गोदान ( Godan ) - मुंशी प्रेमचंद | (अध्याय 19 - 27)
-: गोदान :-
मुंशी प्रेमचंद |
(उपन्यास)
गोदान अध्याय 19
मिरज़ा खुर्शेद का हाता क्लब भी है, कचहरी भी, अखाड़ा भी। दिन भर जमघट लगा रहता है। मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी। मिरज़ा ने एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनावा दिया है; वहाँ नित्य सौ-पचास लड़िन्तये आ जुटते हैं। मिरज़ाजी भी उनके साथ ज़ोर करते हैं। मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं। मियाँ-बीबी और सास-बहू और भाई-भाई के झगड़े-टंटे यहीं चुकाये जाते हैं। मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही केन्द्र है और राजनीतिक आन्दोलन का भी। आये दिन सभाएँ होती रहती हैं। यहीं स्वयंसेवक टिकते हैं, यहीं उनके प्रोग्राम बनते हैं, यहीं से नगर का राजनीतिक संचालन होता है। पिछले जलसे में मालती नगर-काँग्रेस-कमेटी की सभानेत्री चुन ली गयी है। तब से इस स्थान की रौनक़ और भी बढ़ गयी है। गोबर को यहाँ रहते साल भर हो गया। अब वह सीधा-साधा ग्रामीण युवक नहीं है। उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली और संसार का रंग-ढंग भी कुछ-कुछ समझने लगा है। मूल में वह अब भी देहाती है, पैसे को दाँत से पकड़ता है, स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता, और परिश्रम से जी नहीं चुराता, न कभी हिम्मत हारता है; लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गयी है। उसने पहले महीने तो केवल मजूरी की ओर आधा पेट खाकर थोड़े से रुपए बचा लिये। फिर वह कचालू और मटर और दही-बड़े के खोंचे लगाने लगा। इधर ज़्यादा लाभ देखा, तो नौकरी छोड़ दी। गमिर्यों में शर्बत और बरफ़ की दूकान भी खोल दी। लेन-देन में खरा था इसलिए उसकी साख जम गयी। जाड़े आये, तो उसने शर्बत की दूकान उठा दी और गर्म चाय पिलाने लगा। अब उसकी रोज़ाना आमदनी ढाई-तीन रुपए से कम नहीं। उसने अँग्रेज़ी फ़ैशन के बाल कटवा लिए हैं, महीन धोती और पम्प-शू पहनता है, एक लाल ऊनी चादर ख़रीद ली और पान सिगरेट का शौक़ीन हो गया है। सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निन्दा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है। आये दिन की पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहाँ घर से दूर, मुँह छिपाये पड़ा हुआ है, उसी तरह की, बल्कि उससे भी कहीं निन्दास्पद बातें यहाँ नित्य हुआ करती हैं, और कोई भागता नहीं। फिर वही क्यों इतना डरे और मुँह चुराये! इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा। वह माता-पिता को रुपए-पैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता। वे लोग तो रुपए पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे। दादा को तुरन्त गया करने की और अम्माँ को गहने बनवाने की धुन सवार हो जायगी। ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपए नहीं हैं। अब वह छोटा-मोटा महाजन है। पड़ोस के एक्केवालों गाड़ीवानों और धोबियों को सूद पर रुपए उधार देता है। इस दस-ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफ़ायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं लाकर रखने की बात सोच रहा है। तीसरे पहर का समय है। वह सड़क के नल पर नहाकर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिरज़ा खुर्शेद आकर द्वार पर खड़े हो गये। गोबर अब उनका नौकर नहीं है; पर अदब उसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है। द्वार पर जाकर पूछा -- क्या हुक्म है सरकार?
मिरज़ा ने खड़े-खड़े कहा -- तुम्हारे पास कुछ रुपए हों, तो दे दो। आज तीन दिन से बोतल ख़ाली पड़ी हुई है, जी बहुत बेचैन हो रहा है।
गोबर ने इसके पहले भी दो-तीन बार मिरज़ाजी को रुपए दिये थे; पर अब तक वसूल न कर सका था। तक़ाज़ा करते डरता था और मिरज़ाजी रुपए लेकर देना न जानते थे। उनके हाथ में रुपए टिकते ही न थे। इधर आये उधर ग़ायब। यह तो न कह सका, मैं रुपए न दूँगा या मेरे पास रुपए नहीं हैं, शराब की निन्दा करने लगा -- आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फ़ायदा होता है?
मिरज़ाजी ने कोठरी के अन्दर खाट पर बैठते हुए कहा -- तुम समझते हो, मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक़ से पीता हूँ। मैं इसके बग़ैर ज़िन्दा नहीं रह सकता। तुम अपने रुपए के लिए न डरो, मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूँगा।
गोबर अविचलित रहा -- मैं सच कहता हूँ मालिक! मेरे पास इस समय रुपए होते तो आपसे इनकार करता?
'दो रुपए भी नहीं दे सकते? '
'इस समय तो नहीं हैं। '
'मेरी अँगूठी गिरो रख लो। '
गोबर का मन ललचा उठा; मगर बात कैसे बदले। बोला -- यह आप क्या कहते हैं मालिक, रुपए होते तो आपको दे देता, अँगूठी की कौन बात थी?
मिरज़ा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भरकर कहा -- मैं फिर तुमसे कभी न माँगूँगा गोबर! मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है। इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया। अब मुझे भी ज़िद पड़ गयी है कि चाहे भीख ही माँगनी पड़े, इसे छोड़ूँगा नहीं।
जब गोबर ने अबकी बार इनकार किया, तो मिरज़ा साहब निराश होकर चले गये। शहर में उनके हज़ारों मिलने वाले थे। कितने ही उनकी बदौलत बन गये थे। कितनों ही को गाढ़े समय पर मदद की थी; पर ऐसे से वह मिलना भी न पसन्द करते थे। उन्हें ऐसे हज़ारों लटके मालूम थे, जिससे वह समय-समय पर रुपयों के ढेर लगा देते थे; पर पैसे की उनकी निगाह में कोई क़द्र न थी। उनके हाथ में रुपए जैसे काटते थे। किसी न किसी बहाने उड़ाकर ही उनका चित्त शान्त होता था। गोबर आलू छीलने लगा। साल-भर के अन्दर ही वह इतना काइयाँ हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था। जिस कोठरी में वह रहता है, वह मिरज़ा साहब ने दी है। इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पाँच रुपया मिल सकता है। गोबर लगभग साल भर से उसमें रहता है; लेकिन मिरज़ा ने न कभी किराया माँगा न उसने दिया। उन्हें शायद ख़याल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है। थोड़ी देर में एक इक्केवाला रुपये माँगने आया। अलादीन नाम था, सिर घुटा हुआ, खिचड़ी डाढ़ी, और काना। उसकी लड़की बिदा हो रही थी। पाँच रुपए की उसे बड़ी ज़रूरत थी। गोबर ने एक आना रुपया सूद पर रुपए दे दिये। अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा -- भैया, अब बाल-बच्चों को बुला लो। कब तक हाथ से ठोकते रहोगे।
गोबर ने शहर के ख़र्च का रोना रोया -- थोड़ी आमदनी में गृहस्थी कैसे चलेगी?
अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला -- ख़रच अल्लाह देगा भैया! सोचो, कितना आराम मिलेगा। मैं तो कहता हूँ, जितना तुम अकेले ख़रच करते हो, उसी में गृहस्थी चल जायगी। औरत के हाथ में बड़ी बरक्कत होती है। ख़ुदा क़सम, जब मैं अकेला यहाँ रहता था, तो चाहे कितना ही कमाऊँ खा-पी सब बराबर। बीड़ी-तमाखू को भी पैसा न रहता। उस पर हैरानी। थके-माँदे आओ, तो घोड़े को खिलाओ और टहलाओ। फिर नानबाई की दूकान पर दौड़ो। नाक में दम आ गया। जब से घरवाली आ गयी है, उसी कमाई में उसकी रोटियाँ भी निकल आती हैं और आराम भी मिलता है। आख़िर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता है। जब जान खपाकर भी आराम न मिला, तो ज़िन्दगी ही ग़ारत हो गयी। मैं तो कहता हूँ, तुम्हारी कमाई बढ़ जायगी भैया! जितनी देर में आलू और मटर उबालते हो, उतनी देर में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बारहों मास चलती है! रात को लेटोगे तो घरवाली पाँव दबायेगी। सारी थकान मिट जायगी।
यह बात गोबर के मन में बैठ गयी। जी उचाट हो गया। अब तो वह झुनिया को लाकर ही रहेगा। आलू चूल्हे पर चढ़े रह गये, और उसने घर चलने की तैयारी कर दी; मगर याद आया कि होली आ रही है; इसलिए होली का सामान भी लेता चले। कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोलकर ख़र्च करने की जो एक प्रवृत्ति होती है, वह उसमें भी सजग हो गयी। आख़िर इसी दिन के लिए तो कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा था। वह माँ, बहनों और झुनिया के लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जायगा। होरी के लिए एक धोती और एक चादर। सोना के लिए तेल की शीशी ले जायगा, और एक जोड़ा चप्पल। रूपा के लिए जापानी चूड़ियाँ और झुनिया के लिए एक पिटारी, जिसमें तेल, सिन्दूर और आईना होगा। बच्चे के लिए टोप और फ़्राक जो बाज़ार में बना बनाया मिलता है। उसने रुपए निकाले और बाज़ार चला। दोपहर तक सारी चीज़ें आ गयीं। बिस्तर भी बँध गया, मुहल्लेवालों को ख़बर हो गयी, गोबर घर जा रहा है। कई मर्द-औरतें उसे बिदा करने आये। गोबर ने उन्हें अपना घर सौंपते हुए कहा -- तुम्हीं लोगों पर छोड़े जाता हूँ। भगवान् ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूँगा।
एक युवती ने मुस्कराकर कहा -- मेहरिया को बिना लिये न आना, नहीं घर में न घुसने पाओगे।
दूसरी प्रौढ़ा ने शिक्षा दी -- हाँ, और क्या, बहुत दिनों तक चूल्हा फूँक चुके। ठिकाने से रोटी तो मिलेगी!
गोबर ने सबको राम-राम किया। हिन्दू भी थे, मुसलमान भी थे, सभी में मित्रभाव था, सब एक-दूसरे के दुःख-दर्द के साथी। रोज़ा रखनेवाले रोज़ा रखते थे। एकादशी रखनेवाले एकादशी। कभी-कभी विनोद-भाव से एक-दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे। गोबर अलादीन की नमाज़ को उठा-बैठी कहता, अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैकड़ों छोटे-बड़े शिवलिंग को बटखरे बनाता; लेकिन साम्प्रदायिक द्वेष का नाम भी न था। गोबर घर जा रहा है। सब उसे हँसी-ख़ुशी बिदा करना चाहते हैं। इतने में भूरे एक्का लेकर आ गया। अभी दिन-भर का धावा मारकर आया था। ख़बर मिली, गोबर घर जा रहा है। वैसे ही एक्का इधर फेर दिया। घोड़े ने आपत्ति की। उसे कई चाबुक लगाये। गोबर ने एक्के पर सामान रखा, एक्का बढ़ा, पहुँचाने वाले गली के मोड़ तक पहुँचाने आये, तब गोबर ने सबको राम-राम किया और एक्के पर बैठ गया। सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा रहा था। गोबर घर जाने की ख़ुशी में मस्त था। भूरे उसे घर पहुँचाने की ख़ुशी में मस्त था। और घोड़ा था पानीदार, घोड़ा चला जा रहा था। बात की बात में स्टेशन आ गया। गोबर ने प्रसन्न होकर एक रुपया कमरे से निकाल कर भूरे की तरफ़ बढ़ाकर कहा -- लो, घरवाली के लिए मिठाई लेते जाना।
भूरे ने कृतज्ञता-भरे तिरस्कार से उसकी ओर देखा -- तुम मुझे ग़ैर समझते हो भैया! एक दिन ज़रा एक्के पर बैठ गये तो मैं तुमसे इनाम लूँगा। जहाँ तुम्हारा पसीना गिरे, वहाँ ख़ून गिराने को तैयार हूँ। इतना छोटा दिल नहीं पाया है। और ले भी लूँ, तो घरवाली मुझे जीता छोड़ेगी?
गोबर ने फिर कुछ न कहा। लज्जित होकर अपना असबाब उतारा और टिकट लेने चल दिया।
गोदान अध्याय 20
फागुन अपनी झोली में नवजीवन की विभूति लेकर आ पहुँचा था। आम के पेड़ दोनों हाथों से बौर के सुगन्ध बाँट रहे थे, और कोयल आम की डालियों में छिपी हुई संगीत का गुप्त दान कर रही थी। गाँवों में ऊख की बोआई लग गयी थी। अभी धूप नहीं निकली; पर होरी खेत में पहुँच गया है। धनिया, सोना, रूपा तीनों तलैया से ऊख के भीगे हुए गट्ठे निकाल-निकालकर खेत में ला रही हैं, और होरी गँड़ासे से ऊख के टुकड़े कर रहा है। अब वह दातादीन की मज़दूरी करने लगा है। किसान नहीं, मजूर है। दातादीन से अब उसका पुरोहित-जजमान का नाता नहीं, मालिक-मज़दूर का नाता है।
दातादीन ने आकर डाँटा -- हाथ और फुरती से चलाओ होरी! इस तरह तो तुम दिन-भर में न काट सकोगे।
होरी ने आहत अभिमान के साथ कहा -- चला ही तो रहा हूँ महराज, बैठा तो नहीं हूँ।
दातादीन मजूरों से रगड़ कर काम लेते थे; इसलिए उनके यहाँ कोई मजूर टिकता न था। होरी उसका स्वभाव जानता था; पर जाता कहाँ!
पण्डित उसके सामने खड़े होकर बोले -- चलाने-चलाने में भेद है। एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम तमाम, दूसरा चलाना वह है कि दिन-भर में भी एक बोझ ऊख न कटे।
होरी ने विष का घूँट पीकर और ज़ोर से हाथ चलाना शुरू किया, इधर महीनों से उसे पेट-भर भोजन न मिलता था। प्रायः एक जून तो चबैने पर ही कटता था, दूसरे जून भी कभी आधा पेट भोजन मिला, कभी कड़ाका हो गया; कितना चाहता था कि हाथ और जल्दी उठे, मगर हाथ जवाब दे रहा था। उस पर दातादीन सिर पर सवार थे। क्षण-भर दम ले लेने पाता, तो ताज़ा हो जाता; लेकिन दम कैसे ले? घुड़कियाँ पड़ने का भय था। धनिया और तीनों लड़कियाँ ऊख के गट्ठे लिये गीली साड़ियों से लथपथ, कीचड़ में सनी हुई आयीं, और गट्ठे पटककर दम मारने लगीं कि दातादीन ने डाँट बताई -- यहाँ तमाशा क्या देखती है धनिया? जा अपना काम कर। पैसे सेंत में नहीं आते। पहर-भर में तू एक खेप लायी है। इस हिसाब से तो दिन भर में भी उख न ढुल पायेगी।
धनिया ने त्योरी बदलकर कहा -- क्या ज़रा दम भी न लेने दोगे महराज! हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गये। ज़रा मूड़ पर एक गट्ठा लादकर लाओ तो हाल मालूम हो।
दातादीन बिगड़ उठे -- पैसे देने हैं काम करने के लिए, दम मारने के लिए नहीं। दम मार लेना है, तो घर जाकर दम लो।
धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई -- तू जाती क्यों नहीं धनिया? क्यों हुज्जत कर रही है?
धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा -- जा तो रही हूँ, लेकिन चलते हुए बैल को औंगी न देना चाहिए।
दातादीन ने लाल आँखें निकाल लीं -- जान पड़ता है, अभी मिज़ाज ठंडा नहीं हुआ। जभी दाने-दाने को मोहताज हो।
धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी -- तुम्हारे द्वार पर भीख माँगने नहीं जाती।
दातादीन ने पैने स्वर में कहा -- अगर यही हाल है तो भीख भी माँगोगी।
धनिया के पास जवाब तैयार था; पर सोना उसे खींचकर तलैया की ओर ले गयी, नहीं बात बढ़ जाती; लेकिन आवाज़ की पहुँच के बाहर जाकर दिल की जलन निकाली -- भीख माँगो तुम, जो भिखमंगे की जात हो। हम तो मजूर ठहरे, जहाँ काम करेंगे, वहीं चार पैसे पायेंगे।
सोना ने उसका तिरस्कार किया -- अम्माँ, जाने भी दो। तुम तो समय नहीं देखती, बात-बात पर लड़ने बैठ जाती हो।
होरी उन्मत्त की भाँति सिर से ऊपर गड़ाँसा उठा-उठाकर ऊख के टुकड़ों के ढेर करता जाता था। उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी। उसमें अलौकिक शक्ति आ गयी थी। उसमें जो पीढ़ियों का संचित पानी था, वह इस समय जैसे भाप बनकर उसे यन्त्र की-सी अन्ध-शक्ति प्रदान कर रहा था। उसकी आँखों में अँधेरा छाने लगा। सिर में फिरकी-सी चल रही थी। फिर भी उसके हाथ यन्त्र की गति से, बिना थके, बिना रुके, उठ रहे थे। उसकी देह से पसीने की धारा निकल रही थी, मुँह से फिचकुर छूट रहा था, सिर में धम-धम का शब्द होरहा था, पर उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया हो। सहसा उसकी आँखों में निबिड़ अन्धकार छा गया। मालूम हुआ वह ज़मीन में धँसा जा रहा है। उसने सँभलने की चेष्टा से शून्य में हाथ फैला दिये, और अचेत हो गया। गँड़ासा हाथ से छूट गया और वह औंधे मुँह ज़मीन पर पड़ गया। उसी वक़्त धनिया ऊख का गट्ठा लिये आयी। देखा तो कई आदमी होरी को घेरे खड़े हैं। एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था -- मालिक तुम्हें ऐसी बात न कहनी चाहिए, जो आदमी को लग जाय। पानी मरते ही मरते तो मरेगा।
धनिया ऊख का गट्ठा पटककर पागलों की तरह दौड़ी हुई होरी के पास गयी, और उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर विलाप करने लगी -- तुम मुझे छोड़कर कहाँ जाते हो। अरी सोना, दौड़कर पानी ला और जाकर शोभा से कह दे, दादा बेहाल हैं। हाय भगवान ! अब मैं कहाँ जाऊँ। अब किसकी होकर रहूँगी, कौन मुझे धनिया कहकर पुकारेगा...।
लाला पटेश्वरी भागे हुए आये और स्नेह भरी कठोरता से बोले -- क्या करती है धनिया, होश सँभाल। होरी को कुछ नहीं हुआ। गर्मी से अचेत हो गये हैं। अभी होश आया जाता है। दिल इतना कच्चा कर लेगी, तो कैसे काम चलेगा?
धनिया ने पटेश्वरी के पाँव पकड़ लिये और रोती हुई बोली -- क्या करूँ लाला, जी नहीं मानता। भगवान् ने सब कुछ हर लिया। मैं सबर कर गयी। अब सबर नहीं होता। हाय रे मेरा हीरा!
सोना पानी लायी। पटेश्वरी ने होरी के मुँह पर पानी के छींटे दिये। कई आदमी अपनी-अपनी अँगोछियों से हवा कर रहे थे। होरी की देह ठंडी पड़ गयी थी। पटेश्वरी को भी चिन्ता हुई; पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे। धनिया अधीर होकर बोली -- ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाला, कभी नहीं।
पटेश्वरी ने पूछा -- रात कुछ खाया था?
धनिया बोली -- हाँ, रोटियाँ पकायी थीं; लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है, वह क्या तुमसे छिपा है? महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूँ, जान रखकर काम करो; लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं।
सहसा होरी ने आँखें खोल दीं और उड़ती हुई नज़रों से इधर-उधर ताका। धनिया जैसे जी उठी। विह्वल होकर उसके गले से लिपटकर बोली -- अब कैसा जी है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में समा गये थे।
होरी ने कातर स्वर में कहा -- अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था।
धनिया ने स्नेह में डूबी भत्र्सना से कहा -- देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान देकर। लड़कों का भाग था, नहीं तुम तो ले ही डूबे थे!
पटेश्वरी ने हँसकर कहा -- धनिया तो रो-पीट रही थी।
होरी ने आतुरता से पूछा -- सचमुच तू रोती थी धनिया?
धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेल कर कहा -- इन्हें बकने दो तुम। पूछो, यह क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आये थे?
पटेश्वरी ने चिढ़ाया -- तुम्हें हीरा-हीरा कहकर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।
होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा -- पगली है और क्या। अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाये रखना चाहती है।
दो आदमी होरी को टिकाकर घर लाये और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि बोआई में देर हुई जाती है, पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़कर घर से गर्म दूध लाया, और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पीकर होरी में जैसे जान आ गयी। उसी वक़्त गोबर एक मज़दूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखायी दिया। गाँव के कुत्ते पहले तो भूँकते हुए उसकी तरफ़ दौड़े। फिर दुम हिलाने लगे।
रूपा ने कहा -- भैया आये, और तालियाँ बजाती हुई दौड़ी। सोना भी दो-तीन क़दम आगे बढ़ी; पर अपने उछाह को भीतर ही दबा गयी। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था। झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गयी। गोबर ने माँ-बाप के चरण छूए और रूपा को गोद में उठाकर प्यार किया। धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गयी। उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था। आज तो वह रानी है। इस फटे-हाल में भी रानी है। कोई उसकी आँखें देखे, उसका मुख देखे, उसका हृदय देखे, उसकी चाल देखे। रानी भी लजा जायगी। गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन-ओढ़कर कैसा भलामानस लगता है। धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी। उसका मन कहता था, गोबर कुशल से है और प्रसन्न है। आज उसे आँखों देखकर मानो उसके जीवन के धूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया है; मगर होरी ने मुँह फेर लिया था।
गोबर ने पूछा -- दादा को क्या हुआ है, अम्माँ?
धनिया घर का हाल कहकर उसे दुखी न करना चाहती थी। बोली -- कुछ नहीं है बेटा, ज़रा सिर में दर्द है। चलो, कपड़े उतरो, हाथ-मुँह धोओ? कहाँ थे तुम इतने दिन? भला इस तरह कोई घर से भागता है? और कभी एक चिट्ठी तक न भेजी। आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली है। तुम्हारी राह देखते-देखते आँखें फूट गयीं। यही आसा बँधी रहती थी कि कब वह दिन आयेगा और कब तुम्हें देखूँगी। कोई कहता था, मिरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था। सुन-सुनकर जान सूखी जाती थी। कहाँ रहे इतने दिन?
गोबर ने शमार्ते हुए कहा -- कहीं दूर नहीं गया था अम्माँ, यह लखनऊ में तो था।
'और इतने नियरे रहकर भी कभी एक चिट्ठी न लिखी! '
उधर सोना और रूपा भीतर गोबर का सामान खोलकर चीज़ का बाँट-बखरा करने में लगी हुई थीं; लेकिन झुनिया दूर खड़ी थी; उसके मुख पर आज मान का शोख रंग झलक रहा है। गोबर ने उसके साथ जो व्यवहार किया है, आज वह उसका बदला लेगी। असामी को देखकर महाजन उससे वह रुपये वसूल करने को भी व्याकुल हो रहा है, जो उसने बट्टेखाते में डाल दिये थे। बच्चा उन चीज़ों की ओर लपक रहा था और चाहता था, सब-का-सब एक साथ मुँह में डाल ले; पर झुनिया उसे गोद से उतरने न देती थी। सोना बोली -- भैया तुम्हारे लिए आईना-कंघी लाये हैं भाभी!
झुनिया ने उपेक्षा भाव से कहा -- मुझे ऐना-कंघी न चाहिए। अपने पास रखे रहें।
रूपा ने बच्चे की चमकीली टोपी निकाली -- ओ हो! यह तो चुन्नू की टोपी है।
और उसे बच्चे के सिर पर रख दिया। झुनिया ने टोपी उतारकर फेंक दी। और सहसा गोबर को अन्दर आते देखकर वह बालक को लिए अपनी कोठरी में चली गयी। गोबर ने देखा, सारा सामान खुला पड़ा है। उसका जी तो चाहता है पहले झुनिया से मिलकर अपना अपराध क्षमा कराये; लेकिन अन्दर जाने का साहस नहीं होता। वहीं बैठ गया और चीज़ें निकाल-निकाल, हर-एक को देने लगा, मगर रूपा इसलिए फूल गयी कि उसके लिए चप्पल क्यों नहीं आये, और सोना उसे चिढ़ाने लगी, तू क्या करेगी चप्पल लेकर, अपनी गुड़िया से खेल। हम तो तेरी गुड़िया देखकर नहीं रोते, तू मेरा चप्पल देखकर क्यों रोती है? मिठाई बाँटने की ज़िम्मेदारी धनिया ने अपने उपर ली। इतने दिनों के बाद लड़का कुशल से घर आया है। वह गाँव-भर में बैना बटवायेगी। एक गुलाब-जामुन रूपा के लिए ऊँट के मुँह में जीरे के समान था। वह चाहती थी, हाँडी उसके सामने रख दी जाय, वह कूद-कूद खाय। अब सन्दूक़ खुला और उसमें से साड़ियाँ निकलने लगीं। सभी किनारदार थीं; जैसी पटेश्वरी लाला के घर में पहनी जाती हैं, मगर हैं बड़ी हलकी। ऐसी महीन साड़ियाँ भला कै दिन चलेंगी! बड़े आदमी जितनी महीन साड़ियाँ चाहे पहनें। उनकी मेहरियों को बैठने और सोने के सिवा और कौन काम है। यहाँ तो खेत-खलिहान सभी कुछ है। अच्छा! होरी के लिए धोती के अतिरिक्त एक दुपट्टा भी है। धनिया प्रसन्न होकर बोली -- यह तुमने बड़ा अच्छा किया बेटा! इनका दुपट्टा बिलकुल तार-तार हो गया था।
गोबर को उतनी देर में घर की परिस्थिति का अन्दाज़ हो गया था। धनिया की साड़ी में कई पेंवदे लगे हुए थे। सोना की साड़ी सिर पर फटी हुई थी और उसमें से उसके बाल दिखाई दे रहे थे। रूपा की धोती में चारों तरफ़ झालरें-सी लटक रही थीं। सभी के चेहरे रूखे, किसी की देह पर चिकनाहट नहीं। जिधर देखो, विपन्नता का साम्राज्य था। लड़कियाँ तो साड़ियों में मगन थीं। धनिया को लड़के के लिए भोजन की चिन्ता हुई। घर में थोड़ा-सा जौ का आटा साँझ के लिए संचकर रखा हुआ था। इस वक़्त तो चबैने पर कटती थी; मगर गोबर अब वह गोबर थोड़े ही है। उसको जौ का आटा खाया भी जायगा। परदेश में न जाने क्या-क्या खाता-पीता रहा होगा। जाकर दुलारी की दुकान से गेहूँ का आटा, चावल, घी उधार लायी। इधर महीने से सहुआइन एक पैसे की चीज़ भी उधार न देती थी; पर आज उसने एक बार भी न पूछा, पैसे कब दोगी। उसने पूछा -- गोबर तो ख़ूब कमा के आया है न?
धनिया बोली -- अभी तो कुछ नहीं खुला दीदी! अभी मैंने भी कुछ कहना उचित न समझा। हाँ, सबके लिए किनारदार साड़ियाँ लाया है। तुम्हारे आसिरबाद से कुशल से लौट आया, मेरे लिए तो यही बहुत है।
दुलारी ने असीस दिया -- भगवान् करे, जहाँ रहे कुशल से रहे। माँ-बाप को और क्या चाहिए! लड़का समझदार है। और छोकरों की तरह उड़ाऊ नहीं है। हमारे रुपए अभी न मिलें, तो ब्याज तो दे दो। दिन-दिन बोझ बढ़ ही तो रहा है।
इधर सोना चुन्नू को उसका फ़्राक और टोप और जूता पहनाकर राजा बना रही थी, बालक इन चीज़ों को पहनने से ज़्यादा हाथ में लेकर खेलना पसन्द करता था। अन्दर गोबर और झुनिया में मान-मनौवल का अभिनय हो रहा था। झुनिया ने तिरस्कार भरी आँखों से देखकर कहा -- मुझे लाकर यहाँ बैठा दिया। आप परदेश की राह ली। फिर न खोज, न ख़बर कि मरती है या जीती है। साल-भर के बाद अब जाकर तुम्हारी नींद टूटी है। कितने बड़े कपटी हो तुम। मैं तो सोचती हूँ कि तुम मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो और आप उड़े, तो साल-भर के बाद लौटे। मदों का विश्वास ही क्या, कहीं कोई और ताक ली होगी। सोचा होगा, एक घर के लिए है ही, एक बाहर के लिए भी हो जाय।
गोबर ने सफ़ाई दी -- झुनिया, मैं भगवान् को साक्षी देकर कहता हूँ जो मैंने कभी किसी की ओर ताका भी हो। लाज और डर के मारे घर से भागा ज़रूर; मगर तेरी याद एक छन के लिए भी मन से न उतरती थी। अब तो मैंने तय कर लिया है कि तुझे भी लेता जाऊँगा; इसलिए आया हूँ। तेरे घरवाले तो बहुत बिगड़े होंगे?
'दादा तो मेरी जान लेने पर ही उतारू थे। '
'सच! '
'तीनों जने यहाँ चढ़ आये थे। अम्माँ ने ऐसा डाँटा कि मुँह लेकर रह गये। हाँ, हमारे दोनों बैल खोल ले गये। '
'इतनी बड़ी ज़बरदस्ती! और दादा कुछ बोले नहीं? '
'दादा अकेले किस-किस से लड़ते! गाँववाले तो नहीं ले जाने देते थे; लेकिन दादा ही भलमनसी में आ गये, तो और लोग क्या करते? '
'तो आजकल खेती-बारी कैसे हो रही है? '
'खेती-बारी सब टूट गयी। थोड़ी-सी पण्डित महाराज के साझे में है। उख बोई ही नहीं गयी। '
गोबर की कमर में इस समय दो सौ रुपए थे। उसकी गर्मी यों भी कम न थी। यह हाल सुनकर तो उसके बदन में आग ही लग गयी। बोला -- तो फिर पहले मैं उन्हीं से जाकर समझता हूँ। उनकी यह मजाल कि मेरे द्वार पर से बैल खोल ले जायँ! यह डाका है, खुला हुआ डाका। तीन-तीन साल को चले जायँगे तीनों। यों न देंगे, तो अदालत से लूँगा। सारा घमंड तोड़ दूँगा। वह उसी आवेश में चला था कि झुनिया ने पकड़ लिया और बोली -- तो चले जाना, अभी ऐसी क्या जल्दी है? कुछ आराम कर लो, कुछ खा-पी लो। सारा दिन तो पड़ा है। यहाँ बड़ी-बड़ी पंचायत हुई। पंचायत ने अस्सी रुपए डाँड़ लगाये। तीन मन अनाज ऊपर। उसी में तो और तबाही आ गयी। सोना बालक को कपड़े-जूते पहनाकर लायी। कपड़े पहनकर वह जैसे सचमुच राजा हो गया था। गोबर ने उसे गोद में ले लिया; पर इस समय बालक के प्यार में उसे आनन्द न आया। उसका रक्त खौल रहा था और कमर के रुपए आँच और तेज़ कर रहे थे। वह एक-एक से समझेगा। पंचों को उस पर डाँड़ लगाने का अधिकार क्या है? कौन होता है कोई उसके बीच में बोलनेवाला? उसने एक औरत रख ली, तो पंचों के बाप का क्या बिगाड़ा? अगर इसी बात पर वह फ़ौजदारी में दावा कर दे, तो लोगों के हाथों में हथकड़ियाँ पड़ जायँ। सारी गृहस्थी तहस-नहस हो गयी। क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने! बच्चा उसकी गोद में ज़रा-सा मुस्कराया, फिर ज़ोर से चीख़ उठा जैसे कोई डरावनी चीज़ देख ली हो। झुनिया ने बच्चे को उसकी गोद से ले लिया और बोली -- अब जाकर नहा-धो लो। किस सोच में पड़ गये। यहाँ सबसे लड़ने लगो, तो एक दिन निबाह न हो। जिसके पास पैसे हैं, वही बड़ा आदमी है, वही भला आदमी है। पैसे न हों, तो उस पर सभी रोब जमाते हैं।
'मेरा गधापन था कि घर से भागा। नहीं देखता, कैसे कोई एक धेला डाँड़ लेता है। '
'सहर की हवा खा आये हो तभी ये बातें सूझने लगी हैं। नहीं, घर से भागते क्यों! '
'यही जी चाहता है कि लाठी उठाऊँ और पटेश्वरी, दातादीन, झिंगुरी, सब सालों को पीटकर गिरा दूँ, और उनके पेट से रुपए निकाल लूँ। '
'रुपए की बहुत गर्मी चढ़ी है साइत। लाओ निकालो, देखूँ, इतने दिन में क्या कमा लाये हा? '
उसने गोबर की कमर में हाथ लगाया। गोबर खड़ा होकर बोला -- अभी क्या कमाया; हाँ, अब तुम चलोगी, तो कमाऊँगा। साल-भर तो सहर का रंग-ढंग पहचानने ही में लग गया।
'अम्माँ जाने देंगी, तब तो? '
'अम्माँ क्यों न जाने देंगी। उनसे मतलब? '
'वाह! मैं उनकी राज़ी बिना न जाऊँगी। तुम तो छोड़कर चलते बने। और मेरा कौन था यहाँ? वह अगर घर में न घुसने देतीं तो मैं कहाँ जाती? जब तक जीऊँगी, उनका जस गाऊँगी और तुम भी क्या परदेश ही करते रहोगे? '
'और यहाँ बैठकर क्या करूँगा। कमाओ और मरो, इसके सिवा यहाँ और क्या रखा है? थोड़ी-सी अकल हो और आदमी काम करने से न डरे, तो वहाँ भूखों नहीं मर सकता। यहाँ तो अकल कुछ काम ही नहीं करती। दादा क्यों मुझसे मुँह फुलाए हुए हैं? '
'अपने भाग बखानो कि मुँह फुलाकर छोड़ देते हैं। तुमने उपद्रव तो इतना बड़ा किया था कि उस क्रोध में पा जाते, तो मुँह लाल कर देते। '
'तो तुम्हें भी ख़ूब गालियाँ देते होंगे? '
'कभी नहीं, भूलकर भी नहीं। अम्माँ तो पहले बिगड़ी थीं; लेकिन दादा ने तो कभी कुछ नहीं कहा, जब बुलाते हैं, बड़े प्यार से। मेरा सिर भी दुखता है, तो बेचैन हो जाते हैं। अपने बाप को देखते तो मैं इन्हें देवता समझती हूँ। अम्माँ को समझाया करते हैं, बहू को कुछ न कहना। तुम्हारे ऊपर सैकड़ों बार बिगड़ चुके हैं कि इसे घर में बैठाकर आप न जाने कहाँ निकल गया। आज-कल पैसे-पैसे की तंगी है। ऊख के रुपए बाहर ही बाहर उड़ गये। अब तो मजूरी करनी पड़ती है। आज बेचारे खेत में बेहोश हो गये। रोना-पीटना मच गया। तब से पड़े हैं ' मुँह-हाथ धोकर और ख़ूब बाल बनाकर गोबर गाँव का दिग्विजय करने निकला। दोनों चाचाओं के घर जाकर राम-राम कर आया। फिर और मित्रों से मिला। गाँव में कोई विशेष परिवर्तन न था। हाँ, पटेश्वरी की नयी बैठक बन गयी थी और झिंगुरीसिंह ने दरवाज़े पर नया कुआँ खुदवा लिया था। गोबर के मन में विद्रोह और भी ताल ठोंकने लगा। जिससे मिला उसने उसका आदर किया, और युवकों ने तो उसे अपना हीरो बना लिया और उसके साथ लखनऊ जाने को तैयार हो गये। साल ही भर में वह क्या से क्या हो गया था। सहसा झिंगुरीसिंह अपने कुएँ पर नहाते हुए मिल गये। गोबर निकला; मगर न सलाम किया, न बोला। वह ठाकुर को दिखा देना चाहता था, मैं तुम्हें कुछ नहीं समझता। झिंगुरीसिंह ने ख़ुद ही पूछा -- कब आये गोबर, मज़े में तो रहे? कहीं नौकर थे लखनऊ में?
गोबर ने हेकड़ी के साथ कहा -- लखनऊ ग़ुलामी करने नहीं गया था। नौकरी है तो ग़ुलामी। मैं व्यापार करता था। ठाकुर ने कुतूहल भरी आँखों से उसे सिर से पाँव तक देखा -- कितना रोज़ पैदा करते थे?
गोबर ने छुरी को भाला बनाकर उनके ऊपर चलाया -- यही कोई ढाई-तीन रुपए मिल जाते थे। कभी चटक गयी तो चार भी मिल गये। इससे बेसी नहीं।
झिंगुरी बहुत नोच-खसोट करके भी पचीस-तीस से ज़्यादा न कमा पाते थे। और यह गँवार लौंडा सौ रुपए कमाने लगा। उनका मस्तक नीचा हो गया। अब किस दावे से उस पर रोब जमा सकते हैं? वर्ण में वह ज़रूर ऊँचे हैं; लेकिन वर्ण कौन देखता है! उससे स्पर्धा करने का यह अवसर नहीं, अब तो उसकी चिरौरी करके उससे कुछ काम निकाला जा सकता है। बोले -- इतनी कमाई कम नहीं है बेटा, जो ख़रच करते बने। गाँव में तो तीन आने भी नहीं मिलते। भवनिया ( उनके जेठे पुत्र का नाम था ) को भी कहीं कोई काम दिला दो, तो भेज दूँ। न पढ़े न लिखे, एक न एक उपद्रव करता रहता है। कहीं मुनीमी ख़ाली हो तो कहना। नहीं साथ ही लेते जाना। तुम्हारा तो मित्र है। तलब थोड़ी हो, कुछ ग़म नहीं, हाँ, चार पैसे की ऊपर की गुंजाइस हो।
गोबर ने अभिमान भरी हँसी के साथ कहा -- यह ऊपरी आमदनी की चाट आदमी को ख़राब कर देती है ठाकुर; लेकिन हम लोगों की आदत कुछ ऐसी बिगड़ गयी है कि जब तक बेईमानी न करें, पेट नहीं भरता। लखनऊ में मुनीमी मिल सकती है; लेकिन हर-एक महाजन ईमानदार चौकस आदमी चाहता है। मैं भवानी को किसी के गले बाँध तो दूँ; लेकिन पीछे इन्होंने कहीं हाथ लपकाया, तो वह तो मेरी गर्दन पकड़ेगा। संसार में इलम की क़दर नहीं है, ईमान की क़दर है।
यह तमाचा लगाकर गोबर आगे निकल गया। झिंगुरी मन में ऐंठकर रह गये। लौंडा कितने घमंड की बातें करता है, मानो धर्म का अवतार ही तो है। इसी तरह गोबर ने दातादीन को भी रगड़ा। भोजन करने जा रहे थे। गोबर को देखकर प्रसन्न होकर बोले -- मज़े में तो रहे गोबर? सुना वहाँ कोई अच्छी जगह पा गये हो। मातादीन को भी किसी हीले से लगा दो न? भंग पीकर पड़े रहने के सिवा यहाँ और कौन काम है।
गोबर ने बनाया -- तुम्हारे घर में किस बात की कमी महाराज, जिस जजमान के द्वार पर जाकर खड़े हो जाओ कुछ न कुछ मार ही लाओगे। जनम में लो, मरन में लो, सादी में लो, गमी में लो; खेती करते हो, लेन-देन करते हो, दलाली करते हो, किसी से कुछ भूल-चूक हो जाय तो डाँड़ लगाकर उसका घर लूट लेते हो; इतनी कमाई से पेट नहीं भरता? क्या करोगे बहुत-सा धन बटोरकर? कि साथ ले जाने की कोई जुगुत निकाल ली है?
