजलाह – हौ, धनवान कैं भोग करैत देखि छाती नहिं फाटि जाय, तैं पूर्वजन्म क कल्पना कैने छथि । "ओ नीक कर्म कैने छल तैं हलुआ खा रहल अछि, हम अधलाह कर्म कैने छलहुंँ, तै अल्हुआ खा रहल छी। आगाँ नीक कर्म करब त हमरो हलुआ भेटि जायत ।" ई सभ मन मोदक थिकैक । परन्तु जनता-जनार्दन कैं एहि सॅं बहुत आश्वासन भेटय लगलैन्ह, तैं ई दर्शन जाल अमरलत्ती जकाँ पसरि गेल ।

हम - परंच एतेक रासे ब्रह्मज्ञान ओ वैराग्य

खट्टर कका बजलाह – हौ, दरिद्र ब्राह्मण कैं जखन धनाढ्य कैं देखि संताप होइन्ह त ब्रह्म वा भूमा क कल्पना सॅं संतोष कऽ लेथि जे ओकरो बाढि केओ छैक । अपन हीनताक अनुभव होइन्ह त सोऽहम् (हमहूँ वैह थिकहुँ) जपय लागि जाथि । यदि कोनो दुख होइन्ह त श्लोक बनाबथि जे दुःख-सुख दूहू मिथ्या थीक । कतहु स्वाभिमान पर ठेस लगैन्ह त वीरराग क लक्षण गढय लागथि ।

हम- खट्टर कका, महर्षि लोकनि कैं दिव्य दृष्टि रहैन्ह तैं ने वेदान्तक उत्पत्ति भेल ।

खट्टर कक बिहुँसैत बजलाह – हुनका लोकनि कैं मंद दृष्टि रहैन्ह, तैं वेदान्तक उत्पत्ति भेल ।

हम – अहाँ कैं त सभ बात में हँसिए रहैत अछि ।

ख० – हौ, हँसी नहिंं करैत छिऔह । वृद्ध ऋषि लोकनि अन्हरोखे उठि जंगल-मैदान जाइ छलाह । बाट में जौर वा जुन्ना देखि साँपक भ्रम भऽ जाइन्ह। ताहि अनुभव सॅं बुझलन्हि जे सम्पूर्ण संसारे भ्रम थिक । 'रज्जौ यथाहेर्भ्रमः'। हुनका लोकनिक दृष्टिदोषें अथवा हमरा लोकनिक अदृष्ट दोषें वैह अदर्शन एहि ठामक दर्शन बनि गेल । वैह भ्रम एखन धरि वेदान्त क नाम सॅं सभ्रम पाबि रहल अछि ।

हम - खट्टर कका, अहाँ जे न सिद्ध कऽ दी ! कहाँ रस्सी, कहाँ दर्शनशास्त्र !

खट्टर कका – हौ, दूनू में घनिष्ट सम्बन्ध छैक । रस्सिए देखि कऽ सांख्यबला त्रिगुण क कल्पना कैने छथि , तार्किक लोकनि उभयतः पाशा रज्जु बनौने छथि , आस्तिक लोकनि कर्मबन्धन क जाल रचने छथि

हम – त कि कर्महुक सिद्धान्त मन गढन्ते छैक ?

खट्टर कका – हौ, सामाजिक परिस्थितिए क अनुसार दर्शन बनैत छैक, एहि कृषि प्रधान देश में रोपनी ओ कटनी देखि कर्मफल क सिद्धान्त निर्मित भेल । ई सभ कल्पना खेतीक अनुभव पर आधारित छैक । तहिना कुम्हार कैं देखि ब्रह्मांड कुलाल (सृष्टिकर्त्ता) क कल्पना कैल गेल। घुमैत चाक कैं देखि भवचक्र क कल्पना कैल गेल । लोहारक निहाइ देखि कूटस्थ ब्रह्म क कल्पना भेल । कोनो ठग्गिन युवति कैं देखि माया क कल्पना भेल ।

हम - परन्तु उपनिषद् में जे एहन गूढ तत्व भरल छैक ?