दातादीन ने देखा, गोबर कितनी ढिठाई से बोल रहा है; अदब और लिहाज जैसे भूल गया। अभी शायद नहीं जानता कि बाप मेरी ग़ुलामी कर रहा है। सच है, छोटी नदी को उमड़ते देर नहीं लगती; मगर चेहरे पर मैल नहीं आने दिया। जैसे बड़े लोग बालकों से मूँछें उखड़वाकर भी हँसते हैं, उन्होंने भी इस फटकार को हँसी में लिया और विनोद-भाव से बोले -- लखनऊ की हवा खा के तू बड़ा चंट हो गया है गोबर! ला, क्या कमा के लाया है, कुछ निकाल।
'सच कहता हूँ गोबर तुम्हारी बहुत याद आती थी। अब तो रहोगे कुछ दिन?
'हाँ, अभी तो रहूँगा कुछ दिन। उन पंचों पर दावा करना है, जिन्होंने डाँड़ के बहाने मेरे डेढ़ सौ रुपए हज़म किये हैं। देखूँ, कौन मेरा हुक़्क़ा-पानी बन्द करता है। और कैसे बिरादरी मुझे जात बाहर करती है। '
यह धमकी देकर वह आगे बढ़ा। उसकी हेकड़ी ने उसके युवक भक्तों को रोब में डाल दिया था। एक ने कहा -- कर दो नालिस गोबर भैया! बुड्ढा काला साँप है -- जिसके काटे का मन्तर नहीं। तुमने अच्छी डाँट बताई। पटवारी के कान भी ज़रा गरमा दो। बड़ा मुतफन्नी है दादा! बाप-बेटे में आग लगा दे, भाई-भाई में आग लगा दे। कारिन्दे से मिलकर असामियों का गला काटता है। अपने खेत पीछे जोतो, पहले उसके खेत जोत दो। अपनी सिंचाई पीछे करो, पहले उसकी सिंचाई कर दो।
गोबर ने मूँछों पर ताव देकर कहा -- मुझसे क्या कहते हो भाई, साल भर में भूल थोड़े ही गया। यहाँ मुझे रहना ही नहीं है, नहीं एक-एक को नचाकर छोड़ता। अबकी होली धूम-धाम से मनाओ और होली का स्वाँग बनाकर इन सबों को ख़ूब भिंगो-भिंगोकर लगाओ। होली का प्रोग्राम बनने लगा। ख़ूब भंग घुटे, दूधिया भी, नमकीन भी, और रंगों के साथ कालिख भी बने और मुखियों के मुँह पर कालिख ही पोती जाय। होली में कोई बोल ही क्या सकता है! फिर स्वाँग निकले और पंचों की भद्द उड़ाई जाय। रुपए-पैसे की कोई चिन्ता नहीं। गोबर भाई कमाकर आये हैं। भोजन करके गोबर भोला से मिलने चला। जब तक अपनी जोड़ी लाकर अपने द्वार पर बाँध न दे, उसे चैन नहीं। वह लड़ने-मरने को तैयार था। होरी ने कातर स्वर में कहा -- राढ़ मत बढ़ाओ बेटा, भोला गोईं ले गये, भगवान् उनका भला करे; लेकिन उनके रुपए तो आते ही थे। गोबर ने उत्तेजित होकर कहा -- दादा, तुम बीच में न बोलो। उनकी गाय पचास की थी। हमारी गोईं डेढ़ सौ में आयी थी। तीन साल हमने जोती। फिर भी सौ की थी ही। वह अपने रुपये के लिए दावा करते, डिग्री कराते, या जो चाहते कहते, हमारे द्वार से जोड़ी क्यों खोल ले गये? और तुम्हें क्या कहूँ। इधर गोईं खो बैठे, उधर डेढ़ सौ रुपए डाँड़ के भरे। यह है गऊ होने का फल। मेरे सामने जोड़ी खोल ले जाते, तो देखता। तीनों को यहाँ ज़मीन पर सुला देता। और पंचों से तो बात तक न करता। देखता, कौन मुझे बिरादरी से अलग करता है; लेकिन तुम बैठे ताकते रहे। होरी ने अपराधी की भाँति सिर झुका लिया; लेकिन धनिया यह अनीत कैसे देख सकती थी। बोली -- बेटा, तुम भी अँधेर करते हो। हुक़्क़ा-पानी बन्द हो जाता, तो गाँव में निवार्ह होता! जवान लड़की बैठी है, उसका भी कहीं ठिकाना लगाना है कि नहीं? मरने-जीने में आदमी बिरादरी ...
गोबर ने बात काटी -- हुक़्क़ा-पानी सब तो था, बिरादरी में आदर भी था, फिर मेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ? बोलो। इसलिए कि घर में रोटी न थी। रुपए हों तो न हुक़्क़ा-पानी का काम है, न जात-बिरादरी का। दुनिया पैसे की है, हुक़्क़ा-पानी कोई नहीं पूछता। धनिया तो बच्चे का रोना सुनकर भीतर चली गयी और गोबर भी घर से निकला। होरी बैठा सोच रहा था। लड़के की अकल जैसे खुल गयी है। कैसी बेलाग बात कहता है। उसकी वक्त बुद्धि ने होरी के धर्म और नीति को परास्त कर दिया था। सहसा होरी ने उससे पूछा -- मैं भी चला चलूँ?
'मैं लड़ाई करने नहीं जा रहा हूँ दादा, डरो मत। मेरी ओर क़ानून है, मैं क्यों लड़ाई करने लगा? '
'मैं भी चलूँ तो कोई हरज़ है? '
'हाँ, बड़ा हरज़ है। तुम बनी बात बिगाड़ दोगे। '
होरी चुप हो गया और गोबर चल दिया। पाँच मिनट भी न हुए होंगे कि धनिया बच्चे को लिए बाहर निकली और बोली -- क्या गोबर चला गया, अकेले? मैं कहती हूँ, तुम्हें भगवान् कभी बुद्धि देंगे या नहीं। भोला क्या सहज में गोईं देगा? तीनों उस पर टूट पड़ेंगे, बाज़ की तरह। भगवान् ही कुशल करें। अब किससे कहूँ, दौड़कर गोबर को पकड़ ले। तुमसे तो मैं हार गयी। होरी ने कोने से डंडा उठाया और गोबर के पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर आकर उसने निगाह दौड़ाई। एक क्षीण-सी रेखा क्षितिज से मिली हुई दिखाई दी। इतनी ही देर में गोबर इतनी दूर कैसे निकल गया! होरी की आत्मा उसे धिक्कारने लगी। उसने क्यों गोबर को रोका नहीं। अगर वह डाँटकर कह देता, भोला के घर मत जाओ तो गोबर कभी न जाता। और अब उससे दौड़ा भी तो नहीं जाता। वह हारकर वहीं बैठ गया और बोला -- उसकी रच्छा करो महाबीर स्वामी! गोबर उस गाँव में पहुँचा, तो देखा कुछ लोग बरगद के नीचे बैठे जुआ खेल रहे हैं। उसे देखकर लोगों ने समझा, पुलीस का सिपाही है। कौड़ियाँ समेटकर भागे कि सहसा जंगी ने उसे पहचानकर कहा -- अरे, यह तो गोबरधन है। गोबर ने देखा, जंगी पेड़ की आड़ में खड़ा झाँक रहा है। बोला -- डरो मत जंगी भैया, मैं हूँ। राम-राम! आज ही आया हूँ। सोचा, चलूँ सबसे मिलता आऊँ, फिर न जाने कब आना हो! मैं तो भैया, तुम्हारे आसिरबाद से बड़े मज़े में निकल गया। जिस राजा की नौकरी मैं हूँ, उन्होंने मुझसे कहा है कि एक-दो आदमी मिल जायँ तो लेते आना। चौकीदारी के लिए चाहिए। मैंने कहा, सरकार ऐसे आदमी दूँगा कि चाहे जान चली जाय, मैदान से हटनेवाले नहीं, इच्छा हो तो मेरे साथ चलो। अच्छी जगह है। जंगी उसका ठाट-बाट देखकर रोब में आ गया। उसे कभी चमरौधे जूते भी मयस्सर न हुए थे। और गोबर चमाचम बूट पहने हुए था। साफ़-सुथरी, धारीदार कमीज़, सँवारे हुए बाल, पूरा बाबू साहब बना हुआ। फटेहाल गोबर और इस परिष्कृत गोबर में बड़ा अन्तर था। हिंसा-भाव कुछ तो यों ही समय के प्रभाव से शान्त हो गया था और बचा-खुचा अब शान्त हो गया। जुआड़ी था ही, उस पर गाँजे की लत। और घर में बड़ी मुश्किल से पैसे मिलते थे। मुँह में पानी भर आया। बोला -- चलूँगा क्यों नहीं, यहाँ पड़ा-पड़ा मक्खी ही तो मार रहा हूँ। कै रुपए मिलेंगे? गोबर ने बड़े आत्मविश्वास से कहा -- इसकी कुछ चिन्ता न करो। सब कुछ अपने ही हाथ में है। जो चाहोगे, वह हो जायगा। हमने सोचा, जब घर में ही आदमी है, तो बाहर क्यों जायँ।
जंगी ने उत्सुकता से पूछा -- काम क्या करना पड़ेगा?
'काम चाहे चौकीदारी करो, चाहे तगादे पर जाओ। तगादे का काम सबसे अच्छा। असामी से गठ गये। आकर मालिक से कह दिया, घर पर है नहीं, चाहो तो रुपए आठ आने रोज़ बना सकते हो। '
'रहने की जगह भी मिलती है? '
'जगह की कौन कमी। पूरा महल पड़ा है। पानी का नल, बिजली। किसी बात की कमी नहीं है। कामता हैं कि कहीं गये हैं? '
'दूध लेकर गये हैं। मुझे कोई बाज़ार नहीं जाने देता। कहते हैं, तुम तो गाँजा पी जाते हो। मैं अब बहुत कम पीता हूँ भैया, लेकिन दो पैसे रोज़ तो चाहिए ही। तुम कामता से कुछ न कहना। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। '
'हाँ-हाँ, बेखटके चलो। होली के बाद। '
'तो पक्की रही। '
दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ पहुँचे। भोला बैठे सुतली कात रहे थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक़्त उसका गला सचमुच भर आया। बोला -- काका, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई, उसे क्षमा करो।
भोला ने सुतली कातना बन्द कर दिया और पथरीले स्वर में बोला -- काम तो तुमने ऐसा ही किया था गोबर, कि तुम्हारा सिर काट लूँ तो भी पाप न लगे; लेकिन अपने द्वार पर आये हो, अब क्या कहूँ! जाओ, जैसा मेरे साथ किया उसकी सज़ा भगवान् देंगे। कब आये?
गोबर ने ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर अपने भाग्योदय का वृत्तान्त कहा, और जंगी को अपने साथ ले जाने की अनुमति माँगी। भोला को जैसे बेमाँगे वरदान मिल गया। जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता रहता था। बाहर चला जायगा, तो चार पैसे पैदा तो करेगा। न किसी को कुछ दे, अपना बोझ तो उठा लेगा। गोबर ने कहा -- नहीं काका, भगवान् ने चाहा और इनसे रहते बना तो साल दो साल में आदमी हो जायँगे।
'हाँ, जब इनसे रहते बने। '
'सिर पर आ पड़ती है, तो आदमी आप सँभल जाता है। '
'तो कब तक जाने का विचार है? '
'होली करके चला जाऊँगा। यहाँ खेती-बारी का सिलसिला फिर जमा दूँ, तो निसचिन्त हो जाऊँ। '
'होरी से कहो, अब बैठ के राम-राम करें। '
'कहता तो हूँ, लेकिन जब उनसे बैठा जाय। '
'वहाँ किसी बैद से तो तुम्हारी जान-पहचान होगी। खाँसी बहुत दिक कर रही है। हो सके तो कोई दवाई भेज देना। '
'एक नामी बैद तो मेरे पड़ोस ही में रहते हैं। उनसे हाल कहके दवा बनवा कर भेज दूँगा। खाँसी रात को ज़ोर करती है कि दिन को? '
'नहीं बेटा, रात को। आँख नहीं लगती। नहीं वहाँ कोई डौल हो, तो मैं भी वहीं चलकर रहूँ। यहाँ तो कुछ परता नहीं पड़ता। '
'रोज़गार का जो मज़ा वहाँ है काका, यहाँ क्या होगा? यहाँ रुपए का दस सेर दूध भी कोई नहीं पूछता। हलवाइयों के गले लगाना पड़ता है। वहाँ पाँच-छः सेर के भाव से चाहो तो एक घड़ी में मनों दूध बेच लो। '
जंगी गोबर के लिए दूधिया शर्बत बनाने चला गया था। भोला ने एकान्त देखकर कहा -- और भैया! अब इस जंजाल से जी ऊब गया है। जंगी का हाल देखते ही हो। कामता दूध लेकर जाता है। सानी-पानी, खोलना-बाँधना, सब मुझे करना पड़ता है। अब तो यही जी चाहता है कि सुख से कहीं एक रोटी खाऊँ और पड़ा रहूँ। कहाँ तक हाय-हाय करूँ। रोज़ लड़ाई-झगड़ा। किस-किस के पाँव सहलाऊँ। खाँसी आती है, रात को उठा नहीं जाता; पर कोई एक लोटे पानी को भी नहीं पूछता। पगहिया टूट गयी है, मुदा किसी को इसकी सुधि नहीं है। जब मैं बनाऊँगा तभी बनेगी।
गोबर ने आत्मीयता के साथ कहा -- तुम चलो लखनऊ काका। पाँच सेर का दूध बेचो, नगद। कितने ही बड़े-बड़े अमीरों से मेरी जान-पहचान है। मन-भर दूध की निकासी का ज़िम्मा मैं लेता हूँ। मेरी चाय की दूकान भी है। दस सेर दूध तो मैं ही नित लेता हूँ। तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।
जंगी दूधिया शर्बत ले आया। गोबर ने एक गिलास शर्बत पीकर कहा -- तुम तो ख़ाली साँझ सबेरे चाय की दूकान पर बैठ जाओ काका, तो एक रुपए कहीं नहीं गया है। भोला ने एक मिनट के बाद संकोच भरे भाव से कहा -- क्रोध में बेटा, आदमी अन्धा हो जाता है। मैं तुम्हारी गोईं खोल लाया था। उसे लेते जाना। यहाँ कौन खेती-बारी होती है।
'मैंने तो एक नयी गोईं ठीक कर ली है काका! '
'नहीं-नहीं, नयी गोईं लेकर क्या करोगे? इसे लेते जाओ। '
'तो मैं तुम्हारे रुपए भिजवा दूँगा। '
'रुपए कहीं बाहर थोड़े ही हैं बेटा, घर में ही तो हैं। बिरादरी का ढकोसला है, नहीं तुममें और हममें कौन भेद है? सच पूछो तो मुझे ख़ुश होना चाहिए था कि झुनिया भले घर में है, आराम से है। और मैं उसके ख़ून का प्यासा बन गया था। '
सन्ध्या समय गोबर यहाँ से चला, तो गोईं उसके साथ थी और दही की दो हाँड़ियाँ लिये जंगी पीछे-पीछे आ रहा था।
गोदान अध्याय 21
देहातों में साल के छः महीने किसी न किसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता रहता है। होली के एक महीना पहले से एक महीना बाद तक फाग उड़ती है; आषाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में कजलियाँ होती हैं। कजलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है। सेमरी भी अपवाद नहीं है। महाजन की धमकियाँ और कारिन्दे की बोलियाँ इस समारोह में बाधा नहीं डाल सकतीं। घर में अनाज नहीं है, देह पर कपड़े नहीं हैं, गाँठ में पैसे नहीं हैं, कोई परवाह नहीं। जीवन की आनन्दवृत्ति तो दबाई नहीं जा सकती, हँसे बिना तो जिया नहीं जा सकता। यों होली में गाने-बजाने का मुख्य स्थान नोखेराम की चौपाल थी। वहीं भंग बनती थी, वहीं रंग उड़ता था, वहीं नाच होता था। इस उत्सव में कारिन्दा साहब के दस-पाँच रुपए ख़र्च हो जाते थे। और किसमें यह सामथ्र्य थी कि अपने द्वार पर जलसा कराता? लेकिन अबकी गोबर ने गाँव के सारे नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच लिया है और नोखेराम की चौपाल ख़ाली पड़ी हुई है। गोबर के द्वार भंग घुट रही है, पान के बीड़े लग रहे हैं, रंग घोला जा रहा है, फ़र्श बिछा हुआ है, गाना हो रहा है, और चौपाल में सन्नाटा छाया हुआ है। भंग रखी हुई है, पीसे कौन? ढोल-मजीरा सब मौजूद है; पर गाये कौन? जिसे देखो, गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा रहा है। यहाँ भंग में गुलाब-जल और केसर और बादाम की बहार है। हाँ-हाँ, सेर-भर बादाम गोबर ख़ुद लाया। पीते ही चोला तर हो जाता है, आँखें खुल जाती हैं। ख़मीरा तमाखू लाया है, ख़ास बिसवाँ की! रंग में भी केवड़ा छोड़ा है। रुपए कमाना भी जानता है; और ख़रच करना भी जानता है। गाड़कर रख लो, तो कौन देखता है? धन की यही शोभा है। और केवल भंग ही नहीं है। जितने गानेवाले हैं, सबका नेवता भी है। और गाँव में न नाचनेवालों की कमी है, न गानेवालों की, न अभिनय करनेवालों की। शोभा ही लँगड़ों की ऐसी नक़ल करता है कि क्या कोई करेगा और बोली की नक़ल करने में तो उसका सानी नहीं है। जिसकी बोली कहो, उसकी बोले -- आदमी की भी, जानवर की भी। गिरधर नक़ल करने में बेजोड़ है। वकील की नक़ल वह करे, पटवारी की नक़ल वह करे, थानेदार की, चपरासी की, सेठ की -- सभी की नक़ल कर सकता है। हाँ, बेचारे के पास वैसा सामान नहीं है, मगर अबकी गोबर ने उसके लिए सभी सामान मँगा दिया है, और उसकी नक़लें देखने जोग होंगी। यह चर्चा इतनी फैली कि साँझ से ही तमाशा देखनेवाले जमा होने लगे। आस-पास के गाँवों से दर्शकों की टोलियाँ आने लगीं। दस बजते-बजते तीन-चार हज़ार आदमी जमा हो गये। और जब गिरधर झिंगुरीसिंह का रूप धरे अपनी मंडली के साथ खड़ा हुआ, तो लोगों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। वही खल्वाट सिर, वही बड़ी मूँछें, और वही तोंद! बैठे भोजन कर रहे हैं और पहली ठकुराइन बैठी पंखा झल रही हैं। ठाकुर ठकुराइन को रसिक नेत्रों से देखकर कहते हैं -- अब भी तुम्हारे ऊपर वह जोबन है कि कोई जवान भी देख ले, तो तड़प जाय। और ठकुराइन फूलकर कहती हैं, जभी तो गयी नवेली लाये।
'उसे तो लाया हूँ तुम्हारी सेवा करने के लिए। वह तुम्हारी क्या बराबरी करेगी? '
छोटी बीबी यह वाक्य सुन लेती है और मुँह फुलाकर चली जाती है। दूसरे दृश्य में ठाकुर खाट पर लेटे हैं और छोटी बहू मुँह फेरे हुए ज़मीन पर बैठी है। ठाकुर बार-बार उसका मुँह अपनी ओर फेरने की विफल चेष्टा करके कहते हैं -- मुझसे क्यों रूठी हो मेरी लाड़ली?
'तुम्हारी लाड़ली जहाँ हो, वहाँ जाओ। मैं तो लौंड़ी हूँ, दूसरों की सेवा-टहल करने के लिए आयी हूँ। '
'तुम मेरी रानी हो। तुम्हारी सेवा-टहल करने के लिए वह बुढ़िया है। '
पहली ठकुराइन सुन लेती हैं और झाड़ू लेकर घर में घुसती हैं और कई झाड़ू उन पर जमाती हैं। ठाकुर साहब जान बचाकर भागते हैं। फिर दूसरी नक़ल हुई, जिसमें ठाकुर ने दस रुपए का दस्तावेज़ लिखकर पाँच रुपए दिये, शेष नज़राने और तहरीर और दस्तूरी और ब्याज में काट लिये। किसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर रोने लगता है। बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपए देने पर राज़ी होते हैं। जब काग़ज़ लिख जाता है और आदमी के हाथ में पाँच रुपए रख दिये जाते हैं, तो वह चकराकर पूछता है -- ' यह तो पाँच ही हैं मालिक! '
'पाँच नहीं दस हैं। घर जाकर गिनना। '
'नहीं सरकार, पाँच हैं! '
'एक रुपया नज़राने का हुआ कि नहीं? '
'हाँ, सरकार! '
'एक तहरीर का? '
'हाँ, सरकार! '
'एक कागद का? '
'हाँ, सरकार! '
'एक दस्तूरी का? '
'हाँ, सरकार! '
'एक सूद का? '
'हाँ, सरकार! '
'पाँच नगद, दस हुए कि नहीं? '
'हाँ, सरकार! अब यह पाँचों भी मेरी ओर से रख लीजिए। '
'कैसा पागल है? '
'नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नज़राना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का। एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाक़ी बचा एक, वह आपकी क्रिया-करम के लिए। '
इसी तरह नोखेराम और पटेश्वरी और दातादीन की -- बारी-बारी से सबकी ख़बर ली गयी। और फबतियों में चाहे कोई नयापन न हो और नक़लें पुरानी हों; लेकिन गिरधारी का ढंग ऐसा हास्यजनक था, दर्शक इतने सरल हृदय थे कि बेबात की बात में भी हँसते थे। रात-भर भँड़ैती होती रही और सताये हुए दिल, कल्पना में प्रतिशोध पाकर प्रसन्न होते रहे। आख़िरी नक़ल समाप्त हुई, तो कौवे बोल रहे थे। सबेरा होते ही जिसे देखो, उसी की ज़बान पर वही रात के गाने, वही नक़ल, वही फ़िकरे। मुखिये तमाशा बन गये। जिधर निकलते हैं, उधर ही दो-चार लड़के पीछे लग जाते हैं और वही फ़िकरे कसते हैं। झिंगुरीसिंह तो दिल्लगीबाज़ आदमी थे, इसे दिल्लगी में लिया; मगर पटेश्वरी में चिढ़ने की बुरी आदत थी। और पण्डित दातादीन तो इतने तुनुक-मिज़ाज थे कि लड़ने पर तैयार हो जाते थे। वह सबसे सम्मान पाने के आदी थे। कारिन्दा की तो बात ही क्या, राय साहब तक उन्हें देखते ही सिर झुका देते थे। उनकी ऐसी हँसी उड़ाई जाय और अपने ही गाँव में -- यह उनके लिये असह्य था। अगर उनमें ब्रह्मतेज होता तो इन दुष्टों को भस्म कर देते। ऐसा शाप देते कि सब के सब भस्म हो जाते; लेकिन इस कलियुग शाप का असर ही जाता रहा। इसलिए उन्होंने कलियुगवाला हथियार निकाला। होरी के द्वार पर आये और आँखें निकालकर बोले -- क्या आज भी तुम काम करने न चलोगे होरी? अब तो तुम अच्छे हो गये। मेरा कितना हरज़ हो गया, यह तुम नहीं सोचते।
गोबर देर में सोया था। अभी-अभी उठा था और आँखें मलता हुआ बाहर आ रहा था कि दातादीन की आवाज़ कान में पड़ी। पालागन करना तो दूर रहा, उलटे और हेकड़ी दिखाकर बोला -- अब वह तुम्हारी मजूरी न करेंगे। हमें अपनी ऊख जो बोनी है।
दातादीन ने सुरती फाँकते हुए कहा -- काम कैसे नहीं करेंगे? साल के बीच में काम नहीं छोड़ सकते। जेठ में छोड़ना हो छोड़ दें, करना हो करें। उसके पहले नहीं छोड़ सकते।
गोबर ने जम्हाई लेकर कहा -- उन्होंने तुम्हारी ग़ुलामी नहीं लिखी है। जब तक इच्छा थी, काम किया। अब नहीं इच्छा है, नहीं करेंगे। इसमें कोई ज़बरदस्ती नहीं कर सकता।
'तो होरी काम नहीं करेंगे? '
'ना! '
'तो हमारे रुपए सूद समेत दे दो। तीन साल का सूद होता है सौ रुपया। असल मिलाकर दो सौ होते हैं। हमने समझा था, तीन रुपए महीने सूद में कटते जायँगे; लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो मत करो। मेरे रुपए दे दो। धन्ना सेठ बनते हो, तो धन्ना सेठ का काम करो।
होरी ने दातादीन से कहा -- तुम्हारी चाकरी से मैं कब इनकार करता हूँ महाराज? लेकिन हमारी ऊख भी तो बोने को पड़ी है।
गोबर ने बाप को डाँटा -- कैसी चाकरी और किसकी चाकरी? यहाँ तो कोई किसी का चाकर नहीं। सभी बराबर हैं। अच्छी दिल्लगी है। किसी को सौ रुपए उधार दे दिये और उससे सूद में ज़िन्दगी भर काम लेते रहे। मूल ज्यों का त्यों! यह महाजनी नहीं है, ख़ून चूसना है।
'तो रुपए दे दो भैया, लड़ाई काहे की। मैं आने रुपए ब्याज लेता हूँ। तुम्हें गाँवघर का समझकर आध आने रुपए पर दिया था। '
'हम तो एक रुपया सैकड़ा देंगे। एक कौड़ी बेसी नहीं। तुम्हें लेना हो तो लो, नहीं अदालत से लेना। एक रुपया सैकड़े ब्याज कम नहीं होता। '
'मालूम होता है, रुपए की गर्मी हो गयी है। '
'गर्मी उन्हें होती है, जो एक के दस लेते हैं। हम तो मजूर हैं। हमारी गर्मी पसीने के रास्ते बह जाती है। मुझे याद है, तुमने बैल के लिए तीस रुपए दिये थे। उसके सौ हुए। और अब सौ के दो सौ हो गये। इसी तरह तुम लोगों ने किसानों को लूट-लूटकर मजूर बना डाला और आप उनकी ज़मीन के मालिक बन बैठे। तीस के दो सौ! कुछ हद है। कितने दिन हुए होंगे दादा? '
होरी ने कातर कंठ से कहा -- यही आठ-नौ साल हुए होंगे। गोबर ने छाती पर हाथ रखकर कहा -- नौ साल में तीस रुपए के दो सौ! एक रुपए के हिसाब से कितना होता है? उसने ज़मीन पर एक ठीकरे से हिसाब लगाकर कहा -- दस साल में छत्तीस रुपए होते हैं। असल मिलाकर छाछठ। उसके सत्तर रुपए ले लो। इससे बेसी मैं एक कौड़ी न दूँगा।
दातादीन ने होरी को बीच में डालकर कहा -- सुनते हो होरी गोबर का फ़ैसला? मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर रुपए ले लूँ, नहीं अदालत करूँ। इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन संसार चलेगा? और तुम बैठे सुन रहे हो; मगर यह समझ लो, मैं ब्राह्मण हूँ, मेरे रुपए हज़म करके तुम चैन न पाओगे। मैंने ये सत्तर रुपए भी छोड़े, अदालत भी न जाऊँगा, जाओ। अगर मैं ब्राह्मण हूँ, तो अपने पूरे दो सौ रुपए लेकर दिखा दूँगा! और तुम मेरे द्वार पर आवोगे और हाथ बाँधकर दोगे।
दातादीन झल्लाये हुए लौट पड़े। गोबर अपनी जगह बैठा रहा। मगर होरी के पेट में धर्म की क्रान्ति मची हुई थी। अगर ठाकुर या बनिये के रुपए होते, तो उसे ज़्यादा चिन्ता न होती; लेकिन ब्राह्मण के रुपए! उसकी एक पाई भी दब गयी, तो हड्डी तोड़कर निकलेगी। भगवान् न करें कि ब्राह्मण का कोप किसी पर गिरे। बंस में कोई चिल्लू-भर पानी देनेवाला, घर में दिया जलानेवाला भी नहीं रहता। उसका धर्म भी, मन त्रस्त हो उठा। उसने दौड़कर पण्डितजी के चरण पकड़ लिये और आर्त स्वर में बोला -- महाराज, जब तक मैं जीता हूँ, तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा। लड़कों की बातों पर मत जाओ। मामला तो हमारे-तुम्हारे बीच में हुआ है। वह कौन होता है?
दातादीन ज़रा नरम पड़े -- ज़रा इसकी ज़बरदस्ती देखो, कहता है दो सौ रुपए के सत्तर लो या अदालत जाओ। अभी अदालत की हवा नहीं खायी है, जभी। एक बार किसी के पाले पड़ जायँगे, तो फिर यह ताव न रहेगा। चार दिन सहर में क्या रहे, तानासाह हो गये।
'मैं तो कहता हूँ महाराज, मैं तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा। '
'तो कल से हमारे यहाँ काम करने आना पड़ेगा। '
'अपनी ऊख बोना है महाराज, नहीं तुम्हारा ही काम करता। '
दातादीन चले गये तो गोबर ने तिरस्कार की आँखों से देखकर कहा -- गये थे देवता को मनाने! तुम्हीं लोगों ने तो इन सबों का मिज़ाज बिगाड़ दिया है। तीस रुपए दिये, अब दो सौ रुपए लेगा, और डाँट ऊपर से बतायेगा और तुमसे मजूरी करायेगा और काम कराते-कराते मार डालेगा ! '
होरी ने अपने विचार में सत्य का पक्ष लेकर कहा -- नीति हाथ से न छोड़ना चाहिए बेटा; अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। हमने जिस ब्याज पर रुपए लिए, वह तो देने ही पड़ेंगे। फिर ब्राह्मण ठहरे। इनका पैसा हमें पचेगा? ऐसा माल तो इन्हीं लोगों को पचता है।
गोबर ने त्योरियाँ चढ़ाईं -- नीति छोड़ने को कौन कह रहा है। और कौन कह रहा है कि ब्राह्मण का पैसा दबा लो? मैं तो यही कहता हूँ कि इतना सूद नहीं देंगे। बंकवाले बारह आने सूद लेते हैं। तुम एक रुपए ले लो। और क्या किसी को लूट लोगे?
'उनका रोयाँ जो दुखी होगा? '
'हुआ करे। उनके दुखी होने के डर से हम बिल क्यों खोदें? '
'बेटा, जब तक मैं जीता हूँ, मुझे अपने रास्ते चलने दो। जब मैं मर जाऊँ, तो तुम्हारी जो इच्छा हो वह करना। '
'तो फिर तुम्हीं देना। मैं तो अपने हाथों अपने पाँव में कुल्हाड़ी न मारूँगा। मेरा गधापन था कि तुम्हारे बीच में बोला -- तुमने खाया है, तुम भरो। मैं क्यों अपनी जान दूँ? '
यह कहता हुआ गोबर भीतर चला गया। झुनिया ने पूछा -- आज सबेरे-सबेरे दादा से क्यों उलझ पड़े?
गोबर ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया और अन्त में बोला -- इनके ऊपर रिन का बोझ इसी तरह बढ़ता जायगा। मैं कहाँ तक भरूँगा? उन्होंने कमा-कमाकर दूसरों का घर भरा है। मैं क्यों उनकी खोदी हुई खन्दक में गिरूँ? इन्होंने मुझसे पूछकर करज़ नहीं लिया। न मेरे लिए लिया। मैं उसका देनदार नहीं हूँ।
उधर मुखियों में गोबर को नीचा दिखाने के लिए षडयन्त्र रचा जा रहा था। यह लौंडा शिकंजे में न कसा गया, तो गाँव में अधर्म मचा देगा। प्यादे से फ़रज़ी हो गया है न, टेढ़े तो चलेगा ही। जाने कहाँ से इतना क़ानून सीख आया है? कहता है, रुपए सैकड़े सूद से बेसी न दूँगा। लेना हो तो लो, नहीं अदालत जाओ। रात इसने सारे गाँव के लौंडों को बटोरकर कितना अनर्थ किया। लेकिन मुखियों में भी ईर्ष्या की कमी न थी। सभी अपने बराबरवालों के परिहास पर प्रसन्न थे। पटेश्वरी और नोखेराम में बातें हो रही थीं। पटेश्वरी ने कहा -- मगर सबों को घर-घर की रत्ती-रत्ती का हाल मालूम है। झिंगुरीसिंह को तो सबों ने ऐसा रगेटा कि कुछ न पूछो। दोनों ठकुराइनों की बातें सुन-सुनकर लोग हँसी के मारे लोट गये। नोखेराम ने ठट्टा मारकर कहा -- मगर नक़ल सच्ची थी। मैंने कई बार उनकी छोटी बेगम को द्वार पर खड़े लौंडों से हँसी करते देखा।
'और बड़ी रानी काजल और सेंदुर और महावर लगाकर जवान बनी रहती हैं। '
'दोनों में रात-दिन छिड़ी रहती है। झिंगुरी पक्का बेहया है। कोई दूसरा होता तो पागल हो जाता। '
'सुना, तुम्हारी बड़ी भद्दी नक़ल की। चमरिया के घर में बन्द कराके पिटवाया। '
'मैं तो बचा पर बक़ाया लगान का दावा करके ठीक कर दूँगा। वह भी क्या याद करेंगे कि किसी से पाला पड़ा था। '
'लगान तो उसने चुका दिया है न? '
'लेकिन रसीद तो मैंने नहीं दी। सबूत क्या है कि लगान चुका दिया? और यहाँ कौन हिसाब-किताब देखता है? आज ही प्यादा भेजकर बुलाता हूँ। '
होरी और गोबर दोनों ऊख बोने के लिए खेत सींच रहे थे। अबकी ऊख की खेती होने की आशा तो थी नहीं, इसलिए खेत परती पड़ा हुआ था। अब बैल आ गये हैं, तो ऊख क्यों न बोई जाय! मगर दोनों जैसे छत्तीस बने हुए थे। न बोलते थे, न ताकते थे। होरी बैलों को हाँक रहा था और गोबर मोट ले रहा था। सोना और रूपा दोनों खेत में पानी दौड़ा रही थीं कि उनमें झगड़ा हो गया। विवाद का विषय यह था कि झिंगुरीसिंह को छोटी ठकुराइन पहले ख़ुद खाकर पति को खिलाती है या पति को खिलाकर तब ख़ुद खाती है। सोना कहती थी, पहले वह ख़ुद खाती है। रूपा का मत इसके प्रतिकूल था।
रूपा ने जिरह की -- अगर वह पहले खाती है, तो क्यों मोटी नहीं है? ठाकुर क्यों मोटे हैं? अगर ठाकुर उन पर गिर पड़ें, तो ठकुराइन पिस जायँ।
सोना ने प्रतिवाद किया -- तू समझती है, अच्छा खाने से लोग मोटे हो जाते हैं। अच्छा खाने से लोग बलवान् होते हैं, मोटे नहीं होते। मोटे होते हैं, घास-पात खाने से।
'तो ठकुराइन ठाकुर से बलवान है? '
'और क्या। अभी उस दिन दोनों में लड़ाई हुई, तो ठकुराइन ने ठाकुर को ऐसा ढकेला कि उनके घुटने फूट गये। '
'तो तू भी पहले आप खाकर तब जीजा को खिलायेगी? '
'और क्या। '
'अम्माँ तो पहले दादा को खिलाती हैं। '
'तभी तो जब देखो तब दादा डाँट देते हैं। मैं बलवान होकर अपने मरद को क़ाबू में रखूँगी। तेरा मरद तुझे पीटेगा, तेरी हड्डी तोड़कर रख देगा। '
रूपा रुआँसी होकर बोली -- क्यों पीटेगा, मैं मार खाने का काम ही न करूँगी। '
वह कुछ न सुनेगा। तूने ज़रा भी कुछ कहा और वह मार चलेगा। मारते-मारते तेरी खाल उधेड़ लेगा। '
रूपा ने बिगड़कर सोना की साड़ी दाँतों से फाड़ने की चेष्टा की। और असफल होने पर चुटकियाँ काटने लगी। सोना ने और चिढ़ाया -- वह तेरी नाक भी काट लेगा। इस पर रूपा ने बहन को दाँत से काट खाया। सोना की बाँह लहुआ गयी। उसने रूपा को ज़ोर से ढकेल दिया। वह गिर पड़ी और उठकर रोने लगी। सोना भी दाँतों के निशान देखकर रो पड़ी। उन दोनों का चिल्लाना सुनकर गोबर ग़ुस्से में भरा हुआ आया और दोनों को दो-दो घूँसे जड़ दिये। दोनों रोती हुई खेत से निकलकर घर चल दीं। सिंचाई का काम रुक गया। इस पर पिता-पुत्र में एक झड़प हो गयी।
होरी ने पूछा -- पानी कौन चलायेगा? दौड़े-दौड़े गये, दोनों को भगा आये। अब जाकर मना क्यों नहीं लाते?
'तुम्हीं ने इन सबों को बिगाड़ रखा है। '
'उस तरह मारने से और भी निर्लज्ज हो जायँगी। '
'दो जून खाना बन्द कर दो, आप ठीक हो जायँ। '
'मैं उनका बाप हूँ, क़साई नहीं हूँ। '
पाँव में एक बार ठोकर लग जाने के बाद किसी कारण से बार-बार ठोकर लगती है और कभी-कभी अँगूठा पक जाता है और महीनों कष्ट देता है। पिता और पूत्र के सद्भाव को आज उसी तरह की चोट लग गयी थी और उस पर यह तीसरी चोट पड़ी। गोबर ने घर जाकर झुनिया को खेत में पानी देने के लिए साथ लिया। झुनिया बच्चे को लेकर खेत में गयी। धनिया और उसकी दोनों बेटियाँ ताकती रहीं। माँ को भी गोबर की यह उद्दंडता बुरी लगती थी। रूपा को मारता तो वह बुरा न मानती, मगर जवान लड़की को मारना, यह उसके लिए असह्य था। आज ही रात को गोबर ने लखनऊ लौट जाने का निश्चय कर लिया। यहाँ अब वह नहीं रह सकता। जब घर में उसकी कोई पूछ नहीं है, तो वह क्यों रहे। वह लेन-देन के मामले में बोल नहीं सकता। लड़कियों को ज़रा मार दिया तो लोग ऐसे जामे के बाहर हो गये, मानो वह बाहर का आदमी है। तो इस सराय में वह न रहेगा। दोनों भोजन करके बाहर आये थे कि नोखेराम के प्यादे ने आकर कहा -- चलो, कारिन्दा साहब ने बुलाया है।
होरी ने गर्व से कहा -- रात को क्यों बुलाते हैं, मैं तो बाक़ी दे चुका हूँ।
प्यादा बोला -- मुझे तो तुम्हें बुलाने का हुक्म मिला है। जो कुछ अरज करना हो, वहीं चलकर करना। होरी की इच्छा न थी, मगर जाना पड़ा; गोबर विरक्त-सा बैठा रहा। आध घंटे में होरी लौटा और चिलम भर कर पीने लगा। अब गोबर से न रहा गया। पूछा -- किस मतलब से बुलाया था?
होरी ने भर्राई हुई आवाज़ में कहा -- मैंने पाई-पाई लगान चुका दिया। वह कहते हैं, तुम्हारे ऊपर दो साल की बाक़ी है। अभी उस दिन मैंने ऊख बेची, पचीस रुपए वहीं उनको दे दिये, और आज वह दो साल का बाक़ी निकालते हैं। मैंने कह दिया, मैं एक धेला न दूँगा।
गोबर ने पूछा -- तुम्हारे पास रसीद तो होगी?
'रसीद कहाँ देते हैं? '
'तो तुम बिना रसीद लिए रुपए देते ही क्यों हो? '
'मैं क्या जानता था, वह लोग बेईमानी करेंगे। यह सब तुम्हारी करनी का फल है। तुमने रात को उनकी हँसी उड़ाई, यह उसी का दंड है। पानी में रह कर मगर से बैर नहीं किया जाता। सूद लगाकर सत्तर रुपए बाक़ी निकाल दिये। ये किसके घर से आयेंगे? '
गोबर ने अपनी सफ़ाई देते हुए कहा -- तुमने रसीद ले ली होती तो मैं लाख उनकी हँसी उड़ाता, तुम्हारा बाल भी बाँका न कर सकते। मेरी समझ में नहीं आता कि लेन-देन में तुम सावधानी से क्यों काम नहीं लेते। यों रसीद नहीं देते, तो डाक से रुपया भेजो। यही तो होगा, एकाध रुपया महसूल पड़ जायगा। इस तरह की धाँधली तो न होगी।
'तुमने यह आग न लगाई होती, तो कुछ न होता। अब तो सभी मुखिया बिगड़े हुए हैं। बेदख़ली की धमकी दे रहे हैं, दैव जाने कैसे बेड़ा पार लगेगा! '
'मैं जाकर उनसे पूछता हूँ। ' ' तुम जाकर और आग लगा दोगे। '
'अगर आग लगानी पड़ेगी, तो आग भी लगा दूँगा। वह बेदख़ली करते हैं, करें। मैं उनके हाथ में गंगाजली रखकर अदालत में क़सम खिलाऊँगा। तुम दुम दबाकर बैठे रहो। मैं इसके पीछे जान लड़ा दूँगा। मैं किसी का एक पैसा दबाना नहीं चाहता, न अपना एक पैसा खोना चाहता हूँ। '
वह उसी वक़्त उठा और नोखेराम की चौपाल में जा पहुँचा। देखा तो सभी मुखिया लोगों का कैबिनेट बैठा हुआ है। गोबर को देखकर सब के सब सतर्क हो गये। वातावरण में षडयन्त्र की-सी कुंठा भरी हुई थी। गोबर ने उत्तेजित कंठ से पूछा -- यह क्या बात है कारिन्दा साहब, कि आपको दादा ने हाल तक का लगान चुकता कर दिया और आप अभी दो साल की बाक़ी निकाल रहे हैं। यह कैसा गोलमाल है?
नोखेराम ने मसनद पर लेटकर रोब दिखाते हुए कहा -- जब तक होरी है, मैं तुमसे लेन-देन की कोई बातचीत नहीं करना चाहता।
गोबर ने आहत स्वर में कहा -- तो मैं घर में कुछ नहीं हूँ?
'तुम अपने घर में सब कुछ होगे। यहाँ तुम कुछ नहीं हो। '
'अच्छी बात है, आप बेदख़ली दायर कीजिए। मैं अदालत में तुम से गंगाजली उठाकर रुपए दूँगा; इसी गाँव से एक सौ सहादतें दिलाकर साबित कर दूँगा कि तुम रसीद नहीं देते। सीधे-साधे किसान हैं, कुछ बोलते नहीं, तो तुमने समझ लिया कि सब काठ के उल्लू हैं। राय साहब वहीं रहते हैं, जहाँ मैं रहता हूँ। गाँव के सब लोग उन्हें हौवा समझते होंगे, मैं नहीं समझता। रत्ती-रत्ती हाल कहूँगा और देखूँगा तुम कैसे मुझ से दोबारा रुपए वसूल कर लेते हो। '
उसकी वाणी में सत्य का बल था। डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूँगा हो जाता है। वही सीमेंट जो ईट पर चढ़कर पत्थर हो जाता है, मिट्टी पर चढ़ा दिया जाय, तो मिट्टी हो जायगा। गोबर की निर्भीक स्पष्टवादिता ने उस अनीत के बख़्तर को बेध डाला जिससे सज्जित होकर नोखेराम की दुर्बल आत्मा अपने को शक्तिमान् समझ रही थी। नोखेराम ने जैसे कुछ याद करने का प्रयास करके कहा -- तुम इतना गर्म क्यों हो रहे हो, इसमें गर्म होने की कौन बात है। अगर होरी ने रुपए दिये हैं, तो कहीं-न-कहीं तो टाँक गये होंगे। मैं कल काग़ज़ निकालकर देखूँगा। अब मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा है कि शायद होरी ने रुपए दिये थे। तुम निसाख़ातिर रहे; अगर रुपए यहाँ आ गये हैं, तो कहीं जा नहीं सकते। तुम थोड़े-से रुपये के लिए झूठ थोड़े ही बोलोगे और न मैं ही इन रुपयों से धनी हो जाऊँगा। गोबर ने चौपाल से आकर होरी को ऐसा लथाड़ा कि बेचारा स्वार्थ-भी, बूढ़ा रुआँसा हो गया -- तुम तो बच्चों से भी गये-बीते हो जो बिल्ली की म्याऊँ सुनकर चिल्ला उठते हैं। कहाँ-कहाँ तुम्हारी रच्छा करता फिरूँगा। मैं तुम्हें सत्तर रुपए दिये जाता हूँ। दातादीन ले तो देकर भरपाई लिखा देना। इसके ऊपर तुमने एक पैसा भी दिया तो फिर मुझसे एक पैसा भी न पाओगे। मैं परदेश में इसलिए नहीं पड़ा हूँ कि तुम अपने को लुटवाते रहो और मैं कमाकर भरता रहूँ, मैं कल चला जाऊँगा; लेकिन इतना कहे देता हूँ, किसी से एक पैसा उधार मत लेना और किसी को कुछ मत देना। मँगरू, दुलारी, दातादीन -- सभी से एक रुपया सैकड़े सूद कराना होगा। धनिया भी खाना खाकर बाहर निकल आयी। बोली -- अभी क्यों जाते हो बेटा, दो-चार दिन और रहकर ऊख की बोनी करा लो और कुछ लेन-देन का हिसाब भी ठीक कर लो, तो जाना।
गोबर ने शान जमाते हुए कहा -- मेरा दो-तीन रुपए रोज़ का घाटा हो रहा है, यह भी समझती हो! यहाँ मैं बहुत-बहुत तो चार आने की मजूरी ही तो करता हूँ। और अबकी मैं झुनिया को भी लेता जाऊँगा। वहाँ मुझे खाने-पीने की बड़ी तकलीफ़ होती है।
धनिया ने डरते-डरते कहा -- जैसी तुम्हारी इच्छा; लेकिन वहाँ वह कैसे अकेले घर सँभालेगी, कैसे बच्चे की देख-भाल करेगी? '
'अब बच्चे को देखूँ कि अपना सुभीता देखूँ, मुझसे चूल्हा नहीं फूँका जाता। '
'ले जाने को मैं नहीं रोकती, लेकिन परदेश में बाल-बच्चों के साथ रहना, न कोई आगे न पीछे; सोचो कितना झंझट है। '
'परदेश में संगी-साथी निकल ही आते हैं अम्माँ और यह तो स्वारथ का संसार है। जिसके साथ चार पैसे ग़म खाओ वही अपना। ख़ाली हाथ तो माँ-बाप भी नहीं पूछते। ' धनिया कटाक्ष समझ गयी। उसके सिर से पाँव तक आग लग गयी। बोली -- माँ-बाप को भी तुमने उन्हीं पैसे के यारों में समझ लिया?
'आँखों देख रहा हूँ। '
'नहीं देख रहे हो; माँ-बाप का मन इतना निठुर नहीं होता। हाँ, लड़के अलबत्ता जहाँ चार पैसे कमाने लगे कि माँ-बाप से आँखें फेर लीं। इसी गाँव में एक-दो नहीं, दस-बीस परतोख दे दूँ। माँ-बाप करज़-कवाम लेते हैं, किसके लिए? लड़के-लड़कियों ही के लिए कि अपने भोग-विलास के लिए। '
'क्या जाने तुमने किसके लिए करज़ लिया? मैंने तो एक पैसा भी नहीं जाना। '
'बिना पाले ही इतने बड़े हो गये? '
'पालने में तुम्हारा लगा क्या? जब तक बच्चा था, दूध पिला दिया। फिर लावारिस की तरह छोड़ दिया। जो सबने खाया, वही मैंने खाया। मेरे लिए दूध नहीं आता था, मक्खन नहीं बँधा था। और तुम भी चाहती हो, और दादा भी चाहते हैं कि मैं सारा करज़ा चुकाऊँ, लगान दूँ, लड़कियों का ब्याह करूँ। जैसे मेरी ज़िन्दगी तुम्हारा देना भरने ही के लिए है। मेरे भी तो बाल-बच्चे हैं? ' धनिया सन्नाटे में आ गयी। एक ही क्षण में उसके जीवन का मृदु स्वप्न जैसे टूट गया। अब तक वह मन में प्रसन्न थी कि अब उसका दुःख-दरिद्र सब दूर हो गया। जब से गोबर घर आया उसके मुख पर हास की एक छटा खिली रहती थी। उसकी वाणी में मृदुता और व्यवहारों में उदारता आ गयी। भगवान् ने उस पर दया की है, तो उसे सिर झुकाकर चलना चाहिए। भीतर की शान्ति बाहर सौजन्य बन गयी थी। ये शब्द तपते हुए बालू की तरह हृदय पर पड़े और चने की भाँति सारे अरमान झुलस गये। उसका सारा घमंड चूर-चूर हो गया। इतना सुन लेने के बाद अब जीवन में क्या रस रह गया। जिस नौका पर बैठकर इस जीवन-सागर को पार करना चाहती थी, वह टूट गयी, तो किस सुख के लिए जिये! लेकिन नहीं। उसका गोबर इतना स्वार्थी नहीं है। उसने कभी माँ की बात का जवाब नहीं दिया, कभी किसी बात के लिए ज़िद नहीं की। जो कुछ रूखा-सूखा मिल गया, वही खा लेता था। वही भोला-भाला शील-स्नेह का पुतला आज क्यों ऐसी दिल तोड़नेवाली बातें कर रहा है? उसकी इच्छा के विरुद्ध तो किसी ने कुछ नहीं कहा। माँ-बाप दोनों ही उसका मुँह जोहते रहते हैं। उसने ख़ुद ही लेन-देन की बात चलायी; नहीं उससे कौन कहता है कि तु माँ-बाप का देना चुका। माँ-बाप के लिए यही क्या कम सुख है कि वह इज़्ज़त-आबरू के साथ भलेमानसों की तरह कमाता-खाता है। उससे कुछ हो सके, तो माँ-बाप की मदद कर दे। नहीं हो सकता तो माँ-बाप उसका गला न दबायेंगे। झुनिया को ले जाना चाहता है, ख़ुशी से ले जाय। धनिया ने तो केवल उसकी भलाई के ख़याल से कहा था कि झुनिया को वहाँ ले जाने में उसे जितना आराम मिलेगा उससे कहीं ज़्यादा झंझट बढ़ जायगा। उसमें ऐसी-कौन-सी लगनेवाली बात थी कि वह इतना बिगड़ उठा। हो न हो, यह आग झुनिया ने लगाई है। वही बैठे-बैठे उसे मन्तर पढ़ा रही है। यहाँ सौक-सिंगार करने को नहीं मिलता; घर का कुछ न कुछ काम भी करना ही पड़ता है। वहाँ रुपए-पैसे हाथ में आयेंगे, मज़े से चिकना खायगी, चिकना पहनेगी और टाँग फैलाकर सोयेगी। दो आदमियों की रोटी पकाने में क्या लगता है, वहाँ तो पैसा चाहिए। सुना, बाज़ार में पकी-पकाई रोटियाँ मिल जाती हैं। यह सारा उपद्रव उसी ने खड़ा किया है, सहर में कुछ दिन रह भी चुकी है। वहाँ का दाना-पानी मुँह लगा हुआ है। यहाँ कोई पूछता न था। यह भोंदू मिल गया। इसे फाँस लिया। जब यहाँ पाँच महीने का पेट लेकर आयी थी, तब कैसी म्याँव-म्याँव करती थी। तब यहाँ सरन न मिली होती, तो आज कहीं भीख माँगती होती। यह उसी नेकी का बदला है! इसी चुड़ैल के पीछे डाँड़ देना पड़ा, बिरादरी में बदनामी हुई, खेती टूट गयी, सारी दुर्गत हो गयी। और आज यह चुड़ैल जिस पत्तल में खाती है उसी में छेद कर रही है। पैसे देखे, तो आँख हो गयी। तभी ऐंठी-ऐंठी फिरती है मिज़ाज नहीं मिलता। आज लड़का चार पैसे कमाने लगा है न। इतने दिनों बात नहीं पूछी, तो सास का पाँव दबाने के लिए तेल लिए दौड़ती थी। डाइन उसके जीवन की निधि को उसके हाथ से छीन लेना चाहती है। दुखित स्वर में बोली -- यह मन्तर तुम्हें कौन दे रहा है बेटा, तुम तो ऐसे न थे। माँ-बाप तुम्हारे ही हैं, बहनें तुम्हारी ही हैं, घर तुम्हारा ही है। यहाँ बाहर का कौन है। और हम क्या बहुत दिन बैठे रहेंगे? घर की मरज़ाद बनाये रहोगे, तो तुम्हीं को सुख होगा। आदमी घरवालों ही के लिए धन कमाता है कि और किसी के लिए? अपना पेट तो सुअर भी पाल लेता है। मैं न जानती थी, झुनिया नागिन बनकर हमी को डसेगी।
गोबर ने तिनककर कहा -- अम्माँ, नादान नहीं हूँ कि झुनिया मुझे मन्तर पढ़ायेगी। तुम उसे नाहक़ कोस रही हो। तुम्हारी गिरस्ती का सारा बोझ मैं नहीं उठा सकता। मुझ से जो कुछ हो सकेगा, तुम्हारी मदद कर दूँगा; लेकिन अपने पाँवों में बेड़ियाँ नहीं डाल सकता।
झुनिया भी कोठरी से निकलकर बोली -- अम्माँ, जुलाहे का ग़ुस्सा डाढ़ी पर न उतारे। कोई बच्चा नहीं है कि उन्हें फोड़ लूँगी। अपना-अपना भला-बुरा सब समझते हैं। आदमी इसीलिए नहीं जन्म लेता कि सारी उम्र तपस्या करता रहे, और एक दिन ख़ाली हाथ मर जाय। सब ज़िन्दगी का कुछ सुख चाहते हैं, सब की लालसा होती है कि हाथ में चार पैसे हों।
धनिया ने दाँत पीस कर कहा -- अच्छा झुनिया, बहुत ज्ञान न बघार। अब तू भी अपना भला-बुरा सोचने योग हो गयी है। जब यहाँ आकर मेरे पैरों पर सिर रक्खे रो रही थी, तब अपना भला-बुरा नहीं सूझा था? उस घड़ी हम भी अपना भला-बुरा सोचने लगते, तो आज तेरा कहीं पता न होता। इसके बाद संग्राम छिड़ गया। ताने-मेहने, गाली-गलौज, थुक्का-फ़जीहत, कोई बात न बची।
गोबर भी बीच-बीच में डंक मारता जाता था। होरी बरौठे में बैठा सब कुछ सुन रहा था। सोना और रूपा आँगन में सिर झुकाये खड़ी थीं; दुलारी, पुनिया और कई स्त्रियाँ बीच-बचाव करने आ पहुँची थीं। गरजन के बीच में कभी-कभी बूँदें भी गिर जाती थीं। दोनों ही अपने-अपने भाग्य को रो रही थीं। दोनों ही ईश्वर को कोस रही थीं, और दोनों अपनी-अपनी निदोर्षिता सिद्ध कर कही थीं। झुनिया गड़े मुर्दे उखाड़ रही थी। आज उसे हीरा और शोभा से विशेष सहानुभूति हो गयी थी, जिन्हें धनिया ने कहीं का न रखा था। धनिया की आज तक किसी से न पटी थी, तो झुनिया से कैसे पट सकती है। धनिया अपनी सफ़ाई देने की चेष्टा कर रही थी; लेकिन न जाने क्या बात थी कि जनमत झुनिया की ओर था। शायद इसलिए कि झुनिया संयम हाथ से न जाने देती थी और धनिया आपे से बाहर थी। शायद इसलिए कि झुनिया अब कमाऊ पुरुष की स्त्री थी और उसे प्रसन्न रखने में ज़्यादा मसलहत थी।
तब होरी ने आँगन में आकर कहा -- मैं तेरे पैरों पड़ता हूँ धनिया, चुप रह। मेरे मुँह में कालिख मत लगा। हाँ, अभी मन न भरा हो तो और सुन।
धनिया फुँकार मारकर उधर दौड़ी -- तुम भी मोटी डाल पकड़ने चले। मैं ही दोषी हूँ। वह तो मेरे ऊपर फूल बरसा रही है? संग्राम का क्षेत्र बदल गया।
'जो छोटों के मुँह लगे, वह छोटा। '
धनिया किस तर्क से झुनिया को छोटा मान ले? होरी ने व्यथित कंठ से कहा -- अच्छा वह छोटी नहीं, बड़ी सही। जो आदमी नहीं रहना चाहता, क्या उसे बाँधकर रखेगी? माँ-बाप का धरम है, लड़के को पालपोसकर बड़ा कर देना। वह हम कर चुके। उनके हाथ-पाँव हो गये। अब तू क्या चाहती है, वे दाना-चारा लाकर खिलायें। माँ-बाप का धरम सोलहो आना लड़कों के साथ है। लड़कों का माँ-बाप के साथ एक आना भी धरम नहीं है। जो जाता है उसे असीस देकर बिदा कर दे। हमारा भगवान् मालिक है। जो कुछ भोगना बदा है, भोगेंगे। चालीस सात सैंतालीस साल इसी तरह रोते-धोते कट गये। दस-पाँच साल हैं, वह भी यों ही कट जायँगे। उधर गोबर जाने की तैयारी कर रहा था। इस घर का पानी भी उसके लिए हराम है। माता होकर जब उसे ऐसी-ऐसी बातें कहे, तो अब वह उसका मुँह भी न देखेगा। देखते ही देखते उसका बिस्तर बँध गया। झुनिया ने भी चुँदरी पहन ली। मुन्नू भी टोप और फ़्राक पहनकर राजा बन गया।
होरी ने आर्द्र कंठ से कहा -- बेटा, तुमसे कुछ कहने का मुँह तो नहीं है; लेकिन कलेजा नहीं मानता। क्या ज़रा जाकर अपनी अभागिनी माता के पाँव छू लोगे, तो कुछ बुरा होगा? जिस माता की कोख से जनम लिया और जिसका रक्त पीकर पले हो, उसके साथ इतना भी नहीं कर सकते?
गोबर ने मुँह फेरकर कहा -- मैं उसे अपनी माता नहीं समझता।
होरी ने आँखों में आँसू लाकर कहा -- जैसी तुम्हारी इच्छा। जहाँ रहो, सुखी रहो।
झुनिया ने सास के पास जाकर उसके चरणों को अंचल से छुआ। धनिया के मुँह से असीस का एक शब्द भी न निकला। उसने आँख उठाकर देखा भी नहीं। गोबर बालक को गोद में लिए आगे-आगे था। झुनिया बिस्तर बग़ल में दबाये पीछे। एक चमार का लड़का सन्दूक़ लिये था। गाँव के कई स्त्री-पुरुष गोबर को पहुँचाने गाँव के बाहर तक आये। और धनिया बैठी रो रही थी, जैसे कोई उसके हृदय को आरे से चीर रहा हो। उसका मातृत्व उस घर के समान हो रहा था, जिसमें आग लग गयी हो और सब कुछ भस्म हो गया हो। बैठकर रोने के लिए भी स्थान न बचा हो।
गोदान अध्याय 22
इधर कुछ दिनों से राय साहब की कन्या के विवाह की बातचीत हो रही थी। उसके साथ ही एलेक्शन भी सिर पर आ पहुँचा था; मगर इन सबों से आवश्यक उन्हें दीवानी में एक मुक़दमा दायर करना था जिसकी कोर्ट-फ़ीस ही पचास हज़ार होती थी, ऊपर के ख़र्च अलग। राय साहब के साले जो अपनी रियासत के एकमात्र स्वामी थे, ऐन जवानी में मोटर लड़ जाने के कारण गत हो गये थे, और राय साहब अपने कुमार पुत्र की ओर से उस रियासत पर अधिकार पाने के लिए क़ानून की शरण लेना चाहते थे। उनके चचेरे सालों ने रियासत पर कब्ज़ा जमा लिया था और राय साहब को उसमें से कोई हिस्सा देने पर तैयार न थे। राय साहब ने बहुत चाहा कि आपस में समझौता हो जाय और उनके चचेरे साले माकूल गुज़ारा लेकर हट जायें, यहाँ तक कि वह उस रियासत की आधी आमदनी छोड़ने पर तैयार थे; मगर सालों ने किसी तरह का समझौता स्वीकार न किया, और केवल लाठी के ज़ोर से रियासत में तहसील-वसूल शुरू कर दी। राय साहब को अदालत की शरण जाने के सिवा कोई मार्ग न रहा। मुक़दमे में लाखों का ख़र्च था; मगर रियासत भी बीस लाख से कम की जायदाद न थी। वकीलों ने निश्चय रूप से कह दिया था कि आपकी शर्तिया डिग्री होगी। ऐसा मौक़ा कौन छोड़ सकता था? मुश्किल यही था कि यह तीनों काम एक साथ आ पड़े थे और उन्हें किसी तरह टाला न जा सकता था। कन्या की अवस्था १८ वर्ष की हो गयी थी और केवल हाथ में रुपए न रहने का कारण अब तक उसका विवाह टल जाता था। ख़र्च का अनुमान एक लाख का था। जिसके पास जाते, वही बड़ा-सा मुँह खोलता; मगर हाल में एक बड़ा अच्छा अवसर हाथ आ गया था। कुँवर दिग्विजयसिंह की पत्नी यक्ष्मा की भेंट हो चुकी थी, और कुँवर साहब अपने उजड़े घर को जल्द से जल्द बसा लेना चाहते थे। सौदा भी वारे से तय हो गया और कहीं शिकार हाथ से निकल न जाय, इसलिए इसी लग्न में विवाह होना परमावश्यक था। कुँवर साहब दुर्वासनाओं के भंडार थे। शराब, गाँजा, अफ़ीम, मदक, चरस, ऐसा कोई नशा न था, जो वह न करते हों। और ऐयाशी तो रईस की शोभा है। वह रईस ही क्या, जो ऐयाश न हो। धन का उपभोग और किया ही कैसे जाय? मगर इन सब दुर्गुणों के होते हुए भी वह ऐसे प्रतिभावान् थे कि अच्छे-अच्छे विद्वान् उनका लोहा मानते थे। संगीत, नाट्यकला, हस्तरेखा, ज्योतिष, योग, लाठी, कुश्ती, निशानेबाज़ी आदि कलाओं में अपना जोड़ न रखते थे। इसके साथ ही बड़े दबंग और निर्भीक थे। राष्ट्रीय आन्दोलन में दिल खोलकर सहयोग देते थे; हाँ, गुप्त रूप से। अधिकारियों से यह बात छिपी न थी, फिर भी उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी और साल में एक-दो बार गवर्नर साहब भी उनके मेहमान हो जाते थे। और अभी अवस्था तीस-बत्तीस से अधिक न थी और स्वास्थ्य तो ऐसा था कि अकेले एक बकरा खाकर हज़म कर डालते थे। राय साहब ने समझा, बिल्ली के भागों छींका टूटा। अभी कुँवर साहब षोडशी से निवृत्त भी न हुए थे कि राय साहब ने बातचीत शुरू कर दी। कुँवर साहब के लिए विवाह केवल अपना प्रभाव और शक्ति बढ़ाने का साधन था। राय साहब कौंसिल के मेम्बर थे ही; यों भी प्रभावशाली थे। राष्ट्रीय संग्राम में अपने त्याग का परिचय देकर श्रद्धा के पात्र भी बन चुके थे। शादी तय होने में कोई बाधा न हो सकती थी। और वह तय हो गयी। रहा एलेक्शन। यह सोने की हँसिया थी, जिसे न उगलते बनता था, न निगलते। अब तक वह दो बार निर्वाचित हो चुके थे और दोनों ही बार उन पर एक-एक लाख की चपत पड़ी थी; मगर अबकी एक राजा साहब उसी इलाक़े से खड़े हो गये थे और डंके की चोट ऐलान कर दिया था कि चाहे हर एक वोटर को एक-एक हज़ार ही क्यों न देना पड़े, चाहे पचास लाख की रियासत मिट्टी में मिल जाय; मगर राय अमरपालसिंह को कौंसिल में न जाने दूँगा। और उन्हें अधिकारियों ने अपनी सहायता का आश्वासन भी दे दिया था। राय साहब विचारशील थे, चतुर थे, अपना नफ़ा-नुक़सान समझते थे; मगर राजपूत थे। और पोतड़ों के रईस थे। वह चुनौती पाकर मैदान से कैसे हट जायँ? यों उनसे राजा सूर्यप्रतापसिंह ने आकर कहा होता, भाई साहब, आप तो दो बार कौंसिल में जा चुके, अबकी मुझे जाने दीजिए, तो शायद राय साहब ने उनका स्वागत किया होता। कौंसिल का मोह अब उन्हें न था; लेकिन इस चुनौती के सामने ताल ठोंकने के सिवा और कोई राह ही न थी। एक मसलहत और भी थी। मिस्टर तंखा ने उन्हें विश्वास दिलाया था कि आप खड़े हो जायँ, पीछे राजा साहब से एक लाख की थैली लेकर बैठ जाइएगा। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि राजा साहब बड़ी ख़ुशी से एक लाख दे देंगे; मेरी उनसे बातचीत हो चुकी है; पर अब मालूम हुआ, राजा साहब राय साहब को परास्त करने का गौरव नहीं छोड़ना चाहते और इसका मुख्य कारण था, राय साहब की लड़की की शादी कुँवर साहब से ठीक होना। दो प्रभावशाली घरानों का संयोग वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक समझते थे।
उधर राय साहब को ससुराली ज़ायदाद मिलने की भी आशा थी। राजा साहब के पहलू में यह काँटा भी बुरी तरह खटक रहा था। कहीं वह ज़ायदाद इन्हें मिल गयी -- और क़ानून राय साहब के पक्ष में था ही -- तब तो राजा साहब का एक प्रतिद्वन्दी खड़ा हो जायगा; इसलिए उनका धर्म था कि राय साहब को कुचल डालें और उनकी प्रतिष्ठा धूल में मिला दें। बेचारे राय साहब बड़े संकट नें पड़ गये थे। उन्हें यह सन्देह होने लगा था कि केवल अपना मतलब निकालने के लिए मिस्टर तंखा ने उन्हें धोखा दिया। यह ख़बर मिली थी कि अब राजा साहब के पैरोकार हो गये हैं। यह राय साहब के घाव पर नमक था। उन्होंने कई बार तंखा को बुलाया था; मगर वह या तो घर पर मिलते ही न थे, या आने का वादा करके भूल जाते थे। आख़िर आज ख़ुद उनसे मिलने का इरादा करके वह उनके पास जा पहुँचे।
संयोग से मिस्टर तंखा घर पर मिल गये; मगर राय साहब को पूरे घंटे-भर उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। यह वही मिस्टर तंखा हैं, जो राय साहब के द्वार पर एक बार रोज़ हाज़िरी दिया करते थे। आज इतना मिज़ाज हो गया है। जले बैठे थे। ज्योंही मिस्टर तंखा सजे-सजाये, मुँह में सिगार दबाये कमरे में आये और हाथ बढ़ाया कि राय साहब ने बमगोला छोड़ दिया -- मैं घंटे-भर से यहाँ बैठा हुआ हूँ और आप निकलते-निकलते अब निकले हैं। मैं इसे अपनी तौहीन समझता हूँ!
मिस्टर तंखा ने एक सोफ़े पर बैठकर निश्चिन्त भाव से धुआँ उड़ाते हुए कहा -- मुझे इसका खेद है। मैं एक ज़रूरी काम में लगा था। आपको फ़ोन करके मुझसे समय ठीक कर लेना चाहिए था।
आग में घी पड़ गया; मगर राय साहब ने क्रोध को दबाया। वह लड़ने न आये थे। इस अपमान को पी जाने का ही अवसर था। बोले -- हाँ, यह गलती हुई। आजकल आपको बहुत कम फ़ुरसत रहती है, शायद।
'जी हाँ, बहुत कम, वरना मैं अवश्य आता। '
'मैं उसी मुआमले के बारे में आप से पूछने आया था। समझौता की तो कोई आशा नहीं मालूम होती। उधर तो जंग की तैयारियाँ बड़े ज़ोरों से हो रही हैं। '
'राजा साहब को तो आप जानते ही हैं, झक्कड़ आदमी हैं, पूरे सनकी। कोई न कोई धुन उन पर सवार रहती है। आजकल यही धुन है कि राय साहब को नीचा दिखाकर रहेंगे। और उन्हें जब एक धुन सवार हो जाती है, तो फिर किसी की नहीं सुनते, चाहे कितना ही नुक़सान उठाना पड़े। कोई चालीस लाख का बोझ सिर पर है, फिर भी वही दम-ख़म है, वही अलल्ले-तलल्ले ख़र्च हैं। पैसे को तो कुछ समझते ही नहीं। नौकरों का वेतन छः-छः महीने से बाक़ी पड़ा हुआ है; मगर हीरा-महल बन रहा है। संगमरमर का तो फ़र्श है। पच्चीकारी ऐसी हो रही है कि आँखें नहीं ठहरतीं। अफ़सरों के पास रोज़ डालियाँ जाती रहती हैं। सुना है, कोई अँग्रेज़ मैनेजर रखने वाले हैं। '
'फिर आपने कैसे कह दिया था कि आप कोई समझौता करा देंगे। '
'मुझसे जो कुछ हो सकता था वह मैंने किया। इसके सिवा मैं और क्या कर सकता था। अगर कोई व्यक्ति अपने दो-चार लाख रुपए फूँकने ही पर तुला हुआ हो, तो मेरा क्या बस! '
राय साहब अब क्रोध न सँभाल सके -- ख़ासकर जब उन दो-चार लाख रुपए में से दस-बीस हज़ार आपके हत्थे चढ़ने की भी आशा हो।
मिस्टर तंखा क्यों दबते। बोले -- राय साहब, अब साफ़-साफ़ न कहलवाइए। यहाँ न मैं संन्यासी हूँ, न आप। हम सभी कुछ न कुछ कमाने ही निकले हैं। आँख के अँधों और गाँठ के पूरों की तलाश आपको भी उतनी ही है, जितनी मुझको। आपसे मैंने खड़े होने का प्रस्ताव किया। आप एक लाख के लोभ से खड़े हो गये; अगर गोटी लाल हो जाती, तो आज आप एक लाख के स्वामी होते और बिना एक पाई क़रज़ लिये कुँवर साहब से सम्बन्ध भी हो जाता और मुक़दमा भी दायर हो जाता; मगर आपके दुर्भाग्य से वह चाल पट पड़ गयी। जब आप ही ठाठ पर रह गये, तो मुझे क्या मिलता। आख़िर मैंने झक मारकर उनकी पूँछ पकड़ी। किसी न किसी तरह यह वैतरणी तो पार करनी ही है।
राय साहब को ऐसा आवेश आ रहा था कि इस दुष्ट को गोली मार दें। इसी बदमाश ने सब्ज़ बाग़ दिखाकर उन्हें खड़ा किया और अब अपनी सफ़ाई दे रहा है, पीठ में धूल भी नहीं लगने देता, लेकिन परिस्थिति ज़बान बन्द किये हुए थी।
'तो अब आपके किये कुछ नहीं हो सकता? '
'ऐसा ही समझिए। '
'मैं पचास हज़ार पर भी समझौता करने को तैयार हूँ। '
'राजा साहब किसी तरह न मानेंगे। '
'पच्चीस हज़ार पर तो मान जायँगे? '
'कोई आशा नहीं। वह साफ़ कह चुके हैं। '
'वह कह चुके हैं या आप कह रहे हैं। '
'आप मुझे झूठा समझते हैं? '
राय साहब ने विनम्र स्वर में कहा -- मैं आपको झूठा नहीं समझता; लेकिन इतना ज़रूर समझता हूँ कि आप चाहते, तो मुआमला हो जाता। '
'तो आप का ख़्याल है, मैंने समझौता नहीं होने दिया? '
'नहीं, यह मेरा मतलब नहीं है। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि आप चाहते तो काम हो जाता और मैं इस झमेले में न पड़ता। '
मिस्टर तंखा ने घड़ी की तरफ़ देखकर कहा -- तो राय साहब, अगर आप साफ़ कहलाना चाहते हैं, तो सुनिए -- अगर आपने दस हज़ार का चेक मेरे हाथ में रख दिया होता, तो आज निश्चय एक लाख के स्वामी होते। आप शायद चाहते होंगे, जब आपको राजा साहब से रुपए मिल जाते, तो आप मुझे हज़ार-दो-हज़ार दे देते। तो मैं ऐसी कच्ची गोली नहीं खेलता। आप राजा साहब से रुपए लेकर तिजोरी में रखते और मुझे अँगूठा दिखा देते। फिर मैं आपका क्या बना लेता? बतलाइए? कहीं नालिश-फ़रियाद भी तो नहीं कर सकता था।
राय साहब ने आहत नेत्रों से देखा -- आप मुझे इतना बेईमान समझते हैं?
तंखा ने कुरसी से उठते हुए कहा -- इसे बेईमानी कौन समझता है। आजकल यही चतुराई है। कैसे दूसरों को उल्लू बनाया जा सके, यही सफल नीति है; और आप इसके आचार्य हैं।
राय साहब ने मुट्ठी बाँधकर कहा -- मैं?
'जी हाँ, आप! पहले चुनाव में मैंने जी-जान से आपकी पैरवी की। आपने बड़ी मुश्किल से रो धोकर पाँच सौ रुपए दिये, दूसरे चुनाव में आपने एक सड़ी-सी टूटी-फूटी कार देकर अपना गला छुड़ाया। दूध का जला छाँछ भी फूँक-फूँककर पीता है। '
वह कमरे से निकल गये और कार लाने का हुक्म दिया? राय साहब का ख़ून खौल रहा था। इस अशिष्टता की भी कोई हद है। एक तो घंटे-भर इन्तज़ार कराया और अब इतनी बेमुरौवती से पेश आकर उन्हें ज़बरदस्ती घर से निकाल रहा है; अगर उन्हें विश्वास होता कि वह मिस्टर तंखा को पटकनी दे सकते हैं, तो कभी न चूकते; मगर तंखा डील-डौल में उनसे सवाये थे। जब मिस्टर तंखा ने हार्न बजाया, तो वह भी आकर अपनी कार पर बैठे और सीधे मिस्टर खन्ना के पास पहुँचे। नौ बज रहे थे; मगर खन्ना साहब अभी तक मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे। वह दो बजे रात के पहले कभी न सोते थे और नौ बजे तक सोना स्वाभाविक ही था। यहाँ भी राय साहब को आधा घंटा बैठना पड़ा; इसलिए जब कोई साढ़े नौ बजे मिस्टर खन्ना मुस्कराते हुए निकले तो राय साहब ने डाँट बताई -- अच्छा! अब सरकार की नींद खुली है, साढ़े नौ बजे। रुपए जमा कर लिये हैं न, जभी यह बेफ़िक्री है। मेरी तरह तालुक्केदार होते, तो अब तक आप भी किसी द्वार पर खड़े होते। बैठे-बैठे सिर में चक्कर आ जाता। मिस्टर खन्ना ने सिगरेट-केस उनकी तरफ़ बढ़ाते हुए प्रसन्न मुख से कहा -- रात सोने में बड़ी देर हो गयी। इस वक़्त किधर से आ रहे हैं?