खट्टर कका - सभ तत्वक सार यैह जे संसार में दुःखे दुःख छैक, तैं संसार छोड़ि दे। हौ, एकटा रहथि निरसन पाठक । हुनका दूध नहिं पचैन्ह त बथनिया सभ कैं कहने भेल फिरथिन्ह जे 'मालजाल जवाल थीक, छान पगहा फोलि कऽ भगा।' आमाशय उखड़ैन्ह त मिरचाइ कैं गारि पढय लागथि । एक बेर कोआ दुःख देलकैन्ह त कटहर क गाछे काटय लगलाह । हमरा त बुझि पड़ै अछि जे उपनिषद बला ऋषि लोकनि निरसन पाठकक प्रपितामह छलाह ।

हम – खट्टर कका, ओ लोकनि संसार कैं असार बूझि निवृत्तिमार्ग क उपदेश कैने छथि ।

खट्टर कका – हौ, कोनो वस्तुक तत्व ओहि में प्रवेश कैला सॅं भेटैत छैक । यदि कोनो वर कोबर क राति में शीर्षासन लगा लेथि त की अनुभव हैतैन्ह जे सार क बहिन में सार होइ छैक ! हौ, जहिना बिकौआ सभ पर्याप्त विदाइ नहिं भेटने सासुर सॅं रुसैत छलाह , तहिना ई लोकनि संसार सॅं रुसैत छलाह ।

हम – हुनका लोकनि कैं अनुभव भऽ गेलैन्ह जे संसार में केवल क्षणिक आनन्द .........

खट्टर कका – हौ, क्षणिक आनन्द कैं तुच्छ किऎक बुझैत छहौक ? राबड़ी, रसगुल्ला, सभ में त क्षणिके आनन्द छैक । तखन की सभ मधुर कैं गंगा में विसर्जन कऽ देबक चाही? एखन तोरा लघी लागल छौह। लघी कैने क्षणिक आनन्द भेटतौह। तैं की लघी केनाइ छोड़ि देबह ?

हम - खट्टर कका, हुनका लोकनि कैं बोध भऽ गेलैन्ह जे संसार में स्थायी तत्व नहिं, तैं हेय थीक ।

खट्टर कका- फेर वैह बात ? हौ, हम पुछैत छिऔह जे कोन वस्तु में स्थायी तत्व छैक? लोक खाइ अछि,पिबै अछि, से मलमूत्र में परिणत भऽ जाइ छैक। माखन मिश्री सॅं पोसल शरीर चिता पर भस्म भऽ जाइ छैक । तखन त भोजन-छाजन देह-हाथ, सभ हेय थीक ? रोगग्रस्त भेला उत्तर दबाइ करबाक प्रयोजन नहिं ? केओ भूखे पियासे मरथि त मरय दिऎन्ह ?

हम – हुनका लोकनिक कथ्य ई जे समस्त सांसारिक सुख में दुःख मिश्रित रहै छैक, तैं ओ त्याज्य ।

खट्टर कका डॅंटैत बजलाह - फेर वैह मूर्खता ! हौ, तोरा नाक पर माछी बैसतौह त कि नाके काटि कऽ फेकि देबह? माछ खैबा काल काँट छोड़ाबय पड़ैत अछि त की कंठी बान्हि ली ? नित्य कोनो ने कोनो पाहुँन पहुँचिए जाइ छथि त कि भानस छोड़ि दी ? भाङ रगड़बा में परिश्रम पड़ैत अछि त कि ठंढइ पिनाइ छोड़ि दी ? लिखबो त हाथ दुखाइते छैक , तखन ऋषि लोकनि सूत्र किएक रचैत छलाह ?

हम - खट्टर कका ओ लोकनि ब्रह्मोपासना में लीन रहैत छलाह ।

खट्टर कका भभा कऽ हॅंसि पड़लाह । बजलाह – हौ, बताह ! ब्रह्मोपासना क अर्थ आत्मोपासना । 'अयमात्मा ब्रह्म' । एकर अर्थ जे यैह आत्मा ब्रह्म थिकाह! ‘एकोऽहं द्वितियो नास्ति'। एकर अभिप्राय जे अपना सॅं अतिरिक्त केओ दोसर नहिं, अर्थात् अनका एको पाइ मोजर नहिं करक चाही । 'सर्व ब्रह्ममयंजगत्' । एकर तात्पर्य जे सर्वमात्ममयं जगत् - “अर्थात अपने आत्मा वा स्वार्थ लऽ कऽ ई संसार छैक।" याज्ञवल्क्य यैह रहस्य अपना स्त्री कैं बुझौने छथि जे स्त्री, पुत्र धन धान्य देवता- सभ किछु अपने खातिर प्रिय होइ छैक ।(वृ०-२/४/१-१४) हम यैह बात सोझ भाषा में तोरा काकी कैं कहै छिऎन्ह त नास्तिक कहबैत छी। ओ संस्कृत में बाजि गेलाह त वेदवाक्य भऽ गेल ।