राय साहब ने थोड़े से शब्दों में अपनी सारी कठिनाइयाँ बयान कर दीं। दिल में खन्ना को गालियाँ देते थे, जो उनका सहपाठी होकर भी सदैव उन्हें ठगने की फ़िक्र किया करता था; मगर मुँह पर उसकी ख़ुशामद करते थे। खन्ना ने ऐसा भाव बनाया, मानो उन्हें बड़ी चिन्ता हो गयी है, बोले -- मेरी तो सलाह है; आप एलेक्शन को गोली मारें, और अपने सालों पर मुक़दमा दायर कर दें। रही शादी, वह तो तीन दिन का तमाशा है। उसके पीछे ज़ेरबार होना मुनासिब नहीं। कुँवर साहब मेरे दोस्त हैं, लेन-देन का कोई सवाल न उठने पायेगा।
राय साहब ने व्यंग करके कहा -- आप यह भूल जाते हैं। मिस्टर खन्ना कि मैं बैंकर नहीं, ताल्लुक़ेदार हूँ। कुँवर साहब दहेज नहीं माँगते, उन्हें ईश्वर ने सब कुछ दिया है, लेकिन आप जानते हैं, यह मेरी अकेली लड़की है और उसकी माँ मर चुकी है। वह आज ज़िन्दा होती तो शायद सारा घर लुटाकर भी उसे सन्तोष न होता। तब शायद मैं उसे हाथ रोककर ख़र्च करने का आदेश देता; लेकिन अब तो मैं उसकी माँ भी हूँ, बाप भी हूँ। अगर मुझे अपने हृदय का रक्त निकालकर भी देना पड़े, तो मैं ख़ुशी से दे दूँगा। इस विधुर-जीवन में मैंने सन्तान-प्रेम में ही अपनी आत्मा की प्यास बुझाई है। दोनों बच्चों के प्यार में ही अपने पत्नी-व्रत का पालन किया है। मेरे लिए यह असम्भव है कि इस शुभ अवसर पर अपने दिल के अरमान न निकालूँ। मैं अपने मन को तो समझा सकता हूँ पर जिसे मैं पत्नी का आदेश समझता हूँ, उसे नहीं समझाया जा सकता। और एलेक्शन के मैदान से भागना भी मेरे लिए सम्भव नहीं है। मैं जानता हूँ, मैं हारूँगा। राजा साहब से मेरा कोई मुकाबला नहीं; लेकिन राजा साहब को इतना ज़रूर दिखा देना चाहता हूँ कि अमरपालसिंह नर्म चारा नहीं है।
'और मुक़दमा दायर करना तो आवश्यक ही है? '
'उसी पर तो सारा दारोमदार है। अब आप बतलाइए, आप मेरी क्या मदद कर सकते हैं? '
'मेरे डाइरेक्टरों का इस विषय में जो हुक्म है, वह आप जानते हैं। और राजा साहब भी हमारे डाइरेक्टर हैं, यह भी आपको मालूम है। पिछला वसूल करने के लिए बार-बार ताकीद हो रही है। कोई नया मुआमला तो शायद ही हो सके। '
राय साहब ने मुँह लटकाकर कहा -- आप तो मेरा डोंगा ही डुबाये देते हैं मिस्टर खन्ना!
'मेरे पास जो कुछ निज का है, वह आपका है; लेकिन बैंक के मुआमले में तो मुझे अपने स्वामियों के आदेशों को मानना ही पड़ेगा। '
'अगर यह ज़ायदाद हाथ आ गयी, और मुझे इसकी पूरी आशा है, तो पाई-पाई अदा कर दूँगा। '
'आप बतला सकते हैं, इस वक़्त आप कितने पानी में हैं? '
राय साहब ने हिचकते हुए कहा -- पाँच-छः लाख समझिए। कुछ कम ही होंगे। खन्ना ने अविश्वास के भाव से कहा -- या तो आपको याद नहीं है, या आप छिपा रहे हैं। राय साहब ने ज़ोर देकर कहा -- जी नहीं, मैं न भूला हूँ, और न छिपा रहा हूँ। मेरी ज़ायदाद इस वक़्त कम से कम पचास लाख की है और ससुराल की ज़ायदाद भी इससे कम नहीं है। इतनी ज़ायदाद पर दस-पाँच लाख का बोझ कुछ नहीं के बराबर है।
'लेकिन यह आप कैसे कह सकते हैं कि ससुरालवाली ज़ायदाद पर भी क़रज़ नहीं है। '
'जहाँ तक मुझे मालूम है, वह ज़ायदाद बे-दाग़ है। '
'और मुझे यह सूचना मिली है कि उस ज़ायदाद पर दस लाख से कम का भार नहीं है। उस ज़ायदाद पर तो अब कुछ मिलने से रहा, और आपकी ज़ायदाद पर भी मेरे ख़याल में दस लाख से कम देना नहीं है। और वह ज़ायदाद अब पचास लाख की नहीं मुश्किल से पचीस लाख की है। इस दशा में कोई बैंक आपको क़रज़ नहीं दे सकता। यों समझ लीजिए कि आप ज्वालामुखी के मुख पर खड़े हैं। एक हल्की सी ठोकर आपको पाताल में पहुँचा सकती है। आपको इस मौक़े पर बहुत सँभलकर चलना चाहिए। '
राय साहब ने उनका हाथ अपनी तरफ़ खींचकर कहा -- यह सब मैं ख़ूब समझता हूँ, मित्रवर! लेकिन जीवन की ट्रैजेडी और इसके सिवा क्या है कि आपकी आत्मा जो काम करना नहीं चाहती, वही आपको करना पड़े। आपको इस मौक़े पर मेरे लिए कम से कम दो लाख का इन्तज़ाम करना पड़ेगा।
खन्ना ने लम्बी साँस लेकर कहा -- माई गाड! दो लाख। असम्भव, बिलकुल असम्भव!
'मैं तुम्हारे द्वार पर सर पटककर प्राण दे दूँगा, खन्ना इतना समझ लो। मैंने तुम्हारे ही भरोसे यह सारे प्रोग्राम बाँधे हैं। अगर तुमने निराश कर दिया, तो शायद मुझे ज़हर खा लेना पड़े। मैं सूर्यप्रतापसिंह के सामने घुटने नहीं टेक सकता। कन्या का विवाह अभी दो चार महीने टल सकता है। मुक़दमा दायर करने के लिए अभी काफ़ी वक़्त है; लेकिन यह एलेक्शन सिर पर आ गया है, और मुझे सबसे बड़ी फ़िक्त यही है। '
खन्ना ने चकित होकर कहा -- तो आप एलेक्शन में दो लाख लगा देंगे?
'एलेक्शन का सवाल नहीं है भाई, यह इज़्ज़त का सवाल है। क्या आपकी राय में मेरी इज़्ज़त दो लाख की भी नहीं। मेरी सारी रियासत बिक जाय, ग़म नहीं; मगर सूर्यप्रतापसिंह को मैं आसानी से विजय न पाने दूँगा। '
खन्ना ने एक मिनट तक धुआँ निकालने के बाद कहा -- बैंक की जो स्थिति है वह मैंने आपको सामने रख दी। बैंक ने एक तरह से लेन-देन का काम बन्द कर दिया है। मैं कोशिश करूँगा कि आपके साथ ख़ास रिआयत की जाय; लेकिन यह आप जानते हैं। पर मेरा कमीशन क्या रहेगा? मुझे आपके लिए ख़ास तौर पर सिफ़ारिश करनी पड़ेगी; राजा साहब का अन्य डाइरेक्टरों पर कितना प्रभाव है, यह भी आप जानते हैं। मुझे उनके ख़िलाफ़ गुट-बन्दी करनी पड़ेगी। यों समझ लीजिए कि मेरी ज़िम्मेदारी पर ही मुआमला होगा।
राय साहब का मुँह गिर गया। खन्ना उनके अन्तरंग मित्रों में थे। साथ के पढ़े हुए, साथ के बैठनेवाले। और यह उनसे कमीशन की आशा रखते हैं, इतने बेमुरव्वती? आख़िर वह जो इतने दिनों से खन्ना की ख़ुशामद करते हैं, वह किस दिन के लिए? बाग़ में फल निकले, शाक-भाजी पैदा हो, सब से पहले खन्ना के पास डाली भेजते हैं। कोई उत्सव हो, कोई जलसा हो, सबसे पहले खन्ना को निमन्त्रण देते हैं। उसका यह जवाब हो। उदास मन से बोले -- आपकी जो इच्छा हो; लेकिन मैं आपको अपना भाई समझता था।
खन्ना ने कृतज्ञता के भाव से कहा -- यह आपकी कृपा है। मैंने भी सदैव आपको अपना बड़ा भाई समझा है और अब भी समझता हूँ। कभी आपसे कोई पर्दा नहीं रखा, लेकिन व्यापार एक दूसरा क्षेत्र है। यहाँ कोई किसी का दोस्त नहीं, कोई किसी का भाई नहीं। जिस तरह मैं भाई के नाते आपसे यह नहीं कह सकता कि मुझे दूसरों से ज़्यादा कमीशन दीजिए, उसी तरह आपको भी मेरे कमीशन में रियायत के लिए आग्रह न करना चाहिए। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, कि मैं जितनी रिआयत आप के साथ कर सकता हूँ, उतना करूँगा। कल आप दफ़्तर के वक़्त आयें और लिखा-पढ़ी कर लें। बस, बिजनेस ख़त्म। आपने कुछ और सुना! मेहता साहब आजकल मालती पर बे-तरह रीझे हुए हैं। सारी फ़िलासफ़ी निकल गयी। दिन में एक-दो बार ज़रूर हाज़िरी दे आते हैं, और शाम को अक्सर दोनों साथ-साथ सैर करने निकलते हैं। यह तो मेरी ही शान थी कि कभी मालती के द्वार पर सलामी करने न गया। शायद अब उसी की कसर निकाल रही है। कहाँ तो यह हाल था कि जो कुछ हैं, मिस्टर खन्ना हैं। कोई काम होता, तो खन्ना के पास दौड़ी आती। जब रुपयों की ज़रूरत पड़ती तो खन्ना के नाम पुरज़ा आता। और कहाँ अब मुझे देखकर मुँह फेर लेती हैं। मैंने ख़ास उन्हीं के लिए फ़्रांस से एक घड़ी मँगवाई थी। बड़े शौक़ से लेकर गया; मगर नहीं ली। अभी कल मेवों की डाली भेजी थी -- काश्मीर से मँगवाये थे -- वापस कर दी। मुझे तो आश्चर्य होता है कि आदमी इतनी जल्द कैसे इतना बदल जाता है।
राय साहब मन में तो उनकी बेक़द्री पर ख़ुश हुए; पर सहानुभूति दिखाकर बोले -- अगर यह भी मान लें कि मेहता से उसका प्रेम हो गया है, तो भी व्यवहार तोड़ने का कोई कारण नहीं है।
खन्ना व्यथित स्वर में बोले -- यही तो रंज है भाई साहब! यह तो मैं शुरू से जानता था वह मेरे हाथ नहीं आ सकती! मैं आप से सत्य कहता हूँ, मैं कभी इस धोखे में नहीं पड़ा कि मालती को मुझसे प्रेम है। प्रेम-जैसी चीज़ उनसे मिल सकती है, इसकी मैंने कभी आशा ही नहीं की। मैं तो केवल उनके रूप का पुजारी था। साँप में विष है, यह जानते हुए भी हम उसे दूध पिलाते हैं। तोते से ज़्यादा निठुर जीव और कौन होगा; लेकिन केवल उसके रूप और वाणी पर मुग्ध होकर लोग उसे पालते हैं और सोने के पिंजरे में रखते हैं। मेरे लिए भी मालती उसी तोते के समान थी। अफ़सोस यही है कि मैं पहले क्यों न चेत गया। इसके पीछे मैंने अपने हज़ारों रुपए बरबाद कर दिये भाई साहब! जब उसका रुक्का पहुँचा, मैंने तुरन्त रुपए भेजे। मेरी कार आज भी उसकी सवारी में है। उसके पीछे मैंने अपना घर चौपट कर दिया भाई साहब! हृदय में जितना रस था, वह ऊसर की ओर इतने वेग से दौड़ा कि दूसरी तरफ़ का उद्यान बिलकुल सूखा रह गया। बरसों हो गये, मैंने गोविन्दी से दिल खोलकर बात भी नहीं की। उसकी सेवा और स्नेह और त्याग से मुझे उसी तरह अरुचि हो गयी थी, जैसे अजीर्ण के रोगी को मोहनभोग से हो जाती है। मालती मुझे उसी तरह नचाती थी, जैसे मदारी बन्दर को नचाता है। और मैं ख़ुशी से नाचता था। वह मेरा अपमान करती थी और मैं ख़ुशी से हँसता था। वह मुझ पर शासन करती थी और मैं सिर झुकाता था। उसने मुझे कभी मुँह नहीं लगाया, यह मैं स्वीकार करता हूँ। उसने मुझे कभी प्रोत्साहन नहीं दिया, यह भी सत्य है, फिर भी मैं पतंग की भाँति उसके मुख-दीप पर प्राण देता था। और अब वह मुझसे शिष्टाचार का व्यवहार भी नहीं कर सकती! लेकिन भाई साहब! मैं कहे देता हूँ कि खन्ना चुप बैठनेवाला आदमी नहीं है। उसके पुरज़े मेरे पास सुरक्षित हैं; मैं उससे एक-एक पाई वसूल कर लूँगा, और डाक्टर मेहता को तो मैं लखनऊ से निकालकर दम लूँगा। उनका रहना यहाँ असम्भव कर दूँगा...
उसी वक़्त हार्न की आवाज़ आयी और एक क्षण में मिस्टर मेहता आकर खड़े हो गये। गोरा चिट्टा रंग, स्वास्थ्य की लालिमा गालों पर चमकती हुई, नीची अचकन, चूड़ीदार पाजामा, सुनहली ऐनक। सौम्यता के देवता-से लगते थे। खन्ना ने उठकर हाथ मिलाया -- आइए मिस्टर मेहता, आप ही का ज़िकर हो रहा था।
मेहता ने दोनों सज्जनों से हाथ मिलाकर कहा -- बड़ी अच्छी साइत में घर से चला था कि आप दोनों साहबों से एक ही जगह भेंट हो गयी। आपने शायद पत्रों में देखा होगा, यहाँ महिलाओं के लिए एक व्यायामशाला का आयोजन हो रहा है। मिस मालती उस कमेटी की सभानेत्री हैं। अनुमान किया गया है कि शाला में दो लाख रुपए लगेंगे। नगर में उसकी कितनी ज़रूरत है, यह आप लोग मुझसे ज़्यादा जानते हैं। मैं चाहता हूँ आप दोनों साहबों का नाम सबसे ऊपर हो। मिस मालती ख़ुद आनेवाली थीं; पर पर आज उनके फ़ादर की तबीयत अच्छी नहीं है, इसलिए न आ सकीं। उन्होंने चन्दे की सूची राय साहब के हाथ में रख दी। पहला नाम राजा सूर्यप्रतापसिंह का था जिसके सामने पाँच हज़ार रुपए की रक़म थी। उसके बाद कुँवर दिग्विजयसिंह के तीन हज़ार रुपए थे। इसके बाद और कई रक़में इतनी या इससे कुछ कम थी। मालती ने पाँच सौ रुपये दिये थे और डाक्टर मेहता ने एक हज़ार रुपए।
राय साहब ने अप्रतिभ होकर कहा -- कोई चालीस हज़ार तो आप लोगों ने फटकार लिये।
मेहता ने गर्व से कहा -- यह सब आप लोगों की दया है। और यह केवल तीन घंटों का परिश्रम है। राजा सूर्यप्रतापसिंह ने शायद ही किसी सार्वजनिक कार्य में भाग लिया हो; पर आज तो उन्होंने बे-कहे-सुने चेक लिख दिया! देश में जागृति है। जनता किसी भी शुभ काम में सहयोग देने को तैयार है। केवल उसे विश्वास होना चाहिए कि उसके दान का सद्व्यय होगा। आपसे तो मुझे बड़ी आशा है, मिस्टर खन्ना!
खन्ना ने उपेक्षा-भाव से कहा -- मैं ऐसे फ़जूल के कामों में नहीं पड़ता। न जाने आप लोग पच्छिम की ग़ुलामी में कहाँ तक जायँगे। यों ही महिलाओं को घर से अरुचि हो रही है। व्यायाम की धुन सवार हो गयी, तो वह कहीं की न रहेंगी। जो औरत घर का काम करती है, उसके लिए किसी व्यायाम की ज़रूरत नहीं। और जो घर का कोई काम नहीं करती और केवल भोग-विलास में रत है, उसके व्यायाम के लिए चन्दा देना मैं अधर्म समझता हूँ।
मेहता ज़रा भी निरुत्साह न हुए -- ऐसी दशा में मैं आपसे कुछ माँगूँगा भी नहीं। जिस आयोजन में हमें विश्वास न हो उसमें किसी तरह की मदद देना वास्तव में अधर्म है। आप तो मिस्टर खन्ना से सहमत नहीं हैं राय साहब!
राय साहब गहरी चिन्ता में डूबे हुए थे। सूर्यप्रताप के पाँच हज़ार उन्हें हतोत्साह किये डालते थे। चौंककर बोले -- आपने मुझसे कुछ कहा?
'मैंने कहा, आप तो इस आयोजन में सहयोग देना अधर्म नहीं समझते? '
'जिस काम में आप शरीक हैं, वह धर्म है या अधर्म, इसकी मैं परवाह नहीं करता। '
'मैं चाहता हूँ, आप ख़ुद विचार करें। और अगर आप इस आयोजन को समाज के लिए उपयोगी समझें, तो उसमें सहयोग दें। मिस्टर खन्ना की नीति मुझे बहुत पसन्द आयी। '
खन्ना बोले -- मैं तो साफ़ कहता हूँ और इसीलिए बदनाम हूँ।
राय साहब ने दुर्बल मुस्कान के साथ कहा -- मुझ में तो विचार करने की शक्ति है नहीं। सज्जनों के पीछे चलना ही मैं अपना धर्म समझता हूँ।
'तो लिखिए कोई अच्छी रक़म। '
'जो कहिए, वह लिख दूँ। '
'जो आप की इच्छा। '
'आप जो कहिए, वह लिख दूँ। '
'तो दो हज़ार से कम क्या लिखिएगा। '
राय साहब ने आहत स्वर में कहा -- आपकी निगाह में मेरी यही हैसियत है?
उन्होंने क़लम उठाया और अपना नाम लिखकर उसके सामने पाँच हज़ार लिख दिये। मेहता ने सूची उनके हाथ से ले ली; मगर उन्हें इतनी ग्लानि हुई कि राय साहब को धन्यवाद देना भी भूल गये। राय साहब को चन्दे की सूची दिखाकर उन्होंने बड़ा अनर्थ किया, यह शूल उन्हें व्यथित करने लगा। मिस्टर खन्ना ने राय साहब को दया और उपहास की दृष्टि से देखा, मानो कह रहे हों, कितने बड़े गधे हो तुम!
सहसा मेहता राय साहब के गले लिपट गये और उन्मुक्त कंठ से बोले -- Three cheers friends shahib! Hip hip Hurrey!
खन्ना ने खिसियाकर कहा -- यह लोग राजे-महराजे ठहरे, यह इन कामों में दान न दें, तो कौन दे।
मेहता बोले -- मैं तो आपको राजाओं का राजा समझता हूँ। आप उन पर शासन करते हैं। उनकी कोठी आपके हाथ में है।
राय साहब प्रसन्न हो गये -- यह आपने बड़े मार्के की बात कही मेहता जी! हम नाम के राजा हैं। असली राजा तो हमारे बैंकर हैं।
मेहता ने खन्ना की ख़ुशामद का पहलू अख़्तियार किया -- मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है खन्नाजी! आप अभी इस काम में नहीं शरीक होना चाहते, न सही, लेकिन कभी न कभी ज़रूर आयेंगे। लक्ष्मीपतियों की बदौलत ही हमारी बड़ी-बड़ी संस्थाएँ चलती हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन को दो-तीन साल तक किसने इतनी धूम-धाम से चलाया! इतनी धर्मशालायें और पाठशालायें कौन बनवा रहा है? आज संसार का शासन-सूत्र बैंकरों के हाथ में है। सरकार उनके हाथ का खिलौना है। मैं भी आपसे निराश नहीं हूँ। जो व्यक्ति राष्ट्र के लिए जेल जा सकता है उसके लिए दो-चार हज़ार ख़र्च कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। हमने तय किया है, इस शाला का बुनियादी पत्थर गोविन्दी देवी के हाथों रखा जाय। हम दोनों शीघ्र ही गवर्नर साहब से भी मिलेंगे और मुझे विश्वास है, हमें उनकी सहायता मिल जायगी। लेडी विलसन को महिला-आन्दोलन से कितना प्रेम है, आप जानते ही हैं। राजा साहब की ओर अन्य सज्जनों की भी राय थी कि लेडी विलसन से ही बुनियाद रखवाई जाय; लेकिन अन्त में यही निश्चय हुआ कि यह शुभ कार्य किसी अपनी बहन के हाथों होना चाहिए। आप कम-से-कम इस अवसर पर आयेंगे तो ज़रूर?
खन्ना ने उपहास किया -- हाँ, जब लाई विलसन आयेंगे तो मेरा पहुँचना ज़रूरी ही है। इस तरह आप बहुत-से रईसों को फाँस लेंगे। आप लोगों को लटके ख़ूब सूझते हैं। और हमारे रईस हैं भी इस लायक़। उन्हें उल्लू बनाकर ही मूँड़ा जा सकता है।
'जब धन ज़रूरत से ज़्यादा हो जाता है, तो अपने लिए निकाल का मार्ग खोजता है। यों न निकल पायगा तो जुए में जायगा, घुड़दौड़ में जायगा, ईट-पत्थर में जायगा, या ऐयाशी में जायगा। '
ग्यारह का अमल था। खन्ना साहब के दफ़्तर का समय आ गया। मेहता चले गये। राय साहब भी उठे कि खन्ना ने उनका हाथ पकड़कर बैठा लिया -- नहीं, आप ज़रा बैठिए। आप देख रहे हैं, मेहता ने मुझे इस बुरी तरह फाँसा है कि निकलने का कोई रास्ता ही नहीं रहा। गोविन्दी से बुनियाद का पत्थर रखवायेंगे! ऐसी दशा में मेरा अलग रहना हास्यास्पद है या नहीं। गोविन्दी कैसे राज़ी हो गयी; मेरी समझ में नहीं आता और मालती ने कैसे उसे सहन कर लिया, यह समझना और भी कठिन है। आपका क्या ख़याल है, इसमें कोई रहस्य है या नहीं? राय साहब ने आत्मीयता जताई -- ऐसे मुआमले में स्त्री को हमेशा पुरुष से सलाह ले लेनी चाहिए!
खन्ना ने राय साहब को धन्यवाद की आँखों से देखा -- इन्हीं बातों पर गोविन्दी से मेरा जी जलता है, और उस पर मुझी को लोग बुरा कहते हैं। आप ही सोचिए, मुझे इन झगड़ों से क्या मतलब। इनमें तो वह पड़े, जिसके पास फ़ालतू रुपए हों, फ़ालतू समय हो और नाम की हवस हो। होना यही है कि दो-चार महाशय सेक्रेटरी और अंडर सेक्रेटरी और प्रधान और उपप्रधान बनकर अफ़सरों को दावतें देंगे, उनके कृपापात्र बनेंगे और यूनिवसिर्टी की छोकरियों को जमा करके बिहार करेंगे। व्यायाम तो केवल दिखाने के दाँत हैं। ऐसी संस्था में हमेशा यही होता है और यही होगा और उल्लू बनेंगे हम, और हमारे भाई, जो धनी कहलाते हैं और यह सब गोविन्दी के कारण। वह एक बार कुरसी से उठे, फिर बैठ गये। गोविन्दी के प्रति उनका क्रोध प्रचंड होता जाता था। उन्होंने दोनों हाथ से सिर को सँभालकर कहा -- मैं नहीं समझता, मुझे क्या करना चाहिए।
राय साहब ने ठकुर-सोहाती की -- कुछ नहीं, आप गोविन्दी देवी से साफ़ कह दें, तुम मेहता को इनकारी ख़त लिख दो, छुट्टी हुई। मैं तो लाग-डाँट में फँस गया। आप क्यों फँसें?
खन्ना ने एक क्षण इस प्रस्ताव पर विचार करके कहा -- लेकिन सोचिए, कितना मुश्किल काम है। लेडी विलसन से इसका ज़िकर आ चुका होगा, सारे शहर में ख़बर फैल गयी होगी और शायद आज पत्रों में भी निकल जाय। यह सब मालती की शरारत है। उसीने मुझे ज़लील करने का यह ढंग निकाला है।
'हाँ, मालूम तो यही होता है। '
'वह मुझे ज़लील करना चाहती है। '
'आप शिलान्यास के एक दिन पहले बाहर चले जाइएगा। '
'मुश्किल है राय साहब! कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी। उस दिन तो मुझे हैज़ा भी हो जाय तो वहाँ जाना पड़ेगा। '
राय साहब आशा बाँधे हुए कल आने का वादा करके ज्यों ही निकले कि खन्ना ने अन्दर जा कर गोविन्दी को आड़े हाथों लिया -- तुमने इस व्यायामशाला की नींव रखना क्यों स्वीकार किया?
गोविन्दी कैसे कहे कि यह सम्मान पाकर वह मन में कितनी प्रसन्न हो रही थी, उस अवसर के लिए कितने मनोनियोग से अपना भाषण लिख रही थी और कितनी ओजभरी कविता रची थी। उसने दिल में समझा था, यह प्रस्ताव स्वीकार करके वह खन्ना को प्रसन्न कर देगी। उसका सम्मान तो उसके पति ही का सम्मान है। खन्ना को इसमें कोई आपत्ति हो सकती है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी। इधर कई दिन से पति को कुछ सदय देखकर उसका मन बढ़ने लगा था। वह अपने भाषण से, और अपनी कविता से लोगों को मुग्ध कर देने का स्वप्न देख रही थी। यह प्रश्न सुना और खन्ना की मुद्रा देखी, तो उसकी छाती धक-धक करने लगी। अपराधी की भाँति बोली -- डाक्टर मेहता ने आग्रह किया, तो मैंने स्वीकार कर लिया।
'डाक्टर मेहता तुम्हें कुएँ में गिरने को कहें, तो शायद इतनी ख़ुशी से न तैयार होगी। '
गोविन्दी की ज़बान बन्द।
'तुम्हें जब ईश्वर ने बुद्धि नहीं दी, तो क्यों मुझसे नहीं पूछ लिया? मेहता और मालती, दोनों यह चाल चलकर मुझसे दो-चार हज़ार ऐंठने की फ़िक्र में हैं। और मैंने ठान लिया है कि कौड़ी भी न दूँगा। तुम आज ही मेहता को इनकारी ख़त लिख दो। '
गोविन्दी ने एक क्षण सोचकर कहा -- तो तुम्हीं लिख दो न।
'मैं क्यों लिखूँ? बात की तुमने, लिखूँ मैं! '
'डाक्टर साहब कारण पूछेंगे, तो क्या बताऊँगी? '
'बताना अपना सिर और क्या। मैं इस व्यभिचारशाला को एक धेली भी नहीं देना चाहता! '
'तो तुम्हें देने को कौन कहता है? '
खन्ना ने होंठ चबाकर कहा -- कैसी बेसमझी की-सी बातें करती हो? तुम वहाँ नींव रखोगी और कुछ दोगी नहीं, तो संसार क्या कहेगा?
गोविन्दी ने जैसे संगीन की नोक पर कहा -- अच्छी बात है, लिख दूँगी।
'आज ही लिखना होगा। '
'कह तो दिया लिखूँगी। '
खन्ना बाहर आये और डाक देखने लगे। उन्हें दफ़्तर जाने में देर हो जाती थी तो चपरासी घर पर ही डाक दे जाता था। शक्कर तेज़ हो गयी है। खन्ना का चेहरा खिल उठा। दूसरी चिट्ठी खोली। ऊख की दर नियत करने के लिए जो कमेटी बैठी थी, उसने तय कर लिया कि ऐसा नियन्त्रण नहीं किया जा सकता। धत तेरी की! वह पहले यही बात कह रहे थे; पर इस अग्निहोत्री ने गुल मचाकर ज़बरदस्ती कमेटी बैठाई। आख़िर बचा के मुँह पर थप्पड़ लगा। यह मिलवालों और किसानों के बीच का मुआमला है। सरकार इसमें दख़ल देनेवाली कौन।
सहसा मिस मालती कार से उतरीं। कमल की भाँति खिली, दीपक की भाँति दमकती, स्फूर्ति और उल्लास की प्रतिमा-सी -- निश्शंक, निर्द्वन्द्व मानो उसे विश्वास है कि संसार में उसके लिए आदर और सुख का द्वार खुला हुआ है। खन्ना ने बरामदे में आकर अभिवादन किया।
मालती ने पूछा -- क्या यहाँ मेहता आये थे?
'हाँ, आये तो थे। '
'कुछ कहा, कहाँ जा रहे हैं?'
'यह तो कुछ नहीं कहा।'
'जाने कहाँ डुबकी लगा गये। मैं चारों तरफ़ घूम आयी। आपने व्यायामशाला के लिए कितना दिया? '
खन्ना ने अपराधी-स्वर में कहा -- मैंने इस मुआमले को समझा ही नहीं।
मालती ने बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें तरेरा, मानो सोच रही हो कि उन पर दया करे या रोष।
'इसमें समझने की क्या बात थी, और समझ लेते आगे-पीछे, इस वक़्त तो कुछ देने की बात थी। मैंने मेहता को ठेलकर यहाँ भेजा था। बेचारे डर रहे थे कि आप न जाने क्या जवाब दें। आपकी इस कंजूसी का क्या फल होगा, आप जानते हैं? यहाँ के व्यापारी समाज से कुछ न मिलेगा। आपने शायद मुझे अपमानित करने का निश्चय कर लिया है। सबकी सलाह थी कि लेडी विलसन बुनियाद रखें। मैंने गोविन्दी देवी का पक्ष लिया और लड़कर सब को राज़ी किया और अब आप फ़रमाते हैं, आपने इस मुआमले को समझा ही नहीं। आप बैंकिंग की गुत्थियाँ समझते हैं; पर इतनी मोटी बात आप की समझ में न आयी। इसका अर्थ इसके सिवा और कुछ नहीं है, कि तुम मुझे लज्जित करना चाहते हो। अच्छी बात है, यही सही? '
मालती का मुख लाल हो गया था। खन्ना घबराये, हेकड़ी जाती रही; पर इसके साथ ही उन्हें यह भी मालूम हुआ कि अगर वह काँटों में फँस गये हैं, तो मालती दल-दल में फँस गयी है; अगर उनकी थैलियों पर संकट आ पड़ा है, तो मालती की प्रतिष्ठा पर संकट आ पड़ा है, जो थैलियों से ज़्यादा मूल्यवान है। तब उनका मन मालती की दुरवस्था का आनन्द क्यों न उठाये? उन्होंने मालती को अरदब में डाल दिया था। और यद्यपि वह उसे रुष्ट कर देने का साहस खो चुके थे; पर दो-चार खरी-खरी बातें कह सुनाने का अवसर पाकर छोड़ना न चाहते थे। यह भी दिखा देना चाहते थे कि मैं निरा भोंदू नहीं हूँ। उसका रास्ता रोककर बोले -- तुम मुझ पर इतनी कृपालु हो गयी हो, इस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है मालती!
मालती ने भवें सिकोड़कर कहा -- मैं इसका आशय नहीं समझी।
'क्या अब मेरे साथ तुम्हारा वही बतार्व है, जो कुछ दिन पहले था? '
'मैं तो उसमें कोई अन्तर नहीं देखती। '
'लेकिन मैं तो आकाश-पाताल का अन्तर देखता हूँ। '
'अच्छा मान लो, तुम्हारा अनुमान ठीक है, तो फिर? मैं तुमसे एक शुभ-कार्य में सहायता माँगने आयी हूँ, अपने व्यवहार की परीक्षा देने आयी हूँ। और अगर तुम समझते हो, कुछ चन्दा देकर तुम यश और धन्यवाद के सिवा और कुछ पा सकते हो, तो तुम भ्रम में हो। '
खन्ना परास्त हो गये। वह ऐसे सकरे कोने में फँस गये थे, जहाँ इधर-उधर हिलने का भी स्थान न था। क्या वह उससे यह कहने का साहस रखते हैं कि मैंने अब तक तुम्हारे ऊपर हज़ारों रुपए लुटा दिये, क्या उसका यही पुरस्कार है? लज्जा से उनका मुँह छोटा-सा निकल आया, जैसे सिकुड़ गया हो! झेंपते हुए बोले -- मेरा आशय यह न था मालती, तुम बिलकुल ग़लत समझीं।
मालती ने परिहास के स्वर में कहा -- ख़ुदा करे, मैंने ग़लत समझा हो, क्योंकि अगर मैं उसे सच समझ लूँगी, तो तुम्हारे साये से भी भागूँगी। मैं रुपवती हूँ। तुम भी मेरे अनेक चाहनेवालों में से एक हो। वह मेरी कृपा थी कि जहाँ मैं औरों के उपहार लौटा देती थी, तुम्हारी सामान्य-से-सामान्य चीज़ें भी धन्यवाद के साथ स्वीकार कर लेती थी, और ज़रूरत पड़ने पर तुमसे रुपए भी माँग लेती थी, अगर तुमने अपने धनोन्माद में इसका कोई दूसरा अर्थ निकाल लिया, तो मैं तुम्हें क्षमा करूँगी। यह पुरुष-प्रकृति का अपवाद नहीं; मगर यह समझ लो कि धन ने आज तक किसी नारी के हृदय पर विजय नहीं पायी, और न कभी पायेगा।
खन्ना एक-एक शब्द पर मानो गज़-गज़ भर नीचे धँसते जाते थे। अब और ज़्यादा चोट सहने का उनमें जीवट न था। लज्जित होकर बोले -- मालती, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ, अब और ज़लील न करो। और न सही तो मित्र-भाव तो बना रहने दो। यह कहते हुए उन्होंने दराज़ से चेकबुक निकाला और एक हज़ार लिखकर डरते डरते मालती की तरफ़ बढ़ाया।
मालती ने चेक लेकर निर्दय व्यंग किया -- यह मेरे व्यवहार का मूल्य है या व्यायामशाला का चन्दा?
खन्ना सजल आँखों से बोले -- अब मेरी जान बख़्शो मालती, क्यों मेरे मुँह में कालिख पोत रही हो।
मालती ने ज़ोर से क़हक़हा मारा -- देखो, डाँट भी बताई और एक हज़ार रुपए भी वसूल किये। अब तो तुम कभी ऐसी शरारत न करोगे?
'कभी नहीं, जीते जी कभी नहीं। '
'कान पकड़ो। फ्र फ्र कान पकड़ता हूँ; मगर अब तुम दया करके जाओ और मुझे एकान्त में बैठकर सोचने और रोने दो। तुमने आज मेरे जीवन का सारा आनन्द....। '
मालती और ज़ोर से हँसी -- देखो खन्ना, तुम मेरा बहुत अपमान कर रहे हो और तुम जानते हो, रूप अपमान नहीं सह सकता। मैंने तो तुम्हारे साथ भलाई की और तुम उसे बुराई समझते हो।
खन्ना विद्रोह भरी आँखों से देखकर बोले -- तुमने मेरे साथ भलाई की है या उलटी छूरी से मेरा गला रेता है?
'क्यों, मैं तुम्हें लूट-लूटकर अपना घर भर रही थी। तुम उस लूट से बच गये। '
'क्यों घाव पर नमक छिड़क रही हो मालती! मैं भी आदमी हूँ। '
मालती ने इस तरह खन्ना की ओर देखा, मानो निश्चय करना चाहती थी कि वह आदमी है या नहीं।
'अभी तो मुझे इसका कोई लक्षण नहीं दिखाई देता। '
'तुम बिलकुल पहेली हो, आज यह साबित हो गया। '
'हाँ तुम्हारे लिए पहेली हूँ और पहेली रहूँगी।'
यह कहती हुई वह पक्षी की भाँति फुर्र से उड़ गयी और खन्ना सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे, यह लीला है, या इसका सच्चा रूप।
गोदान अध्याय 23
गोबर और झुनिया के जाने के बाद घर सुनसान रहने लगा। धनिया को बार-बार मुन्नू की याद आती रहती है। बच्चे की माँ तो झुनिया थी; पर उसका पालन धनिया ही करती थी। वही उसे उबटन मलती, काजल लगाती, सुलाती और जब काम-काज से अवकाश मिलता, उसे प्यार करती। वात्सल्य का यह नशा ही उसकी विपत्ति को भुलाता रहता था। उसका भोला-भाला, मक्खन-सा मुँह देखकर वह अपनी सारी चिन्ता भूल जाती और स्नेहमय गर्व से उसका हृदय फूल उठता। वह जीवन का आधार अब न था। उसका सूना खटोला देखकर वह रो उठती। वह कवच जो सारी चिन्ताओं और दुराशाओं से उसकी रक्षा करता था, उससे छिन गया था। वह बार-बार सोचती, उसने झुनिया के साथ ऐसी कौन-सी बुराई की थी, जिसका उसने यह दंड दिया। डाइन ने आकर उसका सोना-सा घर मिट्टी में मिला दिया। गोबर ने तो कभी उसकी बात का जवाब भी न दिया था। इसी राँड़ ने उसे फोड़ा और वहाँ ले जाकर न जाने कौन-कौन-सा नाच नचायेगी। यहाँ ही वह बच्चे की कौन बहुत परवाह करती थी। उसे तो अपनी मिस्सी-काजल, माँग-चोटी से ही छुट्टी नहीं मिलती। बच्चे की देख-भाल क्या करेगी। बेचारा अकेला ज़मीन पर पड़ा रोता होगा। बेचारा एक दिन भी तो सुख से नहीं रहने पाता। कभी खाँसी, कभी दस्त, कभी कुछ, कभी कुछ। यह सोच-सोचकर उसे झुनिया पर क्रोध आता। गोबर के लिए अब भी उसके मन में वही ममता थी। इसी चुड़ैल ने उसे कुछ खिला-पिलाकर अपने वश में कर लिया। ऐसी मायाविनी न होती, तो यह टोना ही कैसे करती। कोई बात न पूछता था। भौजाइयों की लातें खाती थी। यह भुग्गा मिल गया तो आज रानी हो गयी। होरी ने चिढ़कर कहा -- जब देखा तब तू झुनिया ही को दोस देती है। यह नहीं समझती कि अपना सोना खोटा तो सोनार का क्या दोस। गोबर उसे न ले जाता तो क्या आप-से-आप चली जाती? सहर का दाना-पानी लगने से लौंडे की आँखें बदल गयीं। ऐसा क्यों नहीं समझ लेती। धनिया गरज उठी -- अच्छा चुप रहो। तुम्हीं ने राँड़ को मूड़ पर चढ़ा रखा था, नहीं मैंने पहले ही दिन झाड़ू मारकर निकाल दिया होता। खलिहान में डाठें जमा हो गयी थीं।
होरी बैलों को जुखर कर अनाज माँड़ने जा रहा था। पीछे मुँह फेरकर बोला -- मान ले, बहू ने गोबर को फोड़ ही लिया, तो तू इतना कुढ़ती क्यों है? जो सारा ज़माना करता है, वही गोबर ने भी किया। अब उसके बाल-बच्चे हुए। मेरे बाल-बच्चों के लिए क्यों अपनी साँसत कराये, क्यों हमारे सिर का बोझ अपने सिर पर रखे!