हम - खट्टर कका, अहाँ वेद क निन्दा करै छिऎक ?

खट्टर कका सरौता सॅं सुपारीक कतरा करैत बजलाह - हम की करबैक ? स्वयं वेदे में वेद क निन्दा छैक । ॠग्वेद वेदपाठ करय करयवला कैं ढाबुस सॅं उपमा दैत छैन्ह ।(ॠ०७/१०३) उपनिषद कुकुरक झुंड सॅं ।(छाँ०१/१२)

हम- ऎं ! तखन वेद-वेदान्तक प्रति लोक कैं निष्ठा कोना हेतैक ?

खट्टर कका – हौ जी, बूझह त वेद-वेदान्त, दूनू तेहने। सभ में स्वार्थेक पूजा चलैत छैक । वेदबला सोझसोझ कहै छथि - यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः ।

वेदान्तवला पालिश चढा दैत छथिन्ह - अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे । एकर तात्पर्य ई जे छागर कटबा में दोष नहिं । देखै छह नहिं, खस्सी-बकरी कैं खास कऽ 'अज' नाम देल गेल छैक । वेद वला अनेक देवताक पूजा करैत छलाह । वेदान्त बला सभ सॅं बड़का देवता आत्मा (अपना) कैं बूझय लगलाह। वेद में जे स्वार्थवाद छलैक तकरा ई लोकनि'अन्त'पर अर्थात पराकाष्ठा पर पहुँचा देलन्हि। हम त' वेदान्त' क यैह अर्थ बुझैत छी।

हम - परन्तु वेदान्त में त सत् चित् आनन्द........

खट्टर कका - सत् चित् आनन्द नहि, सुत चित, आनन्द बूझह । यदि सभ लोक वेदान्त पर चलय लागि जाय तऽ संसार व्यभिचारशाला बनि जाय ।

हम - से कोना, खट्टर कका ?

खट्टर कका – हौ, जखन 'स्व' और 'पर' मे कोनो भेदे नहिं, तखन स्वपुरुष और परपुरुष में अन्तर की ? वेदान्त में त परपुरुष और परब्रह्म एक्के थिकाह । यदि सभ स्त्रीगण वेदान्तनी बनि जाय त केहेन भारी अनर्थ हो !

हमरा मुँह तकैत देखि खट्टर कका बजलाह – हौ, बूझह त प्रत्येक दर्शनक मूल में भोग-भावना छैक । न्याये लैह। गौतम कैं अहल्या सन नारी भेटलथिन्ह । बस, लिंग ओ व्यभिचार क वर्णन सॅं अपना दर्शन कैं भरि देलन्हि । कपिल कैं तेहनो नारी नहिं भेटलैन्ह तखन प्रकृतिनटी क कल्पना कय द्वैतवादक सीख पुरौलन्हि । संन्यासी शंकराचार्य कैं अद्वैतवादो में माया क बिना काजनहिं चललैन्ह । हौ, यदि हिनका लोकनि कैं नीक जकाँ विवाह-द्विरागमन होइतैन्ह त एना किऎक छिछिऎतथि ? वियोग सॅं योग क प्रादुर्भाव होइ छैक । कामक बाट बन्द भेने निष्काम क मार्ग सुझैत छैक । रति क द्वार अवरुद्ध भऽ गेने आत्मरति कऽ द्वार फुजैत छैक । अभावे शालिचूर्णं वा - ई सनातन नियम थिकैक ।

हम- परन्तु योग दर्शन मे एतेक यम-नियम-आसनक विधान छैक ?