'तुम्हीं उपद्रव की जड़ हो। '
'तो मुझे भी निकाल दे। ले जा बैलों को अनाज माँड़। मैं हुक़्क़ा पीता हूँ। '
'तुम चलकर चक्की पीसो मैं अनाज माड़ूँगी। '
विनोद में दुःख उड़ गया। वही उसकी दवा है। धनिया प्रसन्न होकर रूपा के बाल गूँथने बैठ गयी जो बिलकुल उलझकर रह गये थे, और होरी खलिहान चला। रसिक बसन्त सुगन्ध और प्रमोद और जीवन की विभूति लुटा रहा था, दोनों हाथों से, दिल खोलकर। कोयल आम की डालियों में छिपी अपनी रसीली, मधुर, आत्मस्पर्शी कूक से आशाओं को जगाती फिरती थी। महुए की डालियों पर मैनों की बरात-सी लगी बैठी थी। नीम और सिरस और करौंदे अपनी महक में नशा-सा घोल देते थे। होरी आमों के बाग़ में पहुँचा, तो वृक्षों के नीचे तारे-से खिले थे। उसका व्यथित, निराश मन भी इस व्यापक शोभा और स्फूर्ति में आकर गाने लगा --
'हिया जरत रहत दिन-रैन। आम की डरिया कोयल बोले, तनिक न आवत चैन। '
सामने से दुलारी सहुआइन, गुलाबी साड़ी पहने चली आ रही थीं। पाँव में मोटे चाँदी के कड़े थे, गले में मोटी सोने की हँसली, चेहरा सूखा हुआ; पर दिल हरा। एक समय था, जब होरी खेत-खलिहान में उसे छेड़ा करता था। वह भाभी थी, होरी देवर था, इस नाते से दोनों में विनोद होता रहता था। जब से साहजी मर गये, दुलारी ने घर से निकलना छोड़ दिया। सारे दिन दूकान पर बैठी रहती थी और वहीं वे सारे गाँव की ख़बर लगाती रहती थी। कहीं आपस में झगड़ा हो जाय, सहुआइन वहाँ बीच-बचाव करने के लिए अवश्य पहुँचेगी। आने रुपए सूद से कम पर रुपए उधार न देती थी। और यद्यपि सूद के लोभ में मूल भी हाथ न आता था -- जो रुपए लेता, खाकर बैठ रहता -- मगर उसके ब्याज का दर ज्यों-का-त्यों बना रहता था। बेचारी कैसे वसूल करे। नालिश-फ़रियाद करने से रही, थाना-पुलिस करने से रही, केवल जीभ का बल था; पर ज्यों-ज्यों उम्र के साथ जीभ की तेज़ी बदलती जाती थी, उसकी काट घटती जाती थी। अब उसकी गालियों पर लोग हँस देते थे और मज़ाक़ में कहते -- क्या करेगी रुपए लेकर काकी, साथ तो एक कौड़ी भी न ले जा सकेगी। ग़रीब को खिला-पिलाकर जितनी असीस मिल सके, ले-ले। यही परलोक में काम आयेगा। और दुलारी परलोक के नाम से जलती थी।
होरी ने छेड़ा -- आज तो भाभी, तुम सचमुच जवान लगती हो।
सहुआइन मगन होकर बोली -- आज मंगल का दिन है, नज़र न लगा देना। इसी मारे मैं कुछ पहनती-ओढ़ती नहीं। घर से निकली तो सभी घूरने लगते हैं, जैसे कभी कोई मेहरिया देखी न हो। पटेश्वरी लाला की पुरानी बान अभी तक नहीं छूटी। होरी ठिठक गया; बड़ा मनोरंजक प्रसंग छिड़ गया था। बैल आगे निकल गये।
'वह तो आजकल बड़े भगत हो गये हैं। देखती नहीं हो, हर पूरनमासी को सत्यनारायण की कथा सुनते हैं और दोनों जून मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं। '
'ऐसे लम्पट जितने होते हैं, सभी बूढ़े होकर भगत बन जाते हैं। कुकर्म का परासचित तो करना ही पड़ता है। पूछो, मैं अब बुढ़िया हुई, मुझसे क्या हँसी। '
'तुम अभी बुढ़िया कैसे हो गयी भाभी? मुझे तो अब भी... '
'अच्छा चुप ही रहना, नहीं डेढ़ सौ गाली दूँगी। लड़का परदेस कमाने लगा, एक दिन नेवता भी न खिलाया, सेंत-मेंत में भाभी बताने को तैयार। '
'मुझसे क़सम ले लो भाभी, जो मैंने उसकी कमाई का एक पैसा भी छुआ हो। न जाने क्या लाया, कहाँ ख़रच किया, मुझे कुछ भी पता नहीं। बस एक जोड़ा धोती और एक पगड़ी मेरे हाथ लगी। '
'अच्छा कमाने तो लगा, आज नहीं कल घर सँभालेगा ही। भगवान् उसे सुखी रखे। हमारे रुपए भी थोड़ा-थोड़ा देते चलो। सूद ही तो बढ़ रहा है। '
'तुम्हारी एक-एक पाई दूँगा भाभी, हाथ में पैसे आने दो। और खा ही जायेंगे, तो कोई बाहर के तो नहीं हैं, हैं तो तुम्हारे ही। '
सहुआइन ऐसी विनोद भरी चापलूसियों से निरस्त्र हो जाती थी। मुस्कराती हुई अपनी राह चली गयी। होरी लपककर बैलों के पास पहुँच गया और उन्हें पौर में डालकर चक्कर देने लगा। सारे गाँव का यही एक खलिहान था। कहीं मँड़ाई हो रही थी, कोई अनाज ओसा रहा था, कोई गल्ला तौल रहा था। नाई, बारी, बढ़ई, लोहार, पुरोहित, भाट, भिखारी, सभी अपने-अपने जेवरें लेने के लिए जमा हो गये थे। एक पेड़ के नीचे झिंगुरीसिंह खाट पर बैठे अपनी सवाई उगाह रहे थे। कई बनिये खड़े गल्ले का भाव-ताव कर रहे थे। सारे खलिहान में मंडी की-सी रौनक़ थी। एक खटकिन बेर और मकोय बेच रही थी और एक खोंचेवाला तेल के सेव और जलेबियाँ लिये फिर रहा था। पण्डित दातादीन भी होरी से अनाज बँटवाने के लिए आ पहुँचे थे और झिंगुरीसिंह के साथ खाट पर बैठे थे।
दातादीन ने सुरती मलते हुए कहा -- कुछ सुना, सरकार भी महाजनों से कह रही है कि सूद का दर घटा दो, नहीं डिग्री न मिलेगी।
झिंगुरी तमाखू फाँककर बोले -- पण्डित मैं तो एक बात जानता हूँ। तुम्हें गरज पड़ेगी तो सौ बार हमसे रुपए उधार लेने आओगे, और हम जो ब्याज चाहेंगे, लेंगे। सरकार अगर असामियों को रुपए उधार देने का कोई बन्दोबस्त न करेगी, तो हमें इस क़ानून से कुछ न होगा। हम दर कम लिखायेंगे; लेकिन एक सौ में पचीस पहले ही काट लेंगे। इसमें सरकार क्या कर सकती है।
'यह तो ठीक है; लेकिन सरकार भी इन बातों को ख़ूब समझती है। इसकी भी कोई रोक निकालेगी, देख लेना। ' ' इसकी कोई रोक हो ही नहीं सकती। '
'अच्छा, अगर वह शर्त कर दे, जब तक स्टाम्प पर गाँव के मुखिया या कारिन्दा के दसख़त न होंगे, वह पक्का न होगा, तब क्या करोगे? '
'असामी को सौ बार गरज होगी, मुखिया को हाथ-पाँव जोड़ के लायेगा और दसखत करायेगा। हम तो एक चौथाई काट ही लेंगे। '
'और जो फँस जाओ! जाली हिसाब लिखा और गये चौदह साल को। '
झिंगुरीसिंह ज़ोर से हँसा -- तुम क्या कहते हो पण्डित, क्या तब संसार बदल जायेगा? क़ानून और न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है। क़ानून तो है कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई न करे, कोई ज़मींदार किसी कास्तकार के साथ सख़्ती न करे; मगर होता क्या है। रोज़ ही देखते हो। ज़मींदार मुसक बँधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है। जो किसान पोढ़ा है, उससे न ज़मींदार बोलता है, न महाजन। ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं। तुम्हारे ही ऊपर राय साहब के पाँच सौ रुपए निकलते हैं; लेकिन नोखेराम में है इतनी हिम्मत कि तुमसे कुछ बोले? वह जानते हैं, तुमसे मेल करने ही में उनका हित है। असामी में इतना बूता है कि रोज़ अदालत दौड़े? सारा कारबार इसी तरह चला जायगा, जैसे चल रहा है। कचहरी-अदालत उसी के साथ है, जिसके पास पैसा है। हम लोगों को घबराने की कोई बात नहीं। यह कहकर उन्होंने खलिहान का एक चक्कर लगाया और फिर आकर खाट पर बैठते हुए बोले -- हाँ, मतई के ब्याह का क्या हुआ? हमारी सलाह तो है कि उसका ब्याह कर डालो। अब तो बड़ी बदनामी हो रही है। दातादीन को जैसे ततैया ने काट खाया। इस आलोचना का क्या आशय था, वह ख़ूब समझते थे। गर्म होकर बोले -- पीठ पीछे आदमी जो चाहे बके, हमारे मुँह पर कोई कुछ कहे, तो उसकी मूँछें उखाड़ लूँ। कोई हमारी तरह नेमी बन तो ले। कितनों को जानता हूँ, जो कभी सन्ध्या-बन्दन नहीं करते, न उन्हें धरम से मतलब, न करम से; न कथा से मतलब, न पुरान से। वह भी अपने को ब्राह्मण कहते हैं। हमारे ऊपर क्या हँसेगा कोई, जिसने अपने जीवन में एक एकादसी भी नागा नहीं की, कभी बिना स्नान-पूजन किये मुँह में पानी नहीं डाला। नेम का निभाना कठिन है। कोई बता दे कि हमने कभी बाज़ार की कोई चीज़ खायी हो, या किसी दूसरे के हाथ का पानी पिया हो, तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। सिलिया हमारी चौखट नहीं लाँघने पाती, चौखट; बरतन-भाँड़े छूना तो दूसरी बात है। मैं यह नहीं कहता कि मतई यह बहुत अच्छा काम कर रहा है, लेकिन जब एक बार एक बात हो गयी तो यह पाजी का काम है कि औरत को छोड़ दे। मैं तो खुल्लमखुल्ला कहता हूँ, इसमें छिपाने की कोई बात नहीं। स्त्री-जाति पवित्र है। दातादीन अपनी जवानी में स्वयम् बड़े रसिया रह चुके थे; लेकिन अपने नेम-धर्म से कभी नहीं चूके। मातादीन भी सुयोग्य पुत्र की भाँति उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहा था। धर्म का मूल तत्व है पूजा-पाठ, कथाव्रत और चौका-चूल्हा। जब पिता-पुत्र दोनों ही मूल तत्व को पकड़े हुए हैं, तो किसकी मजाल है कि उन्हें पथ-भ्रष्ट कह सके। छिंगुरीसिंह ने क़ायल होकर कहा -- मैंने तो भाई, जो सुना था, वह तुमसे कह दिया। दातादीन ने महाभारत और पुराणों से ब्राह्मणों-द्वारा अन्य जातियों की कन्याओं के ग्रहण किये जाने की एक लम्बी सूची पेश की और यह सिद्ध कर दिया कि उनसे जो सन्तान हुई, वह ब्राह्मण कहलायी और आजकल के जो ब्राह्मण हैं, वह उन्हीं सन्तानों की सन्तान हैं। यह प्रथा आदिकाल से चली आयी है और इसमें कोई लज्जा की बात नहीं। झिंगुरीसिंह उनके पाण्डित्य पर मुग्ध होकर बोले -- तब क्यों आजकल लोग वाजपेयी और सुकुल बने फिरते हैं?
'समय-समय की परथा है और क्या! किसी में उतना तेज तो हो। बिस खाकर उसे पचाना तो चाहिए। वह सतजुग की बात थी, सतजुग के साथ गयी। अब तो अपना निबाह बिरादरी के साथ मिलकर रहने में है; मगर करूँ क्या, कोई लड़कीवाला आता ही नहीं। तुमसे भी कहा, औरों से भी कहा, कोई नहीं सुनता तो मैं क्या लड़की बनाऊँ? ' झिंगुरीसिंह ने डाँटा -- झूठ मत बोलो पण्डित, मैं दो आदमियों को फाँस-फूँसकर लाया; मगर तुम मुँह फैलाने लगे, तो दोनों कान खड़े करके निकल भागे। आख़िर किस बिरते पर हज़ार-पाँच सौ माँगते हो तुम? दस बीघे खेत और भीख के सिवा तुम्हारे पास और क्या है?
दातादीन के अभिमान को चोट लगी। डाढ़ी पर हाथ फेरकर बोले -- पास कुछ न सही, मैं भीख ही माँगता हूँ, लेकिन मैंने अपनी लड़कियों के ब्याह में पाँच-पाँच सौ दिये हैं; फिर लड़के के लिए पाँच सौ क्यों न माँगूँ? किसी ने सेंत-मेंत में मेरी लड़की ब्याह ली होती तो मैं भी सेंत में लड़का ब्याह लेता। रही हैसियत की बात। तुम जजमानी को भीख समझो, मैं तो उसे ज़मींदारी समझता हूँ; बंकघर। ज़मींदारी मिट जाय, बंकघर टूट जाय, लेकिन जजमानी अन्त तक बनी रहेगी। जब तक हिन्दू-जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे और जजमानी भी रहेगी। सहालग में मज़े से घर बैठे सौ-दो सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाँच सौ मार लिया। कपड़े, बरतन, भोजन अलग। कहीं-न-कहीं नित ही कार-परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तब भी एक-दो थाल और दो-चार आने दक्षिणा मिल ही जाते हैं। ऐसा चैन न ज़मींदारी में है, न साहूकारी में। और फिर मेरा तो सिलिया से जितना उबार होता है, उतना ब्राह्मन की कन्या से क्या होगा? वह तो बहुरिया बनी बैठी रहेगी। बहुत होगा रोटियाँ पका देगी। यहाँ सिलिया अकेली तीन आदमियों का काम करती है। और मैं उसे रोटी के सिवा और क्या देता हूँ? बहुत हुआ, तो साल में एक धोती दे दी। दूसरे पेड़ के नीचे दातादीन का निजी पैरा था। चार बैलों से मँड़ाई हो रही थी। धन्ना चमार बैलों को हाँक रहा था, सिलिया पैरे से अनाज निकाल-निकालकर ओसा रही थी और मातादीन दूसरी ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल रहा था। सिलिया साँवली सलोनी, छरहरी बालिका थी, जो रूपवती न होकर भी आकर्षक थी। उसके हास में, चितवन में, अंगों के विलास में हर्ष का उन्माद था, जिससे उसकी बोटी-बोटी नाचती रहती थी, सिर से पाँव तक भूसे के अणुओं में सनी, पसीने से तर, सिर के बाल आधे खुले, वह दौड़-दौड़कर अनाज ओसा रही थी, मानो तन-मन से कोई खेल खेल रही हो। मातादीन ने कहा -- आज साँझ तक नाज बाक़ी न रहे सिलिया! तू थक गयी हो तो मैं आऊँ? सिलिया प्रसन्न मुख बोली -- तुम काहे को आओगे पण्डित! मैं संझा तक सब ओसा दूँगी।
'अच्छा, तो मैं अनाज ढो-ढोकर रख आऊँ। तू अकेली क्या-क्या कर लेगी? '
'तुम घबड़ाते क्यों हो, मैं ओसा भी दूँगी, ढोकर रख भी आऊँगी। पहर रात तक यहाँ एक दाना भी न रहेगा। दुलारी सहुआइन आज अपना लेहना वसूल करती फिरती थी। सिलिया उसकी दूकान से होली के दिन दो पैसे का गुलाबी रंग लायी थी। अभी तक पैसे न दिये थे। सिलिया के पास आकर बोली -- क्यों री सिलिया, महीना-भर रंग लाये हो गया, अभी तक पैसे नहीं दिये। माँगती हूँ तो मटककर चली जाती है। आज मैं बिना पैसा लिये न जाऊँगी। मातादीन चुपके-से सरक गया था। सिलिया का तन और मन दोनों लेकर भी बदले में कुछ न देना चाहता था। सिलिया अब उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थी, और कुछ नहीं। उसकी ममता को वह बड़े कौशल से नचाता रहता था। सिलिया ने आँख उठाकर देखा तो मातादीन वहाँ न था। बोली -- चिल्लाओ मत सहुआइन, यह ले लो, दो की जगह चार पैसे का अनाज। अब क्या जान लेगी? मैं मरी थोड़े ही जाती थी! उसने अन्दाज़ से कोई सेर-भर अनाज ढेर में से निकालकर सहुआइन के फैले हुए अंचल में डाल दिया। उसी वक़्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया हुआ निकला और सहुआइन का अंचल पकड़कर बोला -- अनाज सीधे से रख दो सहुआइन, लूट नहीं है। फिर उसने लाल-लाल आँखों से सिलिया को देखकर डाँटा -- तूने अनाज क्यों दे दिया? किससे पूछकर दिया? तू कौन होती है मेरा अनाज देने वाली? सहुआइन ने अनाज ढेर में डाल दिया और सिलिया हक्का-बक्का होकर मातादीन का मुँह देखने लगी। ऐसा जान पड़ा, जिस डाल पर वह निश्चिन्त बैठी हुई थी, वह टूट गयी और अब वह निराधार नीचे गिरी जा रही है! खिसियाये हुए मुँह से, आँखों में आँसू भरकर, सहुआइन से बोली -- तुम्हारे पैसे मैं फिर दे दूँगी सहुआइन! आज मुझ पर दया करो। सहुआइन ने उसे दयार्द्र नेत्रों से देखा और मातादीन को धिक्कार भरी आँखों से देखती हुई चली गयी। तब सिलिया ने अनाज ओसाते हुए आहत गर्व से पूछा -- तुम्हारी चीज़ में मेरा कुछ अख़्तियार नहीं है? मातादीन आँखें निकालकर बोला -- नहीं, तुझे कोई अख़्तियार नहीं है। काम करती है, खाती है। जो तू चाहे कि खा भी, लुटा भी; तो यह यहाँ न होगा। अगर तुझे यहाँ न परता पड़ता हो, कहीं और जाकर काम कर। मजूरों की कमी नहीं है। सेंत में नहीं लेते, खाना-कपड़ा देते हैं। सिलिया ने उस पक्षी की भाँति, जिसे मालिक ने पर काटकर पिंजरे से निकाल दिया हो, मातादीन की ओर देखा। उस चितवन में वेदना अधिक थी या भत्र्सना, यह कहना कठिन है। पर उसी पक्षी की भाँति उसका मन फड़फड़ा रहा था और ऊँची डाल पर उन्मुक्त वायु-मंडल में उड़ने की शक्ति न पाकर उसी पिंजरे में जा बैठना चाहता था, चाहे उसे बेदाना, बेपानी, पिंजरे की तीलियों से सिर टकराकर मर ही क्यों न जाना पड़े। सिलिया सोच रही थी, अब उसके लिए दूसरा कौन-सा ठौर है। वह ब्याहता न होकर भी संस्कार में और व्यवहार में और मनोभावना में ब्याहता थी, और अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटे, उसे दूसरा आश्रय नहीं है, दूसरा अवलम्ब नहीं है। उसे वह दिन याद आये -- और अभी दो साल भी तो नहीं हुए -- जब यही मातादीन उसके तलवे सहलाता था, जब उसने जनेऊ हाथ में लेकर कहा था -- सिलिया, जब तक दम में दम है, तुझे ब्याहता की तरह रखूँगा; जब वह प्रेमातुर होकर हार में और बाग़ में और नदी के तट पर उसके पीछे-पीछे पागलों की भाँति फिरा करता था। और आज उसका यह निष्ठुर व्यवहार! मुट्ठी-भर अनाज के लिए उसका पानी उतार लिया। उसने कोई जवाब न दिया। कंठ में नमक के एक डले का-सा अनुभव करती हुई, आहत हृदय और शिथिल हाथों से फिर काम करने लगी। उसी वक़्त उसकी माँ, बाप, दोनों भाई और कई अन्य चमारों ने न जाने किधर से आकर मातादीन को घेर लिया। सिलिया की माँ ने आते ही उसके हाथ से अनाज की टोकरी छीनकर फेंक दी और गाली देकर बोली -- राँड़, जब तुझे मज़दूरी ही करनी थी, तो घर की मजूरी छोड़ कर यहाँ क्या करने आयी। जब ब्राह्मण के साथ रहती है, तो ब्राह्मण की तरह रह। सारी बिरादरी की नाक कटवाकर भी चमारिन ही बनना था, तो यहाँ क्या घी का लोंदा लेने आयी थी। चुल्लू-भर पानी में डूब नहीं मरती! झिंगुरीसिंह और दातादीन दोनों दौड़े और चमारों के बदले हुए तेवर देखकर उन्हें शान्त करने की चेष्टा करने लगे। झिंगुरीसिंह ने सिलिया के बाप से पूछा -- क्या बात है चौधरी, किस बात का झगड़ा है? सिलिया का बाप हरखू साठ साल का बूढ़ा था; काला, दुबला, सूखी मिर्च की तरह पिचका हुआ; पर उतना ही तीक्ष्ण। बोला -- झगड़ा कुछ नहीं है ठाकुर, हम आज या तो मातादीन को चमार बना के छोड़ेंगे, या उनका और अपना रकत एक कर देंगे। सिलिया कन्या जात है, किसी-न-किसी के घर जायगी ही। इस पर हमें कुछ नहीं कहना है; मगर उसे जो कोई भी रखे, हमारा होकर रहे। तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं। हमें ब्राह्मण बना दो, हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है। जब यह समरथ नहीं है, तो फिर तुम भी चमार बनो। हमारे साथ खाओ-पिओ, हमारे साथ उठो-बैठो। हमारी इज़्ज़त लेते हो, तो अपना धरम हमें दो। दातादीन ने लाठी फटकार कर कहा -- मुँह सँभाल कर बातें कर हरखुआ! तेरी बिटिया वह खड़ी है, ले जा जहाँ चाहे। हमने उसे बाँध नहीं रक्खा है। काम करती थी, मजूरी लेती थी। यहाँ मजूरों की कमी नहीं है। सिलिया की माँ उँगली चमकाकर बोली -- वाह-वाह पण्डित! ख़ूब नियाव करते हो। तुम्हारी लड़की किसी चमार के साथ निकल गयी होती और तुम इस तरह की बातें करते, तो देखती। हम चमार हैं इसलिए हमारी कोई इज़्ज़त ही नहीं! हम सिलिया को अकेले न ले जायँगे, उसके साथ मातादीन को भी ले जायँगे, जिसने उसकी इज़्ज़त बिगाड़ी है। तुम बड़े नेमी-धरमी हो। उसके साथ सोओगे; लेकिन उसके हाथ का पानी न पिओगे! यही चुड़ैल है कि यह सब सहती है। मैं तो ऐसे आदमी को माहुर दे देती। हरखू ने अपने साथियों को ललकारा -- सुन ली इन लोगों की बात कि नहीं! अब क्या खड़े मुँह ताकते हो। इतना सुनना था कि दो चमारों ने लपककर मातादीन के हाथ पकड़ लिये, तीसरे ने झपटकर उसका जनेऊ तोड़ डाला और इसके पहिले कि दातादीन और झिंगुरीसिंह अपनी-अपनी लाठी सँभाल सकें, दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया। मातादीन ने दाँत जकड़ लिये, फिर भी वह घिनौनी वस्तु उनके ओठों में तो लग ही गयी। उन्हें मतली हुई और मुँह आप-से-आप खुल गया और हड्डी कंठ तक जा पहुँची। इतने में खलिहान के सारे आदमी जमा हो गये; पर आश्चर्य यह कि कोई इन धर्म के लुटेरों से मुज़ाहिम न हुआ। मातादीन का व्यवहार सभी को नापसन्द था। वह गाँव की बहू-बेटियों को घूरा करता था, इसलिए मन में सभी उसकी दुर्गति से प्रसन्न थे। हाँ, ऊपरी मन से लोग चमारों पर रोब जमा रहे थे। होरी ने कहा -- अच्छा, अब बहुत हुआ हरखू! भला चाहते हो, तो यहाँ से चले जाओ। हरखू ने निडरता से उत्तर दिया -- तुम्हारे घर में भी लड़कियाँ हैं होरी महतो, इतना समझ लो। इस तरह गाँव की मरजाद बिगड़ने लगी, तो किसी की आबरू न बचेगी। एक क्षण में शत्रु पर पूरी विजय पाकर आक्रमणकारियों ने वहाँ से टल जाना ही उचित समझा। जनमत बदलते देर नहीं लगती। उससे बचे रहना ही अच्छा है। मातादीन क़ै कर रहा था। दातादीन ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा -- एक-एक को पाँच-पाँच साल के लिए न भेजवाया, तो कहना। पाँच-पाँच साल तक चक्की पिसवाऊँगा। हरखू ने हेकड़ी के साथ जवाब दिया -- इसका यहाँ कोई ग़म नहीं। कौन तुम्हारी तरह बैठे मौज करते हैं। जहाँ काम करेंगे, वहीं आधा पेट दाना मिल जायगा। मातादीन क़ै कर चुकने के बाद निर्जीव-सा ज़मीन पर लेट गया, मानो कमर टूट गयी हो, मानो डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी खोज रहा हो। जिस मर्यादा के बल पर उसकी रसिकता और घमंड और पुरुषार्थ अकड़ता फिरता था, वह मिट चुकी थी। उस हड्डी के टुकड़े ने उसके मुँह को ही नहीं, उसकी आत्मा को भी अपवित्र कर दिया था। उसका धर्म इसी खान-पान, छूत-विचार पर टिका हुआ था। आज उस धर्म की जड़ कट गयी। अब वह लाख प्रायश्चित्त करे, लाख गोबर खाय और गंगाजल पिये, लाख दान-पुण्य और तीर्थ-व्रत करे, उसका मरा हुआ धर्म जी नहीं सकता; अगर अकेले की बात होती, तो छिपा ली जाती; यहाँ तो सबके सामने उसका धर्म लुटा। अब उसका सिर हमेशा के लिए नीचा हो गया। आज से वह अपने ही घर में अछूत समझा जायगा। उसकी स्नेहमयी माता भी उससे घृणा करेगी। और संसार से धर्म का ऐसा लोप हो गया कि इतने आदमी केवल खड़े तमाशा देखते रहे। किसी ने चूँ तक न की। एक क्षण पहले जो लोग उसे देखते ही पालागन करते थे, अब उसे देखकर मुँह फेर लेंगे। वह किसी मन्दिर में भी न जा सकेगा, न किसी के बरतन-भाँड़े छू सकेगा। और यह सब हुआ इस अभागिन सिलिया के कारण। सिलिया जहाँ अनाज ओसा रही थी, वहीं सिर झुकाये खड़ी थी, मानो यह उसी की दुर्गति हो रही है। सहसा उसकी माँ ने आकर डाँटा -- खड़ी ताकती क्या है? चल सीधे घर, नहीं बोटी-बोटी काट डालूँगी। बाप-दादा का नाम तो ख़ूब उजागर कर चुकी, अब क्या करने पर लगी है? सिलिया मूर्तिवत् खड़ी रही। माता-पिता और भाइयों पर उसे क्रोध आ रहा था। यह लोग क्यों उसके बीच में बोलते हैं। वह जैसे चाहती है, रहती है, दूसरों से क्या मतलब? कहते हैं, यहाँ तेरा अपमान होता है, तब क्या कोई ब्राह्मण उसका पकाया खा लेगा? उसके हाथ का पानी पी लेगा? अभी ज़रा देर पहले उसका मन दातादीन के निठुर व्यवहार से खिन्न हो रहा था, पर अपने घरवालों और बिरादरी के इस अत्याचार ने उस विराग को प्रचंड अनुराग का रूप दे दिया। विद्रोह-भरे मन से बोली -- मैं कहीं न जाऊँगी। तू क्या यहाँ भी मुझे जीने न देगी? बुढ़िया ककर्श स्वर में बोली -- तू न चलेगी?