खट्टर कका – हौ, छुच्छ 'यम' त यम क सहोदर थीक । असल में बूझह त योगसूत्र ओ कामसूत्र दूनू मसियौते । चौरासी भोगासन क नकल पर चौरासी योगासन बनल अछि । सुरत योग क अनुकरण पर समाधियोग क कल्पना भेल अछि। परन्तु जकरा असली घृत भेटतैक से डालडा पाछाँ किऎक दौरत ? जकरा पद्मिनी छैक से पद्मासन किऎक लगाओत? जकरा कामिनी क अष्टांग प्राप्त छैक से योग क अष्टांगमार्ग कैं साष्टांग किऎक नहिं करतैन्ह ? पतंजलि कैं तिलांज लि किऎक नहि देतैन्ह ? जकरा बिल्वस्तनी छैक से बेलपात कोन दुःखै खोंट त ? यदि सा वनिता हृदये मिलिता क्व जपः क्व तपः क्व समाधिविधिः !

हम -- खट्टर कका , सांख्य दर्शन में देखियौक, केहन सूक्ष्म विवेचन भरल छैक ?

खट्टर कका - देखाबह ।

हम - सत्कार्यवाद लियऽ । कतेक तथ्यपूर्ण छैक ?

खट्टर कका – हौ जी, हम छी स्थूलबुद्धि लोक । कनेक फरिछा कऽ कहक ।

हम - खट्टर कका, अहाँ त सभटा जनितहि छी । सत्कार्यवाद क अर्थ जे कोनो कार्यक उत्पत्ति नहिं होइ छैक ।

खट्टर कका - तखन तोहर उत्पत्ति कोना भेलौह ?

हम - आशय ई जे प्रत्येक कार्य पूर्वहि सॅं कारण में विद्यमान रहैत अछि ।

खट्टर कका - तखन त गर्भाधान सॅं पहिनहि गर्भ रहैत छैक ?

हम - खट्टर कका, अहाँ त तेहन ठाँइपटाका कहि दैत छिऎक जे लो क मुँहे बन्द कऽ दैत छिऎक ।

खट्टर कका – हौ , एही खातिर त हम बदनाम छी । हमरा अनटोटल गप्प नहिं सोहाइत अछि ।

हम - खट्टर कका, सांख्य क पुरुष.......

खट्टर कका – हौ, सांख्य क पुरुष क नाम नहिं लैह । हमरा त तेहन तामस चढैत अछि जे कसि कऽ एक भंगघोटना लगाबी ।

हम - से किऎक , खट्टर कका ?

खट्टर कका उत्तेजित होइत बजलाह – हौ, प्रकृति नाच करौ, क्रीड़ा करौ, सभ किछु करौ , और पुरुष चुपचाप पड़ल टुकुर-टुकुर तकैत रहथु । एहनो पुरुष कतहु पुरुष कहाबय ! माउगि ने मरद बलिगोबिना ! सांख्यक पुरुष सन नपुंसक संसार में कतहु नहिं भेटतौह । यदि समस्त भारतवासी ओहने पुरुष बनि जाथि त देश क की हाल हो !

हम - परन्तु सांख्य में प्रकृति क अर्थ त स्त्री नहिं छैक ?

खट्टर कका – हौ, हमरा त सांख्य क प्रकृति और स्त्री , दूनू एक्के बुझि पड़ैत अछि। दुहू सृष्टिकर्त्री, दुहू पुरुष कैं रिझैबा में प्रवीण, दुहू अनादि काल सॅं पुरुष कैं आकर्षण-पाश में बन्हने । पुरुषक संयोग भेने दुहूक साम्यावस्था भंग भऽ जाइ छैन्ह ।

हम - परन्तु प्रकृति त त्रिगुणात्मिका होइ छथि । सत्व, रज, तम.....

खट्टर कका – ई तीनू गुण स्त्रीओ में रहैत छैन्ह । प्रेम में सत्वगुण, कलह में रजोगुण ओ रुसबा में तमोगुण प्रकट होइ छैन्ह । नारीक नेत्रो मे तीन गुण छैन्ह- अमीय हलाहल मदभरे, श्वेत श्याम रतनार । श्वेत सत्वगुण , श्याम तमोगुण , लाल रजोगुण । नारी क ई तीनू गुण - अमृत तत्व, विषतत्व ओ मदतत्व, समय-समय पर हर्ष , विषाद ओ मोह उत्पन्न करैत अछि यैह त्रिगुणात्मिका प्रकृति क रहस्य थिकैक । बुझलहौक ?