'नहीं। '
'चल सीधे से। '
'नहीं जाती। '
तुरत दोनों भाइयों ने उसके हाथ पकड़ लिये और उसे घसीटते हुए ले चले। सिलिया ज़मीन पर बैठ गयी। भाइयों ने इस पर भी न छोड़ा। घसीटते ही रहे। उसकी साड़ी फट गयी, पीठ और कमर की खाल छिल गयी; पर वह जाने पर राज़ी न हुई। तब हरखू ने लड़कों से कहा -- अच्छा, अब इसे छोड़ दो। समझ लेंगे मर गयी; मगर अब जो कभी मेरे द्वार पर आयी तो लहू पी जाऊँगा। सिलिया जान पर खेलकर बोली -- हाँ, जब तुम्हारे द्वार पर जाऊँ, तो पी लेना। बुढ़िया ने क्रोध के उन्माद में सिलिया को कई लातें जमाईं और हरखू ने उसे हटा न दिया होता, तो शायद प्राण ही लेकर छोड़ती। बुढ़िया फिर झपटी, तो हरखू ने उसे धक्के देकर पीछे हटाते हुए कहा -- तू बड़ी हत्यारिन है कलिया! क्या उसे मार ही डालेगी? सिलिया बाप के पैरों से लिपटकर बोली -- मार डालो दादा, सब जने मिलकर मार डालो। हाय अम्माँ, तुम इतनी निर्दयी हो; इसीलिए दूध पिलाकर पाला था? सौर में ही क्यों न गला घोंट दिया? हाय! मेरे पीछे पण्डित को भी तुमने भरिस्ट कर दिया। उसका धरम लेकर तुम्हें क्या मिला? अब तो वह भी मुझे न पूछेगा। लेकिन पूछे न पूछे, रहूँगी तो उसी के साथ। वह मुझे चाहे भूखों रखे, चाहे मार डाले, पर उसका साथ न छोड़ूँगी। उनकी साँसत कराके छोड़ दूँ? मर जाऊँगी, पर हरजाई न बनूँगी। एक बार जिसने बाँह पकड़ ली, उसी की रहूँगी। कलिया ने ओठ चबाकर कहा -- जाने दो राँड़ को। समझती है, वह इसका निबाह करेगा; मगर आज ही मारकर भगा न दे तो मुँह न दिखाऊँ। भाइयों को भी दया आ गयी। सिलिया को वहीं छोड़कर सब-के-सब चले गये। तब वह धीरे से उठकर लँगड़ाती, कराहती, खलिहान में आकर बैठ गयी और अंचल में मुँह ढाँपकर रोने लगी। दातादीन ने जुलाहे का ग़ुस्सा डाढ़ी पर उतारा -- उनके साथ चली क्यों नहीं गयी री सिलिया! अब क्या करवाने पर लगी हुई है? मेरा सत्यानास कराके भी पेट नहीं भरा? सिलिया ने आँसू-भरी आँखें ऊपर उठाईं। उनमें तेज की झलक थी।
'उनके साथ क्यों जाऊँ? जिसने बाँह पकड़ी है, उसके साथ रहूँगी। '
पण्डितजी ने धमकी दी -- मेरे घर में पाँव रखा, तो लातों से बात करूँगा। सिलिया ने भी उद्दंडता से कहा -- मुझे जहाँ वह रखेंगे, वहाँ रहूँगी। पेड़ तले रखें, चाहे महल में रखें। मातादीन संज्ञाहीन-सा बैठा था। दोपहर होने आ रहा था। धूप पत्तियों से छन-छनकर उसके चेहरे पर पड़ रही थी। माथे से पसीना टपक रहा था। पर वह मौन, निस्पन्द बैठा हुआ था। सहसा जैसे उसने होश में आकर कहा -- मेरे लिए अब क्या कहते हो दादा? दातादीन ने उसके सिर पर हाथ रखकर ढाढ़स देते हुए कहा -- तुम्हारे लिए अभी मैं क्या कहूँ बेटा? चलकर नहाओ, खाओ, फिर पण्डितों की जैसी व्यवस्था होगी, वैसा किया जायगा। हाँ, एक बात है; सिलिया को त्यागना पड़ेगा। मातादीन ने सिलिया की ओर रक्त-भरे नेत्रों से देखा -- मैं अब उसका कभी मुँह न देखूँगा; लेकिन परासचित हो जाने पर फिर तो कोई दोष न रहेगा।
'परासचित हो जाने पर कोई दोष-पाप नहीं रहता। '
'तो आज ही पण्डितों के पास जाओ। '
'आज ही जाऊँगा बेटा! '
'लेकिन पण्डित लोग कहें कि इसका परासचित नहीं हो सकता, तब? '
'उनकी जैसी इच्छा। '
'तो तुम मुझे घर से निकाल दोगे? '
दातादीन ने पुत्र-स्नेह से विह्वल होकर कहा -- ऐसा कहीं हो सकता है, बेटा! धन जाय, धरम जाय, लोक-मरजाद जाय, पर तुम्हें नहीं छोड़ सकता। मातादीन ने लकड़ी उठाई और बाप के पीछे-पीछे घर चला। सिलिया भी उठी और लँगड़ाती हुई उसके पीछे हो ली। मातादीन ने पीछे फिरकर निर्मम स्वर में कहा -- मेरे साथ मत आ। मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। इतनी साँसत करवा के भी तेरा पेट नहीं भरता। सिलिया ने धृष्टता के साथ उसका हाथ पकड़कर कहा -- वास्ता कैसे नहीं है? इसी गाँव में तुमसे धनी, तुमसे सुन्दर, तुमसे इज़्ज़तदार लोग हैं। मैं उनका हाथ क्यों नहीं पकड़ती। तुम्हारी यह दुर्दशा ही आज क्यों हुई? जो रस्सी तुम्हारे गले में पड़ गयी है, उसे तुम लाख चाहो, नहीं छोड़ सकते। और न मैं तुम्हें छोड़कर कहीं जाऊँगी। मजूरी करूँगी, भीख माँगूँगी; लेकिन तुम्हें न छोड़ूँगी। यह कहते हुए उसने मातादीन का हाथ छोड़ दिया और फिर खलिहान में जाकर अनाज ओसाने लगी। होरी अभी तक वहाँ अनाज माँड़ रहा था। धनिया उसे भोजन करने के लिए बुलाने आयी थी। होरी ने बैलों को पैर से बाहर निकालकर एक पेड़ में बाँध दिया और सिलिया से बोला -- तू भी जा खा-पी आ सिलिया! धनिया यहाँ बैठी है। तेरी पीठ पर की साड़ी तो लहू से रँग गयी है रे! कहीं घाव पक न जाय। तेरे घरवाले बड़े निर्दयी हैं। सिलिया ने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा -- यहाँ निर्दयी कौन नहीं है, दादा! मैंने तो किसी को दयावान नहीं पाया।
'क्या कहा पण्डित ने? '
'कहते हैं, मेरा तुमसे कोई वास्ता नहीं। '
'अच्छा! ऐसा कहते हैं! '
'समझते होंगे, इस तरह अपने मुँह की लाली रख लेंगे; लेकिन जिस बात को दुनिया जानती है, उसे कैसे छिपा लेंगे। मेरी रोटियाँ भारी हैं, न दें। मेरे लिए क्या? मजूरी अब भी करती हूँ, तब भी करूँगी। सोने को हाथ भर जगह तुम्हीं से माँगूँगी तो क्या तुम न दोगे? '
धनिया दयार्द्र होकर बोली -- जगह की कौन कमी है बेटी! तू चल मेरे घर रह। होरी ने कातर स्वर में कहा -- बुलाती तो है, लेकिन पण्डित को जानती नहीं? धनिया ने निर्भीक स्वर में कहा -- बिगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लेंगे, और क्या करेंगे। कोई उनकी दबैल हूँ। उसकी इज़्ज़त ली, बिरादरी से निकलवाया, अब कहते हैं, मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। आदमी है कि क़साई। यह उसी नीयत का आज फल मिला है। पहले नहीं सोच लिया था। तब तो बिहार करते रहे। अब कहते हैं, मुझसे कौन वास्ता। होरी के विचार में धनिया ग़लती कर रही थी। सिलिया के घरवालों ने मतई को कितना बेधरम कर दिया, यह कोई अच्छा काम नहीं किया। सिलिया को चाहे मारकर ले जाते, चाहे दुलारकर ले जाते। वह उनकी लड़की है। मतई को क्यों बेधरम किया? धनिया ने फटकार बताई -- अच्छा रहने दो, बड़े न्यायी बने हो। मरद-मरद सब एक होते हैं। इसको मतई ने बेधरम किया तब तो किसी को बुरा न लगा। अब जो मतई बेधरम हो गये, तो क्यों बुरा लगता है? क्या सिलिया का धरम, धरम ही नहीं? रखी तो चमारिन, उस पर नेमी-धर्मी बनते हैं। बड़ा अच्छा किया हरखू चौधरी ने। ऐसे गुंडों की यही सज़ा है। तू चल सिलिया मेरे घर। न-जाने कैसे बेदरद माँ-बाप हैं कि बेचारी की सारी पीठ लहूलुहान कर दी। तुम जाके सोना को भेज दो। मैं इसे लेकर आती हूँ। होरी घर चला गया और सिलिया धनिया के पैरों पर गिरकर रोने लगी।
गोदान अध्याय 24
सोना सत्रहवें साल में थी और इस साल उसका विवाह करना आवश्यक था। होरी तो दो साल से इसी फ़िक्र में था, पर हाथ ख़ाली होने से कोई क़ाबू न चलता था। मगर इस साल जैसे भी हो, उसका विवाह कर देना ही चाहिए, चाहे क़रज़ लेना पड़े, चाहे खेत गिरों रखने पड़ें। और अकेले होरी की बात चलती तो दो साल पहले ही विवाह हो गया होता। वह किफ़ायत से काम करना चाहता था। पर धनिया कहती थी, कितना ही हाथ बाँधकर ख़र्च करो; दो-ढाई सौ लग ही जायँगे। झुनिया के आ जाने से बिरादरी में इन लोगों का स्थान कुछ हेठा हो गया था और बिना सौ दो-सौ दिये कोई कुलीन वर न मिल सकता था। पिछले साल चैती में कुछ न मिला। था तो पण्डित दातादीन से आधा साझा; मगर पण्डित जी ने बीज और मजूरी का कुछ ऐसा ब्योरा बताया कि होरी के हाथ एक चौथाई से ज़्यादा अनाज न लगा। और लगान देना पड़ गया पूरा। ऊख और सन की फ़सल नष्ट हो गयी। सन तो वर्षा अधिक होने और ऊख दीमक लग जाने के कारण। हाँ, इस साल की चैती अच्छी थी और ऊख भी ख़ूब लगी हुई थी। विवाह के लिए गल्ला तो मौजूद था; दो सौ रुपए भी हाथ आ जायँ, तो कन्या-अण से उसका उद्धार हो जाय। अगर गोबर सौ ,रुपए की मदद कर दे, तो बाक़ी सौ रुपए होरी को आसानी से मिल जायँगे। झिंगुरीसिंह और मँगरू साह दोनों ही अब कुछ नर्म पड़ गये थे। जब गोबर परदेश में कमा रहा है, तो उनके रुपए मारे न पड़ सकते थे। एक दिन होरी ने गोबर के पास दो-तीन दिन के लिए जाने का प्रस्ताव किया। मगर धनिया अभी तक गोबर के वह कठोर शब्द न भूली थी। वह गोबर से एक पैसा भी न लेना चाहती थी, किसी तरह नहीं! होरी ने झुँझलाकर कहा -- लेकिन काम कैसे चलेगा, यह बता। धनिया सिर हिलाकर बोली -- मान लो, गोबर परदेश न गया होता, तब तुम क्या करते? वही अब करो। होरी की ज़बान बन्द हो गयी। एक क्षण बाद बोला -- मैं तो तुझसे पूछता हूँ। धनिया ने जान बचाई -- यह सोचना मरदों का काम है। होरी के पास जवाब तैयार था -- मान ले, मैं न होता, तू ही अकेली रहती, तब तू क्या करती। वह कर। धनिया ने तिरस्कार भरी आँखों से देखा -- तब मैं कुश-कन्या भी दे देती तो कोई हँसनेवाला न था। कुश-कन्या होरी भी दे सकता था। इसी में उसका मंगल था; लेकिन कुछ-मर्यादा कैसे छोड़ दे? उसकी बहनों के विवाह में तीन-तीन सौ बराती द्वार पर आये थे। दहेज भी अच्छा ही दिया गया था। नाच-तमाशा, बाजा, गाजा, हाथी-घोड़े, सभी आये थे। आज भी बिरादरी में उसका नाम है। दस गाँव के आदमियों से उसका हेल-मेल है। कुश-कन्या देकर वह किसे मुँह दिखायेगा? इससे तो मर जाना अच्छा है। और वह क्यों कुश-कन्या दे? पेड़-पालों हैं, ज़मीन है और थोड़ी-सी साख भी है; अगर वह एक बीघा भी बेंच दे, तो सौ मिल जायँ; लेकिन किसान के लिए ज़मीन जान से भी प्यारी है, कुल-मर्यादा से भी प्यारी है। और कुल तीन ही बीघे तो उसके पास हैं; अगर एक बीघा बेंच दे, तो फिर खेती कैसे करेगा? कई दिन इसी हैस-बेस में गुज़रे। होरी कुछ फ़ैसला न कर सका। दशहरे की छुट्टियों के दिन थे। झिंगुरी, पटेश्वरी और नोखेराम तीनों ही सज्जनों के लड़के छुट्टियों में घर आये थे। तीनों अँग्रेज़ी पढ़ते थे और यद्यपि तीनों बीस-बीस साल के हो गये थे, पर अभी तक यूनिवर्सिटी में जाने का नाम न लेते थे। एक-एक क्लास में दो-दो, तीन-तीन साल पड़े रहते। तीनों की शादियाँ हो चुकी थीं। पटेश्वरी के सपूत बिन्देसरी तो एक पुत्र के पिता भी हो चुके थे। तीनों दिन भर ताश खेलते, भंग पीते और छैला बने घूमते। वे दिन में कई-कई बार होरी के द्वार की ओर ताकते हुए निकलते और कुछ ऐसा संयोग था कि जिस वक़्त वे निकलते, उसी वक़्त सोना भी किसी-न-किसी काम से द्वार पर आ खड़ी होती। इन दिनों वह वही साड़ी पहनती थी, जो गोबर उसके लिए लाया था। यह सब तमाशा देख-देखकर होरी का ख़ून सूखता जाता था, मानो उसकी खेती चौपट करने के लिए आकाश में ओलेवाले पीले बादल उठे चले आते हों! एक दिन तीनों उसी कुएँ पर नहाने जा पहुँचे, जहाँ होरी ऊख सींचने के लिए पुर चला रहा था। सोना मोट ले रही थी। होरी का ख़ून आज खौल उठा। उसी साँझ को वह दुलारी सहुआइन के पास गया। सोचा, औरतों में दया होती है, शायद इसका दिल पसीज जाय और कम सूद पर रुपए दे दे। मगर दुलारी अपना ही रोना ले बैठी। गाँव में ऐसा कोई घर न था जिस पर उसके कुछ रुपए न आते हों, यहाँ तक कि झिंगुरीसिंह पर भी उसके बीस रुपए आते थे; लेकिन कोई देने का नाम न लेता था। बेचारी कहाँ से रुपए लाये? होरी ने गिड़गिड़ाकर कहा -- भाभी, बड़ा पुन्न होगा। तुम रुपए न दोगी, मेरे गले की फाँसी खोल दोगी। झिंगुरी और पटेसरी मेरे खेतों पर दाँत लगाये हुए हैं। मैं सोचता हूँ, बाप-दादा की यही तो निसानी है, यह निकल गयी, तो जाऊँगा कहाँ? एक सपूत वह होता है कि घर की सम्पत बढ़ाता है, मैं ऐसा कपूत हो जाऊँ कि बाप-दादों की कमाई पर झाड़ू फेर दूँ। दुलारी ने क़सम खाई -- होरी, मैं ठाकुर जी के चरन छू कर कहती हूँ कि इस समय मेरे पास कुछ नहीं है। जिसने लिया, वह देता नहीं, तो मैं क्या करूँ? तुम कोई ग़ैर तो नहीं हो। सोना भी मेरी ही लड़की है; लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ? तुम्हारा ही भाई हीरा है। बैल के लिए पचास रुपए लिये। उसका तो कहीं पता-ठिकाना नहीं, उसकी घरवाली से माँगो तो लड़ने को तैयार। शोभा भी देखने में बड़ा सीधा-सादा है; लेकिन पैसा देना नहीं जानता। और असल बात तो यह है कि किसी के पास है ही नहीं, दें कहाँ से। सबकी दशा देखती हूँ, इसी मारे सबर कर जाती हूँ। लोग किसी तरह पेट पाल रहे हैं, और क्या। खेत-बारी बेचने की मैं सलाह न दूँगी। कुछ नहीं है, मरजाद तो है। फिर कनफुसकियों में बोली -- पटेसरी लाला का लौंडा तुम्हारे घर की ओर बहुत चक्कर लगाया करता है। तीनों का वही हाल है। इनसे चौकस रहना। यह सहरी हो गये, गाँव का भाई-चारा क्या समझें। लड़के गाँव में भी हैं; मगर उनमें कुछ लिहाज है, कुछ अदब है, कुछ डर है। ये सब तो छूटे साँड़ हैं। मेरी कौसल्या ससुराल से आयी थी, मैंने सबों के ढंग देखकर उसके ससुर को बुला कर बिदा कर दिया। कोई कहाँ तक पहरा दे। होरी को मुस्कराते देखकर उसने सरस ताड़ना के भाव से कहा -- हँसोगे होरी तो मैं भी कुछ कह दूँगी। तुम क्या किसी से कम नटखट थे। दिन में पचीसों बार किसी-न-किसी बहाने मेरी दुकान पर आया करते थे; मगर मैंने कभी ताका तक नहीं।
होरी ने मीठे प्रतिवाद के साथ कहा -- यह तो तुम झूठ बोलती हो भाभी! बिना कुछ रस पाये थोड़े ही आता था। चिड़िया एक बार परच जाती है, तभी दूसरी बार आँगन में आती है।
'चल झूठे। '
'आँखों से न ताकती रही हो; लेकिन तुम्हारा मन तो ताकता ही था; बल्कि बुलाता था। '
'अच्छा रहने दो, बड़े आए अन्तरजामी बन के। तुम्हें बार-बार मँड़राते देख के मुझे दया आ जाती थी, नहीं तुम कोई ऐसे बाँके जवान न थे। '
हुसेनी एक पैसे का नमक लेने आ गया और यह परिहास बन्द हो गया। हुसेनी नमक लेकर चला गया, तो दुलारी ने फिर कहा -- गोबर के पास क्यों नहीं चले जाते। देखते भी आओगे और साइत कुछ मिल भी जाय।
होरी निराश मन से बोला -- वह कुछ न देगा। लड़के चार पैसे कमाने लगते हैं, तो उनकी आँखें फिर जाती हैं। मैं तो बेहयाई करने को तैयार था; लेकिन धनिया नहीं मानती। उसकी मरज़ी बिना चला जाऊँ तो घर में रहना अपाढ़ कर दे। उसका सुभाव तो जानती हो।
दुलारी ने कटाक्ष करके कहा -- तुम तो मेहरिया के जैसे ग़ुलाम हो गये।
'तुमने पूछा ही नहीं तो क्या करता? '
'मेरी ग़ुलामी करने को कहते तो मैंने लिखा लिया होता, सच!
'तो अब से क्या बिगड़ा है, लिखा लो न। दो सौ में लिखता हूँ, इन दामों महँगा नहीं हूँ। '
'तब धनिया से तो न बोलोगे? '
'नहीं, कहो क़सम खाऊँ। '
'और जो बोले? '
'तो मेरी जीभ काट लेना। '
'अच्छा तो जाओ, घर ठीक-ठाक करो, मैं रुपए दे दूँगी। '
होरी ने सजल नेत्रों से दुलारी के पाँव पकड़ लिये। भावावेश से मुँह बन्द हो गया। सहुआइन ने पाँव खींचकर कहा -- अब यही सरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं साल-भर के भीतर अपने रुपए सूद-समेत कान पकड़कर लूँगी। तुम तो व्यवहार के ऐसे सच्चे नहीं हो; लेकिन धनिया पर मुझे विश्वास है। सुना पण्डित तुमसे बहुत बिगड़े हुए हैं। कहते हैं, इसे गाँव से निकालकर नहीं छोड़ा तो बाह्मण नहीं। तुम सिलिया को निकाल बाहर क्यों नहीं करते? बैठे-बैठायें झगड़ा मोल ले लिया।
'धनिया उसे रखे हुए है, मैं क्या करूँ। '
'सुना है, पण्डित कासी गये थे। वहाँ एक बड़ा नामी विद्वान् पण्डित है। वह पाँच सौ माँगता है। तब परासचित करायेगा। भला, पूछो ऐसा अँधेर नहीं हुआ है। जब धरम नष्ट हो गया, तो
एक नहीं हज़ार परासचित करो, इसे क्या होता है। तुम्हारे हाथ का छुआ पानी कोई न पियेगा, चाहे जितना परासचित करो। '
होरी यहाँ से घर चला, तो उसका दिल उछल रहा था। जीवन में ऐसा सुखद अनुभव उसे न हुआ था। रास्ते में शोभा के घर गया और सगाई लेकर चलने के लिए नेवता दे आया। फिर दोनों दातादीन के पास सगाई की सायत पूछने गये। वहाँ से आकर द्वार पर सगाई की तैयारियों की सलाह करने लगे। धनिया ने बाहर निकलकर कहा -- पहर रात गयी, अभी रोटी खाने की बेला नहीं आयी? खाकर बैठो। गपड़चौथ करने को तो सारी रात पड़ी है।
होरी ने उसे भी परामर्श में शरीक होने का अनुरोध करते हुए कहा -- इसी सहालग में लगन ठीक हुआ है। बता, क्या-क्या सामान लाना चाहिए। मुझे तो कुछ मालूम नहीं।
'जब कुछ मालूम ही नहीं, तो सलाह करने क्या बैठे हो। रुपए-पैसे का डौल भी हुआ कि मन की मिठाई खा रहे हो। '
होरी ने गर्व से कहा -- तुझे इससे क्या मतलब। तू इतना बता दे क्या-क्या सामान लाना होगा?
'तो मैं ऐसी मन की मिठाई नहीं खाती। '
'तू इतना बता दे कि हमारी बहनों के ब्याह में क्या-क्या सामान आया था। '
'पहले यह बता दो, रुपए मिल गये? '
'हाँ, मिल गये, और नहीं क्या भंग खायी हो। '
'तो पहले चलकर खा लो। फिर सलाह करेंगे। ' मगर जब उसने सुना कि दुलारी से बातचीत हुई है, तो नाक सिकोड़ कर बोली -- उससे रुपए लेकर आज तक कोई उरिन हुआ है? चुड़ैल कितना कसकर सूद लेती है!
'लेकिन करता क्या? दूसरा देता कौन है। '
'यह क्यों नहीं कहते कि इसी बहाने दो गाल हँसने-बोलने गया था। बूढ़े हो गये, पर यह बान न गयी। '
'तू तो धनिया, कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती है। मेरे-जैसे फटेहालों से वह हँस-बोलेगी? सीधे मुँह बात तो करती नहीं। '
'तुम-जैसों को छोड़कर उसके पास और जायगा ही कौन? '
'उसके द्वार पर अच्छे-अच्छे नाक रगड़ते हैं, धनिया, तू क्या जाने। उसके पास लच्छमी है। '
'उसने ज़रा-सी हामी भर दी, तुम चारों ओर ख़ुशख़बरी लेकर दौड़े। '
'हामी नहीं भर दी, पक्का वादा किया है। '
होरी रोटी खाने गया और शोभा अपने घर चला गया, तो सोना सिलिया के साथ बाहर निकली। वह द्वार पर खड़ी सारी बातें सुन रही थी। उसकी सगाई के लिए दो सौ रुपए दुलारी से उधार लिये जा रहे हैं, यह बात उसके पेट में इस तरह खलबली मचा रही थी, जैसे ताज़ा चूना पानी में पड़ गया हो। द्वार पर एक कुप्पी जल रही थी, जिससे ताक के ऊपर की दीवार काली हो गयी थी। दोनों बैल नाँद में सानी खा रहे थे और कुत्ता ज़मीन पर टुकड़े के इन्तज़ार में बैठा हुआ था।
दोनों युवतियाँ बैलों की चरनी के पास आकर खड़ी हो गयीं। सोना बोली -- तूने कुछ सुना? दादा सहुआइन से मेरी सगाई के लिए दो सौ रुपए उधार ले रहे हैं।
सिलिया घर का रत्ती-रत्ती हाल जानती थी। बोली-घर में पैसा नहीं है, तो क्या करें?
सोना ने सामने के काले वृक्षों की ओर ताकते हुए कहा -- मैं ऐसा नहीं करना चाहती, जिसमें माँ-बाप को कर्जा लेना पड़े। कहाँ से देंगे बेचारे, बता! पहले ही क़रज़ के बोझ से दबे हुए हैं। दो सौ और ले लेंगे, तो बोझा और भारी होगा कि नहीं?
'बिना दान-दहेज के बड़े आदमियों का कहीं ब्याह होता है पगली? बिना दहेज के तो कोई बूढ़ा-ठेला ही मिलेगा। जायगी बूढ़े के साथ? '
'बूढ़े के साथ क्यों जाऊँ? भैया बूढ़े थे जो झुनिया को ले आये। उन्हें किसने कै पैसे दहेज में दिये थे? '
'उसमें बाप-दादा का नाम डूबता है। '
'मैं तो सोनारीवालों से कह दूँगी, अगर तुमने ऐसा पैसा भी दहेज लिया, तो मैं तुमसे ब्याह न करूँगी। ' सोना का विवाह सोनारी के एक धनी किसान के लड़के से ठीक हुआ था।
'और जो वह कह दें, कि मैं क्या करूँ, तुम्हारे बाप देते हैं, मेरे बाप लेते हैं, इसमें मेरा क्या अख़्तियार है? '
सोना ने जिस अस्त्र को रामबाण समझा था, अब मालूम हुआ कि वह बाँस की कैन है। हताश होकर बोली -- मैं एक बार उससे कह के देख लेना चाहती हूँ; अगर उसने कह दिया, मेरा कोई अख़्तियार नहीं है, तो क्या गोमती यहाँ से बहुत दूर है। डूब मरूँगी। माँ-बाप ने मर-मर के पाला-पोसा। उसका बदला क्या यही है कि उनके घर से जाने लगूँ, तो उन्हें कर्जे से और लादती जाऊँ? माँ-बाप को भगवान् ने दिया हो, तो ख़ुशी से जितना चाहें लड़की को दें, मैं मना नहीं करती; लेकिन जब वह पैसे-पैसे को तंग हो रहे हैं, आज महाजन नालिश करके लिल्लाम करा ले, तो कल मजूरी करनी पड़ेगी, तो कन्या का धरम यही है कि डूब मरे। घर की ज़मीन-जैजात तो बच जायगी, रोटी का सहारा तो रह जायगा। माँ-बाप चार दिन मेरे नाम को रोकर सन्तोष कर लेंगे। यह तो न होगा कि मेरा ब्याह करके उन्हें जन्म भर रोना पड़े। तीन-चार साल में दो सौ के दूने हो जायँगे, दादा कहाँ से लाकर देंगे।
सिलिया को जान पड़ा, जैसे उसकी आँख में नयी ज्योति आ गयी है। आवेश में सोना को छाती से लगाकर बोली -- तूने इतनी अक्कल कहाँ से सीख ली सोना? देखने में तो तू बड़ी भोली-भाली है।
'इसमें अक्कल की कौन बात है चुड़ैल। क्या मेरे आँखें नहीं हैं कि मैं पागल हूँ। दो सौ मेरे ब्याह में लें। तीन-चार साल में वह दूना हो जाय। तब रुपिया के ब्याह में दो सौ और लें। जो कुछ खेती-बारी है, सब लिलाम-तिलाम हो जाये, और द्वार-द्वार भीख माँगते फिरें। यही न? इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं अपनी ही जान दे दूँ। मुँह अँधेरे सोनारी चली जाना और उसे बुला लाना; मगर नहीं, बुलाने का काम नहीं। मुझे उससे बोलते लाज आयेगी। तू ही मेरा यह सन्देशा कह देना। देख क्या जवाब देते हैं। कौन दूर है? नदी के उस पार ही तो है। कभी-कभी ढोर लेकर इधर आ जाता है। एक बार उसकी भैंस मेरे खेत में पड़ गयी थी, तो मैंने उसे बहुत गालियाँ दी थीं। हाथ जोड़ने लगा। हाँ, यह तो बता, इधर मतई से तेरी भेंट नहीं हुई! सुना, बाह्मन लोग उन्हें बिरादरी में नहीं ले रहे हैं।
सिलिया ने हिकारत के साथ कहा -- बिरादरी में क्यों न लेंगे; हाँ, बूढ़ा रुपए नहीं ख़रच करना चाहता। इसको पैसा मिल जाय, तो झूठी गंगा उठा ले। लड़का आजकल बाहर ओसारे में टिक्कड़ लगाता है।
'तू इसे छोड़ क्यों नहीं देती? अपनी बिरादरी में किसी के साथ बैठ जा और आराम से रह। वह तेरा अपमान तो न करेगा। '
'हाँ रे, क्यों नहीं, मेरे पीछे उस बेचारे की इतनी दुरदशा हुई, अब मैं उसे छोड़ दूँ। अब वह चाहे पण्डित बन जाय चाहे देवता बन जाय, मेरे लिए तो वही मतई है, जो मेरे पैरों पर सिर रगड़ा करता था; और बाह्मण भी हो जाय और बाह्मणी से ब्याह भी कर ले, फिर भी जितनी उसकी सेवा मैंने की है, वह कोई बाह्मणी क्या करेगी। अभी मान-मरजाद के मोह में वह चाहे मुझे छोड़ दे; लेकिन देख लेना, फिर दौड़ा आयेगा। '
'आ चुका अब। तुझे पा जाय तो कच्चा ही खा जाय। '
'तो उसे बुलाने ही कौन जाता है। अपना-अपना धरम अपने-अपने साथ है। वह अपना धरम तोड़ रहा है, तो मैं अपना धरम क्यों तोड़ूँ। '
प्रातःकाल सिलिया सोनारी की ओर चली; लेकिन होरी ने रोक लिया। धनिया के सिर में दर्द था। उसकी जगह क्यारियों को बराना था। सिलिया इनकार न कर सकी। यहाँ से जब दोपहर को छुट्टी मिली तो वह सोनारी चली। इधर तीसरे पहर होरी फिर कुएँ पर चला तो सिलिया का पता न था। बिगड़कर बोला -- सिलिया कहाँ उड़ गई? रहती है, रहती है, न जाने किधर चल देती है, जैसे किसी काम में जी ही नहीं लगता। तू जानती है सोना, कहाँ गयी है?
सोना ने बहाना किया। मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कहती थी, धोबिन के घर कपड़े लेने जाना है, वहीं चली गयी होगी।
धनिया ने खाट से उठकर कहा -- चलो, मैं क्यारी बराये देती हूँ। कौन उसे मजूरी देते हो जो उसे बिगड़ रहे हो।
'हमारे घर में रहती नहीं है? उसके पीछे सारे गाँव में बदनाम नहीं हो रहे हैं? '
'अच्छा, रहने दो, एक कोने में पड़ी हुई है, तो उससे किराया लोगे? '
'एक कोने में नहीं पड़ी हुई है, एक पूरी कोठरी लिये हुए है। '
'तो उस कोठरी का किराया होगा कोई पचास रुपए महीना! '
'उसका किराया एक पैसा सही। हमारे घर में रहती है, जहाँ जाय पूछकर जाय। आज आती है तो ख़बर लेता हूँ। '
पुर चलने लगा। धनिया को होरी ने न आने दिया। रूपा क्यारी बराती थी। और सोना मोट ले रही थी। रूपा गीली मिट्टी के चूल्हे और बरतन बना रही थी, और सोना सशंक आँखों से सोनारी की ओर ताक रही थी। शंका भी थी, आशा भी थी, शंका अधिक थी, आशा कम। सोचती थी, उन लोगों को रुपए मिल रहे हैं, तो क्यों छोड़ने लगे। जिनके पास पैसे हैं, वे तो पैसे पर और भी जान देते हैं। और गौरी महतो तो एक ही लालची हैं। मथुरा में दया है, धरम है; लेकिन बाप की इच्छा जो होगी, वही उसे माननी पड़ेगी; मगर सोना भी बचा को ऐसा फटकारेगी कि याद करेंगे। वह साफ़ कहेगी, जाकर किसी धनी की लड़की से ब्याह कर, तुझ-जैसे पुरुष के साथ मेरा निबाह न होगा। कहीं गौरी महतो मान गये, तो वह उनके चरन धो-धोकर पियेगी। उनकी ऐसी सेवा करेगी कि अपने बाप की भी न की होगी। और सिलिया को भर-पेट मिठाई खिलायेगी। गोबर ने उसे जो रुपया दिया था उसे वह अभी तक संचे हुए थी। इस मृदु कल्पना से उसकी आँखें चमक उठीं और कपोलों पर हलकी-सी लाली दौड़ गई। मगर सिलिया अभी तक आयी क्यों नहीं? कौन बड़ी दूर है। न आने दिया होगा उन लोगों ने। अहा! वह आ रही है; लेकिन बहुत धीरे-धीरे आती है। सोना का दिल बैठ गया। अभागे नहीं माने साइत, नहीं सिलिया दौड़ती आती। तो सोना से हो चुका ब्याह। मुँह धो रखो। सिलिया आयी ज़रूर पर कुएँ पर न आकर खेत में क्यारी बराने लगी। डर रही थी, होरी पूछेंगे कहाँ थी अब तक, तो क्या जवाब देगी। सोना ने यह दो घंटे का समय बड़ी मुश्किल से काटा। पुर छूटते ही वह भागी हुई सिलिया के पास पहुँची।
'वहाँ जाकर तू मर गयी थी क्या! ताकते-ताकते आँखें फूट गयीं। '
सिलिया को बुरा लगा -- तो क्या मैं वहाँ सोती थी। इस तरह की बातचीत राह चलते थोड़े ही हो जाती है। अवसर देखना पड़ता है। मथुरा नदी की ओर ढोर चराने गये थे। खोजती-खोजती उसके पास गयी और तेरा सन्देसा कहा। ऐसा परसन हुआ कि तुझसे क्या कहूँ। मेरे पाँव पर गिर पड़ा और बोला -- सिल्लो, मैंने तो जब से सुना है कि सोना मेरे घर में आ रही है, तब से आँखों की नींद हर गयी है। उसकी वह गालियाँ मुझे फल गयीं; लेकिन काका को क्या करूँ। वह किसी की नहीं सुनते।
सोना ने टोका -- तो न सुनें। सोना भी ज़िद्धिन है। जो कहा है वह कर दिखायेगी। फिर हाथ मलते रह जायँगे।
'बस उसी छन ढोरों को वहीं छोड़, मुझे लिये हुए गौरी महतो के पास गया। महतो के चार पुर चलते हैं। कुआँ भी उन्हीं का है। दस बीघे का ऊख है। महतो को देख के मुझे हँसी आ गयी। जैसे कोई घसियारा हो। हाँ, भाग का बली है। बाप-बेटे में ख़ूब कहा-सुनी हुई। गौरी महतो कहते थे, तुझसे क्या मतलब, मैं चाहे कुछ लूँ या न लूँ; तू कौन होता है बोलनेवाला। मथुरा कहता था, तुमको लेना-देना है, तो मेरा ब्याह मत करो, मैं अपना ब्याह जैसे चाहूँगा कर लूँगा। बात बढ़ गयी और गौरी महतो ने पनहियाँ उतारकर मथुरा को ख़ूब पीटा। कोई दूसरा लड़का इतनी मार खाकर बिगड़ खड़ा होता। मथुरा एक घूँसा भी जमा देता, तो महतो फिर न उठते; मगर बेचारा पचासों जूते खाकर भी कुछ न बोला। आँखों में आँसू भरे, मेरी ओर ग़रीबों की तरह ताकता हुआ चला गया। तब महतो मुझ पर बिगड़ने लगे। सैकड़ों गालियाँ दीं; मगर मैं क्यों सुनने लगी थी। मुझे उनका क्या डर था?
मैंने सफ़ा कह दिया -- महतो, दो-तीन सौ कोई भारी रक़म नहीं है, और होरी महतो, इतने में बिक न जायँगे, न तुम्हीं धनवान हो जाओगे, वह सब धन नाच-तमासे में ही उड़ जायगा, हाँ, ऐसी बहू न पाओगे।
सोना ने सजल नेत्रों से पूछा -- महतो इतनी ही बात पर उन्हें मारने लगे?
सिलिया ने यह बात छिपा रक्खी थी। ऐसी अपमान की बात सोना के कानों में न डालना चाहती थी; पर यह प्रश्न सुनकर संयम न रख सकी। बोली -- वही गोबर भैयावाली बात थी।
महतो ने कहा -- आदमी जूठा तभी खाता है जब मीठा हो। कलंक चाँदी से ही धुलता है।
इस पर मथुरा बोला -- काका कौन घर कलंक से बचा हुआ है। हाँ, किसी का खुल गया, किसी का छिपा हुआ है।
गौरी महतो भी पहले एक चमारिन से फँसे थे। उससे दो लड़के भी हैं। मथुरा के मुँह से इतना निकलना था कि डोकरे पर जैसे भूत सवार हो गया। जितना लालची है, उतना ही क्रोधी भी है। बिना लिये न मानेगा। दोनों घर चलीं। सोना के सिर पर चरसा, रस्सा और जुए का भारी बोझ था; पर इस समय वह उसे फूल से भी हल्का लग रहा था। उसके अन्तस्तल में जैसे आनन्द और स्फूर्ति का सोता खुल गया हो। मथुरा की वह वीर मूर्ति सामने खड़ी थी, और वह जैसे उसे अपने हृदय में बैठाकर उसके चरण आँसुओं से पखार रही थी। जैसे आकाश की देवियाँ उसे गोद में उठाये आकाश में छाई हुई लालिमा में लिये चली जा रही हों।
उसी रात को सोना को बड़े ज़ोर का ज्वर चढ़ आया। तीसरे दिन गौरी महतो ने नाई के हाथ यह पत्र भेजा --
'स्वस्ती श्री सवोर्पमा जोग श्री होरी महतो को गौरीराम का राम-राम बाँचना। आगे जो हम लोगों में दहेज की बातचीत हुई थी, उस पर हमने शान्त मन से विचार किया, समझ में आया कि लेन-देन से वर और कन्या दोनों ही के घरवाले जेरबार होते हैं। जब हमारा-तुम्हारा सम्बन्ध हो गया, तो हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि किसी को न अखरे। तुम दान-दहेज की कोई फ़िकर मत करना, हम तुमको सौगन्ध देते हैं। जो कुछ मोटा-महीन जुरे बरातियों को खिला देना। हम वह भी न माँगेंगे। रसद का इन्तज़ाम हमने कर लिया है। हाँ, तुम ख़ुशी-खुर्रमी से हमारी जो ख़ातिर करोगे वह सिर झुकाकर स्वीकार करेंगे। '
होरी ने पत्र पढ़ा और दौड़े हुए भीतर जाकर धनिया को सुनाया। हर्ष के मारे उछला पड़ता था, मगर धनिया किसी विचार में डूबी बैठी रही। एक क्षण के बाद बोली -- यह गौरी महतो की भलमनसी है; लेकिन हमें भी तो अपने मरजाद का निबाह करना है। संसार क्या कहेगा! रुपया हाथ का मैल है। उसके लिए कुल-मरजाद नहीं छोड़ा जाता। जो कुछ हमसे हो सकेगा, देंगे और गौरी महतो को लेना पड़ेगा। तुम यही जवाब लिख दो। माँ-बाप की कमाई में क्या लड़की का कोई हक़ नहीं है? नहीं, लिखना क्या है, चलो, मैं नाई से सन्देश कहलाये देती हूँ। होरी हतबुद्धि-सा आँगन में खड़ा था और धनिया उस उदारता की प्रतिक्रिया में जो गौरी महतो की सज्जनता ने जगा दी थी, सन्देशा कह रही थी। फिर उसने नाई को रस पिलाया और बिदाई देकर बिदा किया।
वह चला गया तो होरी ने कहा -- यह तूने क्या कर डाला धनिया? तेरा मिज़ाज आज तक मेरी समझ में न आया। तू आगे भी चलती है, पीछे भी चलती है। पहले तो इस बात पर लड़ रही थी कि किसी से एक पैसा करज़ मत लो, कुछ देने-दिलाने का काम नहीं है, और जब भगवान् ने गौरी के भीतर पैठकर यह पत्र लिखवाया तो तूने कुल-मरजाद का राग छेड़ दिया। तेरा मरम भगवान् ही जाने।
धनिया बोली -- मुँह देखकर बीड़ा दिया जाता है, जानते हो कि नहीं। तब गौरी अपनी सान दिखाते थे, अब वह भलमनसी दिखा रहे हैं। ईट का जवाब चाहे पत्थर हो; लेकिन सलाम का जवाब तो गली नहीं है।
होरी ने नाक सिकोड़कर कहा -- तो दिखा अपनी भलमनसी। देखें, कहाँ से रुपए लाती है।
धनिया आँखें चमकाकर बोली -- रुपए लाना मेरा काम नहीं है, तुम्हारा काम है। '
'मैं तो दुलारी से ही लूँगा। '
'ले लो उसी से। सूद तो सभी लेंगे। जब डूबना ही है, तो क्या तालाब और क्या गंगा। '
होरी बाहर आकर चिलम पीने लगा। कितने मज़े से गला छूटा जाता था; लेकिन धनिया जब जान छोड़े तब तो। जब देखो उल्टी ही चलती है। इसे जैसे कोई भूत सवार हो जाता है। घर की दशा देखकर भी इसकी आँखें नहीं खुलतीं।
गोदान अध्याय 25
भोला इधर दूसरी सगाई लाये थे। औरत के बग़ैर उनका जीवन नीरस था। जब तक झुनिया थी, उन्हें हुक़्क़ा-पानी दे देती थी। समय से खाने को बुला ले जाती थी। अब बेचारे अनाथ-से हो गये थे। बहुओं को घर के काम-धाम से छुट्टी न मिलती थी। उनकी क्या सेवा-सत्कार करती; इसलिए अब सगाई परमावश्यक हो गयी थी। संयोग से एक जवान विधवा मिल गयी, जिसके पति का देहान्त हुए केवल तीन महीने हुए थे। एक लड़का भी था। भोला की लार टपक पड़ी। झटपट शिकार मार लाये। जब तक सगाई न हुई, उसका घर खोद डाला। अभी तक उसके घर में जो कुछ था, बहुओं का था। जो चाहती थीं, करती थीं, जैसे चाहती थीं, रहती थीं। जंगी जब से अपनी स्त्री को लेकर लखनऊ चला गया था, कामता की बहू ही घर की स्वामिनी थी। पाँच-छः महीनों में ही उसने तीस-चालीस ,पए अपने हाथ में कर लिये थे। सेर-आध सेर दूध-दही चोरी से बेच लेती थी। अब स्वामिनी हुई उसकी सौतेली सास। उसका नियन्त्रण बहू को बुरा लगाता था और आये दिन दोनों में तकरार होती रहती थी। यहाँ तक की औरतों के पीछे भोला और कामता में भी कहा-सुनी हो गयी। झगड़ा इतना बढ़ा कि अलगौझे की नौबत आ गयी। और यह रीति सनातन से चली आयी है कि अलगौझे के समय मार-पीट अवश्य हो। यहाँ उस रीति का पालन किया गया। कामता जवान आदमी था। भोला का उस पर जो कुछ दबाब था, वह पिता के नाते था; मगर नयी स्त्री लाकर बेटे से आदर पाने का अब उसे कोई हक़ न रहा था। कम-से-कम कामता इसे स्वीकार न करता था। उसने भोला को पटककर कई लातें जमायीं और घर से निकाल दिया। घर की चीज़ें न छूने दीं। गाँववालों में भी किसी ने भोला का पक्ष न लिया। नयी सगाई ने उन्हें नक्कू बना दिया था। रात तो उन्होंने किसी तरह एक पेड़ के नीचे काटी, सुबह होते ही नोखेराम के पास जा पहुँचे और अपनी फ़रियाद सुनायी। भोला का गाँव भी उन्हीं के इलाक़े में था और इलाक़े-भर के मालिक-मुखिया जो कुछ थे, वही थे। नोखेराम को भोला पर तो क्या दया आती; पर उनके साथ एक चटपटी, रँगीली स्त्री देखी तो चटपट आश्रय देने पर राज़ी हो गये। जहाँ उनकी गायें बँधती थीं, वहीं एक कोठरी रहने को दे दी। अपने जानवरों की देख-भाल, सानी-भूसे के लिए उन्हें एकाएक एक जानकार आदमी की ज़रूरत मालूम होने लगी। भोला को तीन रुपया महीना और सेर-भर रोज़ाना पर नौकर रख लिया। नोखेराम नाटे, मोटे, खल्वाट, लम्बी नाक और छोटी-छोटी आँखोंवाले साँवले आदमी थे। बड़ा-सा पग्गड़ बाँधते, नीचा कुरता पहनते और जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़कर बाहर आते-जाते थे। उन्हें तेल की मालिश कराने में बड़ा आनन्द आता था, इसलिए उनके कपड़े हमेशा मैले, चीकट रहते थे। उनका परिवार बहुत बड़ा था। सात भाई और उनके बाल-बच्चे सभी उन्हीं पर आश्रित थे। उस पर स्वयम् उनका लड़का नवें दरजे में अँग्रेज़ी पढ़ता था और उसका बबुआई ठाठ निभाना कोई आसान काम न था। राय साहब से उन्हें केवल बारह रुपए वेतन मिलता था; मगर ख़र्च सौ रुपए से कौड़ी कम न था। इसलिए आसामी किसी तरह उनके चंगुल में फँस जाय तो बिना उसे अच्छी तरह चूसे छोड़ते न थे। पहले छः रुपए वेतन मिलता था, तब असामियों से इतनी नोच-खसोट न करते थे; जब से बारह रुपए हो गये थे, तब से उनकी तृष्णा और भी बढ़ गयी थी; इसलिए राय साहब उनकी तरक़्क़ी न करते थे। गाँव में और तो सभी किसी-न-किसी रूप में उनका दवाब मानते थे; यहाँ तक कि दातादीन और झिंगुरीसिंह भी उनकी ख़ुशामद करते थे, केवल पटेश्वरी उनसे ताल ठोकने को हमेशा तैयार रहते थे। नोखेराम को अगर यह जोम था कि हम ब्राह्मण हैं और कायस्थों को उँगली पर नचाते हैं, तो पटेश्वरी को भी घमंड था कि हम कायस्थ हैं, क़लम के बादशाह, इस मैदान में कोई हमसे क्या बाज़ी ले जायगा। फिर वह ज़मींदार के नौकर नहीं, सरकार के नौकर हैं, जिसके राज में सूरज कभी नहीं डूबता। नोखेराम अगर एकादशी को व्रत रखते हैं और पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं तो पटेश्वरी हर पूणर्मासी को सत्यनारायण की कथा सुनेंगे और दस ब्राह्मणों को भोजन करायेंगे। जब से उनका जेठा लड़का सज़ावल हो गया था, नोखेराम इस ताक में रहते थे कि उनका लड़का किसी तरह दसवाँ पास कर ले, तो उसे भी कहीं नक़ल-नवीसी दिला दें। इसलिए हुक्काम के पास फ़सली सौगातें लेकर बराबर सलामी करते रहते थे। एक और बात में पटेश्वरी उनसे बढ़े हुए थे। लोगों का ख़याल था कि वह अपनी विधवा कहारिन को रखे हुए हैं। अब नोखेराम को भी अपनी शान में यह कसर पूरी करने का अवसर मिलता हुआ जान पड़ा। भोला को ढाढ़स देते हुए बोले -- तुम यहाँ आराम से रहो भोला, किसी बात का खटका नहीं। जिस चीज़ की ज़रूरत हो, हमसे आकर कहो। तुम्हारी घरवाली है, उसके लिए भी कोई न कोई काम निकल आयेगा। बखारों में अनाज रखना, निकालना, पछोरना, फटकना क्या थोड़ा काम है?