हम - धन्य छी खट्टर कका - अहाँ सांख्यक प्रकृति कैं साड़ी पहिरा कऽ स्त्री बना देलिऎन्ह ।

खट्टर कका - हम किऎक बनैबैन्ह ? सांख्यकारिका बला तिरंगी चुनरी पहिरा कऽ नट्टीन बना देलथिन्ह अछि। रंगस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात !

हम - परन्तु प्रकृति-पुरुष मे त अंध-पंगु बला सम्बन्ध कहल गेल छैन्ह ?

हम - परन्तु प्रकृति-पुरुष मे त अंध-पंगु बला सम्बन्ध कहल गेल छैन्ह ? खट्टर कका नहूँ नहूँ बजलाह - एकर गूढार्थ यैह जे स्त्री कामान्ध होइ छथि और पुरुष पंगु अर्थात लाचार होइ छथि । देखियो क किछु कऽ नहि सकैत छथि । ई सभ रूपक थिकैक । द्रष्टा लोकनि कै जीवन में जेहन अनुभव होइ छलैन्ह तेहन तेहन दृष्टान्त दऽ गेल छथि ।

हम - खट्टर कका, अहाँ हॅंसी करैत छी ।

खट्टर कका – हॅंसी नहिं करै छिऔह । प्रकृति वेश्या जकाँ नव नव रूप धारण कय छमकैत छथि । पुरुष सफर्दा जकाँ तकैत निर्विकार जकाँ तकैत रहै छथि ।चित्त् स्वरुप । किन्तु जखन प्रकृति उपर चढै छथिन्ह त चित् चित्त भऽ जाइ छथि । हौ, बूझह त सांख्य में विपरीत रति क भावना छैक ।

हम – ऎं ! सांख्य में विपरीत रति ! खट्टर कका, अहाँक सभ टा बात विपरीते होइ अछि ।

खट्टर कका – तोरा सभक मतिए विपरीत छौह जे सोझ-सोझ बात बुझबा मे नहिं अबैत छौह । हौ, एहि देशक कवि लोकनि वेसी रसिक होइत एलाह अछि । तैं तैं काव्य में विपरीते रति अधीक भेटतौह । सांख्यो में सैह बात बूझह । तै प्रकृति कैं सक्रिय ओ पुरूष कैं निष्क्रिय कहल गेलैन्ह अछि ।

हम - प्रकृति क समस्त क्रिया-कलाप त एही द्वारे होइ छैन्ह जे अन्त में पुरुष कैं मोक्ष भऽ जाइन्ह । 'पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य ।'

खट्टर कका –खट्टर कका से त अन्त मे हैबे करैत छैन्ह । मोक्ष 'मुच' धातु सॅं बनैत छैक, जकर अर्थ 'छोड़ब' । जखन प्रकृति देवी सभ कर्म कऽ कऽ छोड़ि दैत छथिन्ह, तखन पुरुष कैं अपना स्खलन पर आत्मग्लानि होइत छैन्ह । एतवा स्थिति मे कामराहित्य वा आत्मज्ञान हैब स्वाभाविके । पुरुष पुनः चिन्मात्र भऽ कैवल्यावस्था में आवि जाइ छथि , अर्थात एसकरे रहि जाइत छथि ।

हम - खट्टर कका, अहाँ त दोसरे अर्थ लगा दैत छिऎक । सांख्यक पुरुष त निर्विकार थिकाह ।

खट्टर कका मुस्कुरा उठलाह।बजलाह - तखन त सांख्य मतानुसार व्यभिचार में कोनो टा दोष नहिं ?

हम - से कोना, खट्टर कका ?

खट्टर कका - मैथुन शरीर-शरीर मे होइ छैक वा पुरुष-पुरुष में ?

हम - शरीर-शरीर में। पुरुष त निर्लिप्त रहै छथि ।

खट्टर कका - तखन प्रकृति क एक परिणाम दोसरा परिणाम सॅं मिलिकय तेसर परिणाम क सृष्टि करै छथि । एहि में पुरुषक बाप कैं - बाप त छथिन्हें नहिं - पुरुष क की लगैत छैन्ह ? गहकी कैं घेघ सौदागर कै बेत्था ?

हम – अहाँक बात सुनि कऽ किछु फुरितहिं ने अछि !

खट्टर कका - फुरतौह की ? जेहने सांख्यक पुरुष मौगा, तेहने वेदान्तक ब्रह्म नपुंसक। एक कैं प्रकृति पटकैत छैन्ह, दोसर कैं माथ पर माया नचैत छैन्ह ।

हम - खट्टर कका, ॠषि लोकनि इन्द्रियजन्य सुख कऽ हेय कऽ कऽ बुझैत छलाह ?

खट्टर कका - यैह त भ्रम छौह । ओ लोकनि मुँह सॅं इन्द्रिय कैं गारि पढैत छलाह। किन्तु मन् सॅं ओहि पाछाँ व्याकुल रहै छलाह । तखन , वैदिक ऋषि सोझिया छलाह, गवाद क ढोल पिटैत छलाह । उपनिषद क ऋषि बेसी गॅंहीर छलाह, तैं डुबि कऽ पानि पिबैत छलाह ।

हम - उपनिषद क ऋषि त ब्रह्मवादी छलाह ?

खट्टर कका व्यंग्य करैत बजलाह – हॅं , तैं ने उपनिषद् में संभोग क वर्णन भरि देने छथि !

हम – ऎं ! उपनिषद में संभोग ! खट्टर कका, अहाँ ब्रह्मानन्द कैं विषयानन्द सॅं मिला रहल छिऎक ?

खट्टर कका - हम किऎक मिलैबैक ? वैह लोकनि मिलौने छथि । हुनका लोकनि कैं ब्रह्मानन्दो में स्त्री-भोगक आनन्द भेटैत छैन्ह । बृहदारण्यक (४/३/२१) देखह। ओही प्रकरण में लिखै छथि जे - यथा प्रियया स्त्रिया संपरिष्वक्तो न वाह्यं किंचन वेद नान्तरमेव......अर्थात् जेना प्रेयसीक आलिंगन-पाश में भीतर बाहर कथुक बोध नहिं रहैत छैक .......

हम - खट्टर कका, एखन अहाँ तरंग में छी ।

खट्टर कका क आँखि लला भऽ गेलैन्ह । बजलाह – हौ , तरंग मे त ओ लोकनि रहथि जिनका यज्ञ ओ वेदापाठ- सभ में संभोगे सुझैत छलैन्ह। देखह, यज्ञक उपमा कथी सॅं दैत छथि ? ‘योषा वा अग्निर्गौ तमस्तस्य उपस्य एव समिल्लोमानि धृमयोनिरर्चितर्यदन्तः करोति तेऽङ्गाराः अभिनन्दा विस्फुलिंगा तस्मिन्नेतस्मिन्ङ्ग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति` ` ` ` ` `।(बृ०-६/२/१३, छा०५/८/१-२)

हम - एकर अर्थ ?

खट्टर कका – बेसी खोलि कऽ कोना कहिऔह ? भातिज थिकाह । भावार्थ ई जे- आगि स्त्रीक गुप्तांग थीक । सिल्ला जननेन्द्रिय थीक। धूआँ रोइयाँ थीक। ज्वाला स्त्रीक गुप्तांग थीक। लुत्ती जे झड़ै अछि से आनन्द क कण थीक। आहुति वीर्य थीक । ताहि सॅं गर्भ होइत छैक ।

हम - हद्द भऽ गेल । ई की सत्ये उपनिषद में छैक ?

खट्टर कका - तखन की हम अपना दिस सॅं गढि कऽ कहि रहल छिऔह ? उपनिषद में सभ सॅं पैघ छैक "बृहदारण्यक और छान्दोग्य " । से दूनू में ई वर्णन भेटि जैतौह ।

हम - खट्टर कका एकर कारण की ?