भोला ने अरज की -- सरकार, एक बार कामता को बुलाकर पूछ लो, क्या बाप के साथ बेटे का यही सलूक होना चाहिए। घर हमने बनवाया, गायें-भैंसें हमने लीं। अब उसने सब कुछ हथिया लिया और हमें निकाल बाहर किया। यह अन्याय नहीं तो क्या है। हमारे मालिक तो तुम्हीं हो। तुम्हारे दरबार से इसका फ़ैसला होना चाहिए।
नोखेराम ने समझाया -- भोला, तूम उससे लड़कर पेश न पाओगे; उसने जैसा किया है, उसकी सज़ा उसे भगवान् देंगे। बेईमानी करके कोई आज तक फलीभूत हुआ है? संसार में अन्याय न होता, तो इसे नरक क्यों कहा जाता। यहाँ न्याय और धर्म को कौन पूछता है? भगवान् सब देखते हैं। संसार का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं। तुम्हारे मन में इस समय क्या बात है, यह उनसे क्या छिपा है? इसी से तो अन्तरजामी कहलाते हैं। उनसे बचकर कोई कहाँ जायगा? तुम चुप होके बैठो। भगवान् की इच्छा हुई, तो यहाँ तुम उससे बुरे न रहोगे।
यहाँ से उठकर भोला ने होरी के पास जाकर अपना दुखड़ा रोया। होरी ने अपनी बीती सुनायी -- लड़कों की आजकल कुछ न पूछो भोला भाई। मर-मरकर पालो; जवान हों, तो दुसमन हो जायँ। मेरे ही गोबर को देखो। माँ से लड़कर गया, और सालों हो गये, न चिट्ठी, न पत्तर। उसके लेखे तो माँ-बाप मर गये। बिटिया का ब्याह सिर पर है; लेकिन उससे कोई मतलब नहीं। खेत रेहन रखकर दो सौ रुपए लिये हैं। इज़्ज़त-आबरू का निबाह तो करना ही होगा।
कामता ने बाप को निकाल बाहर तो किया; लेकिन अब उसे मालूम होने लगा कि बुड्ढा कितना कामकाजी आदमी था। सबेरे उठकर सानी-पानी करना, दूध दुहना, फिर दूध लेकर बाज़ार जाना, वहाँ से आकर फिर सानी-पानी करना, फिर दूध दुहना; एक पखवारे में उसका हुलिया बिगड़ गया। स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री ने कहा -- मैं जान देने के लिए तुम्हारे घर नहीं आयी हूँ। मेरी रोटी तुम्हें भारी हो, तो मैं अपने घर चली जाऊँ।
कामता डरा, यह कहीं चली जाय, तो रोटी का ठिकाना भी न रहे, अपने हाथ से ठोकना पड़े। आख़िर एक नौकर रखा; लेकिन उससे काम न चला। नौकर खली-भूसा चुरा-चुराकर बेचने लगा। उसे अलग किया। फिर स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री रूठकर मैके चली गयी। कामता के हाथ-पाँव फूल गये। हारकर भोला के पास आया और चिरौरी करने लगा -- दादा, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई हो क्षमा करो। अब चलकर घर सँभालो, जैसे तुम रखोगे, वैसे ही रहूँगा।
भोला को यहाँ मजूरों की तरह रहना अखर रहा था। पहले महीने-दो-महीने उसकी जो ख़ातिर हुई, वह अब न थी। नोखेराम कभी-कभी उससे चिलम भरने या चारपाई बिछाने को भी कहते थे। तब बेचारा भोला ज़हर का घूँट पीकर रह जाता था। अपने घर में लड़ाई-दंगा भी हो, तो किसी की टहल तो न करनी पड़ेगी। उसकी स्त्री नोहरी ने यह प्रस्ताव सुना तो ऐंठकर बोली -- जहाँ से लात खाकर आये, वहाँ फिर जाओगे? तुम्हें लाज भी नहीं आती।
भोला ने कहा -- तो यहीं कौन सिंहासन पर बैठा हुआ हूँ।
नोहरी ने मटककर कहा -- तुम्हें जाना हो तो जाओ, मैं नहीं जाती।
भोला जानता था, नोहरी विरोध करेगी। इसका कारण भी वह कुछ-कुछ समझता था, कुछ देखता भी था, उसके यहाँ से भागने का एक कारण यह भी था। यहाँ उसकी तो कोई बात न पूछता था; पर नोहरी की बड़ी ख़ातिर होती थी। प्यादे और शहने तक उसका दबाव मानते थे। उसका जवाब सुनकर भोला को क्रोध आया; लेकिन करता क्या? नोहरी को छोड़कर चले जाने का साहस उसमें होता तो नोहरी भी झख मारकर उसके पीछे-पीछे चली जाती। अकेले उसे यहाँ अपने आश्रय में रखने की हिम्मत नोखेराम में न थी। वह टट्टी की आड़ से शिकार खेलनेवाले जीव थे, मगर नोहरी भोला के स्वभाव से परिचित हो चुकी थी।
भोला मिन्नत करके बोला -- देख नोहरी, दिक मत कर। अब तो वहाँ बहुएँ भी नहीं हैं। तेरे ही हाथ में सब कुछ रहेगा। यहाँ मजूरी करने से बिरादरी में कितनी बदनामी हो रही है, यह सोच!
नोहरी ने ठेंगा दिखाकर कहा -- तुम्हें जाना है जाओ, मैं तुम्हें रोक तो नहीं रही हूँ। तुम्हें बेटे की लातें प्यारी लगती होंगी, मुझे नहीं लगतीं। मैं अपनी मज़दूरी में मगन हूँ।
भोला को रहना पड़ा और कामता अपनी स्त्री की ख़ुशामद करके उसे मना लाया। इधर नोहरी के विषय में कनबतियाँ होती रहीं -- नोहरी ने आज गुलाबी साड़ी पहनी है। अब क्या पूछना है, चाहे रोज़ एक साड़ी पहने। सैयाँ भये कोतवाल अब डर काहे का। भोला की आँखें फूट गयी हैं क्या? शोभा बड़ा हँसोड़ था। सारे गाँव का विदूषक, बल्कि नारद। हर एक बात की टोह लगाता रहता था। एक दिन नोहरी उसे घर में मिल गयी। कुछ हँसी कर बैठा। नोहरी ने नोखेराम से जड़ दिया। शोभा की चौपाल में तलबी हुई और ऐसी डाँट पड़ी कि उम्र-भर न भूलेगा। एक दिन लाला पटेश्वरी प्रसाद की शामत आ गयी। गमिर्यों के दिन थे। लाला बग़ीचे में बैठे आम तुड़वा रहे थे। नोहरी बनी-ठनी उधर से निकली। लाला ने पुकारा -- नोहरा रानी, इधर आओ, थोड़े से आम लेती जाओ, बड़े मीठे हैं।
नोहरी को भ्रम हुआ, लाला मेरा उपहास कर रहे हैं। उसे अब घमंड होने लगा था। वह चाहती थी, लोग उसे ज़मींदारिन समझें और उसका सम्मान करें। घमंडी आदमी प्रायः शक्की हुआ करता है। और जब मन में चोर हो तो शक्कीपन और भी बढ़ जाता है। वह मेरी ओर देखकर क्यों हँसा? सब लोग मुझे देखकर जलते क्यों हैं? मैं किसी से कुछ माँगने नहीं जाती। कौन बड़ी सतवन्ती है! ज़रा मेरे सामने आये, तो देखूँ। इतने दिनों में नोहरी गाँव के गुप्त रहस्यों से परिचित हो चुकी थी। यही लाला कहारिन को रखे हुए हैं और मुझे हँसते हैं। इन्हें कोई कुछ नहीं कहता। बड़े आदमी हैं न। नोहरी ग़रीब है, जात की हेठी है; इसलिए सभी उसका उपहास करते हैं। और जैसा बाप है, वैसा ही बेटा। इन्हीं का रमेसरी तो सिलिया के पीछे पागल बना फिरता है। चमारियों पर तो गिद्ध की तरह टूटते हैं, उस पर दावा है कि हम ऊँचे हैं। उसने वहीं खड़े होकर कहा -- तुम दानी कब से हो गये लाला! पाओ तो दूसरों की थाली की रोटी उड़ा जाओ। आज बड़े आमवाले हुए हैं। मुझसे छेड़ की तो अच्छा न होगा, कहे देती हैं।
ओ हो! इस अहीरिन का इतना मिज़ाज! नोखेराम को क्या फाँस लिया, समझती है सारी दुनिया पर उसका राज है। बोले -- तू तो ऐसी तिनक रही है नोहरी, जैसे अब किसी को गाँव में रहने न देगी। ज़रा ज़बान सँभालकर बातें किया कर, इतनी जल्द अपने को न भूल जा।
'तो क्या तुम्हारे द्वार कभी भीख माँगने आयी थी? '
'नोखेराम ने छाँह न दी होती, तो भीख भी माँगती। '
नोहरी को लाल मिर्च-सा लगा। जो कुछ मुँह में आया बका -- दाढ़ीजार, लम्पट, मुँहझौंसा और जाने क्या-क्या कहा और उसी क्रोध में भरी हुई कोठरी में गयी और अपने बरतन-भाँड़े निकाल-निकालकर बाहर रखने लगी। नोखेराम ने सुना तो घबराये हुए आये और पूछा -- वह क्या कर रही है नोहरी, कपड़े-लत्ते क्यों निकाल रही है? किसी ने कुछ कहा है क्या?
नोहरी मदों के नचाने की कला जानती थी। अपने जीवन में उसने यही विद्या सीखी थी। नोखेराम पढ़े-लिखे आदमी थे। क़ानून भी जानते थे। धर्म की पुस्तकें भी बहुत पढ़ी थीं। बड़े-बड़े वकीलों, बैरिस्टरों की जूतियाँ सीधी की थीं; पर इस मूर्ख नोहरी के हाथ का खिलौना बने हुए थे। भौंहें सिकोड़कर बोली -- समय का फेर है, यहाँ आ गयी; लेकिन अपनी आबरू न गवाऊँगी।
ब्राह्मण सतेज हो उठा। मूँछें खड़ी करके बोला -- तेरी ओर जो ताके उसकी आँखें निकाल लूँ।
नोहरी ने लोहे को लाल करके घन जमाया -- लाला पटेसरी जब देखो मुझसे बेबात की बात किया करते हैं। मैं हरजाई थोड़े ही हूँ कि कोई मुझे पैसे दिखाये। गाँव-भर में सभी औरतें तो हैं, कोई उनसे नहीं बोलता। जिसे देखो, मुझी को छेड़ता है।
नोखेराम के सिर पर भूत सवार हो गया। अपना मोटा डंडा उठाया और आँधी की तरह हरहराते हुए बाग़ में पहुँचकर लगे ललकारने -- आ जा बड़ा मर्द है तो। मूँछें उखाड़ लूँगा, खोदकर गाड़ दूँगा। निकल आ सामने। अगर फिर कभी नोहरी को छेड़ा तो ख़ून पी जाऊँगा। सारी पटवारगिरी निकाल दूँगा। जैसा ख़ुद है, वैसा ही दूसरों को समझता है। तू है किस घमंड में?
लाला पटेश्वरी सिर झुकाये, दम साधे जड़वत् खड़े थे। ज़रा भी ज़बान खोली और शामत आयी। उनका इतना अपमान जीवन में कभी न हुआ था। एक बार लोगों ने उन्हें ताल के किनारे रात को घेरकर ख़ूब पीटा था; लेकिन गाँव में उसकी किसी को ख़बर न हुई थी। किसी के पास कोई प्रमाण न था; लेकिन आज तो सारे गाँव के सामने उनकी इज़्ज़त उतर गयी। कल जो औरत गाँव में आशय माँगती आयी थी, आज सारे गाँव पर उसका आतंक था। अब किसकी हिम्मत है जो उसे छेड़ सके। जब पटेश्वरी कुछ नहीं कर सके, तो दूसरों की बिसात ही क्या! अब नोहरी गाँव की रानी थी। उसे आते देखकर किसान लोग उसके रास्ते से हट जाते थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि उसकी थोड़ी-सी पूजा करके नोखेराम से बहुत काम निकल सकता है। किसी को बटवारा कराना हो, लगान के लिए मुहलत माँगनी हो, मकान बनाने के लिए ज़मीन की ज़रूरत हो, नोहरी की पूजा किये बग़ैर उसका काम सिद्ध नहीं हो सकता। कभी-कभी यह अच्छे-अच्छे आसामियों को डाँट देती थी। आसामी ही नहीं, अब कारकुन साहब पर भी रोब जमाने लगी थी। भोला उसके आश्रित बनकर न रहना चाहते थे। औरत की कमाई खाने से ज़्यादा अधम उनकी दृष्टि में दूसरा काम न था। उन्हें कुल तीन ,पये माहवार मिलते थे, यह भी उनके हाथ न लगते। नोहरी ऊपर ही ऊपर उड़ा लेती। उन्हें तमाखू पीने को धेला मयस्सर नहीं, और नोहरी दो आने रोज़ के पान खा जाती थी। जिसे देखो, वही उन पर रोब जमाता था। प्यादे उससे चिलम भरवाते, लकड़ी कटवाते; बेचारा दिन-भर का हारा-थका आता और द्वार पर पेड़ के नीचे झिलँगे खाट पर पड़ा रहता। कोई एक लुटिया पानी देनेवाला भी नहीं। दोपहर की बासी रोटियाँ रात को खानी पड़तीं और वह भी नमक या पानी और नमक के साथ। आख़िर हारकर उसने घर जाकर कामता के साथ रहने का निश्चय किया। कुछ न होगा एक टुकड़ा रोटी तो मिल ही जायगी, अपना घर तो है।
नोहरी बोली -- मैं वहाँ किसी की ग़ुलामी करने न जाऊँगी।
भोला ने जी कड़ा करके कहा -- तुम्हें जाने को तो मैं नहीं कहता। मैं तो अपने को कहता हूँ।
'तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे? कहते लाज नहीं आती? '
'लाज तो घोल कर पी गया। '
'लेकिन मैंने तो अपनी लाज नहीं पी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते। '
'तू अपने मन की है, तो मैं तेरी ग़ुलामी क्यों करूँ? '
'पंचायत करके मुँह में कालिख लगा दूँगी, इतना समझ लेना। '
'क्या अभी कुछ कम कालिख लगी है? क्या अब भी मुझे धोखे में रखना चाहती है? '
'तुम तो ऐसा ताव दिखा रहे हो, जैसे मुझे रोज़ गहने ही तो गढ़वाते हो। तो यहाँ नोहरी किसी का ताव सहनेवाली नहीं है। '
भोला झल्लाकर उठे और सिरहाने से लकड़ी उठाकर चले कि नोहरी ने लपककर उनका पहुँचा पकड़ लिया। उसके बलिष्ठ पंजों से निकलना भोला के लिए मुश्किल था। चुपके से कैदी की तरह बैठ गये। एक ज़माना था, जब वह औरतों को अँगुलियों पर नचाया करते थे, आज वह एक औरत के करपाश में बँधे हुए हैं और किसी तरह निकल नहीं सकते। हाथ छुड़ाने की कोशिश करके वह परदा नहीं खोलना चाहते। अपनी सीमा का अनुमान उन्हें हो गया है। मगर वह क्यों उससे निडर होकर नहीं कह देते कि तू मेरे काम की नहीं है, मैं तुझे त्यागता हूँ। पंचायत की धमकी देती है। पंचायत क्या कोई हौवा है; अगर तुझे पंचायत का डर नहीं, तो मैं क्यों पंचायत से डरूँ? लेकिन यह भाव शब्दों में आने का साहस न कर सकता था। नोहरी ने जैसे उन पर कोई वशीकरण डाल दिया हो।
गोदान अध्याय 26
लाला पटेश्वरी पटवारी-समुदाय के सद् गुणों के साक्षात् अवतार थे। वह यह न देख सकते थे कि कोई असामी अपने दूसरे भाई की इंच भर भी ज़मीन दबा ले। न वह यही देख सकते थे कि असामी किसी महाजन के रुपए दबा ले। गाँव के समस्त प्राणियों के हितों की रक्षा करना उनका परम धर्म था। समझौते या मेल-जोल में उनका विश्वास न था, यह तो निजीर्विता के लक्षण हैं! वह तो संघर्ष के पुजारी थे, जो सजीवता का लक्षण है। आये दिन इस जीवन को उत्तेजना देने का प्रयास करते रहते थे। एक-न-एक फुलझड़ी छोड़ते रहते थे। मँगरू साह पर इन दिनों उनकी विशेष कृपा-दृष्ट थी। मँगरू साह गाँव का सबसे धनी आदमी था; पर स्थानीय राजनीति में बिलकुल भाग न लेता था। रोब या अधिकार की लालसा उसे न थी। मकान भी उसका गाँव के बाहर था, जहाँ उसने एक बाग़ और एक कुआँ और एक छोटा-सा शिव-मन्दिर बनवा लिया था। बाल-बच्चा कोई न था; इसलिए लेन-देन भी कम कर दिया था और अधिकतर पूजा-पाठ में ही लगा रहता था। कितने ही असामियों ने उसके रुपए हज़म कर लिए थे; पर उसने किसी पर नालिश-फ़रियाद न की। होरी पर भी उसके सूद-ब्याज मिलाकर कोई डेढ़ सौ हो गये थे; मगर न होरी को ऋण चुकाने की कोई चिन्ता थी और न उसे वसूल करने की। दो-चार बार उसने तक़ाज़ा किया, घुड़का-डाँटा भी; मगर होरी की दशा देखकर चुप हो बैठा। अबकी संयोग से होरी की ऊख गाँव भर के ऊपर थी। कुछ नहीं तो उसके दो-ढाई सौ सीधे हो जायँगे, ऐसा लोगों का अनुमान था। पटेश्वरीप्रसाद ने मँगरू को सुझाया कि अगर इस वक़्त होरी पर दावा कर दिया जाय तो सब रुपए वसूल हो जायँ। मँगरू इतना दयालु नहीं, जितना आलसी था। झंझट में पड़ना न चाहता था; मगर जब पटेश्वरी ने ज़िम्मा लिया कि उसे एक दिन भी कचहरी न जाना पड़ेगा, न कोई दूसरा कष्ट होगा, बैठे-बैठाये उसकी डिग्री हो जायगी, तो उसने नालिश करने की अनुमति दे दी, और अदालत-ख़र्च के लिए रुपए भी दे दिये। होरी को ख़बर भी न थी कि क्या खिचड़ी पक रही है। कब दावा दायर हुआ, कब डिग्री हुई, उसे विलकुल पता न चला। क़ुर्क़-अमीन उसकी ऊख नीलाम करने आया, तब उसे मालूम हुआ। सारा गाँव खेत के किनारे जमा हो गया। होरी मँगरू साह के पास दौड़ा और धनिया पटेश्वरी को गालियाँ देने लगी। उसकी सहज-बुद्धि ने बता दिया कि पटेश्वरी ही की कारस्तानी है, मगर मँगरू साह पूजा पर थे, मिल न सके और धनिया गालियों की वर्षा करके भी पटेश्वरी का कुछ बिगाड़ न सकी। उधर ऊख डेढ़ सौ रुपए में नीलाम हो गयी और बोली भी हो गयी मँगरू साह ही के नाम। कोई दूसरा आदमी न बोल सका। दातादीन में भी धनिया की गालियाँ सुनने का साहस न था।
धनिया ने होरी को उत्तेजित करके कहा -- बैठे क्या हो, जाकर पटवारी से पूछते क्यों नहीं, यही धरम है तुम्हारा गाँव-घर के आदमियों के साथ?
होरी ने दीनता से कहा -- पूछने के लिए तूने मुँह भी रखा हो। तेरी गालियाँ क्या उन्होंने न सुनी होंगी?
'जो गाली खाने का काम करेगा, उसे गालियाँ मिलेंगी ही। '
'तू गालियाँ भी देगी और भाई-चारा भी निभायेगी? '
'देखूँगी, मेरे खेत के नगीच कौन जाता है। '
'मिलवाले आकर काट ले जायँगे, तू क्या करेगी, और मैं क्या करूँगा। गालियाँ देकर अपनी जीभ की खुजली चाहे मिटा ले। '
'मेरे जीते-जी कोई मेरा खेत काट ले जायगा? '
'हाँ-हाँ, तेरे और मेरे जीते-जी। सारा गाँव मिलकर भी उसे नहीं रोक सकता। अब वह चीज़ मेरी नहीं, मँगरू साह की है। '
'मँगरू साह ने मर-मरकर जेठ की दुपहरी में सिंचाई और गोड़ाई की थी? '
'वह सब तूने किया; मगर अब वह चीज़ मँगरू साह की है। हम उनके करज़दार नहीं हैं? '
ऊख तो गयी; लेकिन उसके साथ ही एक नयी समस्या आ पड़ी। दुलारी इसी ऊख पर रुपए देने पर तैयार हुई थी। अब वह किस जमानत पर रुपए दे? अभी उसके पहले ही के दो सौ पड़े हुए थे। सोचा था, ऊख के पुराने रुपए मिल जायँगे, तो नया हिसाब चलने लगेगा। उसकी नज़र में होरी की साख दो सौ तक थी। इससे ज़्यादा देना जोख़िम था। सहालग सिर पर था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। गौरी महतो ने सारी तैयारियाँ कर ली होंगी। अब विवाह का टलना असम्भव था। होरी को ऐसा क्रोध आता था कि जाकर दुलारी का गला दबा दे। जितनी चिरौरी-बिनती हो सकती थी, वह कर चुका; मगर वह पत्थर की देवी ज़रा भी न पसीजी। उसने चलते-चलते हाथ बाँध कर कहा -- दुलारी, मैं तुम्हारे रुपए लेकर भाग न जाऊँगा। न इतनी जल्द मरा ही जाता हूँ। खेत हैं, पेड़-पालों हैं, घर हैं, जवान बेटा है। तुम्हारे रुपए मारे न जायँगे, मेरी इज़्ज़त जा रही है, इसे सँभालो; मगर दुलारी ने दया को व्यापार में मिलाना स्वीकार न किया; अगर व्यापार को वह दया का रूप दे सकती, तो उसे कोई आपत्ति न होती। पर दया को व्यापार का रूप देना उसने न सीखा था।
होरी ने घर आकर धनिया से कहा -- अब? धनिया ने उसी पर दिल का गुबार निकाला -- यही तो तुम चाहते थे। होरी ने ज़ख़्मी आँखों से देखा -- मेरा ही दोष है?
'किसी का दोष हो, हुई तुम्हारे मन की। '
'तेरी इच्छा है कि ज़मीन रेहन रख दूँ? '
'ज़मीन रेहन रख दोगे, तो करोगे क्या? '
'मजूरी। '
मगर ज़मीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज़्ज़त और आबरू अवलिम्बत थी। जिसके पास ज़मीन नहीं, वह गृहस्थ नहीं, मजूर है। होरी ने कुछ जवाब न पाकर पूछा -- तो क्या कहती है?
धनिया ने आहत कंठ से कहा -- कहना क्या है। गौरी बरात लेकर आयँगे। एक जून खिला देना। सबेरे बेटी बिदा कर देना। दुनिया हँसेगी, हँस ले। भगवान् की यही इच्छा है, कि हमारी नाक कटे, मुँह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे।
सहसा नोहरी चुँदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी। होरी को देखते ही उसने ज़रा-सा घूँघट निकाल लिया। उससे समधी का नाता मानती थी। धनिया से उसका परिचय हो चुका था। उसने पुकारा -- आज किधर चली समधिन? आओ, बैठो।
नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी। आकर खड़ी हो गयी।
धनिया ने उसे सिर से पाँव तक आलोचना की आँखों से देखकर कहा -- आज इधर कैसे भूल पड़ीं?
नोहरी ने कातर स्वर में कहा -- ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आयी। बिटिया का ब्याह कब तक है?
धनिया स्निग्ध भाव से बोली -- भगवान् के अधीन है, जब हो जाय।
'मैंने तो सुना, इसी सहालग में होगा। तिथि ठीक हो गयी है? '
'हाँ, तिथि तो ठीक हो गयी है। '
'मुझे भी नेवता देना। '
'तुम्हारी तो लड़की है, नेवता कैसा? '
'दहेज का सामान तो मँगवा लिया होगा। ज़रा मैं भी देखूँ। '
धनिया असमंजस में पड़ी, क्या कहे। होरी ने उसे सँभाला -- अभी तो कोई सामान नहीं मँगवाया है, और सामान क्या करना है, कुस-कन्या तो देना है। नोहरी ने अविश्वास-भरी आँखों से देखा -- कुस-कन्या क्यों दोगे महतो, पहली बेटी है, दिल खोलकर करो। होरी हँसा; मानो कह रहा हो, तुम्हें चारों ओर हरा दिखायी देता होगा; यहाँ तो सूखा ही पड़ा हुआ है।
'रुपए-पैसे की तंगी है, क्या खोलकर करूँ। तुमसे कौन परदा है। '
'बेटा कमाता है, तुम कमाते हो; फिर भी रुपए-पैसे की तंगी? किसे विश्वास आयेगा। '
'बेटा ही लायक़ होता, तो फिर काहे को रोना था। चिट्ठी-पत्तर तक भेजता नहीं, रुपए क्या भेजेगा। यह दूसरा साल है, एक चिट्ठी नहीं। '
इतने में सोना बैलों के चारे के लिए हरियाली का एक गट्ठा सिर पर लिये, यौवन को अपने अंचल से चुराती, बालिका-सी सरल, आयी और गट्ठा वहीं पटककर अन्दर चलो गयी। नोहरी ने कहा -- लड़की तो ख़ूब सयानी हो गयी है।
धनिया बोली -- लड़की की बाढ़ रेंड़ की बाढ़ है। नहीं है अभी कै दिन की!
'वर तो ठीक हो गया है न? '
'हाँ, वर तो ठीक है। रुपए का बन्दोबस्त हो गया, तो इसी महीने में ब्याह कर देंगे। नोहरी दिल की ओछी थी। इधर उसने जो थोड़े-से रुपए जोड़े थे, वे उसके पेट में उछल रहे थे; अगर वह सोना के ब्याह के लिए कुछ रुपए दे दे, तो कितना यश मिलेगा। सारे गाँव में उसकी चर्चा हो जायगी। लोग चकित होकर कहेंगे, नोहरी ने इतने रुपए दे दिए। बड़ी देवी है। होरी और धनिया दोनों घर-घर उसका बखान करते फिरेंगे। गाँव में उसका मान-सम्मान कितना बढ़ जायगा। वह उँगली दिखानेवालों का मुँह सी देगी। फिर किसकी हिम्मत है, जो उस पर हँसे, या उस पर आवाज़ें कसे। अभी सारा गाँव उसका दुश्मन है। तब सारा गाँव उसका हितैषी हो जायगा। इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल गयी। '
थोड़े-बहुत से काम चलता हो, तो मुझसे लो; जब हाथ में रुपए आ जायँ तो दे देना। '
होरी और धनिया दोनों ही ने उसकी ओर देखा। नहीं, नोहरी दिल्लगी नहीं कर रही है। दोनों की आँखों में विस्मय था, कृतज्ञता थी, सन्देह था और लज्जा थी। नोहरी उतनी बुरी नहीं है, जितना लोग समझते हैं। नोहरी ने फिर कहा -- तुम्हारी और हमारी इज़्ज़त एक है। तुम्हारी हँसी हो तो क्या मेरी हँसी न होगी? कैसे भी हुआ हो, पर अब तो तुम हमारे समधी हो।
होरी ने सकुचाते हुए कहा -- तुम्हारे रुपए तो घर में ही हैं, जब काम पड़ेगा ले लगे। आदमी अपनों ही का भरोसा तो करता है; मगर ऊपर से इन्तज़ाम हो जाय, तो घर के रुपए क्यों छुए।
धनिया ने अनुमोदन किया -- हाँ, और क्या।
नोहरी ने अपनापन जताया -- जब घर में रुपए हैं, तो बाहरवालों के सामने हाथ क्यों फैलाओ। सूद भी देना पड़ेगा, उस पर इस्टाम लिखो, गवाही कराओ, दस्तूरी दो, खुसामद करो। हाँ, मेरे रुपए में छूत लगी हो, तो दूसरी बात है।
होरी ने सँभाला -- नहीं, नहीं नोहरी, जब घर में काम चल जायगा, तो बाहर क्यों हाथ फैलायेंगे; लेकिन आपसवाली बात है। खेती-बारी का भरोसा नहीं। तुम्हें जल्दी कोई काम पड़ा और हम रुपए न जुटा सके, तो तुम्हें भी बुरा लगेगा और हमारी जान भी संकट में पड़ेगी। इससे कहता था। नहीं, लड़की तो तुम्हारी है।
'मुझे अभी रुपए की ऐसी जल्दी नहीं है। '
'तो तुम्हीं से लेंगे। कन्यादान का फल भी क्यों बाहर जाय। '
'कितने रुपए चाहिए? '
'तुम कितने दे सकोगी? '
'सौ में काम चल जायगा? '
होरी को लालच आया। भगवान् ने छप्पर फाड़कर रुपए दिये हैं, तो जितना ले सके, उतना क्यों न ले!
'सौ में भी चल जायगा। पाँच सौ में भी चल जायगा। जैसा हौसला हो। '
'मेरे पास कुल दो सौ रुपए हैं, वह मैं दे दूँगी। '
तो इतने में बड़ी खुसफेली से काम चल जायगा। अनाज घर में है; मगर ठकुराइन, आज तुमसे कहता हूँ, मैं तुम्हें ऐसी लच्छमी न समझता था। इस ज़माने में कौन किसकी मदद करता है, और किसके पास है। तुमने मुझे डूबते से बचा लिया। '
दिया-बत्ती का समय आ गया था। ठंडक पड़ने लगी थी। ज़मीन ने नीली चादर ओढ़ ली थी। धनिया अन्दर जाकर अँगीठी लायी। सब तापने लगे। पुआल के प्रकाश में छबीली, रँगीली, कुलटा नोहरी उनकी सामने वरदान-सी बैठी थी। इस समय उसकी उन आँखों में कितनी सहृदयता थी; कपोलों पर कितनी लज्जा, ओठों पर कितनी सत्प्रेरणा! कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करके नोहरी उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई घर चली -- अब देर हो रही है। कल तुम आकर रुपए ले लेना महतो!
'चलो, मैं तुम्हें पहुँचा दूँ। ' ' नहीं-नहीं, तुम बैठो, मैं चली जाऊँगी। '
'जी तो चाहता है, तुम्हें कन्धे पर बैठाकर पहुँचाऊँ। '
नोखेराम की चौपाल गाँव के दूसरे सिरे पर थी, और बाहर-बाहर जाने का रास्ता साफ़ था। दोनों उसी रास्ते से चले। अब चारों ओर सन्नाटा था। नोहरी ने कहा -- तनिक समझा देते रावत को। क्यों सबसे लड़ाई किया करते हैं। जब इन्हीं लोगों के बीच में रहना है, तो ऐसे रहना चाहिए न कि चार आदमी अपने हो जायँ। और इनका हाल यह है कि सबसे लड़ाई, सबसे झगड़ा। जब तुम मुझे परदे में नहीं रख सकते, मुझे दूसरों की मजूरी करनी पड़ती है, तो यह कैसे निभ सकता है कि मैं न किसी से हँसूँ, न बोलूँ, न कोई मेरी ओर ताके, न हँसे। यह सब तो परदे में ही हो सकता है। पूछो, कोई मेरी ओर ताकता या घूरता है तो मैं क्या करूँ। उसकी आँखें तो नहीं फोड़ सकती। फिर मेल-मुहब्बत से आदमी के सौ काम निकलते हैं। जैसा समय देखो, वैसा व्यवहार करो। तुम्हारे घर हाथी झूमता था, तो अब वह तुम्हारे किस काम का। अब तो तुम तीन रुपए के मजूर हो। मेरे घर तो भैंस लगती थी, लेकिन अब तो मजूरिन हूँ; मगर उनकी समझ में कोई बात आती ही नहीं। कभी लड़कों के साथ रहने की सोचते हैं, कभी लखनऊ जाकर रहने की सोचते हैं। नाक में दम कर रखा है मेरे।
होरी ने ठकुरसुहाती की -- यह भोला की सरासर नादानी है। बूढ़े हुए, अब तो उन्हें समझ आनी चाहिए। मैं समझा दूँगा।
'तो सबेरे आ जाना, रुपए दे दूँगी। '
'कुछ लिखा पढ़ी ... '
'तुम मेरे रुपए हज़म न करोगे, मैं जानती हूँ। ' उसका घर आ गया। वह अन्दर चली गयी। होरी घर लौटा।
गोदान अध्याय 27
गोबर को शहर आने पर मालूम हुआ कि जिस अड्डे पर वह अपना खोंचा लेकर बैठता था, वहाँ एक दूसरा खोंचेवाला बैठने लगा है और गाहक अब गोबर को भूल गये हैं। वह घर भी अब उसे पिंजरे-सा लगता था। झुनिया उसमें अकेली बैठी रोया करती। लड़का दिन-भर आँगन में या द्वार पर खेलने का आदी था। यहाँ उसके खेलने को कोई जगह न थी। कहाँ जाय? द्वार पर मुश्किल से एक गज का रास्ता था। दुर्गन्ध उड़ा करती थी। गर्मी में कहीं बाहर लेटने-बैठने की जगह नहीं। लड़का माँ को एक क्षण के लिए न छोड़ता था। और जब कुछ खेलने को न हो, तो कुछ खाने और दूध पीने के सिवा वह और क्या करे? घर पर कभी धनिया खेलाती, कभी रूपा, कभी सोना, कभी होरी, कभी पुनिया। यहाँ अकेली झुनिया थी और उसे घर का सारा काम करना पड़ता था। और गोबर जवानी के नशे में मस्त था। उसकी अतृप्त लालसाएँ विषय-भोग के सागर में डूब जाना चाहती थीं। किसी काम में उसका मन न लगता। खोंचा लेकर जाता, तो घंटे-भर ही में लौट आता। मनोरंजन का कोई दूसरा सामान न था। पड़ोस के मजूर और इक्केवान रात-रात भर ताश और जुआ खेलते थे। पहले वह भी ख़ूब खेलता था; मगर अब उसके लिए केवल मनोरंजन था, झुनिया के साथ हासविलास। थोड़े ही दिनों में झुनिया इस जीवन से ऊब गयी। वह चाहती थी, कहीं एकान्त में जाकर बैठे, ख़ूब निश्चिन्त होकर लेटे-सोये; मगर वह एकान्त कहीं न मिलता। उसे अब गोबर पर ग़ुस्सा आता। उसने शहर के जीवन का कितना मोहक चित्र खींचा था, और यहाँ इस काल-कोठरी के सिवा और कुछ नहीं। बालक से भी उसे चिढ़ होती थी। कभी-कभी वह उसे मारकर बाहर निकाल देती और अन्दर से किवाड़ बन्द कर लेती। बालक रोते-रोते बेदम हो जाता। उस पर विपत्ति यह कि उसे दूसरा बच्चा पैदा होनेवाला था। कोई आगे न पीछे। अक्सर सिर में दर्द हुआ करता। खाने से अरुचि हो गयी थी। ऐसी तन्द्रा होती थी कि कोने में चुपचाप पड़ी रहे। कोई उससे न बोले-चाले; मगर यहाँ गोबर का निष्ठुर प्रेम स्वागत के लिए द्वार खटखटाता रहता था। स्तन में दूध नाम को नहीं; लेकिन लल्लू छाती पर सवार रहता था। देह के साथ उसका मन भी दुर्बल हो गया। वह जो संकल्प करती, उसे थोड़े-से आग्रह पर तोड़ देती। वह लेटी होती और लल्लू आकर ज़बरदस्ती उसकी छाती पर बैठ जाता और स्तन मुँह में लेकर चबाने लगता। वह अब दो साल का हो गया था। बड़े तेज़ दाँत निकल आये थे। मुँह में दूध न जाता, तो वह क्रोध में आकर स्तन में दाँत काट लेता; लेकिन झुनिया में अब इतनी शक्ति भी न थी कि उसे छाती पर से ढकेल दे। उसे हरदम मौत सामने खड़ी नज़र आती। पति और पुत्र किसी से भी उसे स्नेह न था। सभी अपने मतलब के यार हैं। बरसात के दिनों में जब लल्लू को दस्त आने लगे और उसने दूध पीना छोड़ दिया, तो झुनिया को सिर से एक विपत्ति टल जाने का अनुभव हुआ; लेकिन जब एक सप्ताह के बाद बालक मर गया, तो उसकी स्मृति पुत्र-स्नेह से सजीव होकर उसे रुलाने लगी। और जब गोबर बालक के मरने के एक ही सप्ताह बाद फिर आग्रह करने लगा, तो उसने क्रोध से जलकर कहा -- तुम कितने पशु हो! झुनिया को अब लल्लू की स्मृति लल्लू से भी कहीं प्रिय थी। लल्लू जब तक सामने था वह उससे जितना सुख पाती थी, उससे कहीं ज़्यादा कष्ट पाती थी। अब लल्लू उसके मन में आ बैठा था, शान्त, स्थिर, सुशील, सुहास। उसकी कल्पना में अब वेदनामय आनन्द था, जिसमें प्रत्यक्ष की काली छाया न थी। बाहरवाला लल्लू उसके भीतरवाले लल्लू का प्रतिबिम्ब मात्र था। प्रतिबिम्ब सामने न था जो असत्य था, अस्थिर था। सत्य रूप तो उसके भीतर था, उसकी आशाओं और शुभेच्छाओं से सजीव। दूध की जगह वह उसे अपना रक्त पिला-पिलाकर पाल रही थी। उसे अब वह बन्द कोठरी, और वह दुर्गन्धमयी वायु और वह दोनों जून धुएँ में जलना, इन बातों का मानों ज्ञान ही न रहा। वह स्मृति उसके भीतर बैठी हुई जैसे उसे शक्ति प्रदान करती रहती। जीते-जी जो उसके जीवन का भार था, मरकर उसके प्राणों में समा गया था। उसकी सारी ममता अन्दर जाकर बाहर से उदासीन हो गयी। गोबर देर में आता है या जल्द, रुचि से भोजन करता है या नहीं, प्रसन्न है या उदास, इसकी अब उसे बिलकुल चिन्ता न थी। गोबर क्या कमाता है और कैसे ख़र्च करता है इसकी भी उसे परवा न थी। उसका जीवन जो कुछ था, भीतर था, बाहर वह केवल निर्जीव यन्त्र थी। उसके शोक में भाग लेकर, उसके अन्तर्जीवन में पैठकर, गोबर उसके समीप जा सकता था, उसके जीवन का अंग बन सकता था; पर वह उसके बाह्य जीवन के सूखे तट पर आकर ही प्यासा लौट जाता था। एक दिन उसने रूखे स्वर में कहा -- तो लल्लू के नाम को कब तक रोये जायगी? चार-पाँच महीने तो हो गये। झुनिया ने ठंडी साँस लेकर कहा -- तुम मेरा दुःख नहीं समझ सकते। अपना काम देखो। मैं जैसी हूँ, वैसी पड़ी रहने दो।
'तेरे रोते रहने से लल्लू लौट आयेगा? '
झुनिया के पास इसका कोई जवाब न था। वह उठकर पतीली में कचालू के लिए आलू उबालने लगी। गोबर को ऐसा पाषाण-हृदय उसने न समझा था। इस बेदर्दी ने लल्लू को उसके मन में और सजग कर दिया। लल्लू उसी का है, उसमें किसी का साझा नहीं, किसी का हिस्सा नहीं। अभी तक लल्लू किसी अंश में उसके हृदय के बाहर भी था, गोबर के हृदय में भी उसकी कुछ ज्योति थी। अब वह सम्पूर्ण रूप से उसका था। गोबर ने खोंचे से निराश होकर शक्कर के मिल में नौकरी कर ली थी। मिस्टर खन्ना ने पहले मिल से प्रोत्साहित होकर हाल में यह दूसरा मिल खोल दिया था। गोबर को वहाँ बड़े सबेरे जाना पड़ता, और दिन-भर के बाद जब वह दिया-जले घर लौटता, तो उसकी देह में ज़रा भी जान न रहती। घर पर भी उसे इससे कम मेहनत न करनी पड़ती थी; लेकिन वहाँ उसे ज़रा भी थकन न होती थी। बीच-बीच में वह हँस-बोल भी लेता था। फिर उस खुले हुए मैदान में, उन्मुक्त आकाश के नीचे, जैसे उसकी क्षति पूरी हो जाती थी। वहाँ उसकी देह चाहे जितना काम करे, मन स्वच्छन्द रहता था। यहाँ देह की उतनी मेहनत न होने पर भी जैसे उस कोलाहल, उस गति और तूफ़ानी शोर का उस पर बोझ-सा लदा रहता था। यह शंका भी बनी रहती थी कि न जाने कब डाँट पड़ जाय। सभी श्रमिकों की यही दशा थी। सभी ताड़ी या शराब में अपनी दैहिक थकान और मानसिक अवसाद को डुबाया करते थे। गोबर को भी शराब का चस्का पड़ा। घर आता तो नशे में चूर, और पहर रात गये। और आकर कोई-न-कोई बहाना खोजकर झुनिया को गालियाँ देता, घर से निकालने लगता और कभी-कभी पीट भी देता। झुनिया को अब यह शंका होने लगी कि वह रखेली है, इसी से उसका यह अपमान हो रहा है। ब्याहता होती, तो गोबर की मजाल थी कि उसके साथ यह बर्ताव करता। बिरादरी उसे दंड देती, हुक़्क़ा-पानी बन्द कर देती। उसने कितनी बड़ी भूल की कि इस कपटी के साथ घर से निकल भागी। सारी दुनिया में हँसी भी हुई और हाथ कुछ न आया। वह गोबर को अपना दुश्मन समझने लगी। न उसके खाने-पीने की परवाह करती, न अपने खाने-पीने की। जब गोबर उसे मारता, तो उसे ऐसा क्रोध आता कि गोबर का गला छुरे से रेत डाले। गर्भ ज्यों-ज्यों पूरा होता जाता है, उसकी चिन्ता बढ़ती जाती है। इस घर में तो उसकी मरन हो जायगी। कौन उसकी देखभाल करेगा, कौन उसे सँभालेगा? और जो गोबर इसी तरह मारता-पीटता रहा, तब तो उसका जीवन नरक ही हो जायगा। एक दिन वह बम्बे पर पानी भरने गयी, तो पड़ोस की एक स्त्री ने पूछा -- कै महीने का है रे? झुनिया ने लजाकर कहा -- क्या जाने दीदी, मैंने तो गिना-गिनाया नहीं है। दोहरी देह की, काली-कलूटी, नाटी, कुरूपा, बड़े-बड़े स्तनोंवाली स्त्री थी। उसका पति एक्का हाँकता था और वह ख़ुद लकड़ी की दूकान करती थी। झुनिया कई बार उसकी दूकान से लकड़ी लायी थी। इतना ही परिचय था। मुस्कराकर बोली -- मुझे तो जान पड़ता है, दिन पूरे हो गये हैं। आज ही कल में होगा। कोई दाई-वाई ठीक कर ली है? झुनिया ने भयातुर-स्वर में कहा -- मैं तो यहाँ किसी को नहीं जानती।
'तेरा मर्दुआ कैसा है, जो कान में तेल डाले बैठा है? '
'उन्हें मेरी क्या फ़िकर। '
'हाँ, देख तो रही हूँ। तुम तो सौर में बैठोगी, कोई करने-धरनेवाला चाहिए कि नहीं। सास-ननद, देवरानी-जेठानी, कोई है कि नहीं? किसी को बुला लेना था। '
'मेरे लिए सब मर गये। '
वह पानी लाकर जूठे बरतन माँजने लगी, तो प्रसव की शंका से हृदय में धड़कनें हो रही थीं। सोचने लगी -- कैसे क्या होगा भगवान्? ऊह! यही तो होगा मर जाऊँगी; अच्छा है, जंजाल से छूट जाऊँगी। शाम को उसके पेट में दर्द होने लगा। समझ गयी विपत्ति की घड़ी आ पहुँची। पेट को एक हाथ से पकड़े हुए पसीने से तर उसने चूल्हा जलाया, खिचड़ी डाली और दर्द से व्याकुल होकर वहीं ज़मीन पर लेट रही। कोई दस बजे रात को गोबर आया, ताड़ी की दुर्गन्ध उड़ाता हुआ। लटपटाती हुई ज़बान से ऊटपटाँग बक रहा था -- मुझे किसी की परवाह नहीं है। जिसे सौ दफ़े गरज हो रहे, नहीं चला जाय। मैं किसी का ताव नहीं सह सकता। अपने माँ-बाप का ताव नहीं सहा, जिसने जनम दिया। तब दूसरों का ताव क्यों सहूँ। जमादार आँखें दिखाता है। यहाँ किसी की धौंस सहनेवाले नहीं हैं। लोगों ने पकड़ न लिया होता, तो ख़ून पी जाता, ख़ून! कल देखूँगा बचा को। फाँसी ही तो होगी। दिखा दूँगा कि मर्द कैसे मरते हैं। हँसता हुआ अकड़ता हुआ, मूँछों पर ताव देता हुआ फाँसी के तख़्ते पर जाऊँ, तो सही। औरत की जात! कितनी बेवफ़ा होती है। खिचड़ी डाल दी और टाँग पसारकर सो रही। कोई खाय या न खाय, उसकी बला से। आप मज़े से फुलके उड़ाती है, मेरे लिए खिचड़ी! सता ले जितना सताते बने; तुझे भगवान् सतायेंगे जो न्याय करते हैं। उसने झुनिया को जगाया नहीं। कुछ बोला भी नहीं। चुपके से खिचड़ी थाली में निकाली और दो-चार कौर निगलकर बरामदे में लेट रहा। पिछले पहर उसे सर्दी लगी। कोठरी में कम्बल लेने गया तो झुनिया के कराहने की आवाज़ सुनी। नशा उतर चुका था। पूछा -- कैसा जी है झुनिया! कहीं दरद है क्या?
'हाँ, पेट में ज़ोर से दरद हो रहा है। '
'तूने पहले क्यों नहीं कहा। अब इस बखत कहाँ जाऊँ? '
'किससे कहती? '
'मैं क्या मर गया था? '
'तुम्हें मेरे मरने-जीने की क्या चिन्ता? '
गोबर घबराया, कहाँ दाई खोजने जाय? इस वक़्त वह आने ही क्यों लगी। घर में कुछ है भी तो नहीं, चुड़ैल ने पहले बता दिया होता तो किसी से दो-चार रुपए माँग लाता। इन्हीं हाथों में सौ-पचास रुपए हरदम पड़े रहते थे, चार आदमी ख़ुशामद करते थे। इस कुलच्छनी के आते ही जैसे लक्ष्मी रूठ गयी। टके-टके को मुहताज हो गया।
सहसा किसी ने पुकारा -- यह क्या तुम्हारी घरवाली कराह रही है? दरद तो नहीं हो रहा है?
यह वही मोटी औरत थी जिससे आज झुनिया की बातचीत हुई थी, घोड़े को दाना खिलाने उठी थी। झुनिया का कराहना सुनकर पूछने आ गयी थी। गोबर ने बरामदे में जाकर कहा -- पेट में दर्द है। छटपटा रही है। यहाँ कोई दाई मिलेगी?
'वह तो मैं आज उसे देखकर ही समझ गयी थी। दाई कच्ची सराय में रहती है। लपककर बुला लाओ। कहना, जल्दी चल। तब तक मैं यहीं बैठी हूँ। '
'मैंने तो कच्ची सराय नहीं देखी, किधर है? '
'अच्छा तुम उसे पंखा झलते रहो, मैं बुलाये लाती हूँ। यही कहते हैं, अनाड़ी आदमी किसी काम का नहीं। पूरा पेट और दाई की ख़बर नहीं। '
यह कहती हुई वह चल दी। इसके मुँह पर तो लोग इसे चुहिया कहते हैं, यही इसका नाम था; लेकिन पीठ पीछे मोटल्ली कहा करते थे। किसी को मोटल्ली कहते सुन लेती थी, तो उसके सात पुरखों तक चढ़ जाती थी।
गोबर को बैठे दस मिनट भी न हुए होंगे कि वह लौट आयी और बोली -- अब संसार में ग़रीबों का कैसे निबाह होगा! राँड़ कहती है, पाँच रुपए लूँगी -- तब चलूँगी। और आठ आने रोज़। बारहवें दिन एक साड़ी। मैंने कहा तेरा मुँह झुलस दूँ। तू जा चूल्हे में! मैं देख लूँगी। बारह बच्चों की माँ यों ही नहीं हो गयी हूँ। तुम बाहर आ जाओ गोबरधन, मैं सब कर लूँगी। बखत पड़ने पर आदमी ही आदमी के काम आता है। चार बच्चे जना लिए तो दाई बन बैठी!
वह झुनिया के पास जा बैठी और उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर उसका पेट सहलाती हुई बोली -- मैं तो आज तुझे देखते ही समझ गयी थी। सच पूछो, तो इसी धड़के में आज मुझे नींद नहीं आयी। यहाँ तेरा कौन सगा बैठा है।
झुनिया ने दर्द से दाँत जमाकर ' सी ' करते हुए कहा -- अब न बचूँगी दीदी! हाय! मैं तो भगवान् से माँगने न गयी थी। एक को पाला-पोसा। उसे तुमने छीन लिया, तो फिर इसका कौन काम था। मैं मर जाऊँ माता, तो तुम बच्चे पर दया करना। उसे पाल-पोस लेना। भगवान् तुम्हारा भला करेंगे।
चुहिया स्नेह से उसके केश सुलझाती हुई बोली -- धीरज धर बेटी, धीरज धर। अभी छन-भर में कष्ट कटा जाता है। तूने भी तो जैसे चुप्पी साध ली थी। इसमें किस बात की लाज! मुझसे बता दिया होता, तो मैं मौलवी साहब के पास से तावीज़ ला देती। वही मिरज़ाजी जो इस हाते में रहते हैं।
इसके बाद झुनिया को कुछ होश न रहा। नौ बजे सुबह उसे होश आया, तो उसने देखा, चुहिया शिशु को लिए बैठी है और वह साफ़ साड़ी पहने लेटी हुई है। ऐसी कमज़ोरी थी, मानो देह में रक्त का नाम न हो। चुहिया रोज़ सबेरे आकर झुनिया के लिए हरीरा और हलवा पका जाती और दिन में भी कई बार आकर बच्चे को उबटन मल जाती और ऊपर से दूध पिला जाती। आज चौथा दिन था; पर झुनिया के स्तनों में दूध न उतरा था। शिशु रो-रोकर गला फाड़े लेता था; क्योंकि ऊपर का दूध उसे पचता न था। एक छन को भी चुप न होता था। चुहिया अपना स्तन उसके मुँह में देती। बच्चा एक क्षण चूसता; पर जब दूध न निकलता, तो फिर चीख़ने लगता।
जब चौथे दिन साँझ तक भी झुनिया के दूध न उतरा, तो चुहिया घबरायी। बच्चा सूखता चला जाता था। नख़ास पर एक पेंशनर डाक्टर रहने थे। चुहिया उन्हें ले आयी। डाक्टर ने देख-भाल कर कहा -- इसकी देह में ख़ून तो है ही नहीं, दूध कहाँ से आये। समस्या जटिल हो गयी। देह में ख़ून लाने के लिए महीनों पुष्टिकारक दवाएँ खानी पड़ेंगी, तब कहीं दूध उतरेगा। तब तक तो इस मांस के लोथड़े का ही काम तमाम हो जायगा।
पर रात हो गयी थी। गोबर ताड़ी पिये ओसारे में पड़ा था। चुहिया बच्चे को चुप कराने के लिए उसके मुँह में अपनी छाती डाले हुए थी कि सहसा उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसकी छाती में दूध आ गया है। प्रसन्न होकर बोली -- ले झुनिया, अब तेरा बच्चा जी जायगा, मेरे दूध आ गया।
झुनिया ने चकित होकर कहा -- तुम्हें दूध आ गया?
'नहीं री, सच! '
'मैं तो नहीं पतियाती। '
'देख ले! '
उसने अपना स्तन दबाकर दिखाया। दूध की धार फूट निकली। झुनिया ने पूछा -- तुम्हारी छोटी बिटिया तो आठ साल से कम की नहीं है!
'हाँ, आठवाँ है; लेकिन मुझे दूध बहुत होता था। '
'इधर तो तुम्हें कोई बाल-बच्चा नहीं हुआ। '
'वही लड़की पेट-पोछनी थी। छाती बिलकुल सूख गयी थी; लेकिन भगवान् की लीला है, और क्या? '
अब से चुहिया चार-पाँच बार आकर बच्चे को दूध पिला जाती। बच्चा पैदा तो हुआ था दुर्बल, लेकिन चुहिया का स्वस्थ दूध पीकर गदराया जाता था। एक दिन चुहिया नदी स्नान करने चली गयी। बच्चा भूख के मारे छटपटाने लगा। चुहिया दस बजे लौटी, तो झुनिया बच्चे को कन्धे से लगाये झुला रही थी और बच्चा रोये जाता था। चुहिया ने बच्चे को उसकी गोद से लेकर दूध पिला देना चाहा; पर झुनिया ने उसे झिड़ककर कहा -- रहने दो। अभागा मर जाय, वही अच्छा। किसी का एहसान तो न लेना पड़ेगा।
चुहिया गिड़गिड़ाने लगी। झुनिया ने बड़े अदरावन के बाद बच्चा उसकी गोद में दिया। लेकिन झुनिया और गोबर में अब भी न पटती थी। झुनिया के मन में बैठ गया था कि यह पक्का मतलबी, बेदर्द आदमी है; मुझे केवल भोग की वस्तु समझता है। चाहे मैं मरूँ या जिऊँ; उसकी इच्छा पूरी किये जाऊँ, उसे बिलकुल ग़म नहीं। सोचता होगा, यह मर जायगी, तो दूसरी लाऊँगा; लेकिन मुँह धो रखें बच्चू। मैं ही ऐसी अल्हड़ थी कि तुम्हारे फन्दे में आ गयी। तब तो पैरों पर सिर रखे देता था। यहाँ आते ही न जाने क्यों जैसे इसका मिज़ाज ही बदल गया। जाड़ा आ गया था; पर न ओढ़न, न बिछावन। रोटी-दाल से जो दो-चार रुपए बचते, ताड़ी में उड़ जाते थे। एक पुराना लिहाफ़ था। दोनों उसी में सोते थे; लेकिन फिर भी उनमें सौ कोस का अन्तर था। दोनों एक ही करवट में रात काट देते। गोबर का जी शिशु को गोद में लेकर खेलाने के लिए तरसकर रह जाता था। कभी-कभी वह रात को उठाकर उसका प्यारा मुखड़ा देख लिया करता; लेकिन झुनिया की ओर से उसका मन खिंचता था। झुनिया भी उससे बात न करती, न उसकी कुछ सेवा ही करती और दोनों के बीच में यह मालिन्य समय के साथ लोहे के मोचेर् की भाँति गहरा, दृढ़ और कठोर होता जाता था। दोनों एक दूसरे की बातों का उलटा ही अर्थ निकालते, वही जिससे आपस का द्वेष और भड़के। और कई दिनों तक एक-एक वाक्य को मन में पाले रहते और उसे अपना रक्त पिला-पिलाकर एक दूसरे पर झपट पड़ने के लिए तैयार करते रहते, जैसे शिकारी कुत्ते हों।
उधर गोबर के कारख़ाने में भी आये दिन एक-न-एक हंगामा उठता रहता था। अबकी बजट में शक्कर पर डयूटी लगी थी। मिल के मालिकों को मजूरी घटाने का अच्छा बहाना मिल गया। डयूटी से अगर पाँच की हानि थी, तो मजूरी घटा देने से दस का लाभ था। इधर महीनों से इस मिल में भी यही मसला छिड़ा हुआ था। मजूरों का संघ हड़ताल करने को तैयार बैठा हुआ था। इधर मजूरी घटी और उधर हड़ताल हुई। उसे मजूरी में धेले की कटौती भी स्वीकार न थी। जब इस तेज़ी के दिनों में मजूरी में एक धेले की भी बढ़ती नहीं हुई, तो अब वह घाटे में क्यों साथ दे!
मिरज़ा खुर्शेद संघ के सभापति और पण्डित ओंकारनाथ, ' बिजली ' -सम्पादक, मन्त्री थे। दोनों ऐसी हड़ताल कराने पर तुले हुए थे कि मिल-मालिकों को कुछ दिन याद रहे। मजूरों को भी हड़ताल से क्षति पहुँचेगी, यहाँ तक कि हज़ारों आदमी रोटियों को भी मुहताज हो जायँगे, इस पहलू की ओर उनकी निगाह बिलकुल न थी। और गोबर हड़तालियों में सबसे आगे था। उद्दंड स्वभाव का था ही, ललकारने की ज़रूरत थी। फिर वह मारने-मरने को न डरता था।
एक दिन झुनिया ने उसे जी कड़ा करके समझाया भी -- तुम बाल-बच्चेवाले आदमी हो, तुम्हारा इस तरह आग में कूदना अच्छा नहीं।
इस पर गोबर बिगड़ उठा -- तू कौन होती है मेरे बीच में बोलनेवाली ? मैं तुझसे सलाह नहीं पूछता।
बात बढ़ गयी और गोबर ने झुनिया को ख़ूब पीटा। चुहिया ने आकर झुनिया को छुड़ाया और गोबर को डाँटने लगी। गोबर के सिर पर शैतान सवार था। लाल-लाल आँखें निकालकर बोला -- तुम मेरे घर में मत आया करो चूहा, तुम्हारे आने का कुछ काम नहीं।
चुहिया ने व्यंग के साथ कहा -- तुम्हारे घर में न आऊँगी, तो मेरी रोटियाँ कैसे चलेंगी। यहीं से माँग-जाँचकर ले जाती हूँ, तब तवा गर्म होता है। मैं न होती लाला, तो यह बीबी आज तुम्हारी लातें खाने के लिए बैठी न होती।
गोबर घूँसा तानकर बोला -- मैनै कह दिया, मेरे घर में न आया करो। तुम्हीं ने इस चुड़ैल का मिज़ाज आसमान पर चढ़ा दिया है।
चुहिया वहीं डटी हुई निःशंक खड़ी थी, बोली -- अच्छा अब चुप रहना गोबर! बेचारी अधमरी लड़कोरी औरत को मारकर तुमने कोई बड़ी जवाँमदीर् का काम नहीं किया है। तुम उसके लिए क्या करते हो कि तुम्हारी मार सहे? एक रोटी खिला देते हो इसलिए? अपने भाग बखानो कि ऐसी गऊ औरत पा गये हो। दूसरी होती, तो तुम्हारे मुँह में झाड़ू मारकर निकल गई होती।
मुहल्ले के लोग जमा हो गये और चारों ओर से गोबर पर फटकारें पड़ने लगीं। वही लोग, जो अपने घरों में अपनी स्त्रियों को रोज़ पीटते थे, इस वक़्त न्याय और दया के पुतले बने हुए थे। चुहिया और शेर हो गयी और फ़रियाद करने लगी -- डाढ़ीजार कहता है मेरे घर न आया करो। बीबी-बच्चा रखने चला है, यह नहीं जानता कि बीबी-बच्चों का पालना बड़े गुर्दे का काम है। इससे पूछो, मैं न होती तो आज यह बच्चा जो बछड़े की तरह कुलेलें कर रहा है, कहाँ होता? औरत को मारकर जवानी दिखाता है। मैं न हुई तेरी बीबी, नहीं यही जूती उठाकर मुँह पर तड़ातड़ जमाती और कोठरी में ढकेलकर बाहर से किवाड़ बन्द कर देती। दाने को तरस जाते।
गोबर झल्लाया हुआ अपने काम पर चला गया। चुहिया औरत न होकर मर्द होती, तो मज़ा चखा देता। औरत के मुँह क्या लगे।
मिल में असन्तोष के बादल घने होते जा रहे थे। मज़दूर ' बिजली ' की प्रतियाँ जेब में लिये फिरते और ज़रा भी अवकाश पाते, तो दो-तीन मज़दूर मिलकर उसे पढ़ने लगते। पत्र की बिक्री ख़ूब बढ़ रही थी। मज़दूरों के नेता ' बिजली ' कायार्लय में आधी रात तक बैठे हड़ताल की स्कीमें बनाया करते और प्रातःकाल जब पत्र में यह समाचार मोटे-मोटे अक्षरों में छपता, तो जनता टूट पड़ती और पत्र की कापियाँ दूने-तिगुने दाम पर बिक जातीं।
उधर कम्पनी के डायरेक्टर भी अपनी घात में बैठे हुए थे। हड़ताल हो जाने में ही उनका हित था। आदमियों की कमी तो है नहीं। बेकारी बढ़ी हुई है; इसके आधे वेतन पर ऐसे ही आदमी आसानी से मिल सकते हैं। माल की तैयारी में एकदम आधी बचत हो जायगी। दस-पाँच दिन काम का हरज़ होगा, कुछ परवाह नहीं। आख़िर यह निश्चय हो गया कि मज़ूरी में कमी का ऐलान कर दिया जाय। दिन और समय नियत कर दिया गया, पुलिस को सूचना दे दी गयी। मजूरों को कानोंकान ख़बर न थी। वे अपनी घात में थे। उसी वक़्त हड़ताल करना चाहते थे; जब गोदाम में बहुत थोड़ा माल रह जाय और माँग की तेज़ी हो।
एकाएक एक दिन जब मजूर लोग शाम को छुट्टी पाकर चलने लगे, तो डायरेक्टरों का ऐलान सुना दिया गया। उसी वक़्त पुलिस आ गयी। मजूरों को अपनी इच्छा के विरुद्ध उसी वक़्त हड़ताल करनी पड़ी, जब गोदाम में इतना माल भरा हुआ था कि बहुत तेज़ माँग होने पर भी छः महीने से पहले न उठ सकता था।
मिरज़ा खुर्शेद ने यह ख़बर सुनी, तो मुस्कराये, जैसे कोई मनस्वी योद्धा अपने शत्रु के रण-कौशल पर मुग्ध हो गया हो। एक क्षण विचारों में डूबे रहने के बाद बोले -- अच्छी बात है। अगर डायरेक्टरों की यही इच्छा है, तो यही सही। हालतें उनके मुआफ़िक़ हैं; लेकिन हमें न्याय का बल है। वह लोग नये आदमी रखकर अपना काम चलाना चाहते हैं। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि उन्हें एक भी नया आदमी न मिले। यही हमारी फ़तह होगी। ' बिजली ' -कायार्लय में उसी वक़्त ख़तरे की मीटिंग हुई, कार्य-कारिणी समिति का भी संगठन हुआ, पदाधिकारियों का चुनाव हुआ और आठ बजे रात को मजूरों का लम्बा जुलूस निकला।
दस बजे रात को कल का सारा प्रोग्राम तय किया गया और यह ताकीद कर दी गयी कि किसी तरह का दंगा-फ़साद न होने पाये। मगर सारी कोशिश बेकार हुई। हड़तालियों ने नये मजूरों का टिड्डी-दल मिल के द्वार पर खड़ा देखा, तो इनकी हिंसा-वृत्ति क़ाबू के बाहर हो गयी। सोचा था, सौ-सौ पचास-पचास आदमी रोज़ भर्ती के लिए आयेंगे। उन्हें समझा-बुझाकर या धमका कर भगा देंगे। हड़तालियों की संख्या देखकर नये लोग आप ही भयभीत हो जायँगे, मगर यहाँ तो नक्शा ही कुछ और था; अगर यह सारे आदमी भर्ती हो गये, हड़तालियों के लिए समझौते की कोई आशा ही न थी। तय हुआ कि नये आदमियों को मिल में जाने ही न दिया जाये। बल-प्रयोग के सिवा और कोई उपाय न था। नया दल भी लड़ने-मरने पर तैयार था। उनमें अधिकांश ऐसे भुखमरे थे, जो इस अवसर को किसी तरह भी न छोड़ना चाहते थे। भूखों मर जाने से या अपने बाल-बच्चों को भूखों मरते देखने से तो यह कहीं अच्छा था कि इस परिस्थिति से लड़कर मरें।
दोनों दलों में फ़ौजदारी हो गयी। ' बिजली ' -सम्पादक तो भाग खड़े हुए, बेचारे मिरज़ाजी पिट गये और उनकी रक्षा करते हुए गोबर भी बुरी तरह घायल हो गया। मिरज़ाजी पहलवान आदमी थे और मँजे हुए फिकैत, अपने ऊपर कोई गहरा वार न पड़ने दिया। गोबर गँवार था। पूरा लट्ठ मारना जानता था; पर अपनी रक्षा करना न जानता था, जो लड़ाई में मारने से ज़्यादा महत्व की बात है। उसके एक हाथ की हड्डी टूट गयी, सिर खुल गया और अन्त में वह वहीं ढेर हो गया। कन्धों पर अनगिनती लाठियाँ पड़ी थीं, जिससे उसका एक-एक अंग चूर हो गया था।
हड़तालियों ने उसे गिरते देखा, तो भाग खड़े हुए। केवल दस-बारह जँचे हुए आदमी मिरज़ा को घेरकर खड़े रहे। नये आदमी विजय-पताका उड़ाते हुए मिल में दाख़िल हुए और पराजित हड़ताली अपने हताहतों को उठा-उठाकर अस्पताल पहुँचाने लगे; मगर अस्पताल में इतने आदमियों के लिए जगह न थी। मिरज़ाजी तो ले लिये गये। गोबर की मरहम-पट्टी करके उसके घर पहुँचा दिया गया।
झुनिया ने गोबर की वह चेष्टाहीन लोथ देखी तो उसका नारीत्व जाग उठा। अब तक उसने उसे सबल के रूप में देखा था, जो उस पर शासन करता था, डाँटता था, मारता था। आज वह अपंग था, निस्सहाय था, दयनीय था। झुनिया ने खाट पर झुककर आँसू भरी आँखों से गोबर को देखा और घर की दशा का ख़याल करके उसे गोबर पर एक ईष्यार्मय क्रोध आया। गोबर जानता था कि घर में एक पैसा नहीं है वह यह भी जानता था कि कहीं से एक पैसा मिलने की आशा नहीं है। यह जानते हुए भी, उसके बार-बार समझाने पर भी, उसने यह विपत्ति अपने ऊपर ली। उसने कितनी बार कहा था -- तुम इस झगड़े में न पड़ो, आग लगाने वाले आग लगाकर अलग हो जायँगे, जायगी ग़रीबों के सिर; लेकिन वह कब उसकी सुनने लगा था। वह तो उसकी बैरिन थी। मित्र तो वह लोग थे, जो अब मज़े से मोटरों में घूम रहे हैं। उस क्रोध में एक प्रकार की तुष्टि थी, जैसे हम उन बच्चों को कुरसी से गिर पड़ते देखकर, जो बार-बार मना करने पर खड़े होने से बाज़ न आते थे, चिल्ला उठते हैं -- अच्छा हुआ, बहुत अच्छा, तुम्हारा सिर क्यों न दो हो गया।
लेकिन एक ही क्षण में गोबर का करुण-क्रन्दन सुनकर उसकी सारी संज्ञा सिहर उठी। व्यथा में डूबे हुए यह शब्द उसके मुँह से निकले -- हाय-हाय! सारी देह भुरकस हो गयी। सबों को तनिक भी दया न आयी। वह उसी तरह बड़ी देर तक गोबर का मुँह देखती रही। वह क्षीण होती हुई आशा से जीवन का कोई लक्षण पा लेना चाहती थी। और प्रति-क्षण उसका धैर्य अस्त होने वाले सूर्य की भाँति डूबता जाता था, और भविष्य का अन्धकार उसे अपने अन्दर समेट लेता था।
सहसा चुहिया ने आकर पुकारा -- गोबर का क्या हाल है, बहू! मैने तो अभी सुना। दूकान से दौड़ी आयी हूँ। झुनिया के रुके हुए आँसू उबल पड़े; कुछ बोल न सकी। भयभीत आँखों से चुहिया की ओर देखा। चुहिया ने गोबर का मुँह देखा, उसकी छाती पर हाथ रखा, और आश्वासन भरे स्वर में बोली -- यह चार दिन में अच्छे हो जायँगे। घबड़ा मत। कुशल हुई। तेरा सोहाग बलवान था। कई आदमी उसी दंगे में मर गये। घर में कुछ रुपए-पैसे हैं?
झुनिया ने लज्जा से सिर हिला दिया।
'मैं लाये देती हूँ। थोड़ा-सा दूध लाकर गर्म कर ले। '
झुनिया ने उसके पाँव पकड़कर कहा -- दीदी, तुम्ही मेरी माता हो। मेरा दूसरा कोई नहीं है।
जाड़ों की उदास सन्ध्या आज और भी उदास मालूम हो रही थी। झुनिया ने चूल्हा जलाया और दूध उबालने लगी। चुहिया बरामदे में बच्चे को लिये खिला रही थी। सहसा झुनिया भारी कंठ से बोली -- मैं बड़ी अभागिन हूँ दीदी। मेरे मन में ऐसा आ रहा है, जैसे मेरे ही कारन इनकी यह दशा हुई है। जी कुढ़ता है, तब मन दुखी होता ही है, फिर गालियाँ भी निकलती हैं, सराप भी निकलता है। कौन जाने मेरी गालियों ... इसके आगे वह कुछ न कह सकी। आवाज़ आँसुओं के रेले में बह गयी।
चुहिया ने अंचल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा -- कैसी बातें सोचती है बेटी! यह तेरे सिन्दूर का भाग है कि यह बच गये। मगर हाँ, इतना है कि आपस में लड़ाई हो, तो मुँह से चाहे जितना बक ले, मन में कीना न पाले। बीज अन्दर पड़ा, तो अँखुआ निकले बिना नहीं रहता।
झुनिया ने कम्पन-भरे स्वर में पूछा -- अब मैं क्या करूँ दीदी?
चुहिया ने ढाढ़स दिया -- कुछ नहीं बेटी! भगवान् का नाम ले। वही ग़रीबों की रक्षा करते हैं।
उसी समय गोबर ने आँखें खोलीं और झुनिया को सामने देखकर याचना भाव से क्षीण-स्वर में बोला -- आज बहुत चोट खा गया झुनिया! मैं किसी से कुछ नहीं बोला। सबों ने अनायास मुझे मारा। कहा-सुना माफ़ कर! तुझे सताया था, उसी का यह फल मिला। थोड़ी देर का और मेहमान हूँ। अब न बचूँगा। मारे दरद के सारी देह फटी जाती है।
चुहिया ने अन्दर आकर कहा -- चुपचाप पड़े रहो। बोलो-चालो नहीं। मरोगे नहीं, इसका मेरा जुम्मा।
गोबर के मुख पर आशा की रेखा झलक पड़ी। बोला -- सच कहती हो, मैं मरूँगा नहीं?
'हाँ, नहीं मरोगे। तुम्हें हुआ क्या है? ज़रा सिर में चोट आ गयी है और हाथ की हड्डी उतर गयी है। ऐसी चोटें मरदों को रोज़ ही लगा करती हैं। इन चोटों से कोई नहीं मरता। '
'अब मैं झुनिया को कभी न मारूँगा। '
'डरते होगे कि कहीं झुनिया तुम्हें न मारे। '
'वह मारेगी भी, तो न बोलूँगा। '
'अच्छा होने पर भूल जाओगे। '
'नहीं दीदी, कभी न भूलूँगा। '
गोबर इस समय बच्चों की-सी बातें किया करता। दस-पाँच मिनट अचेत-सा पड़ा रहता। उसका मन न जाने कहाँ-कहाँ उड़ता फिरता। कभी देखता, वह नदी में डूबा जा रहा है, और झुनिया उसे बचाने के लिए नदी में चली आ रही है। कभी देखता, कोई दैत्य उसकी छाती पर सवार है और झुनिया की शकल की कोई देवी उसकी रक्षा कर रही है। और बार-बार चौंककर पूछता -- मैं मरूँगा तो नहीं झुनिया?
तीन दिन उसकी यही दशा रही और झुनिया ने रात को जागकर और दिन को उसके सामने खड़े रहकर जैसे मौत से उसकी रक्षा की। बच्चे को चुहिया सँभाले रहती। चौथे दिन झुनिया एक्का लाई और सबों ने गोबर को उस पर लादकर अस्पताल पहुँचाया। वहाँ से लौटकर गोबर को मालूम हुआ कि अब वह सचमुच बच जायगा। उसने आँखों में आँसू भरकर कहा -- मुझे क्षमा कर दो झुन्ना! इन तीन-चार दिनों में चुहिया के तीन-चार रुपए ख़र्च हो गये थे, और अब झुनिया को उससे कुछ लेते संकोच होता था। वह भी कोई मालदार तो थी नहीं। लकड़ी की बिक्री के रुपए झुनिया को दे देती।
आख़िर झुनिया ने कुछ काम करने का विचार किया। अभी गोबर को अच्छे होने में महीनों लगेंगे। खाने-पीने को भी चाहिए, दवा-दारू को भी चाहिए। वह कुछ काम करके खाने-भर को तो ले ही आयेगी। बचपन से उसने गउओं का पालन और घास छीलना सीखा था। यहाँ गउएँ कहाँ थीं; हाँ वह घास छील सकती थी। मुहल्ले के कितने ही स्त्री-पुरुष बराबर शहर के बाहर घास छीलने जाते थे, और आठ-दस आने कमा लेते थे। वह प्रातःकाल गोबर को हाथ-मुँह धुलाकर और बच्चे को उसे सौंपकर घास छीलने निकल जाती और तीसरे पहर तक भूखी-प्यासी घास छीलती रहती। फिर उसे मंडी में ले जाकर बेचती और शाम को घर आती। रात को भी वह गोबर की नींद सोती और गोबर की नींद जागती; मगर इतना कठोर श्रम करने पर भी उसका मन ऐसा प्रसन्न रहता, मानो झूले पर बैठी गा रही है; रास्ते-भर साथ की स्त्रियों और पुरुषों से चुहल और विनोद करती जाती। घास छीलते समय भी सबों में हँसी-दिल्लगी होती रहती। न क़िस्मत का रोना, न मुसीबत का गिला। जीवन की सार्थकता में, अपनों के लिए कठिन से कठिन त्याग में, और स्वाधीन सेवा में जो उल्लास है, उसकी ज्योति एक-एक अंग पर चमकती रहती। बच्चा अपने पैरों पर खड़ा होकर जैसे तालियाँ बजा-बजाकर ख़ुश होता है, उसी का वह अनुभव कर रही थी; मानो उसके प्राणों में आनन्द का कोई सोता खुल गया हो। और मन स्वस्थ हो, तो देह कैसे अस्वस्थ रहे! उस एक महीने में जैसे उसका कायाकल्प हो गया हो। उसके अंगों में अब शिथिलता नहीं, चपलता है, लचक है, और सुकुमारता है। मुख पर वह पीलापन नहीं रहा, ख़ून की गुलाबी चमक है। उसका यौवन जो बन्द कोठरी में पड़े-पड़े अपमान और कलह से कुंठित हो गया था, वह मानो ताज़ी हवा और प्रकाश पाकर लहलहा उठा है। अब उसे किसी बात पर क्रोध नहीं आता। बच्चे के ज़रा-सा रोने पर जो वह झुँझला उठा करती थी, अब जैसे उसके धैर्य और प्रेम का अन्त ही न था।
इसके ख़िलाफ़ गोबर अच्छा होते जाने पर भी कुछ उदास रहता था। जब हम अपने किसी प्रियजन पर अत्याचार करते हैं, और जब विपत्ति आ पड़ने से हममें इतनी शक्ति आ जाती है कि उसकी तीव्र व्यथा का अनुभव करें, तो उससे हमारी आत्मा में जागृति का उदय हो जाता है, और हम उस बेजा व्यवहार का प्रायश्चित करने के लिए तैयार हो जाते हैं। गोबर वही प्रायश्चित के लिए व्याकुल हो रहा था। अब उसके जीवन का रूप बिलकुल दूसरा होगा, जिसमें कटुता की जगह मृदुता होगी, अभिमान की जगह नम्रता। उसे अब ज्ञात हुआ कि सेवा करने का अवसर बड़े सौभाग्य से मिलता है, और वह इस अवसर को कभी न भूलेगा।
गोदान ( Godan ) - मुंशी प्रेमचंद | (अध्याय 28 - 36)
गोदान ( Godan ) - मुंशी प्रेमचंद | (अध्याय 10 - 18)
मुंशी प्रेमचंद की कहानियां
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