खट्टर कका – हौ, ऋषि लोकनि पुरान रसिक छलाह। यज्ञ क उपमा त देखबे कैलह । आब वेद पाठो कऽ उपमा सुनि लैह । उपमंत्रयते स हिंकारः, ज्ञपयते स प्रस्तावः , स्त्रियः सह शेते स उद्गीथः ।(छा०-२/१३)

हम - कनेक बुझा कऽ कहिऔक ।

खट्टर कका – हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ – ई सभ सामगान क बिधि थिकैक । ऋषि लोकनि कैं एहू में संभोगे सुझैत छैन्ह । हिंकार भेल लग में बजौनाइ, प्रस्ताव भेल खुलि कऽ कहनाइ, उद्गीथ भेल स्त्रीक संग सुतनाइ.........

हम - खट्टर कका, अहाँ कैं नशा चढल अछि ।

खट्टर ककाक आँखि और लाल भऽ गेलैन्ह । बजलाह – नशा त हुनका लोकनि कैं चढल रहैन्ह जे कहि गेल छथि - प्रति स्त्री सह शेते स प्रतिहारः । अर्थात प्रति स्त्रीक संग सूती, यैह प्रतिहार व्रत थीक। आब एहि सॅं बेसी खुल्लम खुल्ला की हेतैक ?

हम - खट्टर कका भऽ सकै अछि, एकर किछु दोसरो अर्थ होइक ।

खट्टर कका जोर सॅं दमसैत बजलाह - तखन स्वयं शंकराचार्येक मुँह सॅं व्याख्या सुनि लैह । न कांचन स्त्रियं स्वात्मतल्पपाप्तां परिहरेत् समागमार्थिनीम् [शंकर भाष्य,छा०२/१३] अर्थात् समागम चाहय बाली ज स्त्री सय्या पर आबि जाथि तिनका नहिं छोड़क चाही। ``` आबो तोरा सन्देहे छौह ?

हमरा स्तब्ध देखि खट्टर कका बजलाह – हौ, ई लोकनि व्यभिचार कैं खेल कऽ कऽ बुझैत छलाह । यस्य जाया वै जारः स्यात्तं चेद्विष्यादाय पात्रेऽग्निमुप समाधाय [बृ०-६/४/१२] `````ककरो स्त्री रहौक, ककरो संग व्यभिचार होउक कनेक घृत आगि में दऽ दैक, खिस्सा खतम । हौ, ई लोकनि पहुँँचल छलाह ।

हम - तखन वाममार्ग सॅं अन्तरे की रहलैक ?

खट्टर कका - किच्छु नहिं । वेदे वेदान्त सॅं त वाममार्ग बहरायल अछि । बूझह त “अहं ब्रह्मास्मि" यैह वाक्य, सभ अनर्थक जड़ि थीक । अद्वैतवादी सजातिय, बिजातीय, स्वागत, सभ भेद उठा देलन्हि । एही अभेदक तरंग में रंग-विरंगक रंग-रभस चलय लागल । 'अहं भैरवस्त्वं भैरवी । कृष्णोऽहं भवती राधा चावयो रस्तु संगमः । एही प्रकारें स्वच्छन्द विहार क बिहाड़ि आबि गेल । बूझह त कतेको भक्ति-सम्प्रदाय एही पर आधारित अछि । कलार्णवतन्त्र में कहै छथि-

 

मद्यमासविहीनेन न कुर्यात् पूजनं शिवे ।
न तुष्यामि वरारोहे भगलिंगामृतं बिना ॥

 

एही प्रकारे जकरा जे मन मे एलैक से एकटा मार्ग चला देलक । आनन्द भोगक हेतु । कहाँ धरि कहिऔह ? पाप-पुण्य बुड़िबक हेतु होइ छैक । जे पारं गत छथि तिनका हेतु धर्म की और अधर्म की ? देखै छह नहि, गीता सेहो कहै छथि -

 

 

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । २/५०

 

जखन उँचका शिखर पर लोक चढि जाइत अछि तखन निचका बंधन स्वतः फुजि जाइत छैक ।

 

 

निस्त्रैगुण्ये पथि विरचतां को विधिः को निषेधः !

 

जिनका ई बात खचित भऽ गेलैन्ह, सैह द्रष्टा । जीबन्मुक्त क अर्थ निर्बन्ध वा स्वच्छन्द । बूझह त यैह असली रहस्य थिकैक । नहिं त ब्रह्म वा मोक्ष कि कतहु आकाश में लटकल छथि ?

 

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